लोकोत्तर या लोकायित काव्य

अरुणोदय होते ही अवसन्न विश्वमन के विजडि़त द्वार, बंद घरों, हवेलियों के लौह कपाट, अंधगुहा मार्ग एवं चिंतन के शतसहस्रार देखते-ही-देखते खुलने-खिलने लग जाते हैं। सुनहरी सुबह का निर्मल-आलोक समस्त जड़-जंगम को अपने आगोश में भर लेता है। अणु-परमाणु दिपदिपा उठता है। एक अलौकिक-ज्योतिपर्व के महावतराण का मुहूर्त घटित हो जाता है।

स्वतःसंभूत प्रज्ञान के आधान हमारे विश्वचेता ऋषियों ने अरुणोदय की इस महावेला का जब प्रथम-प्रथम साक्षात्कार किया, तब उनके हर्षातिरेक के निनाद से दिग्दिगंत स्पंदित हो उठा। दिशाएँ प्रसन्न हो खिलखिलाने लगीं। खगकुल नव-नव छंदों में गाने लगा। मरुत् मस्ती में झूम उठी और निरभ्र आकाश की हँसी और उज्ज्वल हो गई।

ऋषिकुल अगणित सिद्धमंत्रों, अनुपम स्तोत्रों, अनंत स्तुतियों से इस अपूर्वा के स्वागत-सत्कार में जुट गया। अक्षय ऊर्जा के इस रक्तलोहित गोले को देख संसार की धमनियों में खून की ललाई बढ़ गई। ऋषियों की कृतज्ञता, उनकी कल्पना, उनकी कविता एवं उनकी कला, नृत्य के अकूत गतिचारों में थिरकने लगी। उनका आर्षमन सहसा ही पुकार उठा, देखो रे, देखो! विधाता के इस अलौकिक लोकायित सद्योजात देव काव्य को—पश्य देवस्य काव्यम्। अलौकिक सोने की स्याही से लिखी यह स्वर्णिम कविता धरती की पट्टी पर पाली-दर-पाली बिखरी पड़ी है।

प्रत्येक उषाकाल में इसी कविता की भास्वरता विराजती है,। चरैवेति-चरैवेति से प्रेरित यह ज्योति, सतत प्रसरणशील और विकासशील है। यही देती है प्रत्येक प्राणि को अथाह उत्साह और अखंड विश्वास का संस्कार। यह सुषुप्ति की जागृति और जागृति की उपस्थिति है।

इसकी अक्षयता को देखकर ही तो कहा है कि यह चितिगर्भ काव्य, ‘न ममार न जीर्यति।’ लोकोत्तर होता हुआ भी लोकायित यह काव्य न कभी मरता (नष्ट होता) है और न कभी जीर्ण (पुराना) पड़ता है। यह विधाता की क्षण-क्षण नवीन रहने/होनेवाली सृष्टि है।

प्रातः-प्रातः इस ज्योतिपर्व को देखकर आनंदितचित्त ऋषि आस-पड़ोस को संबोधित कहे पुकार उठा—हे पुण्यात्माओ! हे निर्मल-विरुज मनो! आओ, इसे देखो, इसे जानो, इसे जियो, इसे पहचानो! इसका स्पर्श लो! इसकी तरलता में नहाओ। इसकी गुणता पर रीझो। इसकी रीति को जानो। इसकी वर्णवर्णिता को गुनो। इसके समतोल को देखो, न तोला भर अधिक और न माशा भर न्यून।

इस काव्य को काल का शाप नहीं लगता। समय का घुन इसमें छेद नहीं कर सकता। अजरता इसका स्वाभाविक धर्म है। नित्यता इसका प्राकृतिक गुण। एक दृष्टिमधुर सौंदर्य, इसकी स्थायी सत्ता है, इसलिए इस उत्तमोत्तम वैश्विक महाकाव्य की उदारता का आनंद लो। इसके विज्ञान को, स्वरों की उदात्त, अनुदात्त स्वरित शैलियों में, वाणी के परा, पश्यंती, वैखरी रूपों में नव-नव छंदों में बिखराओ। परमचैतन्य का शरीक यह, हमारी आत्माओं का सगोत्री है। यह हमारी आत्मभूता है। यही है वह दिव्य आभा/चेतना, जो आप में, हम में, सब में ब्रह्मांडीय ज्योति की तरह पिंड-पिंड और कण-कण में व्याप्त है। इससे निजता बढ़ाओ, इसमें अपनत्व जगाओ।

