ध्वन्यार्थ

ज्वाला प्रसाद रोज सुबह उठकर तुरंत एक ही साँस में भारी आवाज में ‘इस तन-धन की कौन बड़ाई...’ गाते-गाते नहाकर एक-दो श्लोक गुनगुनाते, ‘इदमद्य मया लब्धं इमं प्राप्स्ये मनोरथम्। इदमस्ति इदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।’ ‘त्रिविधं नरकस्य इदं द्वारं नाशनम् आत्मनः...’

फिर वे अखबार के बड़े-बड़े शीर्षक पढ़ डालते। घर के बाहर काम के लिए निकलते, तब तरह-तरह की आवाजें कानों में पड़तीं। सभी के कुछ-न-कुछ कार्यक्रम होते। उद्घाटन, प्रसंग, उत्सव। ‘देर हो रही है,’ ‘जाना है’, ‘जाने दो’, ‘जरूर आऊँगा।’ धक्का-मुक्की करके कहीं पहुँचना होता है। समय बहुत महत्त्वपूर्ण है, ऐसा उन्हें लगता है।

‘ए बुड्ढे दूर हट।’

और ज्वाला प्रसाद यह झटका सह लेते हैं।

‘भई, वह जमाना जाता रहा! आज इनके दिन हैं।’

स्वयं एक आदर्श शिक्षक होने के नाते उनका चरित्र निर्माण हुआ है, ऐसा स्कूल के और गाँव के सभी लोग मानते थे। पर अब सेवानिवृत्ति का समय नजदीक था। ज्वाला प्रसाद को किसी के प्रति कोई शिकायत न थी। उनकी मन-ही-मन प्रत्येक घटना को, प्रत्येक प्रसंग को पुनः-पुनः जाँच लेने की आदत थी और फिर उन्हें मन में ही समाधान भी मिल जाता। जैसे लाल पेंसिल लेकर सब ‘चेक’ कर लेने की, ‘नोट’ कर लेने की, हाशिये में ‘रिमार्क’ लगा देने की, ‘अधोरेखा’ करके ध्यान देने योग्य हो इसी तरह!

स्कूल के शिक्षकों की अनुपस्थिति के कारण बहुत होते हैं, कोई छुट्टी की अरजी देता है, ‘बीमार हूँ’, ‘विवाह है’, ‘मेहमानों को छोड़ने जाना है’, ‘पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं’, ‘बाहर गाँव जाना है, ‘एरोडॉम पर किसी को लेने बंबई जाना है’, ‘देहावसान हो गया है।’ सभी कारणों को वे वजूदवाले मानकर सहानुभूति दरशाते। और मन ही मन कह लेते, ‘ओके, जा सकते हैं।’

‘जाना चाहिए!’

हाँ, यह इनका जमाना है। हमारा भी एक जमाना था। अपनी जेब में जैसे हमेशा चाँदी का राजा छाप रुपया अभी तक उन्होंने सँभालकर रखा हो और जमाना याद करने के लिए इस चाँदी के रुपए को कल्पना में ही सहला लेते हों। इस तरह वे ‘जमाने’ और ‘रुपए’ को लगभग पर्याय जैसा बनाकर जीते थे।

होली का त्योहार इस आँगन में ही रंग-चंग से मनाया जाता। गैरियों की गैर पहले-पहल यहीं हाजिर होकर शकुन मनाती थी! हनुमान, सुग्रीव, अंगद आदि के प्रसंग यहीं अभिनीत होने और इसी आगन में दादा और पिता के नाम पर व्यवस्था होती। यहीं प्रतिष्ठित घर की सलाह ली जाती। विवाह या मृत्यु के समय यह मोहल्ला ही उपयोग में लिया जाता। इसी दालान पर आम सूचना का बोर्ड पहले-पहल लटकाया जाता। शहनाई के स्वर या नगाड़े की ध्रांग-ध्रांग, पतंगबाजी के दिनों या गणपति पूजन के दिन सभी बाजे-गाजे ज्वाला प्रसाद की चौपाल से गुजर गए थे, वह जमाना वे याद कर लेते।

हिंदू-मुसलिम झगड़े के समय समाधान के लिए इस घर के प्रतिष्ठितों ने मीटिंगें कीं। नल-रोशनी के लिए यहीं से ही अर्जियाँ लिखी गईं। पंचायत पालिका को पत्र यहीं से लिखे जाते। कोई मनीऑर्डर, कोई तार, कोई सामाजिक प्रश्न, मिल्कियत का प्रश्न, सभी में यहीं इस घर से ही पंचायती-मध्यस्थता सबको मार्गदर्शन के रूप में मिलते थे।

