भ्रष्टाचार के किले की प्रेरक कथा

भ्रष्टाचार के किले की प्रेरक कथा

कुछ मानते हैं, कुछ नहीं मानते हैं। हर काम-धंधे का मंत्रालय एक अभेद्य किले के समान है। इसमें प्रवेश के विशेष गुर हैं और इनके पेशेवर गुरूकंटाल भी।

वह खुश है। आज पहला दिन है, जब उसे लग रहा है कि पेट्रोल पंप पाने के लिए उसकी भाग-दौड़-जुगाड़ और संबद्ध कमेटी के सदस्यों पर किए व्यक्तिगत निवेश सार्थक सिद्ध हुए हैं। उसे याद आता है कि मंत्री को पकड़ने में उसे कितनी कवायद करनी पड़ी थी। अपने निजी अनुभव से वह जानता है कि आदर्श एक ऐसा ढोल है, जो अंदर से जितना रीता होता है, उतनी ही जोर से बजता है। अब कोई उससे उसूल के उपदेश झाड़े तो वह तत्काल शक का शिकार होता है। कहीं यह सफेदपोश डकैत तो नहीं है? इक्कीसवीं सदी में इनकी संख्या में उल्लेखनीय इजाफा हुआ है। उसे लगता है कि अब जो जितनी काली करतूतें करता है, उतने ही लकदक कपड़ों में सजा हुआ है।

यह विशेषज्ञता का जमाना है। इसलिए हर मंत्रालय में काम करवाने को विशेषज्ञ संपर्क सूत्र हैं। कुछ ऐसों को बिचौलिया भी कहते हैं। इस शब्द से अपमान की बू आती है। ऐसे महानुभाव सम्मान के पात्र हैं। अफसर बदलें, मंत्री आएँ-जाएँ, इनको फर्क नहीं पड़ता है। इस चलताऊ व्यवस्था में इनकी हैसियतें टिकाऊ हैं। इनकी खासियत है कि ये किसी दल के सगे नहीं हैं। बस मंत्रालय विशेष से जुड़े हैं। प्रजातंत्र में सियासी दलों की सत्ता का क्या भरोसा? एक चुनाव में जीतें तो दूसरे में हारें। सत्ता की इस अस्थायी व्यवस्था में यदि कुछ स्थायी है तो यही विशेषज्ञ हैं। मंत्रालय के सचिव से लेकर बाबू तक, इनकी पहुँच है। कुछ इनकी तुलना ऊपरवाले से भी करते हैं। वह किसी को नजर आए, न आए, पर सृष्टि की जिम्मेदारी उसी के अदृश्य कंधों पर है। कुछ की मान्यता है कि इसी प्रकार कौन से महत्त्वपूर्ण निर्णय की फाइल के फूल खिलें या उसके पहले ही मुरझाएँ, यह इनकी इनायत पर निर्भर है।

वह पेट्रोल पंप पाने के चक्कर में एक सांसद के पत्र से लैस मंत्रालय की परिक्रमा कर रहा था। तभी एक परिचित ने उस पर कृपा की—‘‘देखो भैया! आप इसी प्रकार एक से दूसरी सीट तक घूमते रहोगे। सब आपको आश्वासन देंगे। होना-जाना कुछ नहीं है। हमारे मित्र वर्माजी की यहाँ तूती बोलती है। हम उनसे आपको मिलवा देते हैं। शायद आपकी समस्या का हल निकल आए!’’

अंधा क्या चाहे, दो आँखें। वह वर्मा के दर्शनार्थ उनके वसंत कुंज के शानदार आवास पर जा धमका। ऐसे व्यक्ति हमेशा व्यस्त पाए जाते हैं। वर्मा इस नियम के अपवाद क्यों बनते? आध घंटे बाद वह अवतरित हुए। तब सफारी सूट का जमाना था। हर प्रभावी व्यक्ति की भाँति वर्मा भी उसी में सजे थे। दीगर है कि कंधों और कमर के बीच एक गोलाकार उभार सी झाँकती उनकी तोंद दर्जी की कुशलता को चुनौती देती, बटनों के बंधन से मुक्ति को मचल रही थी। चपटी नाक के ऊपर टिके चश्मे के पीछे से उनकी आँखें सामने खड़े असामी की आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाने में सक्रिय थीं। वर्मा ने बैठने का इशारा किया और परिचित से बोले, ‘‘कहिए!’’