ये कल-कल निनादिनी सरिताएँ इसकी प्रेरणा से गतिशील हैं। पंछियों के कंठों में इसी के गीत और परों में इसी की उड़ान है। इसके कहने पर ही आता है सूर्य। इसी के आने पर रँभाती हैं धेनुएँ। धेनुएँ, जो अपने अपरप्राण बछड़ों को देखते ही स्रवित हो उठती हैं। जैसे अलौकिक गौ-वाणी, ऋषि को देखकर अवतरित होती है। ऐसी ही किसी प्रभात वेला को देखकर ऋषि ने कहा कि यह उषा-

देवानां चक्षुः सुभगा वहन्ती श्वेत नयन्ती सुदृशीकमश्वम्।

ऊषा अदर्शि रश्मिभिर्व्यक्ता, चित्रामघा विश्वमनु प्रभूता॥

अर्थात् यह उषा देवों की दर्शनमयी आँख; दिव्य दृष्टि को, धरती पर लाती हुई; उसे लोकायित बनाती हुई, पूर्ण दृष्टिवाले सूर्य का नेतृत्व करती सुखदात्री रश्मियों द्वारा व्यक्त होकर अपने विभिन्न-विचित्र ऐश्वर्यों से परिपूर्ण, अपने जन्म को सब में व्यक्त कर रही है। यहाँ पर उषा के प्रकाश; उसकी सामर्थ्य को अलौकिक शक्तिमत्ता से संयुक्त माना गया है। इसीलिए वह उषा-गोमती, अश्वावती, वीरवती है। यह गोमती उषा सर्ववीरा ता अश्वदा अश्वनवत् सोम सुत्वा, अर्थात् वह उषा मनुष्य के लिए कई प्रकार की पूर्णताओं, शक्ति, आंतरिक चैतन्य और प्रसन्नता को लाती है, जो अपनी ज्योतियों, रश्मियों से भास्वर है। सब संभव बलों, शक्तियों से संपन्न है। मनुष्य को जीवन की शक्ति प्रदान करती है, जिससे वह परम सत्ता के दिव्य आनंद का अनुभव कर सके। यहाँ पर उषा के उस उज्ज्वल और व्यावहारिक रूप को अभिव्यक्त किया गया है, जो व्यक्तियों को अज्ञानताओं से मुक्त कर, उनके बंद द्वारों को खोल, ज्ञान के महाप्रकोष्ठ में प्रवेश कराती है।

आपने देखा होगा कि अरुणोदय पर एक हल्की पद्मप्रभा सी आभा पृथ्वी की शिरा-शिरा में, उसके अंतःकरण में संचरित हो जाती है। यही आभा व्यक्ति को, उसके सत्य, उसकी सुंदरता, उसके गार, उसकी शांति, उसकी कांति, उसकी मनोज्ञता, उसके अपनत्व, उसके मनुष्यत्व, उसकी पूर्णता का आभास कराती है। इसी आभा से बनता है व्यक्ति, द्रष्टा, स्रष्टा, प्रष्टा और मनस्वी। कस्मै देवाय हविषा विधेम् में इसी की प्रश्नात्मकता है। निर्णय के निबिड़-संकुल पलों में भी यही है निश्चयात्मिका। कहीं यह अनुभवों/ज्ञान की प्रतीतियों के आधार पर रागारूण, नीलाभ, कुंकुमवर्णि, गुलाबी, रागमय, रक्ताभ, पीताभ, नीलाभ है, तो कहीं यह ज्योतिस्वरूपा अरुणोदय। ये सब नाम, रूप-रंग, हमारी कलादीर्घाओं में वर्णों, प्रतीकों, बिंबों, प्रकाश, उत्साह/खुशी, मंगल, स्वस्तिक एवं लौकिक-अलौकिक वैभव की इबारतें बनकर वर्णित हुए॒हैं।

