मुझे क्षमा करें!

मुझे क्षमा करें!

उजाले का चले आना

इस ढलती शाम में भी होता है यह

प्रेम का चले आना, उजाले का चले आना।

तुम जग जाते हो और जल उठती हैं

मोमबत्तियाँ मानो खुद से ही,

एकत्र होते हैं सितारे, बरसते हैं

सपने तुम्हारे सिरहाने

भेजते हुए साँसों केस्नेही गुलदस्ते

इस ढलती शाम में भी चमकती है देहाकृति

और प्राणों में उभर आता है कल का धूसर चित्र।

यहाँ तक...

हमने जो चाहा, हमने किया

हमने किया सपनों को खारिज कि हमने पसंद किया

एक-दूसरे की कड़ी मेहनत को,

हमने किया दुःख का स्वागत,

आमंत्रित किया बरबादी को

एक आदत, जिसका छूटना मुश्किल।

और अब हम यहाँ हैं

डिनर तैयार है, पर हम खा नहीं सकते

गोश्त अपने डिश की श्वेत झील में करता आराम

मदिरा करती इंतजार।

यहाँ तक पहुँचने के हैं

अपने पुरस्कार : कोई वादा नहीं, कुछ लिया गया नहीं

न हमारे पास कोई दिल, न कोई अच्छी बात,

न जाने को कोई जगह, न जीने का कोई कारण।

शेष

मैं स्वयं को रिक्त करता हूँ दूसरों के नामों से

मैं खाली करता हूँ अपनी जेबें

मैं उतारता हूँ अपने जूते और छोड़ आता हूँ सड़क के बाजू

मैं रात में घड़ी को उलटा घुमा देता हूँ

मैं खोलता हूँ फैमिली एलबम और देखता हूँ

खुद को बालक के रूप में।

क्या अच्छा होता है इससे? समय ने अपना काम कर दिया है

मैं अपने खुद का नाम लेता हूँ। मैं कहता हूँ अलविदा!

हवा के साथ शब्द करते हैं पीछा एक-दूसरे का

मैं अपनी पत्नी से प्रेम करता हूँ, लेकिन उसे दूर भेज देता हूँ।

मेरे माता-पिता अपने सिंहासनों से उठकर

चले आते हैं बादलों के दूधिया कमरों में। मैं कैसे गा सकता हूँ?

समय बता देता है कि मैं कौन हूँ। मैं बदलता हूँ, पर मैं वही हूँ।

मैं स्वयं को रिक्त करता हूँ अपने जीवन से,

पर मेरा जीवन रहता है शेष।

डाकिया

मध्यरात्रि आता है वह गलियारे में

और खटखटाता है दरवाजा

मैं बढ़ता हूँ उसका स्वागत करने

वह रहता है खड़ा आँसू बहाते

काँपते हाथों से देता है मुझे चिट्ठी

वह कहता है मुझसे—

बहुत बुरी खबर है इसमें।

झुककर करता है वह निवेदन—

‘मुझे क्षमा करें! मुझे क्षमा करें!’

मैं उसे भीतर बुलाता हूँ

वह पोंछता है अपने आँसू

उसका गहरा नीला सूट है

मेरे गहरे लाल बिस्तर पर

स्याही के धब्बे की तरह

असहाय, विकल, हीन,

वह सिमटकर गोल गेंद की तरह

सो जाता है और मैं लिखता हूँ

स्वयं को कई और पत्र

उसी मिजाज में।

‘तुम जियोगे

दे-देकर दुःख

तुम करोगे क्षमा!’

मैं नहीं मर रहा

ये झुर्रियाँ कुछ भी नहीं

ये सफेद बाल कुछ भी नहीं

यह पेट जो लटका

पहले जो खूब खाया, ये चोटिल

और सूजे हुए टखने,

मेरा धुँधलाता दिमाग,

ये सब कुछ नहीं।

जिसे मेरी माँ चूमा करती थी

वही लड़का हूँ मैं।

 

उम्र नहीं बदलती कुछ भी

ग्रीष्म की स्थिर रातों में

बहुत दूर से उसके श्यामल होंठों से

चले आत उन चुंबनों को

मैं महसूस करता हूँ,

और सर्दियों में वे तैरते

हिमाच्छादित चीड़ के पेड़ों पर

और चले आते बर्फ से ढके।

वे मुझे रखते हैं युवा।

 

दूध के लिए मेरी इच्छा

आज भी नहीं रुक पाती,

मुझ पर हावी है मासूमियत

बिस्तर से कुरसी तक मैं

घिसट-घिसटकर जाता और आता।

मैं मरूँगा नहीं

जन्म का उपहार और अंततः कब्र

याद रखता है

मेरा शरीर पक्की तरह।

 

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