सन्नाटा

सन्नाटा

आज कई दिनों के बाद वे घर से निकली थीं, छोटी रूमी बार-बार बिस्तर पर चढ़कर उन्हें खींच रही थी। वे समझ गई थीं कि उसका मन है कि वे उसे कहीं बाहर घुमाने ले जाएँ। न चाहते हुए भी वे उठीं, पहले सोचा कि कपडे़ बदल लें, क्योंकि पूरे दिन लेटे-बैठे साड़ी मुस जाती है, बाल बिखर जाते हैं, उन्हें ठीक कर लें, लेकिन यों ही हाथों से बाल ठीक किए और रूमी की जंजीर पकड़कर सड़क पर आ गईं। गली में सन्नाटा छाया था। तीन-साढे़ तीन का समय रहा होगा, धूप अभी काफी तेज थी। अंदर ए.सी. चलने और खिड़की-दरवाजे बंद होने के कारण बाहर आते ही उनकी आँखें चुँधियाँ गईं। बाहर लू चल रही थी। आँखों को हाथ से मलते हुए उन्होंने अपने आपको थोड़ा सँभाला और रूमी को लेकर आगे बढ़ीं तो सिन्हा साहब का घर पूरी तरह से बंद देखकर उन्हें धक्का-सा लगा। अब पूरी लेन में तीन-चार ही घर थे, जहाँ थोड़ी रौनक होती थी, बाकी सब तो जैसे उजाड़ हो गया था। वे थोड़ा रुक गईं तो रूमी ने खींचना-कूदना शुरू कर दिया, लेकिन उनका आगे जाने का मन नहीं हो रहा था, वातावरण की उदासी उनके मन में भी उतर चुकी थी। समय भी ऐसा था कि कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था, इसलिए वे रूमी को थोड़ा घुमाकर वापस आ गईं।

बड़ौदा के बडे़ पॉश इलाके में उनका बड़ा सा बँगला था। बरांडा में आर्मचेयर पर बैठकर वे जाने कहाँ खो गईं! बडे़-बडे़ शहरों में बहुत पैसेवालों को भी ऐसे बँगले नसीब से ही मिल पाते हैं। घर के तीन तरफ बड़ा सा बगीचा, जिसमें बडे़-बडे़ पेड़—आम, अमरूद, नीबू और नारियल के दो पेड़ मानो आकाश से बात करते हुए, उनपर से चढ़ती हुई आँखें आकाश में कुछ ढूँढ़ने लगीं। शायद समर सिंह को या बेटे गोल्डी को या पता नहीं किसको! तभी घर के पश्चिम की तरफ बने छोटे से सर्वेंट क्वार्टर से रंजीता बाहर निकल आई, ‘‘आंटी, आज आप रूमी को घुमाने ले गई थीं, मैं सोनू को सुलाकर बाहर आने ही वाली थी, मैं घुमा लाती।’’

‘‘अरे, कोई नहीं। यह कब से पीछे पड़ी थी तो सोचा कि मैं ही ले जाती हूँ। हो सके तो एक कप चाय बना दे।’’

‘‘हाँ जी, अभी बना देती हूँ।’’ कहकर रंजीता अंदर चली गई।

श्रीमती सरला सिंह फिर अपने आप में खो गईं। जब उन लोगों ने यहाँ घर बनवाया था, तब मुश्किल से तीन-चार घर ही बने थे। समर सिंह एक सरकारी उद्यम में मैनेजिंग डायरेक्टर थे और उन्हीं की कंपनी के कुछ लोगों ने मिलकर यह काफी बड़ी जगह किसी लैंड डीलर से ले ली थी। एक-दो बडे़ अफसरों ने पाँच हजार स्क्वायर फीट वाले प्लॉट लेकर अपने बँगले बनवाए थे और कुछ छोटे अफसरों ने बडे़ प्लॉट को आधा-आधा बाँटकर अपने घर बनाए थे। सबने मिलकर आर्किटेक्ट निश्चित किया और एक साथ कॉण्टे्रक्ट देकर घर बनवाए। देखते-ही-देखते मानो विश्वकर्मा ने छड़ी घुमा दी हो, पूरी कॉलोनी बस गई।

