आजादी के तराने

हमें तो देश में बस देश-राग गाना है

हर एक छोटे-बड़े को यही सिखाना है,

हमें तो देश में बस देश-राग गाना है।

कोई धनी है कि आकिल है या सियाना है,

कजा के मुँह में तो हिर-फिर के सबको जाना है॥

मरे वतन के लिए जो मिटे वतन के लिए,

उसी का मुबारक जहाँ में आना है।

बिठाओ लाख कमीशन तो इसमें क्या हासिल?

तुम्हारे हाथों से क्या खाक हमको पाना है॥

जबान दे के मुकरते हो हर घड़ी हर दम,

तुम्हारी बातों का कुछ भी नहीं ठिकाना है।

गुबार दिल में जो रखते हो फायदा क्या है?

मिलाओ खाक में हमको, अगर मिलाना है॥

यही है वक्त कि उठ बैठो, अब वतनवालो!

तुम्हें जो रंग जमाने में कुछ जमाना है॥

जगदीश, यह विनय है जब प्राण तन से निकले

जगदीश, यह विनय है जब प्राण तन से निकले।

प्रिय देश-देश रटते यह प्राण तन से निकले॥

भारत-वसुंधरा पर सुख-शांति संयुता पर।

शुचि-शस्य-श्यामला पर यह प्राण तन से निकले॥

देशाभिमान धरते जातीय गान करते।

निज देश व्याधि हरते यह प्राण तन से निकले॥

भारत का चित्रपट हो युग नेत्र के निकट हो।

श्री जाह्नवी का तट हो तब प्राण तन से निकले॥

दुःख-दैत्य पर विजय हो अज्ञात रात्रि क्षय हो।

भारत समृद्धि-मय हो तब प्राण तन से निकले॥

उद्योग, शांति, सुख हो आलस्य हो न दुःख हो।

सबका प्रसन्न मुख हो, तब प्राण तन से निकले॥

संकट न दुःख भय हो, सर्वत्र ही विजय हो।

ऐसा सुकाल जब हो तब प्राण तन से निकले॥

सब ही सतत सबल हों, विद्या कला कुशल हों।

कर्तव्य पर अटल हों, तब प्राण तन से निकले॥

देशोपकार करते मन मातृ-भक्ति भरते।

जय-जय स्वदेश रटते, यह प्राण तन से निकले॥

 

