निमाड़ मालवा अंचल की माँड़ना लोककला

निमाड़ मालवा अंचल की माँड़ना लोककला

निमाड़ अंचल में माँड़ना कला लेखन, स्वागत, भक्ति, स्वच्छता व प्रसन्नता की प्रतीक मानी जाती है। ऐसी मान्यता है कि घर-आँगन में माँड़ने बनाने से सुख-समृद्धि आती है। इसी कारण आज भी निमाड़ अंचल में महिलाएँ अपने घरों को लीप-पोतकर माँड़नों से सज्जित करती हैं। घरों के बाहरी भाग में, आँगन में, कमरे के आलों को सुंदर बनाने हेतु फूल-पत्ते, बेलबूटे, पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों व मानव की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। ग्रामीण नारी अपनी कला-संस्कृति, रुचियों, आंतरिक भावनाओं को माँड़ने के माध्यम से अभिव्यक्त करती है। रंग व कूची के द्वारा समूचे परिवेश में वे उमंग, उल्लास व खुशियों के रंग बिखेरती हैं।

निमाड़ क्षेत्र में माँड़नों के बारे में एक मिथ कथा प्रचलित है। एक बार शिव व पार्वती में शर्त लगी। शिव ने कहा, ‘‘मैं जब भी घर आऊँ तो घर का आँगन जगमगाता हुआ सुंदर दिखना चाहिए। वरना मैं हिमालय पर्वत चला जाऊँगा।’’ पार्वती बोलीं, ‘‘ठीक है, यदि मैंने घर-आँगन को जगमगाकर चमका दिया तो क्या होगा?’’

शिव बोले, ‘‘तुम्हारा काम पूरे विश्व में प्रसिद्ध होगा।’’ पार्वती ने गोबर मँगवाकर आँगन को लीप दिया। देखा कि आँगन सुंदर तो लग रहा है, पर जगमगा नहीं रहा। तभी शिव आ पहुँचे। उन्होंने भी यही बात कही कि आँगन सुंदर तो लग रहा है, पर जगमगा नहीं रहा। और वे रूठकर हिमालय जाने को तैयार हो गए। तभी पार्वती उन्हें रोकने के लिए दौड़ीं तो ओरल (आटा व रोली) की लीप पर पैर की टक्कर लगी। पार्वती के चरणों की आकृति से आँगन जगमगा उठा। यह देखकर शिवजी प्रसन्न हो उठे और बोले, ‘‘आज से माँड़न पूरे संसार में घरों की शोभा बढ़ाएँगे। जिस घर में ये बनेंगे, वहाँ सुख-समृद्धि व शांति होगी।’’ कहा जाता है, तभी से आँगन लीपने के बाद कोरा नहीं छोड़ा जाता। उसमें आटा व रोली से तुरंत माँड़ने बनाए जाते हैं। इन्हें शुभ व कल्याणकारी माना जाता है।

मालवा अंचल में धरती को माता का स्थान देते हुए उसका शृंगार करने की परंपरा है। इसीलिए मालवा क्षेत्र में घर, आँगन, देहलीज व पूजन-स्थल में माँड़ना आकृतियाँ बनाकर धरा का शृंगार कर समूचे वातावरण को श्रद्धा व सौंदर्य से परिपूर्ण माना जाता है। वहाँ दीवारों पर माँड़नों की आकृतियाँ घर-घर में देखी जाती हैं। लिपे-पुते आँगन, मुख्यद्वार की देहलीज, चबूतरे में बनी रोचक-मनमोहक आकृतियों को देखकर मन पुलकित हो उठता है—

मालवा का मांडणा में, लागी री होड़।

आखी दुनिया में, कोनी मांडणा की तोड़॥

हर तीज-त्योहार, शुभ कार्य पर माँड़ने की परंपरा मालवा की विशेषता है। मान्यता है कि आँगन खाली नहीं रखना चाहिए, क्योंकि अलंकृत धरती देखकर लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। माँड़ना दिन में ही बनाए जाते हैं, रात को नहीं। साथ ही इन्हें एक बार में पूरा बना लिया जाता है, अधूरा नहीं छोड़ा जाता।