समर सिंह बडे़ अधिकारी थे, उनका दबदबा पूरे शहर में था। लोग उन्हें उनके स्वभाव के कारण जानते थे और उनका सम्मान करते थे। सरलाजी अफसर की पत्नियों की तरह बडे़ रोबदाब से रहती थीं। गोरा रंग, सुघड़ शरीर, बालों में कहीं थोड़ी चाँदी चमकने लगी थी, लेकिन बड़ी सुरुचि से बन-सँवरकर रहने के कारण उनका व्यक्तित्व और गौरवशाली लगता था। समर सिंह ऑफिस से प्रायः समय से आ जाया करते थे। कभी शाम चढ़ते मिलने-जुलनेवाले आ जाते या कभी दोनों अपने तीन पमेरियन को लेकर बाहर सैर के लिए निकलते तो पूरी लेन में सबको आवाज लगाकर छेड़-छेड़कर बातें करते। सबका हाल-चाल पूछकर घंटे-आधे घंटे में वापस आ जाते। बड़ी रौनक हुआ करती थी पूरी लेन में। काफी पढे़-लिखे एवं संपन्न लोगों की सोसाइटी थी। सबके बच्चे धीरे-धीरे बडे़ हो रहे थे। कोई इंजीनियरिंग कर रहे थे तो कोई मेडिकल की पढ़ाई। बच्चे आपस में मिलते तो पढ़ने-लिखने की बातें होतीं। आगे क्या करना है, किसको किस खेल में रुचि है, इन सबकी चर्चा होती, कभी कोई बकवास नहीं तथा किसी को कोई गलत लत नहीं थी। सुशिक्षित माता-पिता के संरक्षण में एक नई पौध विकसित हो रही थी।

रंजीता चाय लेकर आ गई थी, एक टे्र में कुछ बिस्कुट, नमकीन के साथ। सरलाजी ने पूछा, ‘‘अरे, अपने लिए चाय नहीं लाई?’’

‘‘नहीं आंटी, सोनू उठ गया है, मैं घर में ही पी लूँगी।’’

‘‘अच्छा-अच्छा, कोई नहीं।’’ कहकर चाय की चुस्कियों में डूब गईं। बीच-बीच में एक बिस्कुट उठाकर खा लेतीं, अब कुछ खाना-पीना, वह भी अकेले कहाँ अच्छा लगता है! चाय के कप में गोल्डी का चेहरा झलक आया। तीनों बच्चों में गोल्डी सबसे बड़ा था, उससे छोटी सुप्रिया और सबसे छोटा गौरव। गोल्डी का असली नाम गंभीर था, लेकिन प्यार से वे उसे गोल्डी पुकारते थे, क्योंकि उसके बाल सुनहरे से थे। पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज, स्कूल में हमेशा फर्स्ट, हॉकी का खिलाड़ी। उसकी टीम जहाँ खेलने जाती, विजयी होती।

धीरे-धीरे वह मेकैनिकल इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पहुँच गया। सुप्रिया भी आर्किटेक्चर की पढ़ाई कर रही थी और छोटा गौरव शर्मीला सा सिंह दंपती का लाड़ला था। पढ़ाई-लिखाई में लगा रहता और जब खाली होता तो माँ-पापा की गोद में आकर लेट जाता। बडे़ सुकून से जिंदगी बीत रही थी, जैसे कल-कल करता झरना अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा हो, तभी एक बड़ी चट्टान ने जैसे उसका मार्ग अवरुद्ध कर दिया। गोल्डी की चेतना ही जैसे उससे रूठ गई थी। घर में आते-जाते ऐसा लगता, मानो कोई उसका पैर पीछे को खींच रहा हो। गोल्डी का रिजल्ट आनेवाला था। सरलाजी को लगा, शायद उसकी वजह से परेशान होगा। बाहर लॉन में झूले पर बैठी थीं तो उसे खींचकर अपने पास बिठा लिया, ‘‘क्या बात है, बेटा! तनाव में क्यों है, न किसी से बोलता है, न बात करता है, कोई बात है तो मुझे बता!’’

‘‘नहीं माँ, कुछ भी तो नहीं है।’’

‘‘नहीं, कुछ तो है, कोई दवा तो नहीं लेता, कोई संगी-साथी, कोई रुपए-पैसे की परेशानी!’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है, आप नाहक परेशान होती हैं।’’

