भारतीय संस्कृति लोक-संस्कृति में जीवंत है

भारतीय संस्कृति लोक-संस्कृति में जीवंत है

तो संपूर्ण विश्व की संस्कृति मानवमूलक ही है, जिसमें मानव के जीवन का उद्देश्य, उसके व्यवहार एवं क्रियाकलापों का निर्देश और संग्रह होता है। मानव के व्यवहार में ही परिलक्षित होती है वहाँ की संस्कृति। जो संस्कृति जितनी पुरानी होगी, जिसके सूत्रों का निर्माण जितने दूरद्रष्टा विद्वानों द्वारा किया गया होगा, उस संस्कृति के लोक के क्रियाकलापों में उस देश की संस्कृति का ही प्रकटीकरण होगा—विशेष वेशभूषा, भाषा एवं विशेष लोकसंदर्भ के साथ। समय-समय पर भारत में विदेशियों का भी आक्रमण या स्थायी निवास होता रहा है। वे अपनी संस्कृति लेकर भले ही आए, पर इतिहास साक्षी है कि वे भारतीय संस्कृति में रच-बस गए। भारत माँ की संतान हो गए। कविवर रवींद्र ठाकुर की पंक्तियाँ हैं—

हेथाय आर्य, हेथा अनार्य, हेथाय द्राविड़ चीन

शक, हूण-दल, पाठान-मोगल, एक देहे होलो लीन।

उन्हें भारत माँ के पवित्र एवं ममतामयी आँचल में समाने में यहाँ की लोक-संस्कृति का ही योगदान रहा है। यह इस संस्कृति की ही विशेषता रही कि भरतखंड भूमि को ही ‘भारत माँ’ की संज्ञा देकर लोक ने भी इसे आत्मसात् किया है।

यह सच है कि भारत की संस्कृति पुरातन संस्कृति है। ऋषि-मुनियों ने अध्ययन, शोध एवं प्रयोग के द्वारा मानवता के उत्थान और जीवन को प्रकृति के संग चलायमान रखने के लिए विभिन्न सूत्रों की खोज की। उन्होंने अपना ज्ञान अपने तक सीमित नहीं रखा। उनके द्वारा खोजे जीवन-मूल्यों को लोक धारण करे, यही उनका उद्देश्य था। दरअसल व्यक्ति और समाज को सुखमय बनाने के लिए किसी भी सिद्धांत की प्रयोगशाला के रूप में लोकजीवन को ही चुना जाता है। ‘लोक’ एकवचन नहीं होता। वह समूह है। इसलिए समूह का चिंतन-मनन-व्यवहार एक सा होता है। चूँकि वे समूह में रहते आए, इसलिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने जीवन-मूल्यों को धारण करते आए हैं। भारत की संस्कृति लोक-मानस और लोक-व्यवहार में बसती है। यदि किसी शोधकर्ता को भारत की संस्कृति का अध्ययन करना है तो वह लोक-जीवन का ही अध्ययन करता है। और आज भी भारत की संस्कृति के सूत्र लोक-जीवन के रिश्ते-नाते, पर्व-त्योहार, सोलहों संस्कार की लोक-रीतियों, लोक-व्यवहारों और लोक-साहित्य में मिलते हैं। अब विद्वानों ने पहले शास्त्र या पहले लोक के विवाद को समाप्त कर दोनों में ‘लोक’ को ही प्रथम मान लिया है।

भारतीय संस्कृति प्रकृतिमूलक भी है। प्रकृति के साथ जीवमात्र का रागात्मक और निर्भरात्मक संबंध है। यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। भारतीय संस्कृति के इस महत्त्वपूर्ण सूत्र को इस भूमिखंड पर मनाए जानेवाले पर्व-त्योहारों में भलीभाँति प्रकट होते देखा जाता है। पर्व-त्योहार मनाते हुए दूब-धान से लेकर पेड़-पौधों की डाली, पत्ते, सूखी डाली, सभी का प्रयोग होता है। आम की सूखी डालियों से हवन तो आम के जीवंत हरे पत्तों सहित डाली को कलश में रखा जाता है। कई त्योहारों के समापन के बाद विभिन्न पशु-पक्षियों को भोज खिलाया जाता है। पवित्र नदी गंगा का जल हर पूजा और कई संस्कारों में काम आता है।