सामग्री—गेरू, रामरज, खडि़या, लाल मिट्टी व कूची। माँड़ने का सौंदर्य उँगलियों के पोरों के जादू से नाच उठता है।

दीवाली—दीपावली दीपों व रंगों का त्योहार है। खुशियों के रंग बिखेरते हुए घरों की देहरी व दीवारों, आँगन में माँड़ने सौंदर्य को जगमग कर देते हैं। दीवारों पर कोड़ी-मड़ेले, तोता, मोर, हल, बक्खर, बैलगाड़ी, केले या झाड़, खजूर, दीपक, पगल्या व स्वास्तिक बनाने की परंपरा है।

स्वास्तिक—दीपावली में कुंकुम से स्वास्तिक (सातिया) को निर्मित करती महिलाएँ मन के उद्गार कुछ यों अभिव्यक्त करती हैं—

कूँकूँ का साँत्या से चौक पुरावो।

दर्शन के रोज थारा देवरो पे आवाँ।

पगल्या—पगल्या यानी पैरों के चिह्न। दीपावली का शुभ अवसर हो या नववधु का प्रथम बार गृह-प्रवेश हो या प्रथम संतान के जन्म पर उसके समाचार परिवार जनों के पास पहुँचाने का तरीका, पगल्या मुख्य द्वार की डेल के सामने बनाया जाता है।

लक्ष्मी पूजन—महालक्ष्मी पूजन हो या दीपावली पूजन या फिर देवउठनी एकादशी, लक्ष्मी के चरण-चिह्न बनाने की परंपरा मालवा अंचल में है। माँड़ने शुभ होने के कारण लक्ष्मी को प्रसन्न करते हैं। दीपावली में मुख्य द्वार के बाहर दोनों ओर पूजन स्थल पर लक्ष्मीजी के पगल्या (चरण चिह्न) बनाए जाते हैं। समृद्धि के अंकन के पीछे शुभ-लाभ की ये आस्था सदियों से चली आ रही है।

चालो यो जरणी पग दोई चालो।

कँूकूँ रा पगल्या मंड़ेगा।

विवाह के अवसर पर वधु जब प्रथम बार गृह-प्रवेश करती है तो कुंकुम के घोल में पैर डुबोकर घर में कदम रखती है। लाल पदचिह्नों से घर-परिवार धन-धान्य से परिपूर्ण रहता है।

पुत्र-जन्म पर कुंकुम के पगल्ये, नवजात शिशु के जन्म पर रिश्तेदारों को शुभ समाचार भेजने केलिए एक कागज पर हलदी, कुंकुम या रोली से पगल्या चिह्न बनाकर भेजे जाते हैं। ये शुभ चिह्न नन्हे शिशु के आगमन से सबको हर्षित करते हैं, साथ ही निमंत्रण का काम भी। सबसे पहले पगल्या दादा, दादी, बुआ व मामा के घर भेजा जाता है।

सामग्री—कागज, रोली, हलदी, कुंकुम व कूची।

विधि—पगल्या चिह्न के साथ कागज में पेड़े, खिलौने (चूसनी व खुनखुना बाजोर (काष्ठ वेदी), व्यानी-व्यान (समधी-समधिन), सातिया, बच्चे का चित्र व पालना भी बनाया जाता है।

गणगौर तीज पर—पांडु सफेद पत्थर पिसा चूर्ण, काजल, कुंकुम या मेहँदी, चावल, हलदी के घोल से दीवार पर गेरू से माँड़ने बनाए जाते हैं। दो औरतें, सूर्य, चंद्रमा व नसैनी, गुलाबी, लाल, काला, हरा, केसरिया, पाँच रंगों की १६-१६ बिंदिया बनाती हैं। ये कुंकुम, गुलाल, काजल तथा मेहँदी से बनाई जाती हैं।