सरलाजी एक पढ़ी-लिखी महिला थीं, जागरूक! उन्हें लगा कोई गलत संगत में फँस गया होगा या कोई ड्रग्स वगैरह तो नहीं ले रहा। वे और अधिक सतर्क हो गईं। एक विश्वासपात्र पुराने सहायक को पीछे लगाकर पता लगवाया, लेकिन कुछ भी पता नहीं चला और एक दिन पूरे परिवार पर गाज गिरी। गोल्डी के दो दोस्त उसे बेहोशी की हालत में उठाकर घर लाए। डॉक्टर, हॉस्पिटल, सारी भाग-दौड़ सब बेकार, उन्होंने अपने बडे़ बेटे को खो दिया, जैसे अँधेरे में किसी ने घर में सेंध लगा दी हो और उनका सबकुछ लुट गया हो। थोड़े दिन मातम छाया रहा, रिश्तेदार आए-गए। लोग तरह-तरह की बातें करते, कोई लड़की-वड़की का चक्कर होगा, कुछ खा लिया होगा, कोई न बतानेवाली बीमारी होगी, बड़े लोगों का कुछ पता ही नहीं चलता। कानों-कानों से होती बातें सरलाजी के कानों तक आतीं, वे विह्वल हो जातीं, लेकिन यह तो संसार है, धीरे-धीरे समय सब घाव भर ही देता है।

इधर इस सोसाइटी में और घर बनते जा रहे थे। पूरी सोसाइटी में कुछ-न-कुछ कार्यक्रम होते। हर उम्र के बच्चे नाचते-गाते, आर्ट-क्राफ्ट की प्रतियोगिताएँ होतीं, कभी बच्चे बैडमिंटन खेलते या क्रिकेट खेलते। सिंह दंपती कुछ दिन अपने गम में डूबे रहकर बाहर निकलने लगे। सरलाजी को ऐसी सभी गतिविधियों में भाग लेने की रुचि थी। वे इन बच्चों के साथ शामिल होकर उन्हीं में अपने गोल्डी की छवि ढूँढ़ लेतीं। समरसिंह को वास्तुशास्त्र का अच्छा ज्ञान था और मकान वगैरह बनवाने में बड़ी रुचि थी। किसी का घर बन रहा होता तो उसमें घुस जाते, ‘अरे शाह साहब! आपने यह डाइनिंग स्पेस थोड़ा और बढ़ा दिया होता तो इसी में पूजाघर भी बन जाता और यह हॉल थोड़ा और बड़ा हो जाता! आप आर्किटेक्ट को बुला लो, मैं बात करता हूँ उससे।’

‘मिश्राजी! आपका यह गोल ड्राइंग रूम मुझे बहुत पसंद है, आपको गोष्ठी वगैरह करने का बड़ा शौक है, इसके किनारे-किनारे सीमेंट की गोलाकार पट्टी बनवाकर उसी पर गद्दियाँ और मसनद लगवा दो, मजा आ जाएगा। महँगा फर्नीचर बनवाने की जरूरत नहीं। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा।’ हलका-फुल्का स्वस्थ शरीर था उनका, कहीं भी चढ़ जाते, चार-पाँच मंजिल की सीढि़याँ चढ़ जाना उनका शौक था। टी.वी. पर विज्ञापन आते, डॉक्टरों की सलाह कि जहाँ तक हो सके लिफ्ट को छोड़कर सीढि़यों का उपयोग करें, यह बात उन्होंने गाँठ बाँध ली थी। हमेशा सक्रिय बने रहना, दूसरों की मदद करना, खाली समय में मानो यही उनकी हॉबी थी। सर्विस से रिटायर होने के बाद से वे अलग-अलग कामों में अपने आपको उलझाए रखते, खाली बैठना उनको बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।

बेटी सुप्रिया ने एम.आर्क. पूरा कर लिया तो अच्छा सा सुयोग्य वर देखकर उसकी शादी कर दी। शुरू-शुरू में वह दो-चार दिन के लिए आ जाती। उसका पति प्रायः कम ही आ पाता। उनके भी बच्चे हुए, दोनों अपने काम में व्यस्त होते गए और उनका आना भी बहुत कम हो गया। गौरव भी अपनी पढ़ाई में ज्यादा व्यस्त होता जा रहा था। इसलिए सिंह दंपती घर से बाहर मिलने-जुलनेवालों में अपना ज्यादा समय गुजारने लगे। तीनों पमेरियन आगे-पीछे लगे रहते। सुबह-शाम उनको बाहर ले ही जाना होता और उनकी प्यारी महीन भों-भों से पूरा मोहल्ला गुलजार रहता।

