वेल्लियाँ-मुष्टंडियाँ

ब्रह्म मुहूर्त में सिंह साहब का निधन हो गया था। सूर्योदय होते-होते सारे मोहल्ले में समाचार फैल गया।

घर के लोग शामियाने और दरियों का प्रबंध करने में लगे थे; किंतु जिसने समाचार सुना, वही उनके घर की ओर भागा चला आया। किसी ने भी दरियों और शामियाने की प्रतीक्षा नहीं की।

आस-पड़ोस के लोगों की भीड़ लगी थी। कमरों में भीड़ अधिक हो जाने के कारण कुछ महिलाएँ बाहर भी बैठी थीं; किंतु अधिकांश श्रीमती सिंह के पास, उनके निजी कमरे में बैठी थीं। श्रीमती सिंह हाल-बेहाल नहीं थीं। वे शांत और संतुलित भी नहीं लग रही थीं, किंतु रो भी नहीं रही थीं।

‘‘सिंह साहब कह गए हैं कि मेरे जाने के पश्चात् रोना-धोना मत। यह तो जीवन है। जो आया है, वह जाएगा ही।’’ वे बिना रुके बोलती चली गईं, ‘‘और वे कौन सा कच्ची उमर में गए हैं। पचासी वर्ष का भरपूर जीवन जीकर गए हैं।’’

‘‘फिर भी बहनजी, घर से एक प्राणी चला जाए तो दुःख तो होता ही है!’’

‘‘दुःख क्या जीवित व्यक्ति का नहीं होता?’’ श्रीमती सिंह कसैले स्वर में बोलीं, ‘‘दुःख क्या मरने पर ही होता है? मरनेवाला तो चला गया, अब वह कभी कोई दुःख देने नहीं आएगा।’’

‘‘वह तो ठीक है, किंतु अब जीवन के इस सोपान पर आपके लिए अकेले रहना...।’’

‘‘अकेले रहना कठिन होता है, बहनजी।...’’

‘‘साथ रहना भी कम कठिन नहीं है।’’ श्रीमती सिंह ने उन्हें हाथ जोड़ दिए। वे महिलाएँ वहाँ से उठ गईं। बाहर बैठी महिलाओं को भी तो श्रीमती सिंह से मिलना था। और इन्हें घर जाकर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार भी करना था, पतियों को काम पर भेजना था। वैसे भी ये घर पहुँचेंगी तो उनके पति संवेदना प्रकट करने के लिए आएँगे।

महिलाओं का झुंड-का-झुंड सिंह साहब के घर से बाहर निकला और उनकी चर्चा आरंभ हो गई—‘‘जो मन में आए, कह लें मिसिज सिंह, किंतु मैं जानती हूँ कि उम्र कोई भी हो, औरत का जीवन तो पति के साथ ही है। वसुंधरा को नहीं देखा, रात को घर में और कोई न हो तो कैसी डर जाती है। उसे नींद ही नहीं आती। पड़ोस में सोने चली जाती है।’’

‘‘और क्या, अकेले रहना पुरुष के लिए भी कठिन होता है। स्त्री का तो कहना ही क्या?’’

‘‘ठीक कह रही हो। हमारे पड़ोस में पांडेयजी पड़े हैं न अकेले। कुंभकर्ण के समान छह महीने में जगते हैं। उस घर में कोई रहता भी है या नहीं, इसका पता ही नहीं चलता। कोरियरवाला कपाट पीट-पीटकर अपनी हथेलियाँ लाल कर लेता है, किंतु वे कुंडी नहीं खोलते।’’

‘‘मेरे पड़ोस में सरलाजी नहीं हैं। सारा दिन बरांडे में बैठी रहती हैं, गली में कोई आता-जाता दीख जाए तो उसे चाय बनाने को कहें। बाजार तक जाना हो तो चौकीदारों की चिरौरी करती रहती हैं। अरे, एक नौकर ही रख लो।’’

‘‘ताकि वह रात को गला दबाकर घर में झाड़ू फेर जाए।’’

‘‘उनके घर में रखा ही क्या है। चोर आएगा तो कुछ रख ही जाएगा, लेकर क्या जाएगा।’’

‘‘मैं तो कहती हूँ कि श्रीमती सिंह एक फुल टाइम कुक रखें और एक मेड। पैसे की कोई कमी है उन्हें। एक ड्राइवर रख लें। ठाठ से रहें। आदमी आराम से रहे तो क्यों मरे पति को याद करे?’’