रिश्ते-नातों के बीच सभी संबंधों में अपनत्व का रंग दिखता है। लोक-साहित्य भारतीय संपूर्ण संस्कृति के सूत्रों का वाहक है। कथा, कहानी, काव्य, पर्व-त्योहारों के गीत, संस्कारों के गीत, सब के सब भारतीय संस्कृति के संवाहक बनते आए हैं। इससे मानव का प्रशिक्षण होता आया है। हर कालखंड में समाज के विकास में ‘पुरानी नींव, नया निर्माण’ का ही लक्ष्य और स्वरूप रखा गया। तभी हम कह पाते हैं कि हमारी संस्कृति सनातन एवं अधुनातन भी है।

भारत का ग्रामीण-जीवन और लोक-जीवन सदा समृद्ध रहा है। इसकी जीवंतता और समृद्धि का कारण वहाँ के समृद्ध लोक-जीवन और लोक-साहित्य ही रहे हैं। बचपन में दादा-दादी, नाना-नानी, पंडितों, सेवक-सेविकाओं या किसी कथावाचक से सुनी हुई कहानियों को बच्चे बड़े होकर आनेवाली पीढ़ी को सुनाते रहे हैं। इसलिए इन लोककथाओं, लोकगीतों, कहावतों की उत्पत्ति का काल निर्धारित नहीं किया जा सकता। लेकिन कई पीढि़यों पूर्व की कथाएँ सुनने, गीतों को गाने और कथाओं को कहते-सुनते हुए ऐसा ही लगता है, मानो आज के पारिवारिक-सामाजिक परिदृश्य पर कही गई कथा है। सिद्ध होता है कि सनातन जीवन में डाले गए बीज आज भी व्यवहार में प्रकट होते हैं। इन लोककथाओं के माध्यम से भी पारिवारिक जीवन में पशु-पक्षी, पहाड़, वृक्ष, लताओं की उपस्थिति है। उनके साथ पूरकता का सिद्धांत व्यवहार में प्रकट होता है। प्रकृति में विराजमान ये पात्र जीवंतता के साथ मानव जीवन के घात-प्रतिघातों में उपस्थित होते देखे जाते हैं। इसलिए भी कि उन प्रसंगों और कथाओं में वे उपस्थित रहते ही हैं। नेवला भैया बन जाता है, बाघ मामू, नदी सहेली, और विभिन्न पेड़-पौधे मित्र बन जाते हैं। चाँद तो मामा है ही। लोककथाओं, काव्य और कहावतों में इनकी उपस्थिति विश्वसनीय ही लगती है। यह सही है कि लोक-साहित्य लोक-जीवन का प्रतिबिंब है। और लोक-जीवन भारतीय संस्कृति का संवाहक। लोक-जीवन कश्मीर का हो या गुजरात का, अरुणाचल प्रदेश का हो या तमिलनाडु का, एक ही भाव और उद्देश्य के लोकसाहित्य मिलते हैं। केवल भाषा और थोड़ा बहुत परिवेश की भिन्नता लिये हुए। यह भी सिद्ध करता है कि लोक-संस्कृति ही विभिन्नताओं में एकता कायम रखती है, जो भारतीय संस्कृति की विशेषता है।

लोक-जीवन में जितने भी रिश्ते-नाते और संबंध हैं, संपूर्ण भारत में उनकी तासीर एक ही है। पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण या मध्य भारत से किसी भी रिश्ते को उठा लें—माँ, भाई, बुआ, चाचा, चाची, वे एक ही रूप और व्यवहार के मिलते हैं। जननी तो सार्वदेशिक क्या भूलोकीय है। एक ही भाव। सबके सब एक-दूसरे के लिए जीते हुए दिखते हैं। एक-दूसरे से अटूट प्रेम-संबंध में बँधे हैं। एक-दूसरे के लिए जीना और प्रेम-संबंध में बँधे रहना, यह भारतीय संस्कृति का सूत्र है। लेकिन लोक-जीवन में ही इसका प्रकटीकरण होता है। लोक-जीवन के बिखर जाने पर भारतीय संस्कृति के सूत्र भी बिखरने लगते हैं।

