बालमन पर अंकित प्रथम संस्कार 'पट्टी पूजन'

बालमन पर अंकित प्रथम संस्कार 'पट्टी पूजन'

आज काफी समय बाद जब किंशुक-विभा शाश्वत को लेकर आए तो पिछले तीन दिन से अस्वस्थ मन को बहुत अच्छा लगा। मेरे पाँव छूकर सोफे से एक छलाँग लगा शाश्वत ने सारे घर का मुआयना कर डाला और अपनी जासूस निगाहों से सफाई में गिरा अलमारी के हैंडिल का एक मनका मेरे हाथ में दे दिया। फिर वह मेरी टेबल पर से, जो मैं लिख रही थी, वह कागज और पैन उठा लाया और उसपर लिखने की कोशिश करने लगा। उसके चील-मकोडे़ बनाने से पहले विभा ने वह कागज उससे ले, दूसरा खाली कागज उसे दे दिया।

शाश्वत अब तीन वर्ष का था। मैंने विभा-किंशुक से पूछा, ‘‘इसका ‘पट्टी पूजन’ कराया क्या?’’ मेरे पूछने पर दोनों सकपका गए। बहुत धीमे स्वर में विभा बोली, ‘‘बुआ, नहीं, मेरे घर में तो ऐसा कुछ होता ही नहीं।’’

मैंने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, अब बसंत पंचमी या गुरु पूर्णिमा को इसका पट्टी पूजन करा देना। कैसे क्या करना है, मैं बता दूँगी।’’

‘पट्टी पूजन’ भारतीय संस्कृति का लोक परंपरित संस्कारों, मुंडन कर्णछेदन के बाद एक ऐसा प्रथम संस्कार है, जिसकी स्मृतियाँ बालमन पर आजीवन अंकित रहती हैं। यह संस्कार अक्षर-विश्व से बालक की पहली पहचान है। उसके मन की कल्पनाओं को कागज पर उतारनेवाली हाथ में थमाई लेखनी से पहला परिचय है। उसकी यादों की पट्टी पर लिखी हुई पहली इबारत का संस्कार, जिसे कॉन्वेंट स्कूल और ‘डे केयर’ निगल गए, निगल रहे हैं। मेधावी व्यक्तियों के विषय में लोक में ऐसा कहा भी जाता रहा है कि ‘अरे! उनका क्या कहना! वे तो माँ के पेट से ही कलम लेकर पैदा हुए हैं, उनका तो पट्टी पूजन भी नहीं कराना पड़ा।’ यह भी कहा जाता है कि बंगाल में ऐसे ही किसी संस्कार में विश्वकवि रवींद्रनाथ ने बहुत सारी वस्तुओं में से कलम उठा ली थी।

‘पट्टी पूजन’ बालक को लिखना सिखाने का, अक्षरों को लिखने का अभ्यास कराने का लोक परंपरित संस्कार है, जो विद्या और कलाओं की देवी सरस्वती की बसंत पंचमी और ज्ञान देनेवाले गुरु की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा को बच्चे के तीसरे, पाँचवें, सातवें वर्ष में भी कराया जाता है। यों आवश्यक होने पर किसी और भी पर्व तिथि पर यह संस्कार हो सकता है, पर बसंत पंचमी सबसे उपयुक्त है। यह बच्चे को सभी विद्याएँ-कलाएँ देनेवाली तिथि मानी जाती है।

‘पट्टी पूजन’ के संस्कार में बसंत पंचमी को बच्चे को नहला-धुलाकर नए पीले वस्त्र पहनाए जाते हैं। गाँव के पंडित आँगन में चौक पूरकर चौकी पर पट्टी रखते हैं, उसपर ऊपर या बीच में स्वस्तिक बना रोली, अक्षत, फूलों से पट्टी की पूजा कराते हैं। फिर बच्चे का हाथ पकड़कर उससे ‘ॐ नमः सिद्धम्’ या ‘श्री गणेशाय नमः’ लिखवाते हैं। बालक को टीका लगाकर फूलमाला पहनाई जाती है। पेडे़ या लड्डू का प्रसाद रहता है। पट्टी पूजने के बाद बच्चा सबको प्रणाम करता है। पंडित को ‘पट्टी पुजाई’ इच्छानुसार दी जाती है। उस समय ग्राम्यलोक में अधिकांश लोगों के पढे़-लिखे नहीं होने से यह संस्कार पंडित ही कराते थे। नगरों, शहरों में तो माताएँ या घर का कोई भी वयोवृद्ध ‘पट्टी पूजन’ करा देता है।

‘पट्टी पूजन’ के पूज्य देवता अपने हाथों में वीणा-पुस्तक लिये विद्या और समस्त कलाओं की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती तथा हर कार्य के विघ्न विनाशक प्रथम पूज्य देवता गणेशजी हैं। जो पौराणिक कथाओं और लोक किंवदंतियों के संदर्भ के अनुसार महर्षि वेदव्यास के रचे इतिहास-पुराणों के लेखक, उनके स्टेनोग्राफर थे और उन्होंने यह पद इस कड़ी शर्त के साथ में स्वीकार किया था कि आप जब भी बोलना बंद कर देंगे, मैं लिखना छोड़कर चला जाऊँगा। इसके साथ यह भी कथा लोक प्रचलित है कि एक दिन गणेशजी आने की हड़बड़ी में अपनी कलम भूल आए। उन्होंने उसे अंब, जिसमें भी वे कलम रखते रहे, खोजा, वह वहाँ नहीं थी। उधर व्यासजी ने बोलना शुरू कर दिया तो गणेशजी ने अपना एक दाँत उखाड़ा और उसको कलम बना लिखना शुरू कर दिया, तब से वे ‘एकदंत’ हो गए।