तभी श्रीमती सिंह को दूसरा बड़ा झटका लगा। समरसिंह एक दिन अपने एक मित्र विजय कुमार के साथ उसके ही किसी काम से गए थे, लिफ्ट में तो उन्हें जाना ही नहीं था। सातवीं मंजिल पर सीढ़ी से चढ़कर ऊपर पहुँचे तो एकदम हँफनी चढ़ गई, मित्र ने उन्हें कुरसी पर बिठाया, पानी पिलाया, लेकिन तभी सीने में तेज दर्द उठा, चक्कर आने लगा। मित्र ने कहा, ‘‘मैं डॉक्टर को बुलाता हूँ।’’

समरसिंह बहुत जल्दी में थे, वे गोल्डी की ओर हाथ बढ़ा चुके थे। हलका-फुल्का लोहे जैसा सख्त शरीर, सैर करना, हँसमुख मिजाज उन्हें बेटे के पास जाने से रोक नहीं सका। विजय कुमार किंकर्तव्यविमूढ़ अपनी कार में समरसिंह के पार्थिव शरीर को लेकर उस बँगले पर पहुँचे, जिसे समरसिंह ने सरलाजी के साथ मिलकर ‘घर’ बनाया था। सरलाजी का अर्द्धनारीश्वर ऐसे धोखा देकर चला जाएगा, उन्होंने कम-से-कम अभी तो नहीं सोचा था। वे पछाड़ खाकर उस मिट्टी हुए शरीर पर गिर पड़ीं।

अभी पिछले वर्ष ही तो गली के कोने पर बने मकान में रहनेवाले पुंजाणी साहब के साथ ऐसी ही दुर्घटना घटी थी। दोनों पति-पत्नी पूरे यात्रा-गु्रप के साथ केदारनाथ की यात्रा के लिए निकले थे। पहला पड़ाव मथुरा ही था, द्वारकाधीश के दर्शन करने के बाद जैसे ही टूरिस्ट बस में बैठे, दिल का दौरा पड़ा और मिनटों में सब खत्म हो गया। श्रीमती पुंजाणी ने बहुत हाथ-पैर जोड़कर टूर-ऑपरेटर से टैक्सी की व्यवस्था करवाई और मन पर हजार पत्थरों का बोझ लेकर अपने एक रिश्तेदार के साथ वापस लौटी थीं। दोनों बेटे बाहर नौकरी कर रहे थे। माँ को अकेली कैसे छोड़ देते। सारी अंतिम क्रिया पूरी करवाकर जबरदस्ती माँ को साथ ले गए। सजा-सजाया एक घर वीरान हो गया।

नाते-रिश्तेदार, जान-पहचानवाले सभी आए थे। बदहवास सी सरलाजी कुछ बोल नहीं पातीं, बस आँख उठाकर आनेवाले को देख लेतीं। बाहर सबकुछ सबने सँभाल लिया था। गौरव भी सबके साथ मिलकर स्थिति से निपटने का प्रयास कर रहा था, लेकिन सरलाजी का अंतर्तम कहीं सुनसान अँधेरी गुफाओं में भटक रहा था। क्या करें, किसके कंधे पर सिर टिकाकर थोड़ा सहारा ढूँढ़ लें? क्या हाथ-पैर पटककर इस रिक्तता के एहसास को दूर धकेला जा सकता था!

तीनों पमेरियनों ने आसमान सिर पर उठा रखा था। गौरव उन्हें बहलाने की कोशिश करने लगा। बड़ा-मँझला शेरू और गबरू तो धीरे-धीरे शांत हो गए, लेकिन रूमी जंजीर छुड़ाकर सरलाजी के पास जाकर इधर-उधर मुँह घुसेड़कर अपनी संवेदना जताने लगी। पड़ोसन मीनाक्षी बोलीं, ‘‘बेचारी भाई साहब को मिस कर रही है। दोनों मिलकर इनकी देखभाल करते थे, इन्हें घुमाने ले जाते थे, अब तो सरला को सब सँभालना पडे़गा।’’ सरलाजी को न चाहते हुए भी रूमी को अपने पास लेकर सहलाना पड़ा।

और पंद्रह दिनों में बाहर से सबकुछ सामान्य हो गया, रिश्तेदार चले गए। गौरव अपनी पढ़ाई में बहुत उलझा हुआ था। उसे तो यू.ए. जाने की लगी थी, बीच-बीच में आकर माँ के गले लिपट जाता, लेकिन सरलाजी के कमरे में बहुत कुछ बदल गया था। अपने डबल बेड पर बैठना भी मन को हिलाकर रख देता। छोटी भाभी आई थीं, वही इतने दिन उनके साथ लगी रहती थीं, वही समरसिंह की जुदाई के बाद उनके साथ सोती रहीं, लेकिन अब वे क्या करें? पलंग की दूसरी ओर हाथ फैला-फैलाकर समरसिंह को महसूस करने की कोशिश करतीं, लेकिन वहाँ दूर-दूर तक शून्य पसरा होता, निराश मन से रो पड़तीं; फिर रोते-रोते समरसिंह के साथ गुजारे वक्त को याद करके घंटों गुजर जाते।

