शिवाजी व सुराज

मनोगत

आधारभूत मानचित्र (Blue Print) की तरह देखना होगा। उनके सोचने, निर्णय करने, राज्य-संचालन की शैली को याद कर कार्य-संचालन कर रही हर एक इकाई को अपने-अपने स्थान पर विवेकपूर्वक कार्य करते हुए सहज नेतृत्व स्थापित करना होगा। अनुशासन को स्वभाव बनाना होगा। देश-दुनिया में फैले हुए हजारों-लाखों व्यक्ति, जो बहुतों के पीछे और कइयों से आगे चल रहे हैं, यह पुस्तक उनका पाथेय बने, यह अपेक्षा॒है।

सार्वजनिक जीवन में कार्य करते मुझे अनुभव हुआ कि अधिकांश लोग व्यवस्था की आलोचना तो करते हैं किंतु मार्ग नहीं बताते। विशेषकर १९७५ के बाद भारतीय राजनीति ने जो आकार लिया, वह अधिक चिंताजनक है। सार्वजनिक क्षेत्र में सच्चे प्रेरणा-केंद्रों का अभाव हो गया। योग्य-अयोग्य सभी मार्गदर्शक बनने लगे। अस्वीकार्य नेतृत्व को स्वीकारने की पीड़ा समाज की मजबूरी बन गई। यही विवशता इस पुस्तक-जन्म का कारण बनी।

पंच से प्रधानमंत्री तक, सेवावृत्ति से संन्यासी तक सभी एक अथवा दूसरे प्रकार के सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक व अन्य शक्ति केंद्रों का संचालन करते हैं। उनके लिए शिवाजी के स्वराज-संचालन के

सभी गुण दिशासूचक यंत्र बनें तथा उनकी सफलता का मंत्र भी।

इस आस्था और विश्वास के साथ यह कृति सत्य के साधकों को सादर प्रस्तुत है।

भाषा व संस्कृति मंत्रालय

शिवाजी महाराज ने राज्य व्यवहार में भाषा को विशेष महत्त्व दिया। राज्य संचालन में अपभ्रंशित व मिश्रित शब्दों के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ मराठी शब्दों का चयन किया, उनका प्रयोग प्रारंभ करवाया और प्रयत्नपूर्वक उन्हें राज्य व्यवहार में स्थापित किया। स्वराज्य की शासन व्यवस्था के लिए उन्होंने १४०० शब्दों का कोष बनाया था। वे जानते थे कि भाषा कभी भी अकेली नहीं आती। वह अपने साथ सोच और संस्कृति भी लाती है। स्वराज्य की स्थापना व संचालन में स्वभाषा न हो तो स्वराज्य कैसा! चयनित शब्दों को नाम दिया गया ‘राज्य व्यवहार कोश’। उनमें से चुने कुछ शब्द इस प्रकार हैं३८—

