RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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मेरी कच्छ यात्राजब भी कभी टी.वी. पर अमिताभ बच्चन को गुजरात टूरिज्म की ओर से बोलते देखता ‘कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा’, तो मेरे दिल में एक अजीब सी टीस या कह सकते हैं कि पीड़ा सी उठ जाती थी, क्योंकि फरवरी २०१६ से पहले तक मैं कच्छ-दर्शन नहीं कर पाया था, और ऐसा नहीं है कि मैंने कभी प्रयास नहीं किया था। प्रयास तो वर्ष २०१० से जारी थे, पर हर बार कुछ-न-कुछ ऐसा हो जाता था कि मुझे कार्यक्रम निरस्त करना ही पड़ता था। यकीन मानिए, ऐसा मेरे साथ कभी किसी अन्य स्थान पर जाने के लिए नहीं हुआ, पर न जाने क्यों, कच्छ और मेरी राशि मिल ही नहीं पा रही थी। गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में फैला ‘कच्छ का रण’ भारत का एक अत्यंत दुर्लभ भू-भाग है, जो वर्ष के चंद महीने ही दीदार के लिए उपलब्ध हो पाता है। समुद्र का पानी धरती से कई मील पीछे खिसक जाता है और अपने पीछे छोड़ जाता है, एक सफेद नमक की चादर। दूर-दूर तक जहाँ नजर दौड़ाओ—बस सफेद नमक की चादर ही दिखाई पड़ती है। यकीन मानिए, यह नजारा भारत में और कहीं देखने को नहीं मिलता है। इन्हीं जगहों को देखने की उत्सुकता मुझे कच्छ की ओर ले चली। अपने चार अन्य साथियों राजेश डागर, गजराज सिंह, मल्होत्राजी और परमजीत के साथ दिल्ली कैंट से अहमदाबाद राजधानी पकड़ अगली सुबह सात बजे पालनपुर पहुँच गया। वहाँ रेलवे के विश्राम गृह में नहा-धोकर पहले दिन की यात्रा का आगाज किया। शाम तक हमें समुद्र तट पर बसे ‘मांडवी’ पहुँचना था। कुल मिलाकर ४०२ कि.मी. का फासला तय करना था। कोई अन्य राज्य होता तो यह काम काफी कठिन होता, पर गुजरात होने के कारण मुझे उम्मीद थी कि हम यह दूरी ७-८ घंटों में पूरी कर लेंगे, क्योंकि गुजरात की सड़कें बहुत बढि़या हैं, और हुआ भी ऐसा ही। पाटन, भचाचू, गांधीधाम और मुंद्रा होते हुए हम आराम से मांडवी पहुँच गए। दोपहर को गांधीधाम पहुँचकर मेरी भेंट मेरे रेलवे के मित्र सुनील गुप्ता से हुई, जो कि पश्चिम रेलवे में हैं और अभी गांधीधाम में सहायक ट्रैफिक मैनेजर के पद पर नियुक्त हैं। सुनील भाई ने जिस प्यार से हमारा आतिथ्य किया, वह भुलाना नामुमकिन है, भोजन के पश्चात् हमने वहाँ से प्रस्थान किया और शाम चार बजे मांडवी पर दस्तक दी। सबसे पहले हम स्वतंत्रता सेनानी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा के जन्मस्थान पर बने स्मारक को देखने गए और वहाँ उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन में ‘इंडिया हाउस’ की स्थापना की, जो इंग्लैंड जाकर पढ़नेवाले भारतीय छात्रों का मुख्य केंद्र था, और इसी स्थान पर सभी छात्र मिलकर विचार-विमर्श करते और भारत की आजादी पर परस्पर योजनाएँ बनाते रहते। इस तरह वर्माजी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए निरंतर कार्य करते रहे। वर्ष १९३० में जिनेवा में श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा का देहांत हुआ, पर उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनकी अस्थियों को केवल आजाद भारत में ही ले जाया जाए। २२ अगस्त, २००३ में भारत की स्वतंत्रता के ५५ वर्ष बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को लेकर मांडवी आए और उनकी अंतिम इच्छा को पूरा किया। लंदन में जिस इंडिया हाउस में वे रहा करते थे, उसकी हूबहू ईमारत का निर्माण यहाँ किया गया है। वर्मा दंपती की अस्थियाँ आज भी यहाँ रखी गई हैं। मांडवी बीच पर हमारा कमरा यहाँ के सर्किट हाउस में आरक्षित था। पहले तो सभी साथियों ने जी भरकर समुद्र में गोते मारे, मांडवी बीच पर सूर्यास्त का नजारा यादगार था। उसी दिन एशिया कप में भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट मैच था, जिसका हम सबने भरपूर आनंद उठाया। मौसम अत्यंत सुहावना था। समुद्र तट होने की वजह से हवा ठंडी चल रही थी और हमें थोड़ी सर्दी का भी एहसास हो रहा था। मैच खत्म होने के बाद हम भ्रमण के लिए निकले तो तारे ऐसे दिखाई दे रहे थे, जैसे हाथ थोड़ा ऊपर कर उनको मुट््ठी में कैद कर लो। बिल्कुल अद्भुत, उनसे नजरें हटाना मुश्किल हो रहा था। सप्तर्षि तारामंडल पूर्णतः दिखाई दे रहा था। दिल्ली जैसे प्रदूषित शहर में रहने की वजह से साफ आसमान और तारे देखे अरसा हो गया था। सर्किट हाउस में कमरे का नाम नदियों के नाम पर रखा हुआ है। मेरे सुईट का नाम नर्मदा नदी के नाम पर था। देखकर अच्छा लगा। सुबह तड़के ही नलिया होते हुए नारायण सरोवर की ओर चल पड़े, जो कि मांडवी से १४० कि.मी. दूर है। नारायण सरोवर कोटेश्वर महादेव से मात्र २ किलोमीटर की दूरी पर है। नारायण सरोवर का अर्थ है, ‘विष्णु का सरोवर’। यहाँ कभी सिंधु नदी का अरब सागर से संगम होता था। कहा जाता है, नारायण सरोवर का दर्जा मानसरोवर के बराबर है। यहाँ दर्शन करने के बाद हम २ कि.मी. दूर कोटेश्वर महादेव के दर्शनों को चल पड़े। कोटेश्वर गुजरात में भारत के सबसे पश्चिमी कोने पर स्थित है। कहा जाता है कि एक बार जब रावण शिव से प्राप्त शिवलिंग को लंका लेकर जा रहा था, ईश्वर को यह मंजूर नहीं था, तब उन्होंने लीला रची और रावण को शिवलिंग को नीचे रखने पर मजबूर कर दिया और शर्त अनुसार शिवलिंग यहीं स्थापित हो गया। रावण ने शिवलिंग को पूरी शक्ति से खींचा, पर शिवलिंग कहाँ उठनेवाला था, लेकिन शिवलिंग पर रावण की उँगलियों के निशान आ गए, जो आज भी देखे जा सकते हैं। कहा जाता है कि रावण ने तीन बार तपस्या कर शिव से शिवलिंग प्राप्त किया, पर हर बार किसी-न-किसी वजह से वह धरती पर ही स्थापित हो गया। कोटेश्वर के अलावा ऐसे दो शिव स्थल हैं—झारखंड में देवघर और कर्नाटक में मुरुदेश्वर। कोटेश्वर में बी.एस.एफ. का जल दस्ता भी है। पाकिस्तान का कराची क्षेत्र यहाँ से काफी नजदीक पड़ता है। यहाँ पर लगातार पेट्रोलिंग होती रहती है। बी.एस.एफ. का आधिकारिक मेहमान होने की वजह से असिस्टेंट कमांडेंटजी ने हमें पूरे क्षेत्र के बारे में विस्तार से समझाया। इसके पश्चात् उन्होंने हमारे नाश्ते की व्यवस्था कर रखी थी। हम सभी ने आलू के पराँठे, चाय, दही का नाश्ता किया। बी.एस.एफ. की वजह से ही हम सभी को स्पीड बोट में अरब सागर का भ्रमण करने का मौका, जो कि अविस्मरणीय रहा। यहाँ कुछ समय गुजारने के बाद हम ३६ कि.मी. दूर स्थित कोट लखपत आ गए। सर क्रीक के पास बने कोट लखपत में एक जमाने में बहुत बड़ा बंदरगाह था, जहाँ से कई देशों के लिए माल और जहाज जाते थे। १८१९ तक अरब सागर में मिलने से पहले सिंधु नदी इसी किले के मुहाने तक आती थी। १८१९ तक खुशहाल इस क्षेत्र को प्राकृतिक आपदा ने वीरान कर दिया और सिंधु नदी को भी चालीस मील दूर धकेल दिया। पाकिस्तानी क्षेत्र यहाँ से चंद किलोमीटर बाद ही शुरू हो जाता है। गुरु नानक देवजी मक्का जाते हुए चालीस दिनों तक इसी गुरुद्वारे में रुके थे। इसके बाद एक बार पुनः वे यहाँ पधारे थे। गुरुद्वारा नानक दरबार में आज भी गुरु नानकजी के खड़ाऊ, सोटा और झूला रखा हुआ है। मेरे सिख मित्रों को एक बार इस गुरुद्वारे में अवश्य जाना चाहिए। सिंधु नदी कैलाश मानसरोवर से निकलती है और कश्मीर के रास्ते पाकिस्तान में