एक डॉक्टर की कथा

एक डॉक्टर की कथा

डॉक्टर साहब साहब बाद में हुए, पहले उनका नाम अमर कुमार था। बचपन से ही बच्चे अमर कुमार में डॉक्टरी के कीटाणु कब घुस गए, पता ही नहीं चला। हाँ, उनके पिताजी को जरूर पता चल गया था। बेवजह शांत बैठे मेढकों को पकड़ना और चीड़-फाड़ करने की उत्सुकता दिखाना वे आधारभूत लक्षण थे, जिनके कारण अमर कुमारजी में भारत का भावी डॉक्टर देखा गया। विज्ञान और अमर कुमार में जन्म-जन्मांतर का बैर था, लेकिन पिताजी को ‘डॉक्टर अमर कुमार’ चाहिए था। मूलतः अमर कुमारजी कविताएँ लिखने और प्रेम करने को अपने जीवन का ध्येय समझते रहे, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। भारतवर्ष में दयालु पुरुषों की कमी नहीं है। उन्होंने ऐसी संस्थाएँ बना रखी हैं, जहाँ केवल धनराशि खर्च करने पर ही मनुष्य डॉक्टर या इंजीनियर में तब्दील हो जाता है। अमर कुमारजी बन गए डॉक्टर। डॉक्टर बनने के बाद उनके पिताजी ने समझाया—‘‘बेटा! तुम्हारी पढ़ाई में दस लाख के लगभग धन खर्च हुआ है। खर्च हुआ सो हुआ। दहेज से रिफंड हो जाएगा, लेकिन तुम ऐसी जगह पर डॉक्टरी करो कि हर महीने इतने पैसे आ जाएँ।’’

 

 

वह दिन है और आज का दिन है, अमर कुमारजी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हर मनुष्य उन्हें मरीज दिखता है और हर मरीज में पाँच सौ का नोट। उनकी दर्शन-फी पाँच सौ रुपए है, जो समय और संदर्भ को देखकर उछलती भी है। इमरजेंसी की स्थिति में फीस उछाल ले सकती है। इमरजेंसी प्रभु की इच्छा से भी होती है और मानव की इच्छा से भी। प्रभु की इच्छा से होनेवाली इमरजेंसी में मरीज ऊपर जाता है और डॉक्टर की इच्छा से उत्पन्न की गई इमरजेंसी में डॉक्टर साहब को ऊपर की कमाई हो जाती है। शुरू के दिनों में डॉक्टर अमर कुमार को संघर्ष करना पड़ा। उनको गरीबों को देखकर दया आ जाती थी। मरीजों की परेशानी से परेशान हो जाते थे। इमरजेंसीवाले मरीजों की फीस उधार भी कर लिया करते थे। उनके इस पतन से पिताजी तो परेशान थे ही, साथी डॉक्टर भी कम दुःखी नहीं थे। एक डॉक्टर साँवले ने समझाया—

‘‘ब्रदर, क्यों कुल्हाड़ी पर टाँग मार रहे हो? अपनी मारो तो मारो, तुम तो हमारी टाँगों को भी मार रहे हो। डॉक्टर को भगवान् कहा जाता है। भगवान् बनने का प्रयत्न करो। बिना प्रसाद के वरदान मत दो। द्रवित होने की जरूरत नहीं है। गरीबी और अमीरी देखने का काम हमारा नहीं है। हम निष्पक्ष भाव से निश्चल होकर आदमी को मरीज समझें। भावुकता डॉक्टर के लिए अत्यंत घातक रोग है।’’