फिर एक दिन ऐसा आया कि गौरव पढ़-लिखकर अमरीका चला गया। दो-चार दिन में फोन आ जाता, फिर उसने एक विदेशी युवती से शादी कर ली। न भाषा अपनी, न तौर-तरीका अपना। गौरव एमीलिया को मिलवाने लाया और चार-पाँच दिन में उसे वापस लेकर चला गया। अब भरे-पूरे घर में ठाठ से रहनेवाली सरलाजी एकदम अकेली थीं और तीन पमेरियन उनके साथी। आस-पास के बच्चे उनके कानों में जीवन की आवाज का एहसास दिलानेवाले थे। एक लड़की को आउट हाउस में रख लिया था, उसने शादी की, एक बच्चा भी हुआ, लेकिन सरलाजी के लिए वह भी बस सन्नाटे में गूँजती कुछ आवाजें थीं। वे स्वयं तो किसी गहरी गुफा में धँसकर खो चुकी थीं। समरसिंह ने स्वर्ण मंदिर साहब का एक बड़ा सा रेप्लिका अपने ड्राइंग-रूम में रखवाया था, उसी के आस-पास घूमतीं और अरदास करतीं। रोज का नहाना-धोना, खाना-पीना सबकुछ होता, लेकिन मशीनवत्, कहीं कोई हलचल नहीं, कोई धड़कन नहीं, जैसे सारी संवेदनाएँ ही समाप्त हो गई थीं। एक दिन ऐसे ही निर्विकार-निस्तेज सी घूम रही थीं, ठोकर खाकर ऐसी गिरीं कि पैर की हड्डी टूट गई। आस-पड़ोस के लोगों ने मदद की। अस्पताल ले जाकर प्लास्टर चढ़वा दिया और घर पहुँचा दिया। वही ‘घर’, जिसमें समरसिंह ‘सरदारनी’ को सिर-आँखों पर बैठाकर रखते थे। छत की ओर टकटकी लगाकर वे मन के बियाबान में अकेली ही भटक रही थीं। सुप्रिया आई, बड़ी नामी-गिरामी आर्किटेक्ट, छुट्टी लेकर आई थी, कितने दिन रुकती, बोली, ‘‘क्या बताऊँ माँ, आपको साथ ही ले चलती, लेकिन इस हालत में क्या करूँ। आप ठीक हो जाइए, फिर आप मेरे साथ ही रहिएगा।’’

सरलाजी ने बेटी के हाथ पर हाथ फेरते हुए उजड़ी आँखों से केवल देखा, कुछ बोल नहीं पाईं। बस आँखें गीली हो आईं। तीन-चार महीने कैसे बीते, वही जानती हैं। इस बीच कानों को जाने क्या हो गया, कुछ सुनाई ही नहीं देता। रंजीता अपना काम निपटाकर आउट हाउस में होती और कोई उनसे मिलने, उन्हें देखने आता तो उन्हें पमेरियन के भौंकने-शोर मचाने से पता चलता कि कोई आया है। बाहर का दरवाजा खुला रहता था, क्योंकि स्वयं तो अंदर कमरे में लेटी होतीं और बार-बार दरवाजा कौन खोले! वे अंदर से आवाज देतीं कि आ जाओ अंदर। कई बार सोचतीं कि भगवान् का शुक्र है कि ऐसी जगह हैं, जहाँ चोर-उचक्कों का डर नहीं है, वरना कोई मार-मूरकर चला जाए तो किसी को कानोकान खबर भी न हो। थोडे़ दिन पहले शेरू ने भी दम तोड़ दिया था, आखिर उसकी भी उम्र हो गई थी। इसके अलावा उसे भी तो प्यार से हाथ फेरनेवाले समरसिंह का अभाव और रोजाना सैर करवानेवाली माँ जैसी मालकिन का अनबोला-अनमना व्यवहार रास नहीं आ रहा था। सरलाजी के लिए कूँ-कूँ करती एक आवाज और कम हो गई, अब वे कुछ अधिक अंदर सिमट गईं।