ज्ञान-प्राप्ति के शुभारंभ के उद्देश्य की दृष्टि से पट्टी पूजन के संस्कार को वैदिक युग के वेदारंभ संस्कार से भी जोड़ सकते हैं, पर तब वैदिक शिक्षा मौखिक थी, लिखित शिक्षा कब आई, ज्ञान का लेखन कब से शुरू हुआ, लोक-परंपरा में उपर्युक्त संदर्भ के गणेशजी के लिखे जाने के सिवाय और कोई प्रमाण नहीं मिलता। पर यह महाभारत युग को लिखने का ऐतिहासिक प्रमाण तो है ही, वेदारंभ संस्कार के साथ बसंत पंचमी के जुड़ने का एक क्षीण सा सूत्र है कि वेदाध्ययन करनेवाले ब्रह्मचारी को वसंत में लाल फूलों से फलते वृक्ष पलाश का डंडा दिया जाता था।

‘पट्टी पूजन’ की पट्टी ने भी कई बदलाव देखे हैं। किसी समय ‘पट्टी पूजन’ में बच्चे के लिए नई पट्टी, जो लकड़ी की होती थी, मिट्टी की छोटी कुल्हड़ी, बुदका, जिसमें लिखने के लिए घुली खडि़या भरी होती थी और सरकंडे या नरसल की बनी कलम, इन्हें लेकर बच्चा गाँव की पाठशाला में जाता था। पश्चिमी उत्तर भारत के गाँवों में नए विद्यार्थी का ‘पट्टी पूजन’ पाठशाला के पंडितजी ही करा देते थे। अभिभावक पंडितजी को दक्षिणा देकर बच्चों में बताशे बँटवा देते थे, खडि़या से लिखी इबारत और पहाड़े वगैरह धोकर पट्टी सुखाई जाती थी और उसे सुखाते हुए बालक ‘सूख-सूख पट्टी चंदन गट्टी’ गाते थे।

इस पट्टी के बाद आई स्लेट-बत्ती और अब कॉपी, पेंसिल, पैन हैं। यहाँ ‘पट्टी पूजन’ में लिखा गया ‘ओम नमः सिद्धम्’ लोक जीवन में किसी की पढ़ाई-लिखाई पूछने पर उसके उत्तर का मुहावरा ‘ओना मासी धम, बाप पढे़ ना हम’ बन गया है।

महाराष्ट्र में आज भी विद्याध्ययन के शुभारंभ, अक्षराभ्यास का यह संस्कार बच्चे के स्कूल जाने से पहले बडे़ शानदार रूप में मनाया जाता है। बच्चे की लिखने की कॉपी पर यहाँ की लोक-परंपरा में प्रतीक रूप में सरस्वती देवी का चित्र अंकित किया जाता है। पूजा में रखी पेंसिल या पैन से बच्चे का हाथ पकड़कर श्री लिखवाया जाता है। पेड़ों का प्रसाद रहता है।

जैन धर्म माननेवालों में तो बच्चे के विद्याध्ययन के शुभारंभ की संरचना निराली ही कही जाएगी। यह संस्कार आज भी बच्चे के स्कूल जाने से पहले अखिल जैन समाज में होता है। इस अवसर पर बालक से पाँच दीपक जलवाए जाते हैं, जो जैन धर्म में पाँच ज्ञान के प्रतीक होते हैं—

(१) श्रुति ज्ञान

(२) मति ज्ञान

(३) अवधी ज्ञान

(४) मन पर्यव ज्ञान

(५) कैवल्य ज्ञान

बालक इन पाँचों ज्ञानों के प्रतीक जलते दीपकों को प्रणाम करता है और घर के लोग उसे जीवन में ज्ञान की कभी अवहेलना न करने की सीख दे विदा करते हैं।

आज जब शिक्षा पद्धति गाँव की पाठशाला की बेंत और छड़ी की मार, मूत्र निकालनेवाली डिप्टी साहब के आने पर पड़ती मार और कडे़ अनुशासन से मुक्त है, अब तो बच्चों पर बस्ते और होमवर्क का बोझ भी नहीं रहा; न शिक्षक-विद्यार्थी में केवल डर और अनुशासन के संबंध ही रहे; स्कूल जाने का डर बच्चों के मन से चला गया है, फिर भी बच्चे के स्कूल जाने और पढ़ना-लिखना शुरू करने से पहले एक उत्सव का सा वातावारण निर्माण करने के लिए ‘पट्टी पूजन’ का संस्कार जरूरी है।

इस संस्कार से बड़ों के जैसी उसके भी हाथ में आई कलम पढ़ने-लिखने के साथ कुछ आड़ी-तिरछी रेखाओं से बनाने की उत्सुकता जाग्रत् करती है। पेंसिल से कागज पर वह क्या-क्या नहीं बनाता? घर के बड़ों के पैन-पेंसिल उठाना शुरू करने से पहले उसके हाथ में उसकी अपनी पेंसिल-पैन दे देना क्या अच्छा नहीं?

मैंने तो कम अंतर के छोटे बच्चे को बडे़ के साथ अपना भी ‘पट्टी पूजन’ कराने की जिद्द करते देखा है। ‘पट्टी पूजन’ से वर्णमाला, मराठी में जिसे ‘उजवणी’ कहते हैं, अक्षरों के चित्रों के साथ बालक के मन में बस जाती है।

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