  क्रम    अरबी/फारसी शब्द    मूल     संस्कृत/मराठी

   १.     आदिल               अ      न्यायाधीश

   २.     काजी                अ      पंडित

   ३.     तख्त                 फा      सिंहासन

   ४.    दौलतबंकी            फा      महाद्वारपाल

   ५.    नुजुमी                फा      ज्योतिष

   ६.    पीर                   फा      गुरु

   ७.    पेशवा                फा      प्रधान

   ८.    वाकानवीस           फा      मंत्री

   ९.     साहेब                अ      स्वामी

  १०.    हेजीब                अ      दूत

  ११.     आब                 फा      जल

  १२.    आतश                फा      अग्नि

  १३.    कमानदार             फा      धनुर्धर

  १४.    चिराग                फा      दीप

  १५.    खजाना               अ      कोशगार

  १६.    खजाना हवालदार     अफा    कोशपाल

  १७.    खर्च पोतेनिविशिंदा     फा      व्ययलेखक

  १८.    जर                   फा      सुवर्ण

  १९.    नख्त                 फा      द्रव्य

  २०.    तबीब                अ      वैद्य

  २१.    तर्तीब                 फा      उपचार

  २२.    फौत                 फा      निधन

  २३.    जिरात्खाना            फा      शस्त्रागार

  २४.    सैफ                  फा      खड्ग

  २५.    नोबती                फा      गजपालक

  २६.    शुतुर                 फा      उष्ट्र

  २७.    किल्ला               अ      दुर्ग

  २८.    गनीम                 अ      वैरी

  २९.    पंद                   फा      दंड

  ३०.    सरनोबत              फा      सेनानी

  ३१.    शिकस्त              फा      पराभव

  ३२.    जंजीरा                अ      द्वीप

  ३३.    अज्जम               अ      श्रेष्ठ

  ३४.    कजाख               तु       साहसी

  ३५.    कैद                  अ      निग्रह

  ३६.    जरारा                 अ      एकाकी

  ३७.    तकसिमा             अ      विभाग

  ३८.    तैवर्क                अ      वेतन-पत्र

  ३९.    पुस्तपनाह             फा      सहकारी

  ४०.    मोइनजाबिता          अ      निर्णय-पत्र

  ४१.    मग्रीबा                अ      प्रतीची

  ४२.    मश्रीफ               अ      प्राची

  ४३.    बुलंगा                फा      सैन्य-संभार

अ=अरबी। फा=फारसी। तु=तुर्की

राज्य-संचालन का एक अनिवार्य तत्त्व इतिहास लेखन भी है। भावी पीढि़याँ राज्य, राजा, प्रजा, समकालीन परिस्थितियों को लेखों, शिलालेखों एवं बाहर देश से प्रवास पर आए हुए लोगों के आलेखों व डायरियों से ही समझती हैं। आज शिवाजी के संबंध में हम जो कुछ जानते हैं, उसका बहुत बड़ा हिस्सा उन अंग्रेज व यूरोपीय सेना के अफसरों, प्रशासनिक अधिकारियों, व्यापारियों व पर्यटकों की लिखी डायरियों से प्राप्त है। उन्होंने शिवाजी के राज्य-संचालन, उनकी सोच व समझ, व्यवहार और विचार को नजदीक से देखा। शिवाजी की भाषा और संस्कृति के संबंध में उन्होंने बहुत कुछ लिखा है—

Arlie Ebrahim wrote in ‘The Great Mugal’—“A significant aspect of Shivaji’s rule was his attempt to revive ancient Hindu political tradition and court conventions to introduce Marathi in place of Persian as the court language. He revived Sanskrit administrative nomenclature and compiled a dictionary of official terms–the Rajya Vyavhar Kosh–to facilitate the change over.”

महाराज ने स्वयं भी प्रकांड विद्वान् गागा भट्ट से ‘शिवार्कोदयः’ व ‘करण कौस्तुभ’ नामक पुस्तकें संस्कृत में लिखवाईं।

राज्याभिषेक कार्यक्रम की संरचना हो अथवा अलग-अलग समय पर प्रयुक्त की गई वेश-भूषा, अलंकार या आभूषण—शिवाजी ने सभी में भारत की सांस्कृतिक झलक को बनाए रखा। उनके बाद के उत्तराधिकारी शासकों ने भी इस परंपरा को जीवित रखा।

स्वतंत्र भारत में जो भारतीय तंत्र विकसित हुआ, उसमें भारतीय भाषाएँ व राज्यों की सहेली भाषाएँ राजनीति की बलि चढ़ गईं। भारतीय भाषाओं का अपने-अपने राज्य में जो विकास होना था, वह नहीं हो पाया। उसके स्थान पर अंग्रेजी राज्य व्यवहार की भाषा बनी रही। तमिल, तेलुगु, असमिया व कन्नड़ जैसी विभिन्न राज्यों की भाषाएँ, जो कि समृद्ध भाषाएँ हैं, संकीर्ण मानसिकता, छद्म अंग्रेजी व अंग्रेजियत के अनुराग के कारण अपने-अपने राज्य में राज-व्यवहार की भाषा नहीं बन पाईं। यही स्थिति देश की राजभाषा हिंदी की रही। महात्मा गांधी के सारे आग्रहों के बाद आज भी हिंदी वर्ष में एक बार संपन्न होनेवाले ‘हिंदी सप्ताह’ से बाहर नहीं निकल पाई। दुर्दैव से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री को भारत की किसी अन्य भाषा की तुलना में अंग्रेजी भाषा ज्यादा सहजता लगती थी। उसे उन्होंने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में पूरे समय व्यवहार में बनाए रखा। यही कारण है कि अंग्रेजी और अंग्रेजियत तब से लेकर आज तक भारतीय राजतंत्र के संवाद व व्यवहार का भाग है।