उसने समस्या बताई। सांसद का पत्र उनके निरीक्षण को प्रस्तुत किया। ‘‘ऐसे रुटीन पत्र तो मंत्री को आते ही रहते हैं,’’ उन्होंने उसकी महत्ता पर पानी फेरा। फिर ढाढ़स भी बँधाया, ‘‘पेट्रोल पंप सत्ताधारी दल अपनी पार्टी के वफादारों को देता है, आपकी राजनीति में रुचि है?’’ उन्होंने जानना चाहा। वह क्या करता? उसने सच कबूला, ‘‘रुचि तो नहीं है, पर पत्र सत्ता दल के सांसद का ही है।’’ ‘‘चलिए, इसी से काम चलाना पड़ेगा।’’ फिर वह मतलब पर आए, ‘‘खर्चे-पानी का एक लाख लगेगा। यदि आप देने को राजी हैं तो आगे कुछ किया जाए।’’ उसने एक-दो दिन का समय माँगा। मरता क्या न करता। उसने पैसे जुटाए। परिचित को पकड़ा। एक-दो हजार उस पर न्योछावर किए। फिर उसके साथ सफारी सूट के घर जा धमका। उन्होंने नोटों के बंडल पर दृष्टि डाली। फोन घुमाया। एक पक्षीय संवाद सुनाई दिया, ‘‘ठीक है सर! कल दस बजे हाजिर होते हैं।’’

दूसरे दिन वह सफारी के पीछे-पीछे मंत्रीजी की प्रतीक्षा कक्ष में दस बजे से हाजरी बजा रहा था। दो घंटे बाद सफारी की बारी आई। वह सांसद का पत्र लेकर अंदर गया और दस मिनट बाद मुसकराता बाहर आ गया, ‘‘हो गई फतह’’ कहते हुए उन्होंने सांसद के पत्र पर मंत्रीजी के हस्ताक्षर दिखाए और उसे वहीं बैठा छोड़कर निजी सचिव के कक्ष में घुस लिये। वहाँ से लौटे तो मुसकान यथावत् थी। ‘‘चलिए,’’ कहकर वह बाहर निकले और बोले, ‘‘काम तो हुआ समझिए, बस इतनी ही राशि और चाहिए। बाकी अधिकारी भी हैं। उन्हें भी हिस्सा देना है।’’ वह निराश तो हुआ था, पर नाव में छेद हो ही चुका था, अब डूबने से क्या फायदा? इतनी ही रकम में किनारे लगने के लालच ने प्रेरणा का काम किया। फिर उसने रकम जुटाई, कुछ उधार लेकर कुछ पत्नी के जेवर बेचकर। सफारी ने इस बार समय नहीं गँवाया। उसे साथ लेकर मंत्रालय तो गए, पर उसे ‘जनपथ’ की कॉफी शॉप में प्रतीक्षा करने का निर्देश देकर ये फुट लिये। वह लौटे तो उनके चेहरे की मुसकान पहले जैसी चिपकी हुई थी। उसे आभास हुआ कि जब यह घर से बाहर निकलते हैं तो हो न हो कोई उनके होंठ बाएँ-दाएँ बराबरी से खींचकर सिल देता है। यह भी संभव है कि अंदर कोई ‘चिप’ फिट हो, जो इस मशीनी मुसकान की नियंत्रक और जनक है। अंदर उल्लास या खुशी होना जरूरी नहीं है, पर प्रसन्नता के प्रतीक दाँत तो दिखना ही दिखना। आते ही उन्होंने कॉफी की माँग की, फिर उसे सूचित किया, ‘‘आपका लाइसेंस मिलना तो तय है, बस संबद्ध कमेटी की औपचारिक मंजूरी की दरकार है। यही सप्ताह-दस दिन में हो जाना चाहिए। कमेटी में आठ-दस सदस्य हैं। उनको भी चढ़ावे का दस्तूर है। ज्यादा नहीं, एक लाख का खर्च है। कल-परसों तक प्रबंध कर दें, तो अगली बैठक में केस स्वीकृत हो जाएगा।’’