‘‘मुझे तो लगता है कि इस मकान को बेच दें। वैसे भी टूट-फूट रहा है। एक नया और शानदार अच्छा सा फ्लैट लें और नौकर-चाकर रखें। फाटक पर दरबान रखें और रईसों के समान रहें।’’

‘‘हाँ, उनसे चार डग चला तो जाता नहीं। इस उम्र में तो कोई ब्वॉयफ्रेंड भी नहीं मिलता, जो सारे काम कर दे। यूनिवर्सिटी की बात और थी। चारों ओर डोलते फिरते थे। कोई सेवा हो तो बताइए। मरे जवानी में ही आगे-पीछे डोलते हैं, जब उनकी कोई आवश्यकता नहीं होती। अब...’’

‘‘बेकार की बातें हैं। मिसिज सिंह के बच्चों को चाहिए कि एक अटैंडेंट दिन के लिए और एक रात के लिए रख दें। सुख से रहेंगी। बाकी देख-भाल के लिए पड़ोसी तो हैं ही। मोहल्ले में डॉक्टर भी कई हैं। जो सामान मँगाना हो, फोन करके मँगा लें। आजकल क्या नहीं आ जाता फोन पर!’’

‘‘देखो, पचास नौकर रख लो, किंतु अपने बच्चों जैसा कोई नहीं है। उनके बच्चों को चाहिए कि उन्हें अपने साथ ले जाएँ और उनकी देखभाल करें। जीवन के इस आखिरी पड़ाव पर सेवा नहीं करेंगे तो कब करेंगे। सारी संपत्ति लेंगे और सेवा नहीं करेंगे। बेटा-बहू होते हुए भी वे यहाँ बंद घर में अकेली पड़ी रहेंगी और डिप्रेशन में चली जाएँगी। किसी दिन पता चलेगा कि वे रही ही नहीं।’’

विदेश में बूढ़े माँ-बाप को अपने साथ रखना कोई आसान है? वहाँ तो कोई नौकर भी नहीं मिलता। न कोई मंदिर, न भजन-मंडली, न कीर्तन, न सत्संग, जहाँ वृद्ध जाकर कुछ समय बिता आएँ। बेटा-बहू प्रातः तैयार होकर चले जाएँगे दफ्तर और बुढि़या दिन भर खिड़की से टँगी उनकी बाट जोहती रहेगी।’’

‘‘पोते-पोतियाँ नहीं हैं?’’

‘‘हैं क्यों नहीं, पर एक कनाडा में है, एक ऑस्ट्रेलिया में।’’

‘‘तो क्या हो गया। यहाँ कौन बैठा है उनके सिरहाने। यहाँ भी तो अकेली ही रहेंगी। बाट जोहने को भी कोई नहीं है। थोड़ा समय पढ़ लें, कुछ टी.वी. देख लें, थोड़ी देर पड़ोस में चली जाएँ। पड़ोस से किसी को बुलाकर चाय पिला देंगी तो कंगाल नहीं हो जाएँगी।’’ श्रीमती कटारिया पहली बार बोलीं, ‘‘तुम लोगों ने तो उनका सारा प्रबंध ही कर दिया। उनको तो कुछ सोचने और करने की आवश्यकता ही नहीं है। अब उनको कोई कठिनाई नहीं होगी।’’ वे हँसीं, ‘‘किंतु तुम लोगों में से किसी ने भी अभी उनके खर्च के लिए पैसे देने की बात नहीं कही है।’’

‘‘वह तुम दे देना।’’ हंसा ने कटाक्ष किया। ‘‘मैं नहीं दे रही तो मैं उनका प्रबंध भी नहीं कर रही। तुम से किसी ने कुछ पूछा भी है कि उन्हें क्या करना चाहिए और उनके बच्चों को क्या करना चाहिए। घर जाओ, अपने सास-ससुर को सँभालो। मोहल्ले का ठेका मत लो। वेल्लियाँ-मुष्टंडियाँ...’’