इन शब्दों ने रामबाण का काम किया। अमर कुमारजी चेत गए। ‘बिन गुरु होय न ज्ञान।’ साँवले साहब को अपना गुरु मान लिया। लक्ष्मी तो आने लगी, लेकिन छप्पड़ नहीं फटा। अपने साबुत छप्पड़ को देखकर डॉक्टर अमर कुमार अत्यंत खिन्न हो जाते थे। साथी डॉक्टरों के घर हवेली हो गए। बाइक की जगह कार आ गई। कार से काऽऽऽ...र पर आ गए लोग और अमर कुमारजी अब जाकर ले पाए ‘अल्टो’। यही स्पीड रही तो बच्चे अमरीका में कैसे पढ़ेंगे? बीबी को पेरिस घूमने का शौक है, कैसे पूरा होगा? यदि देश में ही घूमना होता तो डॉक्टर बनने की क्या जरूरत थी? गँवई डॉक्टर भी इतना ही कमाता है। अमर कुमार ने किताबों की नई खेप मँगाई। इंटरनेट पर नई बीमारियों की पहचान में समय गँवाने लगे। फेसबुक पर जो विदेशी डॉक्टर दोस्त बने थे, उनसे इनबॉक्स में मशविरा भी करने लगे। मेडिकलवाली पत्रिकाएँ भी मँगवाई गईं। पत्रिकाओं में स्वास्थ्य के आलेखों की कटिंग भी फाइल की। सब धान बाइस पसेरी। आमदनी नहीं बढ़ी तो नहीं बढ़ी। रोज के जहाँ पाँच हजार आ रहे थे तो सवा पाँच हजार आने लगे। उन्होंने मन बना लिया कि किसी और बड़े शहर में जाएँगे। दिल्ली या मुंबई में जाकर प्रैक्टिस करेंगे। यहाँ लोगों के पास पैसे ही नहीं हैं तो खर्च कौन करेगा? उनका मन विद्रोह कर रहा था—इसी शहर में रहकर डॉक्टर वर्मा, शर्मा, दूबे, चौबे सब करोड़पति हो गए। आप खाक छान रहे हैं तो दोष आपके हुनर में है। आपके संस्कारों में खोट है। मामला इतना तनावपूर्ण हो चला था कि उनके पिताजी ने भी उनसे उम्मीद छोड़ दी थी। वे तीर्थयात्रा के लिए अमरीका जाना चाहते थे। जापान जाकर बौद्धधर्म की जड़ों की पड़ताल करना चाहते थे, लेकिन हाय! बेटा ही निकम्मा निकला। अलबत्ता माँ जरूर खुश थी कि बेटा लाखों कमा रहा है तो चिंता की कोई बात नहीं॒है।

डॉक्टर अमर कुमार नामक व्यक्ति अपने क्लीनिक में विराज रहा था। अत्यंत उदास और परेशान। तभी जंगबहादुरजी का प्रवेश हो गया। जंगबहादुरजी पहले डॉक्टर ही थे, लेकिन अब उन्होंने जनहित में प्रैक्टिस छोड़ दी है। अब फुलटाइम शायरी और प्रेम करने लगे हैं। आते ही बोले—

ऐ दर्दे दिल तुझे हुआ क्या है?

आखिर इस मर्ज की दवा क्या है?

अमर कुमारजी पहले से ही सुलग रहे थे, ऊपर से इस शेर ने तेल का काम किया। भभके—‘‘जंग साहब, आप भी तंज कसने से बाज नहीं आते। गालिब की कंठी बनाकर गले में लटकाए रहिए। यहाँ जान जाने पर लगी है। आदमी खाई की ओर तेजी से बढ़ रहा है। आप धक्का देने आ गए।’’

जंगबहादुरजी मुसकराए और दूसरा शेर कहने जा ही रहे थे कि मौन हो गए। उवाचे—‘‘दोस्त, हमें आपके इस मर्ज की दवा मालूम है। अजी साहब, आपको यह लगता है कि आपके इलाज में कमी है। लाहौलविलाकुव्वत। आप से ज्यादा हुनरमंद डॉक्टर कौन है भला? यह अलहदा है कि हुजूर को कमाने का हुनर नहीं आता। हम बताएँगे आपको अरबपति बनने की तकनीक।’’

‘‘नहीं साहब, हम तो करोड़पति बनकर ही खुश हो जाएँगे। आप हमें...।’’

‘‘जी...अरबपति तो हम आपको बनाकर ही छोड़ेंगे। तकनीकों पर गौर कीजिए। शहर में कितने एम.आर. हैं, जो आपके भक्त हैं। आपने कितनों का भला किया है? अर्थात् आपने उन बेचारों की बताई गई दवाइयों को मरीजों पर आजमाया है। नहीं न। शहर में कितने मेडिकल स्टोरवाले हैं, जो तीज-त्योहारों में आपके घर आते हैं। आप कितनों के यहाँ जाते हैं? हुजूरेवाला, मेडिकल स्टोर और डॉक्टर में गधे और धोबी जैसा सनातनी संबंध है और आप हैं कि मानते ही नहीं। आप यदि उनकी दवाइयाँ नहीं चलाएँगे तो बेचारों का कल्याण कैसे होगा?’’