किला भेदक की इस नई माँग से उसे दिल का दौरा पड़ते-पड़ते बचा। भ्रष्टाचार का किला है कि चक्रव्यूह? एक बार पैसा देकर अंदर घुसे तो जेब कटाकर ही बाहर निकासी संभव है। उसने बेमन से कॉफी-शॉप का बिल चुकाया। ‘सफारी’ तब तक चीज बॉल्स की एक प्लेट चट कर चुका था। चलते-चलते उसने चेताया, ‘‘एक-दो दिन में आइए और हम यहीं बैठकर आपके पेट्रोल पंप पाने का उत्सव मनाएँगे।’’

सफारी के पीछे-पीछे वह भी विदा हो लिया, इस नए संकट का हल सोचते। अब बिक्री योग्य क्या वस्तु है? इतने आगे आकर पीछे भी कैसे लौटे? क्या गाँव की पुश्तैनी जमीन के बदले कर्ज ले? पर बैंक भी लोन आसानी से कहाँ देता है? उसे बेचने का विचार भी व्यर्थ है। कहाँ उसके लिए तत्काल ग्राहक मिलेगा? होटल पहुँचकर उसने पत्नी को फोन मिलाया। समस्या बताई। क्या मायके से कर्ज मिलेगा? पत्नी ने अपने पिता से बात की। उनकी गैस की एजेंसी और कपड़ों की दुकान है। संपन्न परिवार के गोदाम और मकान भी हैं। पचास-साठ हजार प्रति माह तो इन्हीं की आय है। कैश के लेन-देन से उन्हें क्या आपत्ति होती? दो-तीन लाख तो हारी-बीमारी के लिए घर के सेफ में पड़ा ही रहता है। उसकी दिक्कत दूसरी थी। उनके आगे हाथ फैलाकर वह आत्मसम्मान से समझौता कर रहा है।

भ्रष्टाचार के किले में प्रवेश ने उसे एक प्रकार से निर्वस्त्र कर दिया है। पहले सफारी से याचक बनकर, फिर अपने ससुर से। उन्होंने उसको इच्छित राशि अपने बेटे के हाथ मेरठ से दिल्ली भेज दी। काली कमाई की ऐसी होटल-डिलीवरी, क्या पता, तब के समय एक आम वारदात रही हो? साले ने जब पैर छूकर लिफाफा उसे सौंपा तो वह आत्मग्लानि से ऐसा ग्रसित था कि उससे आँख भी नहीं मिला पाया। जब तक उसे बैठने के लिए कहता, ‘‘जल्दी घर पहुँचना है’’ कहकर वह जा चुका था। उसने भ्रष्टाचार के दुर्ग के द्वारपाल को फोन मिलाया तो वह हमेशा की तरह व्यस्त थे, ‘‘आज तो देर हो जाएगी, कल सुबह आ जाएँ।’’ उसे शंका हुई कि वह उसे टाल तो नहीं रहे हैं?

सस्ते होटल के कमरे में मकड़ी के जाले में फँसे एक कीड़े पर उसकी दृष्टि पड़ी। वह और परेशान हो उठा। उसे महसूस हुआ कि मंत्रालय के मकड़जाल में कहीं सफारी ने उसे फँसा तो नहीं दिया? बस एक अंतर है। कीड़ा बिलबिला रहा है बाहर आने को। बिलबिला तो वह भी रहा है, पर बाहर आने को नहीं, काम सिद्ध होने को। नहीं तो वह कहीं का नहीं रहेगा। जमा पूँजी गँवाकर वह उधार में डूब चुका है। पेट्रोल पंप मंत्रालय के रेगिस्तान की मृग-मरीचिका तो नहीं है, जब तक वह पास पहुँचता है, वह दूर चली जाती है। कहीं सफारी का सफेद पोश ठग उसे ठग तो नहीं रहा है? बार-बार काम होने की बात करता है और फिर किसी नई वसूली की प्रक्रिया में उलझा देता है।