मैला कोट और पुरानी चप्पलें घिसटते या अपने झूले पर बैठकर राखी की टिक-टिक सुनते हुए ज्वाला प्रसाद को वह पुराना रुपया ही तृप्ति देता।

वर्षों के शिक्षक जीवन से उनकी पत्नी राखी भी विवादों, चर्चाओं, दलीलों, झगड़ों और प्रत्येक बात में अपने अभिप्राय का स्वर प्रस्तुत करना सीख गई थी। उसका ज्वाला प्रसाद को शिकवा न था। राखी के प्रति सहानुभूति ही थी। उनको संतोष था। बेचारी राखी! अर्धांगिनी! स्वयं का ही दूसरा जीव है, वे स्वयं ही हैं, ऐसा वे मन-ही-मन कबूलते।

सुबह के पहले प्रहर में कलेंडर का तारीखवाला पन्ना फाड़ते-फाड़ते ही राखी का दिन शुरू हो जाता। शिक्षक-पत्नी के रूप में एक प्रश्न...एक बात वह कहती और उस पर चर्चा—विरोध पक्ष के मुँहतोड़-करारे उत्तरों सा डिबेट जैसा ही कुछ आरंभ हो जाता।

‘‘अशुभ है।’’

‘‘हाँ, बात तो तुम्हारी सच्ची है। ऐसा कर, तू ही हो आ!’’

झूले पर बैठकर ज्वाला-प्रसाद ‘अशुभ है’ डाक पढ़कर जरा चौंकते, कुछ संतोष अनुभव करते, राखी इस विषय पर विस्तारपूर्वक हुज्जत करे, ऐसा वे चाहते। तो भी चर्चा संतोषपूर्वक समेटकर स्वयं कहते—

‘‘ऐसा कर! तू ही जा आ!’’

और राखी तिलमिला उठती, ‘‘अरे, आप भी क्या आदमी हैं? व्यवहार निभाने के लिए तो घर के पुरुष को ही जाना चाहिए न! बड़ा बेटा-बहू दूसरे शहर में रहते हैं, इसीलिए आपसे कहते हैं। और उन लोगों का जमाना अलग! यहाँ होते तो भी किस काम के! पर हमें तो अपने जमाने की मर्यादा रखनी चाहिए कि नहीं?’’ राखी अकुलाकर कह उठती।

‘‘हाँ, यह तो सही है! पर उनकी घरवाली मालती को तो तू ही धीरज बँधा सकती है न! औरतजात रसोई के कामकाज में भी भली लगती है।’’

‘‘अरे, पर मैं क्या श्मशान तक जा सकती हूँ? पुरुषों में तो पुरुष की ही जरूरत पड़ती है। ब्याह-शादी के मौके पर आप हाथ झटका दें तो चल सकता है, पर मरने के मौके पर तो शुरू से आखिर तक खड़ा रहना पड़ता है या नहीं?’’

ज्वाला प्रसाद को राखी की बात से पुराने रुपए को सहलाने जैसा संतोष होता। अभी तक लोगों को हमारी जरूरत मृत्यु के मौके पर तो पड़ती ही है। हाँ, पर फिर तुरंत राखी की बात को समेट लेते—‘‘अरे नहीं, इस जमाने में ऐसा कुछ नहीं। इस जमाने में मेहमान, आगंतुक किसी को भी अच्छे नहीं लगते। उल्टे इस मृत्यु वाले घर में हम भार ही बढ़ाते हैं।’’ ऐसा कहकर मन-ही-मन और फिर जोर से ‘जाना’ या ‘नहीं जाना’ इसमें हमेशा ‘नहीं जाना’ के नीचे ही लाइन खींच देते।

आयुष्य के दो-तीन दिन संतोष से राखी की बकझक में निकल जाते। अपने जमाने की अच्छी-अच्छी बातें सुनने को मिलतीं और मन-ही-मन खुश होते। ज्वाला प्रसाद बाहर से निष्ठुर, निस्पृही, एकाकी, कठोर, थके हुए लगते।