मनीषी कहते हैं कि यही पावन ज्योति व्यक्ति के मूलाधार के घुप्प अँधेरों में प्रसुप्त-कुंडलिनी को जगाकर स्वाधिष्ठान, मणिपूर अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार के चक्र-दर-चक्र, दर्रों-दर-दर्रों, घाटियों-दर-घाटियों, बीहड़ों-दर-बीहड़ों, सँकरे-से-सँकरे गुहामार्गों, खतरों भरे प्राणघाती मौकों से ऊर्ध्वारोहण कराकर दिव्य चेतना का संस्पर्श कराती है। इस आभा का अमोघ तेज, गहन से गहनतर और व्यापक से व्यापकतर है। परम लोकों के दीपों में इसी प्रभा की लौ है। यह सामान्य मन, बुद्धि वाक् से परे है। उपनिषद् कहते हैं, यतो वाचा निर्वतन्ते अप्राप्य मनसा सह। जहाँ इस ज्योति का स्रोत है और जो परम-आलोक का मूल है, वही सभी ताराओं, सभी सूर्यों और आकाशगंगाओं में वितन्वित है। उस पावनप्रकाश की यात्रा, जन्म-जन्मांतरों की साधनाओं से प्रापणीय है।

मैं आपको बड़ी दूर ले आया, परंतु यात्राओं-जिज्ञासाओं से ही दूरियाँ और प्राप्तियाँ पास आती हैं। ऋषि ने इस उषाकाल को, परम लावण्य का परम कोष, कांति का वृहद् केंद्र, गहन क्रांति का पहला पल, मादकता का मूल और आप्यायित कर देनेवाली सनातन मधुरिमा का पुंजीभूत रूप कहा है। उस अत्यंत लुभावने वातावरण में स्नात होने को कौन समुद्यत नहीं होगा? इस समुदय से विमोहित होकर महाद्रष्टा ने इस काल को ऋग्वेद के बीस सूक्तों में उछल-उछलकर विवेचित किया है। ऋषि के सारे विशेषण इस विश्व सुंदरी के लिए सोच-सोचकर सजाई गई रेशमी शय्याएँ हैं। उसने परमलालित्यपूर्ण इस प्रकृतियोषा को सर्वोच्च सौंदर्य सत्ता मानकर अपनी अनुस्तुतियों के अनेक अंतरपट खोले हैं। भारतीय साहित्य में नारी के संदर्भों में उभारे सारे सौंदर्यवाची विशेषणा पर्याय इसी परंपरा में शालीन स्तरीयता के उदाहरण हैं—वेद में जिन, पृथ्वी, उषा, वाक् आदि को देवता कहा गया है, वे सब नारी गुणात्मा हैं।

नारी के श्रेष्ठत्व में देवत्व के गुणों का अभिधान है। पिता के घर की लाडली ये पति की प्रियाएँ हैं। ये अपने कुल की शोभा होकर भी पति के घर का गार हैं। ये विवाह काल तक ब्रह्मचारिणी, उच्चशिक्षा, संस्कारसंपन्ना तथा अपना पति चुनने में स्वतंत्र हैं। ये घर के कामों में दक्ष और रणकौशल में निपुण हैं। ऋग्वेद में पत्नी पति के प्रति प्रेम रखनेवाली, एकनिष्ठ तथा हर काम में सहभागिनी कही गई है। असती, विपथगामिनी और पति से द्वेष रखनेवाली नारी असंस्कारी बताई गई है। ऐसे ही पति भी, अपनी पत्नी के प्रति एकनिष्ठ, सदाचारी और सच्चरित्रवान् होना काम्य है।

वैदिक साहित्य में उषा के बहाने नारी की प्रकृति को ही उपन्यस्त किया गया है। उषा की ही तरह लोक की नारी की भी विभिन्न भूमिकाएँ हैं। वह कहीं सूर्य की प्रेयसी है तो कहीं चमकीले कपड़े पहने एक नर्तकी। सूर्य युवक की तरह उसका पीछा करता है। कहीं यह रात्रि की छोटी बहन है तो कहीं स्वर्ग की दुहिता। ऋषि द्वारा प्रयुक्त अधिकाधिक रिश्तों के नाम, परवर्ती भारतीय रचनाओं एवं हमारे समाज के कौटुंबिक संबंधों में सादर गृहीत हैं। इससे भारतीय समाज-परिवारों में, रिश्तों के नामकरण में एकरूपता आई है। इस दृष्टि से भारत के चिंतकों की विश्वपरिवार को यह अन्यतम देन है। इससे एक सुदृढ सामाजिक व्यवस्था को मानक आधार मिला है।