वह अवसाद के भँवर में डूबता-उतराता रहता, यदि हनुमान पर उसकी आस्था काम न आती। इस महानगर में मंदिर वह कहाँ खोजता? उसने कमरे में कुरसी पर बैठ, ध्यानमग्न होकर हनुमान चालीसा का पाठ किया। बाह्य स्थिति वैसी की वैसी रही। क्या बदलाव आता? सामने कीड़े का संघर्ष समाप्त तो नहीं, पर कम जरूर हो चुका है। कौन कहे, मकड़ी अपनी सफलता पर सफारी सी इतरा रही हो? एक पल को उसके मन में शंका आई, फिर खुद-ब-खुद आश्वस्ति भी आ गई। बजरंगबली की कृपा है, कार्य सिद्ध होकर रहेगा। उसने पत्नी को फोन मिलाकर भारतीय पुरुषों की मानसिकता के विपरीत आभार जताया। अलीगंज के मंदिर में कार्य-सिद्धि पर प्रसाद चढ़ाने का संकल्प लिया और बाहर निकल पड़ा पास के ढाबे में खाना खाने। क्या खाने और अवसाद का कोई सीधा रिश्ता है? ढाबे की दाल मखनी और नान खाकर भूख तो मिटी ही मिटी, दुश्चिंताएँ भी समाप्त हो गईं। कमरे की घुटन से बाहर की ताजी हवा के असर से कौन इनकार कर सकता है। उसे खयाल आया कि अगर मियाँ मजनू भी किसी ढाबे में खाते तो शायद ‘लैला-लैला’ न चिल्लाते!

सुबह वह तैयार होकर सफारी के आवास पर जा धमका। अनिवार्य प्रतीक्षा के बाद वह व्यस्तता का दिखावा करते आए तो उसने ब्रीफकेस खोलकर लाख का लिफाफा उन्हें सौंपा। ‘‘कब तक पंप का आदेश मिल पाएगा,’’ उसने जानना चाहा। उन्होंने विश्वास की मुद्रा में उसे भरोसा दिया, ‘‘बस अधिक-से-अधिक दस-पंद्रह दिन। सरकारी काम-काज में वक्त तो लग ही जाता है। वह तो हम पीछे पड़े हैं, वरना तो कितनी अर्जियाँ कूड़ेदान के हवाले हो जाती हैं, कितनी दीमक के।’’ वह अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बने। साथ ही उन्होंने यह भी सलाह दी कि अब वह निश्चिंत होकर घर जाए, फोन पर संपर्क हमेशा संभव है। आराम से बैठिए घर पर, दौड़-भाग तो हम कर ही लेंगे।’’

दिल्ली से लखनऊ पहुँचकर भी उसे चैन नहीं आया, जिसका पैसा फँसा हो, उसे चैन कहाँ? फोन पर संपर्क और आश्वासन से उसे आश्वस्ति नहीं हुई। वह ठीक दस दिन बाद दिल्ली जा धमका। सफारी ने उसे परंपरागत प्रतीक्षा के बाद दर्शन दिए और स्थिति समझाई, ‘‘बैठक हो चुकी है। कार्य-वृत्त बनना है और आपको पत्र भेज दिया जाएगा, मंत्री की चिडि़या बनने के बाद।’’ उनकी खामोशी से वह सहमा। कहीं फिर यह और पैसे की माँग न कर बैठे? ‘‘अभी आठ-दस दिन और लगेंगे। पत्र आपके पास रजिस्टर्ड डाक से चला जाएगा।’’ उन्होंने पत्र की समय सीमा बताई। ‘‘यों यदि आप सप्ताह-दस दिन बाद आएँ तो आपको प्रतिलिपि दिलवा देंगे।’’ वह उम्मीद लेकर आया था और उसी के साथ वापस लौट गया—घर के बुद्धू घर को आए की मुद्रा में। घर पहुँचकर भी वह उद्विग्न ही अधिक रहा। उसे बार-बार मृत्युदंड पाए कैदी का ध्यान आता। उसका वक्त कैसे कटता होगा? राम-राम करते दस दिन बीत ही गए। वक्त को कौन रोक पाया है?