प्रवेश करती है। सिंधु पाकिस्तान की सबसे लंबी नदी है। कोट लखपत से हम अपने अंतिम गंतव्य ‘धोरडू’ के लिए निकल पड़े। करीब ५ घंटे की यात्रा के बाद हम धोरडू पहुँच गए। रास्ते में एक छोटे ढाबे पर कठियावाड़ी खाने का स्वाद लिया, जो बढि़या लगा। यहीं रास्ते में एक स्थान आया, जहाँ से ट्रोपिक ऑफ कैंसर, यानी कर्क रेखा गुजर रही है। भुज से ८० किलोमीटर दूर एक ग्रामीण क्षेत्र पड़ता है—‘धोरडू’, यहाँ एक पूरा शहर टैंटों के रूप में बसा दिया जाता है। टैंटों की कुल तीन श्रेणियाँ होती हैं। सबसे महँगा ए.सी. डीलक्स होता है, जिसमें अत्याधुनिक साज-सज्जा का सामान उपलब्ध होता है। अटैच टॉयलेट, बाथरूम और एक छोटी बैठक टैंट के रूप इसे और भी आकर्षक बना देते है। टैंट के अंदर ही इलेक्ट्रिक केतली उपलब्ध होती है, जहाँ यात्री चाय कॉफी स्वयं ही तैयार कर सकते हैं। धोरडू में टैंट सिटी देखकर हैरानी हुई कि कितने लाजवाब तरीके से गुजरात पर्यटन ने मेहमानों के लिए इंतजाम किए थे। टैंट सिटी के अंदर वाहन ले जाना मना था। हम अंदर बैटरी कार्ट में गए। गुजरात पर्यटन ने टैंट सिटी को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए टैंट सिटी के अंदर घूमने के लिए साइकिलों की व्यवस्था कर रखी है। अपना टैंट देखकर मन प्रफुल्लित हो गया। टैंट में रुकने की व्यवस्था हमारे लिए कलेक्टर भुज की ओर से करवाई गई थी। शाम के ५ बज चुके थे। गुजरात पर्यटन के अधिकारियों ने हमें तुरंत ही रण में सूर्यास्त देखने के लिए प्रस्थान करने की सलाह दी। उन्हीं की वातानुकूलित बस में बैठकर हम वहाँ गए, जो कि टैंट क्षेत्र से चार कि.मी. दूर था। सफेद रण में सूर्यास्त देखना एक अविस्मरणीय पल था। और यही नजारा हर वर्ष सैकड़ों पर्यटकों को रण महोत्सव में खींचकर ले आता है। गुजरात का पर्यटन मंत्रालय हर वर्ष दिसंबर से फरवरी तक रण महोत्सव का आयोजन करता है। आमतौर पर देसी ही नहीं, विदेशी सैलानी भी यहाँ आकर प्रकृति की गोद में बैठकर जीवन का लुत्फ उठाते हैं। हमने भी यहाँ की सफेद धरती पर ऊँटों के साथ फोटो खिंचवाए। रात्रि भोजन की व्यवस्था विशाल हॉल में बुफे के तौर पर की गई थी। नाना प्रकार के पकवानों का रसास्वादन कर आनंद ही आ गया। साथ में लाइव बैंड भी चल रहा था। रात्रि खाने के बाद हम रंगारंग कार्यक्रम देखने चले गए। करीब एक घंटा वहाँ गुजारने के बाद हम वापस टैंट में आ गए। सुबह जब हम उठे तो हल्की-हल्की सर्दी लग रही थी। गरम पानी से नहाने के बाद हम नाश्ता करने पहुँचे। नाश्ता करके मैंने यादगार के तौर पर बच्चों के लिए टी-शर्ट्स लीं और यहाँ से हम भारत पाकिस्तान के अंतिम स्थल ‘इंडिया ब्रिज’ तक गए। इससे आगे केवल बी.एस.एफ. के जवान ही जा सकते हैं। यहाँ से हम इस क्षेत्र के सबसे ऊँचे स्थान ‘काला डूँगर’ चले गए। यहाँ दत्तात्रेयजी का मंदिर है और रास्ते में मैग्नेटिक क्षेत्र आता है, जहाँ गाड़ी को न्यूट्रल छोड़ दो तो स्वयं चलने लगती है। पहले तो यकीन नहीं हुआ, पर जब खुद करके देखा तो इस प्राकृतिक अचंभे पर बहुत हैरत हुई। लेह के पास भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे मैग्नेटिक हिल कहते हैं। २००७ में मुझे उस जगह को देखने का अवसर मिला था। यहीं से हम भुज होते हुए पालनपुर की ओर निकल पड़े। शाम पाँच बजे पालनपुर पहुँचकर चाय-नाश्ता किया और सात बजे राजधानी पकड़ दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। डी ओ बिल्डिंग ट्रेन डिपो शास्त्री पार्क, ईस्टर्न एप्रोच रोड दिल्ली-११००५३ दूरभाष : ९९१०३७३१११ |
अप्रैल 2024
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