ऋषि ने नारी को पुरुष की अर्द्धांगिनी कहकर व्यक्ति मनोविज्ञान, समाज-विज्ञान, शरीर-विज्ञान, मानवीय संरचना विज्ञान के एक बहुत बड़े रहस्य को उजागर किया है। शरीर विज्ञानी जानते हैं कि हर पुरुष में नारी के और हर नारी में पुरुष के आधे-आधे तत्त्व/गुण रहते हैं। नारी से पुरुष बनने और पुरुष से नारी बनने की सच्चाई को शल्यचिकित्सा विज्ञान ने ‘अब टेबल पर ऑपरेट कर’ यथार्थतः दिखा दिया है। हमारे यहाँ दर्शन में शिव-शक्ति के योग/संयुक्ति की महापरिकल्पना, इसी तथ्य को समक्ष रखकर की गई है। कहते भी हैं ‘जहाँ शिव वहाँ शक्ति’ और ‘जहाँ शक्ति वहाँ शिव’। शिव-शक्ति अथवा पुरुष-स्त्री, दोनों का सत्य ही मिलकर सृष्टि का संपूर्ण सत्य बनता है। विश्व में जहाँ कहीं भी कोमलता, करुणा, दया, प्रेम-माया, ममता, सौंदर्य, स्नेह और आकर्षण है, वहाँ नारी है और जहाँ कठोरता, पौरुष, साहस, ऊर्जा, ओज और दृढता है, वहाँ पुरुष है। सृष्टि रहस्य का न्याय, दोनों की सहभागिता, समवर्तिता और समरसता पर आधारित है।

रक्षम् के चारों ओर भीमकाय, शत-सहस्रभुजमहारक्षकों को देखकर मैं निश्चय नहीं कर पा रहा था कि ये उन्नतकंधर महाशैल किस दीर्घतपा, महातपा, उग्रतपा, कृछ्रतपा/परमतपा महर्षि की यज्ञाहुतियों से निर्मित संसार है। सत्य, न्याय, परोपकार और तप के प्रचार के लिए ऋषि के अन्यत्र स्थानांतरित हो जाने पर गर्वाभिभूत, स्वाभिमानसंयुत, दर्पप्रेरित, नैतिक हौसलों और अडिग साहस के जीवंतरूप ये देवदारु अपनी संततियों समेत दृढ़चरण हो व्यवस्थित हैं। मुझे लग रहा है कि अपनी कर्मभूमि/तपोभूमि को तजते समय, महोग्र तपःपूत पिता के इन पुत्रों ने (पितृऋण से मुक्ति हेतु) प्रतिज्ञा कर कहा होगा कि हे पिता! जाओ, हम सदा सावधान, जाग्रत्, अनिमेष आपकी यशस्काय कीर्ति को, आपकी पवित्र भारती के आकाश को, आपकी पुण्याहुतियों की पवित्र यज्ञभूमि और कल्याण-कामनाओं की इस उत्स पुण्यप्रसू को सदा-सर्वदा अक्षुण्ण और संरक्षित रखेंगे। जब तक आप नहीं लौटते, हम तब तक अपनी इस जन्मभू को परिवारित किए रहेंगे। निर्मल मन की गहराइयों से निकले वचन अपनी संपूर्ण संभावनाओं में प्रतिफलित होते हैं। महामना उस ऋषि के वश्यवाक् पुत्रों की ब्राह्मीवाणी अपनी संपूर्ण सत्यता में यथार्थ सिद्ध हुई।

रक्षम् की इस विरज-नीरुज उषा की प्रकृति हर किसी को रंजित करने में सक्षम है। इसने अपने मोहपाश में सबको बाँधा है। जितने जलचर, भूचर और खेचर हैं, वे सब अपार इस स्वर्गीय आभा पर विमुग्ध हैं। यहाँ रक्षम् की करुणा, वसपा की पावन धारा में मिलकर चट्टानों के महाकांतार के स्रोतों में विगलित हो बुद्ध की महाकरुणा का महोत्सव रच रही हैं। यहाँ का पत्ता-पत्ता, पादप-पादप, तृण-वीरुध, लता-वल्लरियाँ सब इस धरती का गान गा रहे हैं। एक-दूसरे के सुर में सुर मिलाते हुए ज्यों ‘हाँ में हामी’ भर रहे हैं। मैं इन सबसे अभिभूत हूँ। इसके आत्मीय सत्कार से विनत हूँ। मैं अंतरात्मना मुदित हूँ। किंतु ऊँची-ऊँची चट्टानें, असंगठित नुकीले प्रस्तर, कराल काल की तरह मुँह बाए अभिशापों की तरह खड़े हैं। मुझे उनसे भय लग रहा है। मैं मूलतः एक भयापन्न प्राणी हूँ। मैं मनुष्येतर हरकतों से डरता हूँ। इतना ही नहीं, मैं तो मानवीय दुर्बलताओं, अनीति, दुष्टता, धृष्टता, ईर्ष्या से भी भय खाता हूँ। निर्लज्जता, अमर्यादा, अनैतिकता मुझे विकंपित कर देते हैं। प्रभु, मुझे नैतिक साहस दें, ताकि मैं हितकर मूल्यों पर अडिग रहूँ।