‘‘कमाल करते हैं आप! अजी साहब, हम यहाँ मरीजों के भले के लिए बैठे हैं। उनके कल्याण की कोशिश कर रहे हैं, एम.आर. और मेडिकलवालों की नहीं। आपको पता है कि शहर में नकली या जेनेरिक दवाइयों की भरमार है। ब्रांडेड दवाइयों का इस्तेमाल करना हमारा फर्ज है।’’

‘‘जनाब! फर्ज भी एक मर्ज है। आप जब तक दूसरों का भला नहीं करेंगे, आपका भला कैसे होगा। लाभ के लिए भला करना जरूरी है। दवा तो फायदा करती ही है देर-सवेर। मान लीजिए, जिसे दो दिन में ठीक होना है, वह अगर चार दिन में ठीक होगा तो कौन सा देश का विकास रुक जाएगा। यदि दो सौ रुपए में ठीक होने की जगह तीन सौ में ठीक हो गया तो कौन सा विश्व बैंक दिवालिया हो जाएगा। हुजूर, नजीर अकबराबादी क्या कहते हैं—

अपना मतलब हो तो मतलब की खुशामद कीजे

और न हो काम तो इस ढब की खुशामद कीजे,

औलिया, अंबिया और रब की खुशामद कीजे

अपने मकदूर, गरज सब की खुशामद कीजे।

‘‘अमाँ मियाँ, एक बात बताओ। गांधी बनोगे तो क्या मिलेगा? एक मूर्ति बनेगी चौराहे पर, जो दूसरी मूर्ति से लड़ने के काम आएगी। माल कमाओ, माल बनाओ। यही नारा याद रखो। यों मुँह लटकाकर मत बैठो।’’

अमर कुमार का दिमाग चाचा चौधरी से भी तेज चलने लगा। दवा के दुकानदार तो संपर्क कर ही रहे थे। दस से बीस प्रतिशत तक का कमीशन। मरीजों को क्या पता कि सौ रुपए की दवा से मर्ज जाएगा या पाँच सौ की से। पाँच सौ का अर्थ है, सौ रुपए बिना किसी कमाई के आना। मरीज को भला क्या नुकसान है। वह तो ठीक हो ही रहा है। विस्तार से दवा खाएगा तो बिस्तर से जल्दी उठेगा। उनके पास जो दवा के दुकानदार और एम.आर. अपना कार्ड छोड़कर गए थे, उनका नंबर मिलाने लगे।

कमाई तो बढ़ गई, लेकिन वह नहीं हुआ, जो सोचा था। वर्मा, शर्मा की बराबरी पर तो आ गए, लेकिन डॉ. मिश्रा की प्रैक्टिस तो अभी भी लाखों में है। उन तक पहुँचने में तीन जन्म लग जाएँगे। आखिर करता क्या होगा? वह यदि हृदय रोग का स्पेशलिस्ट है तो इधर कौन कम है? दवा दुकानदार और दवा कंपनियों से भी परनाला बहकर आ रहा है। छप्पड़ क्यों नहीं फट रहा। लक्ष्मी को मिश्रा से इतना प्यार क्यों है? वह उल्लू कौन है, जो लक्ष्मी को उन तक लेकर जाता है। पिताजी जापान तो घूमकर आ गए। पूर्वजों के नाम पर एक मंदिर भी बन गया। कार भी बड़ी हो गई, लेकिन मिश्रा...। उनका मन एक बार फिर उदास रहने लगा। हृदय डूबता हुआ सा लगता। क्या करे, कहाँ जाए? आखिरकार एक दिन जंगबहादुर के घर गए। प्यासे का फर्ज है कि वह कुएँ के पास जाए। उन्हें देखते ही चहके जंगबहादुर—

खुदा को पा गया वाईज मगर,

है जरूरत आदमी को आदमी की।

‘‘यह किसने कहा है?’’