बिहार के समाज में एक प्रसिद्ध लोक-काव्य सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहा है। कथा में एक चिडिया के श्रम का स्वाभिमान दिखाया गया है—

चिडिया—‘‘बरही-बरही खूँटा चीड़ो, खूँटा में दाल बा,

का खाऊँ, का पीऊँ, काल्हे परदेस गइली, आज मोरा उपास।’’

बरही—‘‘नहीं, मैं तुम्हारी एक दाल के लिए चक्की का खूँटा नहीं चीडूँगा।’’

चिडिया—‘‘राजा-राजा बरही डारो, बरही न खूँटा चीड़े

खूँटा में दाल बा, का खाऊँ, का पीऊँ,

काल्हे परदेस गइली, आज मोरा उपास।’’

राजा—‘‘इस चिडिया के लिए एक बोरी दाल छिंटवा दो।’’

चिडिया—‘‘रानी-रानी राजा समुझावो, राजा न बरही डारे

बरही न खूँटा चीड़े, खूँटा में दाल बा, का खाऊँ, का पीऊँ,

काल्हे परदेस गइली, आज मोरा उपास।’’

रानी—‘‘मैं एक दाल के लिए बरही को डारने के लिए नहीं कहूँगी। आँगन में दाल छिंटवा दो।’’

चिडिया—‘‘साँप-साँप रानी डसो, रानी न राजा समुझावे

राजा न बरही डारे...।’’

साँप—‘‘मैं तुम्हारी एक दाल के लिए रानी को नहीं डसूँगा।’’

चिडिया—‘‘लाठी-लाठी साँप मारो, साँप न रानी डसे

रानी न राजा समुझावे...।’’

लाठी—‘‘मैं तुम्हारी एक दाल के लिए साँप को नहीं मारूँगा।’’

चिडिया—‘‘आग-आग लाठी जारो, लाठी न साँप मारे

साँप न रानी डसे, रानी न राजा समुझावे,

राजा न बरही डारे, बरही न खूँटा चीड़े, खूँटा में दाल...।’’

आग—‘‘खूँटा में फँसी एक दाल के लिए मैं लाठी को नहीं जलाऊँगी।’’

चिडिया (गुस्से में)—‘‘समुद्र-समुद्र आग बुझाओ, आग न लाठी जारे,

लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डसे, रानी न राजा समुझावे

राजा न बरही डारे, बरही न खूँटा चीड़े,

खूँटा में दाल बा, काल्हे परदेस गइली, आज मोरा उपास।’’

समुद्र के द्वारा भी मना करने पर चिडिया सर्वशक्तिमान सूरज की ओर बढ़ती है। काफी ऊँचाई पर जाने के उपरांत उसके पंख झुलसने लगते हैं। सूरज को उस पर दया आ जाती है। वह अपनी किरणों की ताप तेज कर लेते हैं।

सूर्य—‘‘चिडिया तुम नीचे जाओ, मैं समुद्र को सोखता हूँ।’’

(समुद्र ने सुन लिया)

समुद्र—‘‘हमें सोखो-ओखो मत कोई, हम आग बुझायब लोई।’’

उपरोक्त लोक-काव्य में चिडिया के श्रम का सम्मान है। वह चिडिया स्वाभिमानी है। अपने श्रम से उपार्जित दाना ही खाना चाहती है। हठी चिडिया राजा-रानी, आग, समुद्र, लाठी किसी की बात नहीं मानती। इनमें से कोई भी घटक उसके स्वाभिमान की पहचान नहीं कर पाता है। सूर्यदेव चिडिया के मनोभाव को समझ जाते हैं और सागर को सोखने का दंड देना चाहते हैं। धीरे-धीरे क्रम से नीचे उतरते हुए ऊपर वाले की बात सब मानते जाते हैं और अंत में बढ़ई खूँटा चीर देता है। चिडिया उसमें फँसा हुआ आधा दाना चोंच में लेकर उड़ जाती है। वह ऊपर की ओर उड़ती है मानो सूर्य को धन्यवाद दे रही है।

