कदंब के फूल

‘‘भौजी! लो मैं लाया।’’

‘‘सच, ले आए? कहाँ मिले?’’

‘‘अरे! बड़ी मुश्किल से ला पाया, भौजी!’’

‘‘तो मजदूरी ले लेना।’’

‘‘क्या दोगी?’’

‘‘तुम जो माँगो।’’

‘‘पर मेरी माँगी हुई चीज मुझे दे भी सकोगी?’’

‘‘क्यों न दे सकूँगी? तुम मेरी वस्तु मेरे लिए ला सकते हो तो क्या मैं तुम्हारी इच्छित वस्तु तुम्हें नहीं दे सकती?’’

‘‘नहीं भौजी, न दे सकोगी, फिर क्यों नाहक कहती हो?’’

‘‘अब तुम्हीं न लेना चाहो तो बात दूसरी है, पर मैंने तो कह दिया कि तुम जोमाँगोगे वही दूँगी।’’

‘‘अच्छा, अभी जाने दो, समय आने पर माँग लूँगा।’’कहते हुए मोहन ने अपने घर की राह ली। दूर से आती हुई भामा की सास ने मोहन को दोने में कुछ लिये हुए घर के भीतर जाते हुए देखा था। किंतु वह ज्यों ही नजदीक पहुँची, मोहन दूसरे रास्ते से अपने घर की तरफ जा चुका था। मोहन से कुछ पूछ न सकीं; पर उन्होंने यह अपनी आँखों से देखा था कि मोहन दोने में कुछ लाया है, किंतु क्या लाया है, यह न जान सकीं।

घर आते ही उन्होंने बहू से पूछा, ‘‘मोहन दोने में क्या लाया था?’’

भामा मन-ही-मन मुसकराकर बोली, ‘‘मिठाई!’’

बुढि़या क्रोध से तिलमिलाकर बोली, ‘‘इतना खाती है, दिन भर बकरी की तरह मुँह चला ही करता है, फिर भी पेट नहीं भरता? बाजार से भी मिठाई मँगा-मँगा के खाती है! अभी मैं न देखती तो क्या तू कभी बतलाती?’’

भामा (मुसकराते हुए)—‘‘तो बतलाती क्यों? कुछ बतलाने के लिए थोड़े ही मँगवाई थी?’’

‘‘क्यों, क्या मैं घर में कोई चीज ही नहीं हूँ? अपने लिए तो मिठाई के लिए पैसे हैं, मैं चार पैसे दान-दक्षिणा के लिए माँगूँ तो सदा मुँह से न ही निकालती है। तेरा आदमी है तो मेरा भी तो बेटा है। क्या उसकी कमाई नसीब हो और तू मिठाई मँगा-मँगा के खाए। कर ले, जितना तेरा जी चाहे। भगवान् तो ऊपर से देख रहा है। वह तो सजा देगा ही।’’

(मुसकराते हुए) ‘‘क्यों कोस रही हो, माँजी! मिठाई एक दिन खा ही ली तो क्या हो गया, अभी रखी है, तुम भी ले लेना।’’

‘‘चल रहने दे। अब इन मीठे पुचकारों से किसी और को बहकाना। मैं तेरे सब हाल जानती हूँ। तू समझती होगी कि तू जो-जो कुछ करती है, वह कोई नहीं जानता। मैं तो तेरी नस-नस पहचानती हूँ। दुनिया में बहुत सी औरतें देखी हैं, पर सब तेरे तले-तले।’’

(मुसकराते हुए) ‘‘सब मेरे तले-तले न रहेंगी तो करेंगी क्या? मेरी बराबरी कर लेना मामूली बात नहीं है। मैं ऐसी-वैसी थोड़े ही हूँ।’’

‘‘चल, चल, बहुत बड़प्पन न बघार, नहीं तो सब बड़प्पन निकाल दूँगी।’’

भामा अब कुछ चिढ़ गई थी, बोली, ‘‘बड़प्पन कैसे निकालेंगी माँ जी, क्या मारोगी?’’

माँजी को और भी क्रोध आ गया और वह बोली, ‘‘मारूँगी भी तो मुझे कौन रोक लेगा? मैं गंगा को मार सकती हूँ तो क्या तुझे मारने में कोई मेरा हाथ पकड़ लेगा?’’