भारत में राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ व्यवस्थात्मक स्वतंत्रता नहीं आ पाई। वैसे इस हेतु भगीरथ प्रयत्न भी नहीं हुए।

अंग्रेजों की कूटनीति, जिन्ना की हठ और भारतीय नेतृत्व द्वारा वार्त्ता की मेज पर की गई गलतियों ने भारत का विभाजन करवा दिया।

खान अब्दुल गफ्फार खान व मौलाना आजाद द्वारा भारत विभाजन का तीव्र विरोध करने के बाद भी उसे मान लिया गया। आजादी के समय देश-विभाजन ने अराजकता फैला दी।

सरदार पटेल जैसे श्रेष्ठ नायक का पूरा समय राजे-रजवाड़ों को भारत में मिलाने में चला गया। हैदराबाद और जूनागढ़ जैसे नवाबों व राजाओं की महत्त्वाकांक्षा दबाने में उनकी बहुत ऊर्जा खत्म हुई।

अराजकता व अव्यवस्था के उस काल में स्वदेशी प्रशासन तंत्र खड़ा करने का काम पिछड़ गया। इसीलिए आज तक प्रशासन, पुलिस, वित्त, न्याय, शिक्षा जैसे राज्य के विभिन्न विभाग जस-के-तस बने हुए हैं। समूचे प्रशासन तंत्र की भाषा और भाव वही रहे। न देखने की दृष्टि बदली, न दृश्य बदला। सरकारी भवनों के ऊपर लहराता झंडा जरूर बदला। लेकिन भवनों के अंदर का रंग और ढंग दोनों नहीं बदले। कक्षों की दीवारों से महारानी के चित्र हटे और बापू व जवाहरलाल के चित्र लग गए, किंतु न अर्दली की टोपी बदली, न साहब की टाई। इसी कारण से ६४ वर्षों के राज्य व्यवहारों में अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गई विदेशी भाषा भी जस-की-तस बनी रही। आज भी तमिलनाडु के किसान की फाइल तमिल में नहीं लिखी जाती। केरल के श्रमिक का विवाद होने पर श्रम न्यायालय अपनी कार्यवाही व निर्णय मलयाली भाषा में लिखने और सुनाने में असमर्थ है। स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक वर्षों में देश में उच्च पदस्थ अधिकतम १००० अधिकारियों को भाषा-विवाद में अंग्रेजी का प्रयोग ज्यादा प्रिय लगा। उसे उन्होंने स्थापित करने में मौन भूमिका निभाई। दूसरी तरफ हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने का कार्य कर रहे कर्णधारों ने कूटनीतिक भूलें कीं। जो संघर्ष हिंदी व उसकी सहेली भाषाओं का अंग्रेजी से होना था, वह हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच हो गया। अंग्रेजी के पक्षधर लोगों ने बंदरबाँट करते हुए अंग्रेजी भाषा को मध्यम मार्ग के रूप में स्वीकार करवा लिया।

शिवाजी ने स्वराज्य की स्थापना के साथ ही दुर्गों के पुराने नाम बदलकर नए संस्कृत नाम रखे; जैसे—रायरी का रायगढ़, साकण का संग्राम दुर्ग, रोहिडा का विचित्रगढ़, तोरड़ा का प्रचंडगढ़ और पट्टा का विश्रामगढ़ इत्यादि।

शिवाजी के अवसान के बाद औरंगजेब ने दक्षिण के राज्यों पर चढ़ाई की। उसने संभाजी की मृत्यु के बाद जब उसी रायगढ़ को जीता तो उसका नाम ‘इस्लामगढ़’ रख दिया। वैसे तोरड़ा जीतने के बाद उसका नाम ‘फत्ते-उल-घैब’ रखा। यह बात भिन्न है कि समाज ने उसे नहीं स्वीकारा; किंतु नाम में क्या रखा है, ऐसा सोचनेवालों को यह समझना होगा कि हर नाम का अर्थ व उसका प्रभाव होता है।