‘‘तो क्या जाना चाहिए था? क्या जरूरत हमारी? पत्र से कोई सूचित करे तो दौड़ पड़ें क्या? लोगों को बुरी आदत पड़ गई है, यहाँ-वहाँ जाना है, कहते दौड़े चले जाते हैं। किसे हमारी जरूरत है, हाँ! दूसरों की बातें दूसरे जानें, पर हमारी बात में तो दृढ निर्णय होना चाहिए।’’

राघव की इकलौती बेटी की शादी पर वे बुलाते हैं। राघव ने जोर देकर दो बार लिखा था, राखी कुछ समझती नहीं और ‘जाना चाहिए’ यों रट लगा रखी है! यों तो बेटे-बहू का शहर से, मलय बीमार है, ऐसी सूचना का पत्र आया, तो भी राखी कहती है कि ‘जाना ही चाहिए।’

राखी बहू का पत्र बार-बार पति के पास ला-लाकर उसके अर्थ समझाती! ज्वाला प्रसाद भी उस पत्र के संदर्भों को जाँच गए थे।

शिक्षक की पत्नी जैसे शिक्षक को पढ़ाने बैठे!

‘‘अरे, इसे पढि़ए न! यह परिच्छेद तो देखिए!’’

ज्वाला प्रसाद पत्र की तह खोलकर फिर से पत्र पढ़ते। संदर्भ संक्षिप्त के लिए ध्वन्यार्थ, व्याकरण की भूल, तात्पर्य के लिए हेतु-कथन आदि परखते हों। इस तरह चश्मा लगाकर सिर हिलाते-हिलाते देख जाते। किसी होशियार विद्यार्थी की सही बात-मुद्दा पकड़कर शिक्षक खुश हो, पर वह ऊपर सवार ही न हो जाए, इस कारण गंभीर रहे, वैसे दूसरा परिच्छेद उन्होंने पढ़ा था।

‘‘मलय दादा-दादी को याद करता है। मलय को ओरी निकली थी। अब तो ठीक है। कमजोर है। हम दोनों तो रोज नौकरी पर जाते हैं, तब पड़ोसन मल्लिका बुआ को उसे सौंपकर जाते हैं। मलय के मामा का पत्र आया है। पूज्य पिताजी से निकला जाता नहीं और तुम्हारा जी लग नहीं रहा होगा। इसीलिए मैं ही चारेक दिन की छुट्टी लेकर आनेवाली हूँ। चिंता न करें हमारी। ऑफिस में भी कठिनाई तो है ही। वर्षांत के हिसाब की धूम, इसलिए छुट्टी न भी मिले! हम तो रसोई भी घर पर नहीं करते। बाहर खाना खा लेते हैं। फुरसत ही मिलती नहीं।’’

‘‘देखिए-देखिए, यह क्या सूचित करता है? और कुछ नहीं तो उस बच्चे की ओर तो देखिए! उसे ले आने के लिए बेटे के घर जाना चाहिए। मुझे क्या दिक्कत है? पर मलय आपसे हिला-मिला है, इसलिए बेचारे बेटे-बहू की चिंता है! बस में बैठो कि डेढ़ घंटे में उसकी सोसाइटी आ जाए...।’’

‘‘कहाँ फासला है?’’

‘‘ऐसा कर, तू ही हो आ! हालाँकि उसे बीमारी में तो अपने ही माता-पिता चाहिए।’’

‘‘क्या बेकार की बातें करते हैं आप?’’

‘‘आप जाओ तो अच्छा प्रभाव पड़ेगा! उपरांत आपकी आवभगत, एक ही दिन की...इससे बेटा-बहू खुश हो जाएँगे!’’

ज्वाला प्रसाद को यह बात कभी गले नहीं उतरती। भले ही अपना ही बेटा हो तो भी। खुश कराने की क्या जरूरत है? यों भावनाएँ लूटने की जरूरत नहीं, स्वयं बीमार पड़ते तब भी कहते कि ‘देखना, तू उन लोगों को लिख न देना! बेचारे सकपका जाएँगे! नौकरी और बाल-बच्चों वाले ठहरे! बेटा और बेटी। अपने-अपने घर सुखी। मैं ठीक हो जाऊँ, फिर लिखना। अभी कोई मैं मर नहीं रहा कि झटपट वे लोग देखने-मिलने या कंधा देने के लिए दौड़ आएँ!’