‘‘मारो, देखूँ कैसे मारती हो? मुझे वह बहू न समझ लेना, जो सास की मार चुपचाप सह लेती हैं।’’

‘‘तो क्या तू मुझे मारेगी? बाप रे बाप! इसने तो घड़ी भर में मेरा पानी उतार दिया। मुझे मारने को कहती है। आने दे गंगा को, मैं कहती हूँ कि भाई, तेरी स्त्री की मार सहकर अब मैं घर में न रह सकूँगी। मुझे अलग झोंपड़ी डाल दे, मैं वहीं पड़ी रहूँगी। जिस घर में बहू सास को मारने के लिए खड़ी हो जाए, वहाँ रहने का धरम नहीं।’’ यह कहते-कहते माँजी जोर-जोर से रोने लगीं। भामा ने देखा कि बात बहुत बढ़ गई, अतः वह बोली, ‘‘मैंने तुम्हें मारने को तो नहीं कहा माँजी! क्यों झूठमूठ कहती हो। हाँ, मैं मार तो चुपचाप किसी की न सहूँगी। अपने माँ-बाप की नहीं सही तो किसी और की क्या सहूँगी?’’

‘‘चुपचाप न सहेगी तो मुझे भी मारेगी न? वही बात तो हुई। यह मखमल में लपेट-लपेटकर कहती है, तो क्या मेरी समझ में नहीं आता।’’

माँजी के जोर-जोर से रोने के कारण आस-पास की कई स्त्रियाँ इकट्ठी हो गईं। कई भामा की तरफ सहानुभूति रखनेवाली थीं; कई माँजी की तरफ; पर इस समय माँजी को फूट-फूटकर रोते देखकर सबने भामा को ही भला-बुरा कहा। सब माँजी को घेरकर बैठ गईं। भामा अपराधिनी की तरह घर के भीतर चली गई। भामा ने सुना, माँजी आस-पास बैठी हुई स्त्रियों से कह रही थीं, ‘‘आप तो दोना भर-भर मिठाई मँगा-मँगाकर खाती है। और मैंने कभी अपने लिए पैसे-धेले की चीज के लिए भी कहा तो फौरन ही टका सा जवाब दे देती है। कहती है, पैसा ही नहीं है। इसके नाम से पैसा आ जाता है। और मेरे नाम से कंगाली छा जाती है। किसी भी चीज के लिए तरस-तरस के माँग-माँग के जीभ घिस जाती है, तब जी में आया तो ला दिया, नहीं तो कुत्ते की तरह भँका करो। यह मेरा इस घर में हाल है। आज भी दोना भर मिठाई मँगवाई है। मैंने जरा ही पूछा तो मारने के लिए खड़ी हो गई। कहती है, मेरे आदमी की कमाई है। खाती हूँ, किसी के बाप का खाती हूँ क्या? उसका आदमी है तो मेरा भी तो बेटा है, उसका १२ आने होता है तो मेरा ४ आने तो होगा ही।’’

पड़ोस की दूसरी बुढि़या बोली, ‘‘राम, राम! यही पढ़ी-लिखी होशियार हैं। पढ़ी-लिखी है तो क्या हुआ, अक्ल तो कौड़ी के बराबर भी नहीं है। तुमने नौ महीने पेट में रखा बहन! तुम्हारा तो सोलह आने हक है। बहू को बेटा माँ के लिए लौंडी बनाकर लाता है, यह तुम्हारे पैर दबाने और तुम्हारी सेवा करने के लिए है। हमारा नंदन तो जब-तब बहू मेरे पैर नहीं दबा लेती, उसे अपनी कोठरी के अंदर ही नहीं आने देता।’’

‘‘अपना ही माल खोटा हो तो परखनेवाले का क्या दोष, बहन! बेटा ही सपूत होता तो बहू आज मुझे मारने दौड़ती?’’