आज जब किसी स्थान, नगर का नाम बदलकर फिर से उसका पुराना गौरवपूर्ण नाम रखने की कोई पहल होती है तो उसे हेय दृष्टि से देखने व विरोध करनेवाला एक तथाकथित समाज है। वह स्वयं को प्रगतिशील और दूसरों को जड़वादी मानता है। भारतीय भाषा-विज्ञान के अनुसार नाम शब्द है और शब्द ब्रह्म है। उसका सही प्रयोग अनिवार्य है। गुलामी या बलपूर्वक किसी स्थान का नाम गुलाम बनानेवालों ने अगर बदल दिया था तो स्वतंत्रता प्राप्त होने पर स्वाभिमानी समाज का यह दायित्व है कि वह उस पुराने गौरवशाली नाम की पुनः प्रतिष्ठा करे।

सन् १९४७ की स्वतंत्रता के बाद स्वराज्य का जो स्वरूप खड़ा हुआ, उसमें स्व-भाषा का अभाव सबसे बड़ी कमजोरी बन गया। राजभाषा के रूप में हिंदी के विकास और नए सहज-सरल शब्दों की खोज एवं उनके प्रयोग के स्थान पर क्लिष्ट हिंदी शब्दों के प्रयोग से भाषा का मजाक समाज के नायकों का भाव बन गया। इस कारण हिंदी स्वीकार करने की इच्छा रखनेवालों को भी असहजता अनुभव होने लगी। हिंदी व सहेली भाषाओं के उत्थान में लगे कुछ लोग उसके विभिन्न उपक्रमों व संगठनों से इसलिए जुड़ने लगे, जिससे उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा सुविधाएँ, पद व विदेश प्रवास प्राप्त हो सकें।

भारत के विभिन्न प्रांतों में जनमे कई भारतीय अपनी-अपनी मातृभाषा पढ़ने, लिखने, समझने व बोलने में असहजता अनुभव करते हैं, यह बात शर्म से बोलने के बजाय वे गर्व से कहते हैं।

राजभाषा व विभिन्न राज्यों की भाषाओं के विकास हेतु जितने सार्थक व गंभीर प्रयत्न ऊपर से नीचे तक होने थे, वे नहीं हुए, यह कहने के स्थान पर यह कहा जाए कि वे उतने नहीं हुए, जितने होने थे तो ज्यादा ठीक है।

स्व-भाषा व स्व-रोजगार के माध्यम से राज्य को सशक्त करने का एक सफल प्रयत्न त्रिपुरा की श्री माणिक सरकार ने किया है। सुदूर उत्तर-पूर्व में स्थित इस छोटे से राज्य की सरकार ने स्थानीय भाषा

कोक-बोरॉक (Kok-Borok) के विकास हेतु अभिनव प्रयत्न किए। शासकीय कर्मचारियों, वरिष्ठ अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों को स्थानीय भाषा सिखाने के लिए विशेष कक्षाएँ लगाई गईं। सन् १९९७-९८ में वहाँ की सरकार ने गाँव, नदी, बाजार इत्यादि ९५ स्थानों के पुराने स्थानीय नाम फिर से स्थापित किये और तत्संबंध में सभी आवश्यक विभागों को उसे पालन करने के निर्देश दिए। स्थानीय रोजगार बढ़ाने के लिए उन्होंने बाँस के उत्पादन व प्रयोग को विशेष प्रोत्साहन दिया। मछली का उत्पादन बढ़ाकर गरीब तबके में रोजगार के नए अवसर पैदा किए। फलों व सब्जियों के उत्पादन में तो राज्य ने नए मानक ही स्थापित कर दिए। आज वहाँ प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ४४७ ग्राम फल और ४०४ ग्राम सब्जी पैदा होती है। त्रिपुरा विभिन्न आतंकवादी व अतिवादी गुटों के कारण अशांत रहता था। राज्य सरकार ने बड़ी स्पष्टता से कहा कि बांग्लादेश द्वारा आतंकवादियों और घुसपैठियों को जो खुला और गुप्त, दोनों प्रकार का समर्थन दिया जाना जब तक बंद नहीं होगा तब तक शांति संभव नहीं है। साथ ही उन्होंने इन शक्तियों से समाज को सुरक्षित रखने के लिए केंद्र सरकार से ज्यादा अर्द्धसैनिक बलों की माँग की। स्थानीय जन को प्रशासन में जोड़ने के पंचायती राज व्यवस्था के अतिरिक्त ‘त्रिपुरा ट्रायबल एरिया ऑटोनोमस डिस्ट्रिक काउंसिल’ की रचना की गई, जिसके बहुत अच्छे परिणाम आए। जहाँ एक ओर स्थानीय लोगों की भागीदारी बढ़ी, वहीं महिलाओं को विशेष प्रोत्साहन देकर उससे जोड़ा गया।