इस लोककथा के माध्यम से सामाजिक जीवन जीते हुए पारिवारिक और सामाजिक संबंध ही नहीं, वरन् आग, लाठी, समुद्र, सूर्य के बीच के संबंधों की तासीर का भी वर्णन है। भारतीय संस्कृति में ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु, या पश्यति सा पण्डितः’ कहा गया है। लोक-जीवन में प्रसारित इस लोककाव्य के माध्यम से सभी भूतों में एकात्मता दरशाई गई है। वहीं आत्मवत् संबंध भी दिखाया गया है। यह भारतीय संस्कृति के मूल में है। लोक-संस्कृति ने इसे जीवित रखा है।

भारतीय संस्कृति का मूलाधार समाज-जीवन की प्रथम इकाई परिवार है, व्यक्ति नहीं। लोक-संस्कृति के विभिन्न आयामों में परिवार की सुदृढता पर विशेष ध्यान दिया गया है। हमारे परिवारों में एक-दूसरे के लिए जीने और कर्तव्य करने के महत्त्व बताए गए हैं। परिवारों में अधिकारों की माँगें नहीं उठती रही हैं। एक के कर्तव्य में दूसरे का अधिकार छिपा रहा है। और ऐसा व्यवहार परिवार को जीवंतता प्रदान करता रहा है। भारतीय परिवारों के उदाहरण पश्चिम के देशों में भी दिए जाते हैं। जहाँ व्यक्तिगत जीवन है ही नहीं। पारिवारिक जीवन है। और लोक-जीवन के द्वारा परिवार भाव को भी जीवित रखा जाता रहा है। परिवारों में ही बच्चों के अंदर राष्ट्रभक्ति भाव का बीजारोपण होता रहा है। परिवेश के इन दायित्वों को पूर्ण करने में लोक-संस्कृति का बहुत बड़ा योगदान होता है।

परिवार का आधार वैवाहिक संस्कार है। विवाह मनुष्य जीवन के महत्त्वपूर्ण सोलह संस्कारों में से एक है। भारतीय संस्कृति में विवाह के बारे में गंभीरता और वैज्ञानिक सोच से विचार किया गया। विवाह के पूर्व लड़का और लड़की के चयन में दोनों परिवारों के संस्कारों को देखा और मिलाया जाता रहा है। वर और वधू खोजनेवाले दोनों परिवारों के वंशानुगत स्वास्थ्य का भी निरीक्षण करते रहे हैं। बहुत अधिक खोजबीन करके विवाह निश्चित होते आए हैं। आर्थिक दृष्टि से भी परिवार अपने पाँव पर खड़ा हो, यह देखा जाता रहा है। गाँव में किसी भी लड़की या लड़के का विवाह निर्धारित करने में लोक-जीवन की बहुत बड़ी भूमिका रहती आई है। भारतीय समझ, चिंतन और व्यवहार में ‘गाँव की बेटी, सबकी बेटी’ समझी, मानी और व्यवहार की जाती रही है। बेटी के प्रति गाँववालों का व्यवहार विशेष स्नेह और अपनत्व में सना रहता आया है। उसकी सुरक्षा की ओर भी संपूर्ण गाँववाले ध्यान देते आए हैं। जहाँ कहीं भी इस भाव और व्यवहार की सतर्कता में चूक होती देखी गई, लड़की के ऊपर अत्याचार हुआ, उसका केवल परिवार नहीं, सारे गाँव पर दुःखद प्रभाव पड़ता है। इस भाव और व्यवहार को कायम रखने में लोक-जीवन का ही महत्त्व रहा है। लोक-जीवन में भारतीय दर्शन का सूत्र ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ व्यवहार में देखा जाता रहा है।

सबसे महत्त्वपूर्ण पारिवारिक व्यवहार अपने सदस्यों को हर संस्कार पर जोड़ने का रहा है, जैसे—बच्चे के जन्म, मुंडन, उपनयन और विवाह संस्कार के अवसर पर ब्याहकर दूर गाँव चली गई परिवार की बेटियों का भी उपस्थित रहना और उनके द्वारा महत्त्वपूर्ण रस्म निभाने का रहा है। ऐसे व्यवहारों को लोकगीतों के माध्यम से व्याख्यायित किया जाता रहा है—