बेटा बहुत सज्जन है। लिखता है कि ‘तबीयत को अब काँच के बरतन की तरह ही सँभालकर रखिए। अब बहुत दौड़-धूप मत करिए। और हम तो निभा रहे हैं अपनी, हमारी ऐसी कोई खास चिंता न करना।’ ठीक बात है। आखिरकार तो बेटा और बेटी एक शिक्षक की ही संतानें हैं न? भावना-वावना ठीक है, हकीकत तो हकीकत ही है न।’

‘चिंता करेंगे नहीं’, ‘दौड़धूप न करना’, यानी उनके वहाँ जाकर भीड़ नहीं करनी है, इतना निष्कर्ष तो शिक्षक माता-पिता निकालें या नहीं? तो फिर?’

पत्नी दलील देती, ‘‘अरे, चिंता माँ-बाप नहीं करें तो कौन करे? और बीमारी मामूली बीमारी ही तो एक प्रसंग है कि जिसमें उस बहाने से जरा मिल सकें। पर आप तो सदा के हृदय-शून्य रहे। आपकी तो बुद्धि सठिया गई।’’

‘‘ऐसा-वैसा कुछ नहीं।’’ ज्वाला प्रसाद हमेशा ‘जाना’, ‘न जाना’ ‘बुलाना’ बात को समेट लेते।

पर बेटी मंजी का पत्र आया तो सठियाई बुद्धिवाला राखी का कथन उन्हें याद हो आया। ज्वाला प्रसाद ने मंजी के पाँचवें परिच्छेद पर ही नजर टिका रखी। वैसे तो दूसरी-तीसरी बार इन्होंने पूरा पत्र पढ़ लिया था। पर इस बार लाल पेंसिल हाथ में लेनी ही नहीं। बेचारी राखी चाहे जाए।

द्धपाँचवाँ परिच्छेद उनको अनुकूल लगा था। बेटी की माँ बेचारी उनके कारण कैद है। हर बार खुद कहते, ‘‘ऐसा कर, तू ही हो आ!’’ इसका ध्वन्यार्थ राखी ठीक निकालती कि जाने जैसा नहीं। और यह समझकर ही जाना स्थगित कर देती। अपनी दलीलें वापस ले लेती। बेटी में माँ का जी रहता ही है। इस बार तो सचमुच राखी जाए ही, उस तरह ही बात करनी है, ऐसा ज्वाला प्रसाद ने तय किया। पत्नी को उन्होंने बहुत सताया है। गलत या सही, उचित या अनुचित...अब पूरा पत्र पढ़ना ही नहीं। अर्थ लगाने ही नहीं। बस राखी को भेज देना है बेटी-दामाद के यहाँ, भले चार-आठ दिन घूम आए। राखी को किस तरह कहना चाहिए?

बस हुकम की तरह ही कहना चाहिए कि अब तो तुम्हें जाना ही चाहिए। और हाँ-न करे तो कुछ नहीं सुनना। अब पत्र पूरा पढ़ने की या परिच्छेद बता-बताकर हुज्जत करने का झंझट ही नहीं रखना है।

रात को लेटे-लेटे सारी दलीलों को ज्वाला प्रसाद ने गाँठ में बाँध दिया। सुबह की पहली चाय पीते-पीते, नहीं अखबार पढ़ लेने के बाद कहना उन्होंने उचित समझा। दाढ़ी बनाने से लेकर नहाने तक डेढ़ घंटा मिलेगा। इसमें राखी आदत के अनुसार सिरपच्ची करे तो स्कूल जाने के समय तक खुद अंतिम आज्ञा-चर्चा का समापन और निर्णय जता देंगे कि ‘राखी यह नहीं चलेगा। मंजी बेटी के घर इस बार जाना पड़ेगा! न जाने पर कितना बुरा लगेगा!’ माँ का दिल है। झूठी हाँ-न करेगी, पर फिर स्वयं उसके साथ झगड़ा करके भी उसे जाने के लिए राजी करेंगे। वैसे उसका भी जाने का मन तो होगा न? राखी के गले उतारना पड़ेगा कि ‘मेरी जरूरत है! मुझे बुलाते हैं।’ खुद का मन भी तो तरसता था न कि ‘कोई मुझे बुलाए, किसी को सचमुच मेरी जरूरत है।’ खुद की आत्मा की भूख उन्हें राखी द्वारा ही तृप्त करनी है।

दाढ़ी पूरी हो गई। ज्वाला प्रसाद नाखून काटते-काटते बोले, ‘‘क्यों पढ़ लिया न पत्र?’’ राखी का कुछ भी जवाब नहीं। एक शब्द भी नहीं। ज्वाला प्रसाद को लगा कि वे गले से बोले ही नहीं क्या? उन्होंने फिर से कहा, ‘‘तो फिर मंजी को पत्र लिख दूँ न कि तू परसों रवाना हो रही॒है?’’