स्वतंत्र भारत में राजभाषा की जो सेवा श्री सावरकर, श्री म.स. गोलवलकर, डॉ. राम मनोहर लोहिया, श्री अटल बिहारी वाजपेयी व अन्य गण्यमान्य लोगों ने की है, वह अनुकरणीय व अभिनंदनीय है। उन्होंने व्यवहार में नए शब्द दिए; पहले उन्हें स्वयं प्रयुक्त किया और बाद में आग्रह के साथ व्यवस्था में भी स्थापित किया।

सांस्कृतिक धरोहरों को सँजोने की वर्तमान पद्धति अत्यंत हास्यास्पद व अपमानजनक है। चेन्नई के प्रसिद्ध संस्थान ‘कला क्षेत्र’ की डायरेक्टर लीला सैमसन ने उस संस्थान के पूरे परिसर से गणपति की वे सभी कलाकृतियाँ यह कहते हुए हटवा दीं कि ये धर्म विशेष का प्रतिनिधित्व करती हैं। लीला ने ॐ का उच्चार बंद करवाया। विद्यार्थियों को श्रीश्री रविशंकर जैसे आध्यात्मिक गुरुओं के कार्यक्रम में जाने से रोका। उसने सनातन परंपरा के किसी भी कार्यक्रम में विद्यार्थियों को जाने की मनाही कर दी।

इसी तरह भोपाल-दिल्ली के बीच चलनेवाली शताब्दी एक्सप्रेस से गांधी के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ को यह कहते हुए हटा दिया गया कि यह सांप्रदायिक है। दूरदर्शन के प्रतीक चिह्न में से ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ को भी इसी आरोप के साथ या तो पूरी तरह बंद कर दिया गया या न के बराबर रखा गया। इन सब में भी सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि संसद् के सत्र समापन पर ‘वंदे मातरम्’ भी पूरा नहीं गाया जाता, केवल उसकी धुन बजाई जाती है, वह भी अधूरी।

आज आवश्यकता है शिवाजी की तरह भाषा, साहित्य, संस्कृति व सांस्कृतिक मूल्यों को शासन एवं प्रशासन में स्थापित करने की, जिससे कि स्वराज्य का मंत्र सिद्ध हो सके।

कीर्तिशेष

संसार में हर व्यक्ति, चाहे वह नायक हो या महानायक, वनवासी हो या वैज्ञानिक, उसके जीवन में एक शाम ऐसी आती है, जब सुबह नहीं आती अथवा एक सुबह ऐसी आती है, जब शाम नहीं आती। वह उस व्यक्ति की अंतिम सुबह या अंतिम शाम होती है। आस-पास रहनेवाले लोग धर्म, रीति, परंपरा के अनुसार उसकी अंतिम क्रिया करते हैं अर्थात् उसके शरीर का विसर्जन करते हैं।

रंगमंच का एक पात्र अपनी भूमिका का अंतिम संवाद बोल हमेशा के लिए नेपथ्य में चला जाता है। अगर कुछ शेष रह जाता है तो बस ‘कीर्ति’। सभ्य समाज के स्वाभिमानी लोग जीवन भर इसी कीर्ति के  लिए कष्ट सहते हैं, परिश्रम व पुरुषार्थ करते हैं। अपनी ऊँचाई  के अनुपात में जन की स्मृतियों में कीर्ति उतने लंबे समय जीवित रहती है। श्रीराम हजारों वर्ष बाद आज भी अगर जनमानस में ऐसे रह रहे हैं, मानो कल की ही बात हो तो उसका कारण उनके जीवनकाल में उनके द्वारा किए गए कार्य ही हैं। श्रीकृष्ण की हलचल तथा उनके होने की आहट ब्रज से ब्रह्मांड तक अगर संत और भक्तजन को आज भी दिखाई व सुनाई देती है तो इसका कारण भी उनके द्वारा अपने जीवनकाल में किए गए परिश्रम व पराक्रम के प्रसंग ही हैं। ऐसे ही हर नायक संसार से जाने के बाद अपने कार्यों से उपजे फलों के कारण लोक-स्मृति में स्थान पाता॒है।