‘‘जी कहने के लिए तो बंदा अपना नाम भी पेश कर सकता है, लेकिन कहा है, फिराक साहब ने। खैर, आप किस फिराक में आए जनाब। बेवजह तो आदमी अपने अब्बा को भी सलाम नहीं ठोकता। कहिए क्या पेश करूँ?’’

‘‘जी नहीं, कुछ नहीं। यार...ये मिश्राजी क्या करते हैं। कैसे इतना कमा लेते हैं, समझ में नहीं आता। सुना है, आप जब शहर में आए तो मिश्रा के पास एक टीन की झोंपड़ी थी, आज महल की तरह क्लीनिक है। बोतल का जिन्न हाथ लग गया क्या?’’

‘‘भाईजान, बोतल का जिन्न तो सबके पास है, घिसना भी तो आना चाहिए। आपके पास यदि कोई आदमी बुखार से पीडि़त आए तो आप क्या करते हैं?’’

‘‘बुखार यदि पंद्रह दिन से अधिक से है तो खून की जाँच होगी नहीं तो एंटीबायटिक देकर उसे ठीक किया जाएगा।’’

‘‘उसकी टाँग का एक्स-रे करवाते हैं आप?’’

‘‘नहीं, टाँग का क्यों? अहमकों की तरह बोल रहे हैं आप।’’

‘‘जनाब, यही तो। एक्सरे, खून, पेसाब, बलगम, पखाना तथा सी टी स्कैन हर बीमारी में जरूरी है। मिश्राजी हर बीमारी में ये कार्यक्रम करवाते ही हैं। एक बीमारी पाँच टेस्ट। पाँच टेस्ट आलवेज बेस्ट। एक टेस्ट से एक सौ कम-से-कम, यानी पाँच सौ एक मरीज से। दिन में यदि एक सौ मरीज आ गए तो...। आप कभी पहुँच पाएँगे वहाँ तक?’’

‘‘यह तो सरासर लूट है।’’

‘‘तो आपको क्या लगता है कि आपके हाथ एक दिन खजाने का नक्शा लगेगा और आप घोड़े पर चढ़कर जाएँगे, निकाल लाएँगे। उल्लू बनाना आएगा, तभी लक्ष्मी मेहरबान होगी। आप देखते नहीं हैं, आजकल स्कूलों में क्या चल रहा है। जितना बड़ा स्कूल, उतना महँगा ट्यूटर। हर विषय को पढ़ाने के लिए अलग-अलग टीचर। साहब, उनसे कोई पूछे कि जब सब विषय के टीचर आ ही रहे हैं तो बच्चा स्कूल क्यों जाता है? नहीं पूछेंगे। लूट पर ही देश टिका है। आपने कुँवर बेचैन साहब को सुना है। कहते हैं—

जो छल की चोटियाँ हैं, उन पर तो कोठियाँ हैं

मेहनतकशों के तन पर, केवल लँगोटियाँ हैं।

‘‘अच्छा साहब, चाय तो आपको पिला नहीं पाऊँगा। बीबी मायके गई है। नौकरानी आई नहीं। आप कहें तो एक-दो शेर और पिला दें।’’

अमर कुमार समझ गए कि गेटआउट की तरह की चीज कह रहा है। चल पड़े, लेकिन खुश थे। चाँदी की चाबी हाथ लग गई। तो मिश्राजी यों कमा रहे हैं। तभी कहूँ कि दोनों बेटे यू.एस. से पढ़कर कैसे आ गए। वैसे देखा जाए तो इसमें बुराई भी क्या है? शरीर एक तंत्र है। यदि फेफड़े में बलगम है तो हो सकता है कि पेट में गैस हो और टाँग की हड्डी भी अफेक्टेड हो रही हो। पूरी तरह से जाँच कराने में तो मरीज का ही भला है। डॉक्टर भी तभी किसी बीमारी के बारे में ठीक से बता पाएगा, जब उसे पूरी रिपोर्ट मिलेगी। उन्होंने मन-ही-मन तय किया कि अब ‘पाँच टेस्ट ऑलवेज बेस्ट’ के सिद्धांत पर चलेंगे। धनलक्ष्मी तेजी से बढ़ने लगी। नगर के सारे डॉक्टर पीछे छूट गए। मिश्राजी दूसरे नंबर पर आ गए। हुनर के साथ जब कलाकारी भी आ गई तो शोहरत और दौलत दोनों चरण चूमने लगीं।