भीड़ का मूड कुछ बिगड़ गया था। विचित्र संयोग हुआ। संध्या समय सिंह साहब का चौथा उठाला हुआ और रात को श्रीमती सिंह का निधन हो गया। प्रातः ही मोहल्ले में डोंड़ी पिट गई कि श्रीमती सिंह भी नहीं रहीं।

टैंट लग गया, दरियाँ बिछ गईं। लोगों की भीड़ लग गई।

‘‘कैसी पतिव्रता थीं। चार दिन भी पति के बिना नहीं रह सकीं।’’ गोमती ने कहा, ‘‘अभी परसों तो लोगों से अपनी फैमिली पेंशन के लिए कागजों पर हस्ताक्षर करवा रही थीं, जैसे अभी वर्षों जिएँगी। नहीं जानती थीं कि यमराज ने पहले ही ऊपर से मृत्यु प्रमाण-पत्र जारी कर दिया है।’’

‘‘सावित्री थीं। सत्यवान के पीछे चली गईं। सावित्री तो सत्यवान को लौटा लाई थी। ये भी लौटा लाएँगी क्या?’’

‘‘मुझे तो यहाँ उलटा मामला लगता है। सिंह साहब ही वहाँ अकेले नहीं रह सके। चौथे दिन ही खींचकर ले गए।’’

‘‘जो भी हो, अति वृद्धावस्था के शारीरिक कष्ट भोगने को तो नहीं रुकी रहीं। ब्रेन हैमरेज, पक्षाघात, फेफड़ों में पानी, स्टेंट लगवाना... बिस्तर से तो बच गईं।’’

‘‘अस्पतालों के चक्करों से भी बची रहीं।’’

‘‘मुझे तो लगता है कि बेटे और बहू को उन सारी परेशानियों से मुक्त कर गईं, जो इनके कारण उनके गले पड़नेवाली थीं। अब उनको न इनके लिए नौकर रखने हैं, न डॉक्टर, न दवा-दारू, न अस्पतालों के चक्कर, न घर का प्रबंध। सबसे मुक्त कर दिया।’’

‘‘बेटा-बहू मुक्त कहाँ हुए? अब उनके गले की फाँस यह मकान है। अब उसका क्या करेंगे?’’ श्रीमती सुभागी बोलीं, ‘‘जीवित रहतीं तो मकान को थामे बैठी रहतीं। नौकर-चाकर तो थे ही। बेटा-बहू आते, पोते-दोहते आते, भाई-बहन आते, अतिथि आते; उनके रहने का ठिकाना तो था। अब क्या होगा?’’

‘‘अरे छोड़ो। बेटा-बहू विदेश से आने से रहे। मकान क्या नौकरों के लिए रखना है। तुम क्या समझती हो कि नौकर रहेंगे और मालिक उसका हाउस टैक्स देंगे। उसकी मरम्मत करवाएँगे। सफेदियाँ करवाएँगे। फर्नीचर बनवाएँगे।’’

‘‘तो?’’

‘‘देख लेना, छह महीने में मकान बेच देंगे वे। करोड़ों की संपत्ति है। जहाँ रहेंगे, वहाँ अपने लिए हवेली बनवाएँगे।’’

‘‘बिकवाओगी तुम? जो मकान बिकता है, उसका आधे से अधिक मूल्य काले धन में मिलता है। ये लोग विदेश में उस काले धन का क्या करेंगे?’’

‘‘एक खंड बंद कर रखें, बाकी किराए पर दे दें। प्रतिवर्ष बीस प्रतिशत किराया बढ़ाते रहें। आय भी होती रहेगी, संपत्ति भी बनी रहेगी।’’

‘‘अरे, एक बिल्डर को पकड़ें, चार फ्लोर बनवाएँ। तीन बेच दें; एक अपने पास रखें। कोई झगड़ा ही नहीं।’’

‘‘हाँ, बिल्डर पैसे भी देगा और तीन फ्लोर भी। हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा आए। एक फ्लोर अपने लिए रखें, दो बेच दें। दस-दस करोड़ का एक फ्लोर जा रहा है। रहने का ठिकाना भी होगा। दस-बीस करोड़ भी जेब में आ जाएँगे।’’

‘‘जिनकी संपत्ति है, उनसे भी किसी ने कुछ पूछा है कि वे क्या करना चाहते हैं; या अपने मन से ही सारा प्रबंध करती जा रही हो?’’

‘‘हमने तो सिंह साहब के निधन पर भी श्रीमती सिंह के भविष्य का सारा प्रबंध कर दिया था, पर वे सबको अँगूठा दिखाकर चली गईं।’’

‘‘उनके बेटा और बहू भी हमें अँगूठा ही दिखाएँगे।’’ जब तुम्हारा कुछ है नहीं, तुम्हें कुछ करना नहीं है, तो क्यों हवा में लठ भाँज रही हो।’’

‘‘वेल्लियाँ-मुष्टंडियाँ...’’

१७५ वैशाली, पीतमपुरा

दिल्ली-११००३४

 

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