ननदिया बिनू ना शोभे मँडवा

ननदोइया बिनू ना शोभे दुअरा।

ऐसे गीतों के माध्यम से पारिवारिक लोक-संस्कृति को जीवंत रखा जाता रहा है।

गाँवों में सब जातियों के लोगों का सहजीवन रहता आया है। एक-दूसरे पर निर्भरता का उत्कृष्ट उदाहरण। ब्रह्मण, नाई, धोबी, माली, चमार, तेली, बरही, पन्हेरी, सुनार जैसी अनेकानेक जातियाँ साथ-साथ रहती थीं। हर संस्कार पर इन जातियों की सामूहिक भूमिका रहती आई है। सबका सम्मान। गाँव में किसी एक जाति का परिवार नहीं हो तो दूसरे गाँव से उस जाति के परिवार को संस्कार में भागीदारी का सस्नेह निमंत्रण दिया जाता है। इसलिए भी गाँववालों की कोशिश होती रही है कि उनके गाँवों में उन सभी जातियों के परिवारों का रहना आवश्यक है, जिनकी भागीदारी संस्कारों की पूर्ति के समय निर्धारित की गई है। इस लोक-संस्कृति के व्यवहार में भारतीय जीवन की एकता परिलक्षित होती है। इसलिए लोक-संस्कृति को जीवंत रखनेवाला ग्रामीण जीवन भारतीय संस्कृति का स्तंभ होता था। संवाहक भी। गाँव में सभी जातियों के सदस्यों के बीच बाबा, चाचा, काका, भैया तथा दादी, चाचा और चाची का संबोधन बोला जाता रहा है।

इन संस्कारों के अलावा गाँवों में बहुत सारे तीज-त्योहार होते हैं। इन त्योहारों की कथाओं में भारतीय जीवन के सूत्रों को पिरोया हुआ पाया जाता है। जैसे हर व्रतकथा के उपरांत सामूहिक रूप से महिलाएँ कामना व्यक्त करती हैं—जैसा दुःख राजा के जीवन में आया (कथा में वर्णित) वैसा दुःख किसी के जीवन में नहीं आए। जैसा सुख राजा के जीवन में बहुरा (फिर से आया), वैसा सुख सबके जीवन में बहुरे।’’ कथा कहने और सुननेवाली महिलाएँ और पुरुष नहीं जानते, पर उनका उद्बोधन ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः’ को ही आत्मसात् किए हुए होता है। यह भी सत्य है कि लोक-जीवन में अपने लिए जीना नहीं होता, एक-दूसरे के लिए जीना होता है।

जितने भी लोक-व्यवहार हैं, वे लोक-संस्कृति के प्रकटीकरण हैं और हर क्षेत्र की लोक-संस्कृति भारतीय संस्कृति के बीजतत्त्व को आत्मसात् करके चलती है। लोक-संस्कृति में ही राष्ट्रीय एकत्व भाव के बीजारोपण भी होते हैं। इसलिए हम अपनी संस्कृति का जितना भी यशोगान करें, वह लोक-संस्कृति का ही गुणगान है।

भारत गाँवों का देश रहा है। आज शहरों की संख्या और उनके बाशिंदों की संख्या दिनानुदिन बढ़ती जा रही है। ऐसा नहीं कि शहरी जीवन में लोक-संस्कृति लुप्तप्राय हो रही है। वहाँ भी लोक-जीवन है और लोक-संस्कृति जीवित है। उनमें भी भारतीयता की छाप है। इसे भी मानना होगा कि नई पीढ़ी में तेजी से बदलाव आया है। बहुत कुछ बदला-बदला दिखता है। यह भी उतना ही सही है कि जितनी तेजी से लोक-संस्कृति में बदलाव आता है, पुनः दुगुनी गति से अपनी पुरातन संस्कृति के पुरातन तत्त्वों को लोक-जीवन में ढालने की कोशिश होती है। समय के अनुसार उसके रूप में अवश्य परिवर्तन दिखता है। इस गिरावट और उत्थान का साक्षी इतिहास के अनेकानेक खंड रहे हैं। आनेवाले समय में आज के कालखंड की भी ऐसे ही ऐतिहासिक कालों में गणना होगी। और आनेवाली सदियों में भी हम कवि इकबाल के भाव को जीते रहेंगे—

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,

सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जमाँ हमारा।

बस, लोक-जीवन को बचाए रखना है।

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