गंगा प्रसाद गाँव की प्राइमरी पाठशाला के दूसरे मास्टर की जगह के लिए उम्मीदवार थे। साढे़ सत्रह रुपए माहवार की जगह के लिए बिचारे दिन भर दौड़-धूप करते। इससे मिल, उससे मिल, न जाने किसकी-किसकी खुशामद करनी पड़ती थी, फिर भी नौकरी पाने की उन्हें बहुत कम उम्मीद थी। भामा के पास कुछ जेवर थे, जो हर माह गिरवी रखे जाते थे और किसी प्रकार काट-कसर करके घर का खर्च चला था। भामा पैसों को दाँत तले दबाकर खर्च करती। सास और पति को खिलाकर स्वयं आधे पेट खाकर पानी से ही पेट भरकर उठ जाती। कभी दाल का पानी ही पी लिया करती। कभी शाक उबालकर ही पेट भर लिया करती, रुपए-पैसों की तंगी के कारण घर में प्रायः रोज ही इस प्रकार कलह मची रहती।

जब गंगा प्रसादजी दिन भर की दौड़-धूप के बाद थके-हारे घर लौटे, तब शाम हो रही थी, आँगन में उनकी माँ उदास बैठी थीं, बेटे को देखा तो नीची आँखें कर लीं, कुछ बोली नहीं। गंगा प्रसाद अपनी माँ का बड़ा आदर करते थे। उनका बड़ा खयाल रखते थे। जिस बात से उन्हें जरा भी कष्ट होता, वह बात वे कभी न करते थे। माँ को उदास देखकर वे माँ के पास जाकर बैठ गए, प्यार से माँ के गले में बाँहें डाल दीं, पूछा, ‘‘क्यों माँ! आज उदास क्यों है, क्या कुछ तबीयत खराब है?’’

‘‘नहीं, अच्छी है।’’

‘‘कुछ तो हुआ है माँ। आज तू उदास है।’’

अब माँजी से न रहा गया, फूट-फूट के रोने लगीं, बोलीं, ‘‘कुछ नहीं, मैं आदमी-औरत में लड़ाई नहीं लगवाना चाहती, बस इतना ही कहती हूँ कि अब मैं इस घर में न रह सकूँगी। मेरे लिए अलग एक झोंपड़ा बनवा दे, वहीं पड़ी रहूँगी। जी में आवे तो खरच भी देना, नहीं तो माँग के खा लूँगी।’’

‘‘क्यों माँ? क्या कुछ झगड़ा हुआ है? सच-सच कहना।’’

‘‘आज ही क्या? यह तो तीसों दिन की बात है। तेरी घरवाली ने मोहन से मिठाई मँगवाई। वह दोना भर मिठाई मेरे सामने लाया। मैं जरा पूछने गई, तो कहती है, ‘हाँ, मँगवाती हूँ, खाती हूँ, अपने आदमी की कमाई खाती हूँ, तुम्हारे बाप का तो कुछ नहीं खाती।’ जब मैंने कहा कि तेरा आदमी है तो मेरा भी तो बेटा है, उसकी कमाई में मेरा भी हक है, तो कहती है कि तुम्हारा हक जब था, तब था, अब तो सब मेरा है, ज्यादा बोलोगी तो मार के घर से निकाल दूँगी। तो बाबा, तेरी औरत है, तू ही उसकी मार सह, मैं माँग के पेट भले ही भर लूँ, पर बहू के हाथ की मार न खाऊँगी।’’

गंगा प्रसाद अब न सह सके, बोले, ‘‘वह तुझे मारेगी माँ। मैं ही न उसके हाथ-पैर तोड़कर डाल दूँगा।’’ कहते हुए वे हाथ की लकड़ी उठाकर बड़े गुस्से से भीतर गए। भामा को डाँटकर पूछा, ‘‘क्या मँगवाया था तुमने मोहन से?’’

गंगा प्रसाद के इस प्रश्न के उत्तर में ‘‘कदंब के फूल थे, भैया!’’ कहते हुए मोहन ने घर में प्रवेश किया। तब तक भामा ने दोना उठाकर गंगा प्रसाद के सामने रख दिया था। दोने में आठ-दस पीले-पीले, गोल-गोल बेसन के लड्डुओं की तरह कदंब के फूलों को देखकर गंगा प्रसाद को हँसी आ गई।

मोहन ने दोने में से एक फूल उठाकर कहा, ‘‘कितना सुंदर है यह फूल, भौजी!’’

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