आर्य मातृभूमि

आर्य मातृभूमि, तेरे चरणों में सिर नवाऊँ।

मैं भक्ति भेंट अपनी, तेरी शरण में लाऊँ॥

माथे पे तू हो चंदन, छाती पे तू हो माला,

जिह्वा पे गीत तू हो, मैं तेरा नाम गाऊँ।

जिसमें सुपूत उपजें, श्रीराम-कृष्ण जैसे,

उस तेरी धूलि को मैं, निज शीश पै चढ़ाऊँ॥

माना समुद्र जिसकी, धूलिका पान करके,

करता है मान तेरे उस पैर को मनाऊँ।

वे देश मानवाले, चढ़कर उतर गए सब,

गोरे रहे न काले, तुझको ही एक पाऊँ॥

सेवा में तेरी सारे भेदों को भूल जाऊँ,

वह पुण्य नाम तेरा, प्रतिदिन सुनूँ-सुनाऊँ।

तेरे ही काम आऊँ, तेरा ही नाम गाऊँ,

मन और देह तुझ पर, बलिदान मैं चढ़ाऊँ॥

बटुकेश्वर दत्त एवं भगतसिंह का संदेश

भारत माँ के दो लालों ने, माँ का अपमान मिटाने को,

दो गोले बम के फेंक दिए, सोयों को शीघ्र उठाने को।

फिर निर्भय होकर खड़े रहे, हो भय चिंता से दूर वहीं,

सब भाँति वो पूरण तत्पर थे, यूँ माँ की शान बढ़ाने को॥

फिर न्याय की अभिनयशाला में, अविचल निश्चल ने काम दिया,

आजन्म जेल की सजा करी, निज पथ से उन्हें डिगाने को।

वे मानी हैं मिट जाएँगे, मिटकर भी उन्हें मिटाएँगे,

अनशन के व्रत पर डटे हुए, अधिकार न्याय कुल पाने को॥

अब समय नहीं है सोने का, उठकर युवको कुछ काम करो,

रणभूमि में आकर डट जाओ, भारत स्वाधीन कराने को।

संदेश स्वदेश को है उनका, गौरव पर अपने मर जाओ,

या रहो अभय जग में होकर, भारत का भार उठाने को॥

फाँसी के तख्ते पर देशभक्तों के मनोभाव

कहते हैं अलविदा अब हम इस जहान को।

जाकर खुदा के घर फिर आया न जाएगा॥

अहले-वतन अगरचे हमें भूल जाएँगे,

अहले-वतन को हमसे भुलाया न जाएगा।

जुल्मो-सितम से तंग न आएँगे हम कभी,

हमसे सरे-नियाज झुकाया न जाएगा॥

इससे ज्यादा और सितम क्या करेंगे वह,

इससे ज्यादा उनसे सताया न जाएगा।

हम जिंदगी से रूठकर बैठे हैं जेल में,

अब जिंदगी को हमसे मनाया न जाएगा॥

यह सच है मौत हमको मिटा देगी दुहरे से,

लेकिन हमारा नाम मिटाया न जाएगा।

हमने लगाई आग है जो इनकलाब की,

इस आग को किसी से बुझाया न जाएगा॥

यारो है अब भी वक्त हमें देखभाल लो,

फिर कुछ पता हमारा लगाया न जाएगा।

आजाद हम कर न सके अपने मुल्क को,

खंजर का मुँह खुदा को दिखाया न जाएगा॥

कर्मवीर

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

देखकर जो विघ्न-बाधाओं को घबराते नहीं,

रह भरोसे भाग्य के दुःख भोग पछताते नहीं।

काम कितना ही कठिन हो किंतु उकताते नहीं,

भीड़ में चंचल बनें जो वीर दिखलाते नहीं॥

होते हैं यक आन में उनके बुरे दिन भी भले,

सब जगह सब काल में रहते हैं वे फूले-फले।

आज जो करना है कर देते हैं उसको आज ही,

सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही॥

मानते जी की हैं सुनते हैं सदा सबकी कही,

जो मदद करते हैं अपनी इस जगत् में आप ही।

भूलकर वे दूसरे का मुँह कभी तकते नहीं,

कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं॥

जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं,

काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं।

आज-कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं,

यत्न करने में कभी जो जी चुराते हैं नहीं॥

बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए,

वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए।

गगन को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर,

वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर॥

गरजती जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर,

आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लवर।

ये कँपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं,

भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं॥

चिलचिलाती धूप को जो चाँदनी देवें बना,

काम पड़ने पर करें जो शेर का भी सामना।

हँसते-हँसते जो चबा लेते हैं लोहे का चना,

‘है कठिन कुछ भी नहीं’, जिनके है जी में यह ठना॥

कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं,

कौन सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं।

ठीकरी को वे बना देते हैं सोने की डली,

रेग को भी कर दिखा देते हैं वे सुंदर गली॥

वे बबूलों में लगा देते हैं चंपे की कली,

काक को भी वे सिखा देते हैं कोकिल-काकली।

ऊसरों में हैं खिला देते अनूठे वे कमल,

वे लगा देते हैं उकठे काठ में भी फूल-फल॥

काम को आरंभ करके यों नहीं जो छोड़ते,

सामना करके नहीं जो भूलकर मुँह मोड़ते।

जो गगन के फूल बातों से वृथा नहिं तोड़ते,

संपदा मन से करोड़ों की नहीं जो जोड़ते॥

बन गया हीरा उन्हीं के हाथ से है कारबन,

काँच को करके दिखा देते हैं वे उज्ज्वल रतन।

पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे,

सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे॥

अगम जलनिधि-गर्भ में बेड़ा चला देते हैं वे,

जंगलों में भी महा-मंगल रचा देते हैं वे।

भेद नभ-तल का उन्होंने है बहुत बतला दिया,

हैं उन्होंने ही निकाली तार की सारी क्रिया॥

कार्य-थल को वे कभी नहिं पूछते ‘वह है कहाँ’,

कर दिखाते हैं असंभव को वही संभव यहाँ।

उलझनें आकर उन्हें पड़ती हैं जितनी ही जहाँ,

वे दिखाते हैं नया उत्साह उतना ही वहाँ॥

डाल देते हैं विरोधी सैकड़ों ही अड़चनें,

वे जगह से काम अपना ठीक करके ही टलें।

जो रुकावट डालकर होवे कोई पर्वत खड़ा,

तो उसे देते हैं अपनी युक्तियों से वे उड़ा॥

बीच में पड़कर जलधि जो काम देवे गड़बड़ा,

तो बना देंगे उसे वे क्षुद्र पानी का घड़ा।

वन खँगालेंगे करेंगे व्योम में बाजीगरी,

कुछ अजब धुन काम के करने की उनमें है भरी॥

सब तरह से आज जितने देश हैं फूले-फले,

बुद्धि, विद्या, धन-विभव के हैं जहाँ डेरे डले।

वे बनाने से उन्हीं के बन गए इतने भले,

वे सभी हैं हाथ से ऐसे सपूतों के पले॥

लोग जब ऐसे समय पाकर जनम लेंगे कभी।

देश की औ’ जाति की होगी भलाई भी तभी॥

हमारे संकलन