वह फिर दिल्ली जा टपका। इस बार वह सशंकित था। कहीं सफारी फुर्र न हो लिया हो? क्या पता पंप आवंटन का पत्र बना भी कि नहीं? ऐसे लोग अकसर केवल बातों की कमाई खाते हैं। कौन कहे, सच क्या हो? वह अखबारों में कई ‘फ्रॉड’ और ठगी के किस्से पढ़ चुका था। वह इसी मनोस्थिति में बैठा था कि सफारी अपनी स्थायी मुसकान के साथ पधारे, ‘‘चलिए, आपको एलॉटमेंट लेटर की कॉपी दिलवा दें।’’ वह इस बार मंत्रालय के किले की कैंटीन में था। उसे वहाँ बैठाकर सफारी बाबू को बुलाने चले गए थे। वह लौटे तो बाकायदा पत्र की प्रतिलिपि लिये, बाबू के साथ। ‘‘यही हैं लखनऊ के गुप्ताजी। इन्हीं के काम की मैं आपको याद दिलाता रहता था।’’ जब बाबू ने लिफाफा उसे सौंपा तो सफारी ने निर्देशित किया, ‘‘भाई गुप्ताजी! इन्हें मिठाई खाने के पैसे तो दीजिए’’ और पाँच हजार रुपए उसे दिलवाकर ही माने। दूसरे के पैसे से लोग कुछ अधिक ही उदार हो जाते हैं। उसे लगा कि यह भेंट कुछ न्यायसंगत है। उसे यह भी लगा कि वर्तमान समय में वचन के पक्के सिर्फ बिचौलिये और चोर-हत्यारे हैं।

एक पंप ने उसका जीवन बदल दिया है। विज्ञान की प्रगति का वह आभारी है। वही शहर का ऐसा कोलंबस है, जिसने सर्वप्रथम घटतौली की चिप का प्रयोग किया है। इसी चिप का कमाल है कि पंप का मीटर भले दस लीटर दिखाए, गाड़ी में भरा कुल नौ लीटर ही जाता है। डीजल से लेकर पेट्रोल तक बचत ही बचत है। कोई उसके घर के सामने से सुबह या शाम गुजरे तो वहाँ भजन गूँजते हैं। ऐसों के घर में अकसर भजन, भ्रष्टाचार और सुरापान का सुखद सहअस्तित्व रहता है।

उसने करप्शन के किले में घुसकर एक ही पाठ पढ़ा है कि यही आदर्श जीवन पद्धति है। जब से उसकी दोगली आमदनी दुगुनी हुई है, उसने स्वयं ही माप-तौल विभाग से लेकर निरीक्षण पर पधारे तेल कंपनी के अधिकारियों की चढ़ावा राशि में यथोचित वृद्धि की है। उसे यकीन हो गया है कि भ्रष्टाचार देश की रगों में लहू की तरह दौड़ रहा है। यदि कहीं उसकी गति थमी तो प्रगति भी ठप न हो जाए?

कुछ कम अक्लों की मान्यता है कि सरकार का किला अब तक सलामत सिर्फ चंद ईमानदार कर्मचारियों-अधिकारियों के कारण ही है। यू.पी. पुलिस के ऐसे ही किसी अधिकारी ने घटतौली की चिप का भंडा-फोड़ किया होगा। गुप्ताजी उदास हैं। घटतौली के सारे कलाकार एक मत हैं कि उनके साथ घोर नाइनसाफी हुई है। पंप ले-दे के ही पाया था तो उसकी आमदनी में बेजा दखल क्यों? सरकार का कर्तव्य है कि वह सदाचार के अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण न करे, भ्रष्ट बहुसंख्यकों के रहते हुए। जब से एफ.आई.आर. का सुना है, गुप्ताजी अस्पताल में हैं। उनका रक्तचाप अनियमित है। कभी खतरनाक स्तर तक बढ़ता है, कभी एकदम घटता है। पेट्रोल पंप-मालिकों ने धमकी दी है कि यदि घटतौली की चिप के छापे बंद न हुए तो वे हड़ताल पर चले जाएँगे। वर्तमान विरोधी दल सदाचार के हिमायती हैं। वे हर भ्रष्टाचार के साथ हैं तो पेट्रोल पंप के मालिकों के समर्थन में क्यों न हों?

९/५, राणा प्रताप मार्ग

लखनऊ-२२६००१

दूरभाष : ९४१५३४४८४३८

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