आश्चर्यजनक, किंतु सत्य यह है कि विश्व का सभ्य समाज नकारात्मक कार्य करनेवालों को जल्दी-से-जल्दी भूल जाता है। ऐसा नहीं है कि विश्व के किसी कोने में पहले लादेन, सद्दाम या मार्कोस नहीं हुए। ऐसा भी नहीं है कि किसी युग व काल में हिटलर या मुसोलिनी नहीं थे। वे एक नहीं, अनेक हुए होंगे, किंतु जन की स्मृति ने उन्हें अपने में धारण करना उचित नहीं समझा और जल्दी-से-जल्दी उन्हें भुला॒दिया।

सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में नेतृत्व करनेवाले छोटे-बड़े नायक को एक दिन स्मृतिशेष होना है। बात बस इतनी सी है कि उसके मोहल्ले, गाँव, नगर, प्रांत, देश या दुनिया में उस नायक की याद आने पर या उसके वंशजों को देखने पर लोग क्या कहते हैं?

शिवाजी आज स्मृतिशेष हैं। ३५० वर्ष बाद आज भी ऐसा लगता है कि वे यहीं हैं अथवा मुहिम पर गए हैं। प्रयत्न करने पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है, ऐसा भाव अगर पैदा होता है तो उसका कारण भी उनके द्वारा किए गए कार्य व पराक्रम हैं। शिवाजी में ढेरों गुण थे। अगर उनमें से एक को याद करना चाहें तो वह इस प्रकार है—शिवाजी अपने संपूर्ण जीवनकाल में किसी व्यक्ति, संस्था या व्यवस्था से इस प्रकार प्रभावित नहीं हुए कि वह उनके कार्य, निर्णय या व्यक्तित्व को अभिभूत कर सके (अपने प्रेरणास्रोतों को छोड़कर)। जब भी किसी पास या दूर के व्यक्ति ने अथवा देशी-विदेशी शक्ति ने उन्हें अपने प्रभाव-क्षेत्र में लाकर उनकी चिंतनधारा या निर्णय को बदलने की कोशिश की तो उन्होंने युक्तिपूर्वक उसमें से मार्ग निकाला और आगे बढ़ गए।

अपने प्रेरणास्रोतों द्वारा एक बार तैयार किए जाने पर उन्होंने जो यात्रा प्रारंभ की, वह स्व-संचालित, स्व-प्रेरित, स्वावलंबी, स्वयंसेवी, स्वांतः सुखाय, स्वदेश, स्वधर्म व स्वराज्य के मूल मंत्रों से युक्त थी। इतना ‘स्व’ पूर्ण होते हुए भी वे स्व-केंद्रित नहीं थे। तो इसका कारण था कि जैसे वृक्ष की जड़ें मिट्टी के हर कण से संवाद रखती हैं, वैसे ही वे समाज के हर हिस्से से संवाद रखते थे। वृक्ष की जड़ें मिट्टी से लेकर जैसे शिखर तक धरा रस पहुँचाती हैं, वैसे ही शिवाजी समाज के विभिन्न तबकों से विचार, सुझाव व निवेदन रूपी विचार रस को अपने विवेक से तराशकर शासन-प्रशासन के सर्वोच्च स्तर पर पहुँचाते थे। एक तरफ वे समर्थ गुरु रामदास से विचार-विनिमय करते थे तो दूसरी तरफ रायगढ़ किले के नीचे पाचाड़ गाँव में जीजा माता के राजप्रासाद में स्थित कुओं पर पनिहारिनों से उनका कुशल-क्षेम पूछते और साथ ही सरकार व समाज के विभिन्न विषयों पर उनका क्या मत है, यह जानने की कोशिश करते। संवाद की शैली पर विचार व्यक्त करते हुए उनके घोर विरोधी मुगल इतिहास लेखक खाति खान अपने वर्णन में लिखता है—‘‘शिवाजी कुएँ पर पानी भरने आई महिलाओं से वैसे ही बात करता था, जैसे हम अपने घरों में अपनी माता-बहनों से बात करते हैं।’’

संवाद का यह सर्वस्तरीय स्वरूप उन्हें अपने राज्य के शासन-प्रशासन के संबंध में प्रथम द्रष्टा (first hand) जानकारी देता था। चाणक्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में राजा को भेष बदलकर समाज के सभी वर्गोंमें जाकर राज्य तथा राजा के संबंध में होनेवाली चर्चाओं को स्वयं सुनने व जानने का सुझाव दिया है। शिवाजी को भेष बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ी, क्योंकि उनका भेष था उनका शिशु जैसा निश्छल, उदात्त चरित्र, सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय के लिए निरंतर तिल-तिलकर जलता उनका जीवन।