देवउठावनी एकादशी—देवउठनी ग्यादस को तुलसी विवाह में माँड़ने बनाने की परंपरा मालवा अंचल में बखूबी देखी जा सकती है। घरों को लीप-पोतकर दरवाजे व आँगन में तुलसी चौरा के पास पूजन-स्थल पर माँड़ने बनाए जाते हैं। महिलाएँ अपने मन की भावनाएँ व्यक्त कुछ यों करती हैं—

ग्यारस उबीजी, आँगणे धरम उठो डेली माय।

अष्टदल का फूल बनाते हुए चौक पूरा जाता है। लक्ष्मी के चरण-चिह्न पगल्या बनाए जाते हैं, शंख, चक्र, गदा, कमल का फूल भी।

आध्यात्मिक महत्त्व—चार माह तक विष्णु भगवान् का शयन व कार्तिक की एकादशी में उठना तथा तुलसी-विवाह का पौराणिक महत्त्व है। देवों के देव विष्णु के जागने पर घर-आँगन जगमगा उठे, ऐसे में माँड़नों के बनाने की परंपरा है।

विवाह के अवसर पर भी विवाह वेदी के चारों ओर मंडप में माँड़ने बनाए जाते हैं। कुल देवता की स्थापना में भी माँड़नों से उनका स्वागत किया जाता है—

मैं तो नित लित लींपू सैयाँ,

आँगणो अणी अवसरियो हाँ।

मांडू माणक चौक कुलदेवता, पदारिया पायेणा॥

आदिवासी इलाकों में लगन (विवाह) में दूल्हे के आसन के बीच गेरुआ मिट्टी से चौक बनाते हैं—यह आकृति धन चिह्न होती है, जिसके चारों तरफ कई वृत्त, आकृतियाँ बनाकर सज्जा की जाती है।

मित्ति (चित्र)—माँड़ने—बहन के विवाह में माँड़ने बनानेवाले को भाई आमंत्रित करता है, ताकि खुशी, आनंद व सुंदरता से शुभ कार्य का वातावरण बन सके।

बेन्या बाई का ब्यार, में चालो नी चितारा।

चौक पूरना—मालवा क्षेत्र में चौक पूरना किसी भी शुभ कार्य, पूजन, पर्व में शुभ माना जाता है। शुभ कार्य की शुरुआत में गणपति का आह्वान चौक पूरते हुए कितना मंगलकारी लग रहा है—

ए के केसर घोलूँ, बाई म्हारो आँगण लिपाड़।

गज मौतिन को चौक, पुरावो।

ए के वणा चौकज पे बाई म्हारा गणपतजी बैठा,

करो दो बेन्या वीरा की आरती।

कुंकुम चंदन से चौक पूरने का भाव मन को सुरभित कर देता है—

कूंकू से चौक पुरावो म्हारी सजनी, चंदन का पार लगई दो रे!

मालवा में गंगा पूजन, विवाह में गाय माता, जन्म पर पगल्या, शीतला सातें पर हलदी, कुंकुम के हांते, देवउठनी एकादशी पर चौक पूरना, दीपावली पर गेरू, खडि़याँ के माँड़ने, नागपंचमी में पाँच नागों के चित्र, श्राद्ध पर्व पर संजा का अंकन करती लोक गीतों की मिठास का रंग घोलती हुई ग्राम वधुएँ, बहू-बेटियाँ, कृषक बालाएँ समूचे परिवेश को पावन, मंगलमय बना देती हैं। घर-आँगन खुशियों से महक उठता है, दमक उठता है।

मालवा के माँड़नों में चौक, सातिया/पगल्या, फूल छावड़ी जलेबी, दीपक, हीड़ जैसे मांड़नों को अनेक परंपरागत भांते जुआ, बेल चीरण, भँवर, फूल, बिंदी, झाड़ से भरा जाता है। ये माड़ने मांगलिक सुख-समृद्धि व देवताओं के वास के प्रतीक हैं। हमारी आस्था के प्रतीक हैं। पारंपिक लोककला व संस्कृति की अनमोल विरासत हैं।

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