बीबी तो वॉशिंगटन जाकर लौट आई। बच्चे देहरादून में पढ़ रहे थे। पिताजी स्वर्ग सिधार चुके थे। माताजी भी उसी राह पर जा चुकी थीं। डॉक्टर साहब का दिल अब भी उदास हो जाया करता था। राजधानी में एक डॉक्टर हैं—डॉक्टर दास। उनका नाम सुनते ही उदास हो जाते हैं। दास के पास क्या नहीं है। वह देश का माना हुआ डॉक्टर ही नहीं है, बल्कि राजनीति में भी उसकी पैठ है। देश के सभी बड़े शहरों में दास हॉस्पिटल के डंके बजते हैं। वह अपने चार्टेड प्लेन से चलता है। सुना है कि यू.के. में भी उसके दो अस्पताल हैं। यहाँ क्या है? राज्य में जरूर उनका नाम है, लेकिन उनसे बड़े डॉक्टरों की क्या कमी है। महँगी कारों से तो गुंडे भी चलते हैं। उनका जीवन व्यर्थ ही जा रहा है। जीवन में सुख की आशा लिये ही दुनिया से कूच करना होगा। ‘जेहि विधि राखै राम, तेहि विधि रहिए।’ उनकी निरंतर बढ़ती जा रही उदासी से पत्नी परिचित तो थी, लेकिन उनकी आदतों से नावाकिफ  नहीं थी। उन्हें पता था कि निन्यानबे के चक्कर डॉक्टर साहब को आते रहते हैं। आजकल डॉक्टर दास से अपनी तुलना करके दुःखी रहते हैं। उपाय भी नहीं है।

डॉक्टर अमर कुमार की उदासी जब खतरे का निशान पार कर गई तो पुनः जा पहुँचे जंगबहादुरजी के आवास पर। जंगबहादुरजी तो आजकल जनहित में राजनीति कर रहे थे। विधायक का टिकट मिला था, उसी के विकास हेतु रकम जुटाने में लीन थे। आजकल आवास पर आनेवाले हर आदमी को देशभक्ति के टिप्स दिया करते थे। उन्होंने देखा कि अमर कुमारजी चले आ रहे हैं तो खुशी से उछल पड़े। अमर कुमारजी पार्टी-फंक्शन वगैरह में तो मिलते थे, लेकिन कभी अकेले मिलने-मिलाने का अवसर ही नहीं आया। उन्होंने अपने दिमाग में तौला कि कम-से-कम पाँच लाख का चंदा तो तय है। अधिक भी दे सकता है। उन्होंने पुराने ढंग से ही चहकते हुए कहा—‘‘जनाबेआला आप तो रास्ता ही भूल गए थे। जफर कमाली साहब क्या खूब कहते हैं, आपने सुना ही होगा—

तिजारत जिस तरह बाजार में करता है पंसारी

अदब में भी वही दिन-रात कारोबार होता है

‘‘आप ठहरे इल्मो-अदब के आदमी, हम ठहरे नेता। हमारा आपका क्या मेल-जोल, लेकिन आपके इल्मो-अदब में भी तिजारत कम नहीं है। सियासत वहाँ भी खूब है। कहिए, सुना है, आजकल आप मिश्राजी का अस्पताल खरीदनेवाले हैं।’’

‘‘एक-दो पुराने अस्पतालों को खरीदकर कोई अंबानी तो हो नहीं जाएगा। हमारी छाडि़ये, अपनी कहिए। कैसा चल रहा है नया धंधा? सुना है, भाजपा की ओर से टिकट मिल रहा है। कांग्रेस छोड़ रहे हैं क्या?’’