शिवाजी ने भारतीय परंपराओं और मूल्यों की पुनर्स्थापना करने के लिए हर क्षण भगीरथ प्रयत्न किए। उन्होंने जनता के सामने एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखा। स्वराज्य के माध्यम से भारत के कोने-कोने में रहनेवाले हर भारतीय को राष्ट्रीयता का अर्थ समझाया। जयपुर के मिर्जा राजा जयसिंह प्रतिदिन कोटि-कोटि एकलिंगजी की पूजा करते थे, किंतु औरंगजेब को काशी विश्वनाथ के समकक्ष समझते थे। यह नादानी थी या अज्ञान, कहना कठिन है; किंतु इतना सही है कि महाराणा प्रताप की स्वतंत्रता व स्वाभिमान के भाव से वह कोसों दूर थे। शिवाजी ने ३६ गाँव से बने छोटे मावड़ को एक विशाल राज्य में बदल दिया, जबकि जयसिंह ने स्थापित विशाल राज्य को औरंगजेब के दरबार में मिर्जा बनकर स्वयं के माध्यम से उपस्थित कर दिया। यही कारण है कि सरायघाटी के युद्ध में जयसिंह के बेटे रामसिंह को असम के महानायक सेनापति लच्छिद बड़फुकन ने जब परास्त कर दिया तो उसने व अहोम राजाओं ने कहा कि हमारी प्रेरणा का केंद्र शिवाजी हैं। जयसिंह का सगा बेटा शिवाजी के मानस उत्तराधिकारी से हार गया।

श्रेष्ठ नायक व्यवस्था का निर्माण करता है। वह केंद्रीय पुरुष होते हुए भी राज्य अथवा संस्था का केंद्र-व्यवस्था को बनाने का निरंतर प्रयत्न करता है। अपने पास आनेवाले व्यक्ति व संसाधनों को वह व्यवस्था का हिस्सा बनाता चलता है। उसके कार्य की असली परीक्षा तो उसके जाने के बाद होती है। शिवाजी की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने दक्षिण विजय के उद्देश्य से बड़े लाव-लश्कर के साथ सन् १६८१ में आगरा से कूच किया। आदिलशाही व कुतुबशाही को वह पहले ही समाप्त कर देना चाहता था। पिछले ३५ वर्षों में शिवाजी एक नई शक्ति के रूप में उभर आए थे। इस शक्ति को समाप्त करने के लिए उसने अपने जीवन के शेष २७ साल दक्षिण में लगा दिए। सन् १६८१ में उसने नर्मदा पार की, किंतु वापस वह उसे जीवित पार नहीं कर सका। १७०७ में अहमदनगर (महाराष्ट्र) के पास भिंगार नामक गाँव में उसकी मृत्यु हुई। उसकी इच्छानुसार औरंगाबाद के पास खुल्दाबाद में उसे सुपुर्दे-खाक (जमीन में गाड़ना) किया गया। स्वराज्य को जीत लेने की इच्छा लिये अतृप्त ही वह दुनिया से इसलिए चला गया, क्योंकि सारी ताकत लगाने के बाद भी वह शिवाजी द्वारा खड़ी की गई राज्य-व्यवस्था को परास्त नहीं कर पाया। जीवन भर औरंगजेब मराठों को ‘मरहट्टे’ शब्द से संबोधित करता रहा। इसका अर्थ है, जो मरते हैं, पर हटते नहीं। शिवाजी द्वारा सैनिकों में स्वराज्य के लिए कूट-कूटकर भरी गई यह अदम्य जिजीविषा ही औरंगजेब के अतृप्त मरने का प्रधान कारण थी।