गौरव काफी समय बाद आया है। माँ के फ्रैक्चर का हाल सुनकर भी नहीं आ पाया था। बहन सुप्रिया को फोन पर अपनी विवशता बता दी थी कि उसकी पत्नी पाँच महीने की गर्भवती है, प्लास्टर खुलने पर माँ को ले जाएगा। अब तक सरलाजी चलने-फिरने लगी थीं, वह गौरव के साथ अमरीका चली गईं। बेटे के घर बेटा हुआ था, फड़फड़ाते दीये की लौ में थोड़ी जान तो आई, लेकिन विदेश का रहन-सहन, बच्चे की देखभाल के नए तौर-तरीके उन्हें कुछ अटपटा लगता। जब तक गौरव की पत्नी मेटरनिटी लीव पर घर में रही, वह सब देखती रहीं, लेकिन जब उसने काम पर जाना शुरू किया तो उन्हें घर-बार, बच्चे की देखभाल, खाना-पीना सब एक बोझ सा लगता। इतना बड़ा फ्रिज! ऊपर से नीचे तक सामान भरा होता, लेकिन किसमें क्या है, देखने में ही आफत आ जाती, पढ़ने चलतीं तो पहले चश्मे की दरकार होती। क्या बनाएँ, क्या खाएँ, न मनपसंद की सब्जी, न मनपसंद फल, भुनभुना जातीं, ‘क्या करूँ! मुझसे नहीं होता यह सब, जिंदगी भर रानी बनकर रही, अब यह चाकरी।’ डिशवॉशर लगाना, लॉण्ड्री करना, बिजली के उल्टे स्विच और वेक्यूम क्लीनर से सफाई, सभी कुछ उनको सिरदर्द लगता। बच्चे का लाड़-दुलार तो ठीक था, लेकिन उसे सँभालने में बेटे-बहू की टोका-टाकी उन्हें तो रोना आने लगता। फिर कभी मन परेशान हो तो किससे मन की बात कहें, किससे लिपटकर थोड़ा रो लें। अनायास समरसिंह याद आ जाते, कभी उनके हौले से अपनी बाँहों में समेट लेने की याद सिहरा जाती, पूरे बदन में एक झनझनी सी तैर जाती, ‘वे वहाँ भी नहीं हैं, वे कहाँ मिलेंगे? मैं भी उनके पास क्यों नहीं पहुँच जाती?’ यह सोचते-सोचते वे रो पड़तीं। आखिरकार उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे अब ज्यादा यहाँ नहीं रह पाएँगी, वापस समरसिंह के ‘घर’ चली जाएँगी।

और एक दिन उन्होंने अपना मन पक्का करके गौरव से कह ही दिया, ‘‘गौरव! मैं अब इंडिया वापस जाना चाहती हूँ, मन नहीं लगता यहाँ। तुम दोनों तो ऑफिस चले जाते हो, पूरा दिन निकल जाता है, इस दुधमुँहे बच्चे से क्या बात करूँ! पूरे दिन जैसे मुँह सिला रहता है, मैं तो पूरी बोर हो जाती हूँ।’’

‘‘अरे माँ! कैसी बात करती हैं, छोटे बच्चे के साथ खुश नहीं रह पातीं! फिर यह तो सोचो, इस नासमझ को अकेले छोड़ना आपको अच्छा लगेगा।’’ गौरव ने सरलाजी को इमोशनली ब्लैकमेल करने की कोशिश की।

सरलाजी अपना मन बना चुकी थीं, बोलीं, ‘‘वहाँ का घर भी कई महीनों से बंद पड़ा है, उसे भी तो देखना पडे़गा, तू मेरा टिकट करा दे।’’

गौरव ने एक आखिरी कोशिश की, ‘‘अरे, आप समझती नहीं, यह छोटा सा बच्चा आपके साथ रहकर कुछ अपने देश के संस्कार, रीति-रिवाज, तीज-त्योहार सीखेगा, नहीं तो पूरा अंग्रेज हो जाएगा। आपको खुद भी कंपनी मिलेगी, वहाँ जाकर इस ओल्ड ऐज में बिल्कुल अकेली पड़ जाएँगी। हमें यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा।’’