‘‘राजनीति और धर्म में तो चोला बदलना चलता ही रहता है। भाजपा की ओर से यदि टिकट नहीं मिला तो राजद से दोस्ती में भी परहेज नहीं है। आपका आना अकारण तो होता नहीं है। कहिए, नाचीज क्या खिदमत करे?’’

डॉक्टर अमर कुमार ने मुँह लटकाकर कुल किस्सा कह सुनाया। बदले में जंगबहादुर ने समझाया कि आदमी को चादर के अनुसार ही पाँव फैलाना चाहिए। खुदा के फजल से पाँव से बहुत बड़ी चादर हो गई है। दास से तुलना करने के बाद यदि किसी न्यूयॉर्क के डॉक्टर से मुकाबला हो जाए तो। उन्होंने अपनी संतुष्टि का राज भी बताया। संतोषं परम सुखम् के बाद एक शेर दाग दिया अदम गोंडवी का—

एक जनसेवक को दुनिया में ‘अदम’ क्या चाहिए

चार-छह चमचे रहें, माइक रहे, माला रहे।

आप भी अपने महल और गाड़ी से ही सब्र कीजिए। कहीं ऐसा न हो कि उल्टे बाँस बरेली को लद जाएँ।’’

डॉक्टर साहब जिद पर आ गए। उन्होंने गुरुजी के पाँव पकड़ लिये।

‘‘आपके मार्गदर्शन से ही आज यहाँ तक आ पाया हूँ। आप यदि मुझे अकेला छोड़ देंगे तो कौन मेरी मदद करेगा।’’

अत्यंत जिद करने पर जंगसाहब ने उन्हें अपने एक चेले के पास भेज दिया, जिसने ज्ञान देते हुए कहा—

‘‘अमर कुमारजी, पंछी भी झुंड में रहते हैं। संकट पड़ने पर कौए भी एकजुट हो जाया करते हैं। हमें इनसे सीखना चाहिए। आपके पास यदि कालाजार का रोगी आए तो आप बंगाली बाबू के पास भेज दिया कीजिए। यदि टी.बी. का पेशेंट आए तो अपने डॉक्टर पासवान क्या बुरे हैं। मान लीजिए, आपके पास कोई हड्डी फ्रैक्चर का केस आ जाता है तो बी.के. सिंह के पास भेज दीजिए। आपको तो पता ही होगा कि आपके मरीज से जो ऐंठा जाएगा, उसका दस प्रतिशत आपके एकाउंट में आ जाएगा। यह एक समतावादी फॉर्मूला है। सबका साथ सबका विकास। मरीज को भी सही जगह मिल जाएगी और आपको भी माल की प्राप्ति होगी।’’

‘‘यानी कि मरीज से दस प्रतिशत अधिक लिया जाएगा?’’

‘‘दस नहीं। उससे पंद्रह प्रतिशत अधिक लिया जाएगा। आपके अलावा भी तो सहयोगी हैं, जो मरीज को डॉक्टर तक पहुँचाते हैं।’’

‘‘यह तो मर्डर की किस्म का अपराध है।’’

‘‘इलाज के बिना मरने से तो उत्तम है कि इलाज करवा के मरीज मरे। जाते-जाते किसी का भला करके जाएगा। धन लेकर तो कोई जा नहीं पाया है।’’

‘‘और एक गरीब आदमी?’’

‘‘गरीब जीकर करेगा क्या? उसे तो महँगाई, कुपोषण, अपराध, प्रदूषण कोई-न-कोई मार ही देगा। डॉक्टर मारेगा तो वह सीधा स्वर्ग जाएगा, क्योंकि डॉक्टर धरती का भगवान् है। स्टाफ वाली बात होगी तो ऊपरवाला भगवान् ध्यान भी देगा।’’

उसके बाद क्या हुआ पता नहीं, लेकिन डॉक्टर अमर कुमार पिछले दो महीने से जेल में हैं। बेल जल्दी ही मिलने की उम्मीद है। उनके मरीज रोज मंदिर में नारियल फोड़ रहे हैं।

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