२७ साल में औरंगजेब केवल एक किला प्रचंडगढ़ (तोरणा) ही लड़कर जीत पाया। बाकी सारे दुर्गों को वह प्रलोभन (धन) देकर प्राप्त करता रहा। एक-दो माह बाद मराठा सेना उस पर फिर से कब्जा कर लेती। औरंगजेब का पैसा भी जाता और किला भी। लंबे समय तक वह मराठों की इस रणनीति को नहीं समझ पाया। पराजय की इसी खीज के कारण वह बौखला गया। उसने संभाजी की जिस वीभत्स ढंग से हत्या करवाई, वह उसके कुत्सित मन को व्यक्त करती है। सन् १७०७ में औरंगजेब की मृत्यु के बाद शिवाजी द्वारा खड़ी की गई व्यवस्था फिर से नए आयामों को छूने लगी। स्वराज की सेना ने दिल्ली पर हमला कर मुगलों के तख्त को ध्वस्त कर दिया और वहाँ की प्राचीर पर अपना ध्वज फहराया।

राज्य-संचालन में शिवाजी ने जिस सादगी का उदाहरण प्रस्तुत किया, वह आज भी स्मरण करने योग्य है। नासिक से लेकर जिंजी (चेन्नई के पास) तक आठ परगनों में उनका साम्राज्य फैला हुआ था। उसका संपूर्ण सैन्य और प्रशासनिक संचालन रायगढ़ दुर्ग से होता था। इस कार्य हेतु दुर्ग की कुछ हजार वर्ग फीट भूमि पर बने भवनों का प्रयोग किया जाता था, जो आकार-प्रकार में आज महाराष्ट्र के पुणे जिला कार्यालय के १/५ भाग से छोटा था। सचिवालय का सुनियोजन, निर्णय व कार्यालयीन कागजों का सुगमतापूर्वक आवागमन, योग्य दस्तावेजीकरण और इन सबको करनेवाले क्षमता में ज्यादा और संख्या में कम (हलका), ऐसे स्वराज्य के प्रशासनिक दल द्वारा प्रस्तुत उदाहरण आज के सभी प्रकार शासन-प्रशासन व सामाजिक संगठनों के नायकों के लिए एक अनुकरणीय पाठ है। हर नायक को स्मृतिशेष होने से पहले उसे अपने जीवन में हजारों निर्णय लेने होते हैं। कई बार निर्णय लेने से पहले असामंजस्य होता है। लगता है कि सही क्या है और गलत क्या? क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? संशय मनुष्य-स्वभाव का सहज भाग है। ऐसा जब-जब हो तब-तब श्री समर्थ द्वारा शिवाजी के लिए कही गई बात को याद रखना फलदायक रहता है। उन्होंने कहा कि ‘सोचो, इन परिस्थितियों में शिवाजी होते तो क्या निर्णय लेते? उनके कार्य, व्यवहार व स्वरूप का स्मरण करो; मार्ग स्वतः प्रशस्त होगा।’

शिवाजी एक विचार है, एक कार्यशैली है। वे इस देश की उस सनातन संस्कृति के उद्घोषक हैं, जो देश के विभिन्न कोनों में अलग-अलग शताब्दियों में हुए अन्य राष्ट्र नायकों की तरह सदैव प्रेरणा देते हैं।

शिवाजी आज भी स्वराज्य को शक्ति प्रदान करते हैं। स्वराज्य की जो स्थापना उन्होंने की, वह हिंद महासागर से हिंदुकुश की पर्वत-शृंखला तक और कच्छ के रण से लगाकर सघन वनों से आच्छादित भारत की म्याँमार सीमा तक विस्तारित हो चुकी है। जो नायक इसे पुष्ट करना चाहते हैं, उन्हें स्वयं में शिवाजी के मनोभावों व अवधारणाओं का विकास करना होगा। एक बार मन का धरातल स्वराज्य के सैनिक का बना तो फिर कोई भी उस पर खड़े होकर अपना कार्य उनकी भावना अनुसार संपादित कर सकता है।

शिवाजी और अन्य महापुरुषों के चित्रों, मूर्तियों, नारों व उनके नामों से राजनीति करनेवाले स्वार्थी राजनेताओं के भाषणों में महापुरुष कितने बसते हैं, यह तो वे ही बता सकते हैं। हाँ, किंतु इतना निश्चित है कि शिवाजी की अविनाशी चेतना आज भी चलती-फिरती है, योग्य पात्रों में आशा का संचार करती है। उससे मार्ग पूछो तो वह स्वराज्य के जन-कल्याण का मार्ग बताती है। समस्याओं से घिर जाने पर समाधान पूछो तो वह भी बताती है—आवश्यकता है छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रति प्रामाणिक होने की।

(श्री अनिल माधव दवे द्वारा लिखित एवं प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘शिवाजी व स्वराज’ से साभार)

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