राखी इतना ही बोली, ‘‘आपने पत्र ठीक से पढ़ा?’’ फिर कदम उठाते-उठाते राखी कहती गई, ‘‘आपको ठीक लगे वैसा!’’

और फिर पड़ोसन को राखी कहती सुनाई दी, ‘हाँ...आ, जरा मंजी के यहाँ जाने के लिए वे कहते हैं। कहीं भी निकला जाता नहीं। पर वे अब कहते हैं कि हो आ। उन्होंने अब तो लिख भी दिया, इसीलिए जा रही हूँ।’’

बाथरूम में बाल्टी रखते, भोजन के लिए फट्टा बिछाते, घड़ी में चाबी भरकर हथेली में थमाते, अलगनी पर से धोया हुआ रुमाल तह करते, बैंच के नीचे से बूट खिसकाकर अपने पल्लू से साफ कर रखते हुए राखी कुछ भी नहीं बोली। एक शब्द भी नहीं, न रोष, न चिढ़, न संतोष, न द्विधा! चेहरे की एक रेखा भी बदली नहीं।

ज्वाला प्रसाद के चेहरे पर सलवटें बढ़ गईं। इनका हाथ जरा अधिक काँप गया।

‘‘यह पढ़ो, इसका अर्थ लगा लो!’’ किसी भी प्रकार की हुज्जत बिना राखी कैसे तैयार हो गई। इस बार राखी ने भी ‘जाना है’ का निश्चय किया होगा? खुद का ही दूसरा मन राखी स्वरूप था न? इसीलिए शायद राखी ने भी अधिक बार पत्र पढ़ा नहीं और खुद की ही दलीलें उसने मन-ही-मन में की होंगी।

‘‘तो अब राखी जा रही है!’’

ज्वाला प्रसाद रुपया एक बार तो खुल्ला करा ही दे। दलीलें बची हों तो भी अब एक बार तो...लो जाती हूँ, कहकर निर्णय हो गया, फिर क्या?

मंजी के पूरे पत्र को वे भूल ही जाना चाहते थे। केवल पाँचवाँ परिच्छेद ही उनको ‘जाने’ के लिए योग्य लगा था। कहीं राखी आकर पत्र सामने रख देगी और जाने से पहले चर्चा हो जाएगी, ऐसी धारणा से ज्वाला प्रसाद डरते थे। इस कारण राखी के सामने आना ही टालते रहे थे। राखी तैयारी करती थी। ज्वाला प्रसाद स्वयं ही जाते हों, इस तरह चुपचाप राखी की तैयारी के साथ अपने आपको जोड़कर तैयारी में सम्मिलित होते थे। टीन की संदूक में उसने गरम शॉल रखा। घर में पहनने के स्लीपर को कागज में लपेट लिया और थैली में रखा।

‘राखी ने कौन सी दलीलें करके जाना, निर्णय लिया होगा?’ यह प्रश्न ज्वाला प्रसाद के मन में कौंध-कौंध जाता। स्वयं की जीभ पर से दलीलें गुजरे बिना ही राखी के गले उतर गई थी जाने की बात। पत्र उसने ठीक तरह से पढ़ा ही नहीं क्या? मंजी में जी समा गया होगा या घूम-फिर आने का मन हुआ होगा!

और नहीं तो क्या, राखी उनका ही दूसरा स्वरूप था। संसार की रही-सही वासना, ‘इदमद्य मया लब्ध, इमं प्राप्सये मनोरथम्...’ वाला श्लोक वे रोज बोलते थे।

कुछ अजीब सा लगता था। पर ऐसा तो होता ही है। स्वयं के हाथ-पैर ही मंजी के यहाँ जाने की तैयारी करते थे। मंजी के बच्चों के लिए खिलौने तो लेने पड़ेंगे। पचास रुपए राह खर्ची के लिए काफी होंगे। दस रुपए अधिक लेने ही ठीक हैं। दामाद कम बोलनेवाला है, पर मन में कुछ लाना नहीं। मंजी जरा चिड़चिड़ी हो गई है, बार-बार बीमार पड़ती है, इससे।