सरलाजी सब सोच चुकी थीं, ‘‘न बेटा! मैं उधर अकेली कहाँ हूँ! पास-पड़ोस में सब मेरा खयाल रखते हैं, सबसे मिलते रहने से समय कट जाता है। जहाँ तक ‘हैरी’ का सवाल है, यहाँ इतने अच्छे क्रेश हैं यहाँ के मैनर्स, तौर-तरीके, भाषा, पढ़ना-लिखना सब अच्छे से सीख सकेगा। मैं कुछ अपना ही सिखा पाऊँगी, उसे यहाँ रहना है तो यहाँ जैसा रहना-सहना सीखना होगा।’’

गौरव को समझ में आ गया कि अब तक अपने ढंग से जीती आई माँ को बंधन में रखना संभव नहीं। उसने खीझकर कहा, ‘‘आप नहीं मानतीं तो मैं आपकी बुकिंग करवा देता हूँ।’’ जो गौरव अपनी जरूरत के समय बड़ी मनुहार से उन्हें बड़ौदा से यहाँ लेकर आया था, उसने सरलाजी को अकेले रस्ता नपा दिया।

मुंबई से होते हुए जब वे बड़ौदा एयरपोर्ट पर आईं तो उन्हें लगा, यही उनकी जमीन है, वही हवा, वही जाने-पहचाने रास्ते, वही लोगों की बोली। यही तो वी.आई.पी. रोड है, मकानों का एक अलग स्टाइल, सबकुछ अपना सा। रंजीता अपने पति के साथ उन्हें लेने आई थी। दोनों ने उनके पैरों को हाथ लगाकर उनका अभिवादन-स्वागत किया। सरलाजी का मन खुश हो गया। चारों तरफ आँखों से निहारती आखिर वह अपने ‘घर’ पहुँच ही गईं, जहाँ अपना कोई नहीं था, लेकिन सब अपने थे। कभी छोटी सी बात पर मनमुटाव भी हो जाता था, लेकिन पड़ोसी हैं, इन्हीं के साथ रहना है, ऐसा सोचकर कुछ ही दिनों में बातें सुलझ जाती थीं। घर पहुँचते ही वह पतली सी भौंकने की आवाज कुछ और मद्धम सी सुनाई दी। अकेली रूमी आकर उनके पैरों के पास चक्कर काटकर गोद में चढ़ने की कोशिश करने लगी। सरलाजी ने प्रश्नवाचक निगाह से रंजीता की ओर देखा। रंजीता ने मुँह झुलाकर बताया, ‘‘आंटी! गबरू भी हमें छोड़कर चला गया, हमने फोन पर इसलिए नहीं बताया कि आप बेमतलब परेशान होंगी।’’

सरलाजी बुझ सी गईं, एक और झटका! घर के अंदर पहुँचकर सबकुछ ऊपरी नजर से पहले जैसा लगा, लेकिन कहीं कुछ तो ऐसा था, जो पहले जैसा नहीं था, जो नहीं होना चाहिए था। पहले ‘घर’ काँच सा चमचमाता था। आज समय की गर्द कहीं-कहीं छाई थी। एक अपरिचित एहसास भी कहीं था, जो उन्हें बरदाश्त नहीं हो रहा था। उन्होंने सिर झटककर मानो इस विचार को अपने से दूर धकेलने की कोशिश की, ‘भई, किसी के सहारे इतने दिन मकान छोड़कर जाओ तो वह अपने ढंग से ही उसे रखेगा। रंजीता आउट हाउस में रहती है, लेकिन इतने बडे़ बँगले की चाबी उसके पास हो तो वह भी कभी सरला और समरसिंह की तरह रहने की अपनी ख्वाहिश तो पूरी कर ही सकती है। ठीक है, ठीक है, वह भी तो इनसान है, वह सब ठीक कर लेंगी।’

जब वे बड़ौदा वापस आई थीं तो गली में सरसरी तौर पर कोई बदलाव नहीं दिखा था, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें पता चला कि यहाँ भी सन्नाटा पसरने लगा है। न केवल ‘घर’ के सदस्यों की संख्या कम हो रही है, सोसाइटी में जहाँ पहले सभी घरों में रौनक रहा करती थी, वहाँ किसी घर में बुजुर्ग चल बसे हैं तो किसी घर के बच्चे विदेश, नहीं तो किसी दूसरे बडे़ शहर में आगे की पढ़ाई के लिए चले गए हैं। सरलाजी को लगता, हर दिन साँसों की रफ्तार कम होती जा रही है, दिल की धड़कन शायद सुनाई नहीं देती। अकेली रूमी की कूँ-कूँ मानो किसी दूर देश से आती प्रतीत होती। वह अपने आपको धक्का मारकर अंदर से निकलकर बाहर आना चाहतीं, लेकिन अब वह शक्ति कहाँ, जो उन्हें जबरन बाहर के समाज से जोड़ सके। बच्चे छोटे थे तो कुछ-न-कुछ गतिविधियाँ चलती रहती थीं, कभी स्वतंत्रता दिवस, कभी गणतंत्र दिवस तो कभी गरबा; बाहर सबसे जुड़ने का कारण बना रहता था, अब यह सब कौन करे? अब छोटे बच्चे बहुत कम बचे हैं। दो-चार घरों में थोड़ा प्रौढ़ होते युवक अपने आप में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें दम मारने की फुरसत नहीं है।