ज्वाला प्रसाद झूला झूल रहे थे। पैर की रोक लगने से झूला अचानक रुक जाता। ‘तो क्या राखी जा रही है न? हाँ, वह जा रही है।’ फिर झूला झूलने लगते।

वह पत्र जो जेब में था, वह कहीं रख दिया था। राखी के पास ही होगा। वह फिर न पढे़ तो अच्छा! बेचारी बमुश्किल तैयार हो रही है। नाहक की सिरपच्ची करना। खुद के पास पत्र नहीं यही अच्छा, नहीं तो स्वयं ही पत्र पढ़ने के लिए निकाल बैठते।

दो दिन से घर के वातावरण में अपरिचित हवा दम घोंटती थी। राखी बरतन पटकती थी, वह कुछ पूछती नहीं थी, ज्वाला प्रसाद के सामने आना भी टालती थी। जैसे वह मन-ही-मन में कुछ बोलती थी। जोर से बोलना टालती थी।

बेटी के घर का माता-पिता खाते नहीं, वह तो ठीक, पर अब इस जमाने में इस ढोंग की कोई जरूरत नहीं। वहाँ पहुँचकर पत्र लिख देना। उन लोगों को बुरा लगे, ऐसा कुछ...नसवार की डिब्बी कहाँ? और पान का डिब्बा रखा। ज्वाला प्रसाद मन-ही-मन ये सूचनाएँ नोट करते थे। नसवार ेको सड़ाके यहाँ-वहाँ थूकने की आदत, घुटने दुखने की शिकायत, सिर दुखे तब नीला टुवाल सिर पर बाँध करवट लेकर लेटना, ये सारी अपनी आदतें...दूसरों को असुविधा न हो, जरा ध्यान रखना। मंजी को तो अपनी माँ प्यारी है, वह ऐसी आदतें सह लेगी, पर दामाद तो ठहरा पराया!

‘‘चलो, चलो...अब अधिक माथापच्ची न करो, अब जल्दी निकलो।’’ यों जैसे झूला थामकर ज्वाला प्रसाद ने ज्यादा सोचना बंद कर दिया था। इस शाम राखी जानेवाली थी और एक महत्त्वपूर्ण मीटिंग उनकी थी। जाते समय कुछ मुँह से न निकले! पड़ोस का रामू ताँगा ला देगा और तीरथ स्टेशन तक साथ में जाकर टिकट ले देगा। जगह तो मिल ही जाएगी...पाँच बजे तब घर से निकल ही जाना।

वह निकली होगी...टिन की संदूक और एक थैला। बस सामान तो कम होगा। सामने के प्लेटफार्म पर जाना है, इसलिए टीन की संदूक उठाकर तीरथ सीढि़याँ चढ़ता होगा...लँगड़ाती सी पैर रखकर राखी पीछे-पीछे घिसटती होगी...लोग दौड़ते होंगे। कटहरा पकड़कर राखी सीढि़याँ चढ़ती होगी, शायद चप्पलें उसने हाथ में ले ले होंगी। चप्पल पहने अधिक चलने की आदत नहीं न। ब्लडप्रेशर की शिकायत तो राखी को नहीं है।

ज्वाला प्रसाद की पसली में अचानक दर्द उठ आया। भगवान् न करे राखी की अनुपस्थिति में यह पीड़ा बढ़ जाए तो, तो खुद तार दे...।

‘जल्दी आओ...’ बेचारी कैसी सकपका जाएगी, पर खुश भी होगी। किसी भी शंका बिना, उसे जीना सार्थक लगे कि ‘उसी की ही जरूरत है। उसे ही बुलाया है।’

ज्वाला प्रसाद अपनी बीमारी के विचार से जरा खुश हुए। हाँ, अभी तक पसली का दर्द थमा न था।

‘राखी चली गई होगी, अब तो रेल में बैठ गई होगी।’ यों मन-ही-मन विचार सहेजकर, मीटिंग समाप्त कर ज्वाला प्रसाद घर आकर झूले पर बैठे।

मंजी का पत्र अब खुद पान चबाते-चबाते निश्चिंतता से पढ़ सकेंगे। नहीं, पत्र तो राखी ले गई थी। तो क्या हुआ? शिक्षक को सारे ही महत्त्व के वाक्य याद थे। वाक्य-रचनाएँ, अर्थ, परिच्छेद, महत्त्वपूर्ण सूचना, अरे और तो और गलत व्याकरण भी और गलत प्रयोग भी याद रहते ही हैं। अब चाहे जितने अर्थ निकालने हों, उतने निकालें। अब सामने कोई दलील करनेवाला नहीं होगा। दरवाजा बंद था। दरवाजे के बाहर राखी ‘जाना है’ निर्णय करके चली गई थी।

धड़ाक से दरवाजा खुला। ज्वाला प्रसाद की पसली का दर्द कुछ बढ़ गया था। झूले पर जैसे पीड़ा सहते-सहते उनकी आँख लग गई थी। राखी सामने आ खड़ी हुई।

वही बड़बड़ाहट, वही स्वरूप, घर की वही चिर-परिचित हवा। मंजी के पत्र की तहें खुलने लगी थीं। अक्षर फटाफट सामने निशाना लगा रहे थे। मानो मंजी की जीभ पर से ही सीधे आ रहे थे।

‘‘आपकी क्या अक्ल है? मुझे ही बुद्धू बनाते हैं! सठियाई बुद्धि! यह परिच्छेद तो पढि़ए। इसका क्या अर्थ होता है? आप इसे पढ़ने से चूके ही कैसे? मैं तो आपके ही भरोसे रही। कह दिया, ‘जाओ!’ आपने स्पष्ट नहीं किया, अरे, कुछ तो बोलना था?’’

मंजी के पत्र राखी को जोर-जोर से पढ़ा, ज्वालाप्रसाद सुनते रहे।

‘‘पैसों की तो कोई चिंता ही नहीं। मैं तो सदा की तरह बीमार हूँ। पर इस बार हमने माउंटआबू जाने का विचार किया है। घर के सगे-संबंधियों के जंजाल से दूर रहने और स्थान परिवर्तन से जरा मन में भी बदलाव हो जाता है। मेहमान के रूप में किसी के सिर जा पड़ने से तो यह अच्छा!’’

‘‘इतनी सारी प्रवास योजनाएँ प्रकाशित होती हैं। माँ आपको भी जाना है। पिताजी कोई मना करें ऐसे नहीं। आपके दामाद की अच्छी जान-पहचान है। चाहें तो इस ढलती उम्र में भी आप दोनों हो आएँ। यहाँ आएँ और ऐसी ही उलझनों में पड़े इसकी अपेक्षा तो वहाँ आनंद आएगा।

‘‘मैं छोटी थी, पर वे दिन क्या अब फिर आनेवाले हैं? माँ के हाथ की गरम-गरम रोटी खाने के दिन तो गए। आप यहाँ चार दिन के लिए भी आ जाएँ तो भी क्या? जंजाल तो रोज का! रोजमर्रा का झंझट तो चलता रहेगा। आप जरा बाहर निकलो तो अच्छा ही है। मेरे यहाँ आओ तो भी एतराज नहीं। पर यह प्रवास-योजना विचारने योग्य है। मेरा तो स्वभाव ही खराब हो गया है। कभी आप लोग बहुत याद आते हैं। जैसे फिर नन्हीं हो जाऊँ, वह जमाना फिर आए...मैं गुड्डे-गुड्डियों का खेल खेलती माता-पिता के पास होऊँ। कभी-कभी अकारण रोना आ जाता है।

‘‘पिताजी तो कहीं भी निकलते नहीं और मुझे कहीं भी अच्छा नहीं लगता, मैं भली और मेरा घर भला। सब अपने-अपने घर सुखी।

‘‘आप आओ तो पहले से ही पत्र लिखना। अचानक आ जाओ, तो यहाँ मुश्किल होगी। छाती में पीड़ा है, पसली का दर्द लगता है।’’

‘‘मैं जानती हूँ न, आपका चेहरा-मोहरा ही उतरा हुआ लगता था। मुझे तो मन-ही-मन आशंका ही थी।’’ सेंक की थैली के लिए गरम पानी करने रसोई में जाती हुई राखी बड़बड़ाती थी और फिर आवाज सुनाई दी। किसकी थी यह आवाज? क्या ध्वनि थी? क्या अर्थ था?

‘‘दूध मँगा लें अब, हैं खुले पैसे?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘तो कोई बात नहीं।’’

२-ए-२ पवनपुरी

बीकानेर-३३४००३ (राज.)

दूरभाष : ०९४६०८९३९७४

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