दोपहर होती है, हवा साँय-साँय करती, सीटी बजाती गलियों में चक्कर लगाती है। कभी किसी भंगार पेपरवाले की आवाज कानों से टकराती तो थोड़ा डरा जाती, ये भी तो ऐसी गुमसुम दोपहरियों का इंतजार करते हैं कि कहाँ घुसकर किधर हाथ साफ कर दें। इतने बडे़-बडे़ बँगले मानो भूतों का डेरा बन गए हैं। गहरी रात में डर कि कहीं कोई सेंध लगाकर, ग्रिल वगैरह काटकर घर में न घुस आए। जो ले जाना हो, ले जाए, लेकिन कहीं यह जीवन-लीला ही न समाप्त कर दे। जीवन-लीला का भी क्या! अब जीवन में रहा ही क्या है, लेकिन यह खयाल कुछ तो डरा ही जाता। शायद कुछ बची-खुची साँसें होंगी। आस-पास भी क्या बचा? प्रो. गुलाटी का पिछले वर्ष कैंसर से देहावसान हो गया। डॉ. अमरेंद्र मदान के पिता दो वर्ष पहले चल बसे थे। अस्सी वर्ष की माँ किसी तरह अपनी गाड़ी ढकेल रही हैं। लड़का अमरीका में है, उसकी पत्नी सिंगापुर में। सुना है, दोनों इकट्ठे रहने का जुगाड़ कर रहे हैं, ताकि धीरे-धीरे अपनी फैमिली बना सकें। और जहाँ दो से तीन हुए तो वे भी उनके बच्चे सँभालने उड़ जाएँगी। दो गुजराती परिवार हैं, उनके बच्चे अभी छोटे हैं तो उनसे थोड़ी रौनक गली में रहती है। लेकिन गुजराती लोगों का तो सदियों से विदेशों—अफ्रीका, लंदन, अमरीका आदि से लिंक बना ही रहता है। हर परिवार से एक-दो नहीं, कई तो पूरे-के-पूरे परिवार ही बाहर बस गए हैं और उन्होंने वहाँ अपना गुजरात बसा लिया है, तो किसका भरोसा, कौन कब तक यहाँ है? कौन किसका सहारा बनेगा, कौन किसकी मदद करेगा, सोचते-सोचते सरलाजी को लगा, उनका सिर ही फट जाएगा। उन्होंने करवट बदलकर अपने विचार-प्रवाह को रोकने का प्रयास किया, लेकिन क्या यह इतना आसान होता है। दूसरी करवट तो दूसरी विचार-शृंखला ‘ऐसा क्यों है! इतना बड़ा देश, इतनी विस्फोटक जनसंख्या। महानगरों में इतनी भीड़, जितने मरते हैं, उससे दुगने-चौगुने पैदा होते हैं। और यहाँ अपनी सोसाइटी ही नहीं, जाने कितने इलाके हैं, जहाँ सिर्फ वृद्ध अकेले जीवन गुजार रहे हैं। उन्हें अकेला पाकर उनकी हत्या उनके नौकरों, नहीं तो चोर-उचक्कों, अपराधियों द्वारा कर दी जाती है। दो पलड़ों का असंतुलन कैसे दूर हो सकता है, समझ में नहीं आता।’ सरलाजी ने फिर करवट बदली, ‘छोड़ो जी! जब तक साँस है, किसी तरह समय गुजर ही रहा है। जब साँसें रुक जाएँगी तो कोई-न-कोई तो उनकी लाश को ठिकाने लगा ही देगा और दूर बसे बच्चों को खबर कर देगा। मेरे सोचने से क्या होगा!’

१ बी, ८०६ ट्रिनिटी टावर्स

गेरा ग्रीन विले, इऑन आई.टी. पार्क के पास

खराड़ी, पुणे-४११०१४ (महाराष्ट्र)

दूरभाष : ०९७२३७२३६८१

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