२२ मई, २०१५ की विमल-अमल प्रातः है। भगवान् विष्णु अपने प्रभुविष्पु महाकाव्य के प्रथम अध्याय का अवतार कर रहे हैं। वे अग्रिम स्वर्ण अध्यायों की रूपरेखा बाँध रहे हैं। पंछियों के असंख्य स्वरों में प्रकृति अपनी हजार जिह्वाओं से अहोभाग्यता का समुच्चार कर रही है। बड़ा उल्लसित विहान है। सदानीरा वसपा में ऋषिकुल की रूहें नहा-धोकर तर्पण-अर्चन-वंदन कर पुण्यात्मा प्रवाहिनी के तट पर रचनाओं का उत्सर्जन कर रही हैं। वसपा ऋषियों की शुभाशंसाओं/प्रशंसाओं से संस्कारित है और सद्यःस्नाता उषा भी युवती, प्रौढ़ा, नवोढ़ा, योषिता, कामिनी, कांता, भामिनी, मामा, कमनीया कमालानना, पद्मा, पद्मजा, शुश्रा, कल्याणी, पद्मवर्णा, भास्वरा हो समुनुला दिखाई दे रही है। एक स्वर्गिक आनंद, वसपा के अल्हड़ सौंदर्य से अभिभूत अठखेलियाँ कर रहा है। मेरा मन उस समय आंतरिक विशदता से लघु-लघु, गुरु-गुरु, मोहित-विमोहित हो रहा था। मैं अचंभित, हर्षित, गर्वित था।

मैंने अपने फोन-कैमरे से उस दिव्य आभा का, उस मनोरम दृश्य का, उन गिरि-शिखरों पर उतरती सोन प्रभा के कई चित्र कैद कर लिये। मैं तत्काल अपने साथ आए आत्मीयों को जगाने का आदेश-गर्भित अनुरोध करने लगा। बेटा, मेरी आवाज सुनकर उसी समय अपना कैमरा लेकर बाहर आ गया। तब मैंने जाना कि मन से पुकारो तो आत्मा सुनती है। पुत्र अपनी आत्मा का कायांतरण है। कहा भी है—आत्मा वै जायते पुत्रः।

वातावरण बहुत ही शांत और उत्सवनुमा था। बेटे ने चारों ओर के शिखरों पर उतरती स्वर्णाभा के अनेक मनोरम रूप अंकित किए। मैं उसकी प्रसन्नता और सक्रियता देखकर मुग्ध था। हर क्लिक पर उसके मुख से ‘वाह’ निकल रहा था। गुलाबी ठंडक लिए उस प्रातः में भी स्वर्गिक आतप जब तक गेस्ट हाऊस के आँगन तक नहीं उतर आई, बेटे ने उस दिव्य आपदस्नात समय की एलबम तैयार कर ली। तभी उसकी माता और माता की सहेली ने भी हमें ज्वॉइन कर लिया और अपनी नारी-सुलभ प्रकृति के अनुसार, ‘हमें हिल्लोलित करके क्यों नहीं जगाया’ के उलाहने के साथ यथारुचि कुछ चित्र संगृहीत किए। वैसे जागने को बहाना और जगाने को इशारा भर पर्याप्त होता है, परंतु...। देह के अंदर स्थित प्रज्ञाकूट की तरह अनेक चक्रों से परिवारित प्रकृति के विशुद्ध चक्र-सा प्रतीत होती पर्वतकूट माला हजारों कल्पनाओं और लाखों संभाव्यताओं को उजागर कर रही थी। रक्षम् की लोकोतर छटा तन-मन को सहलाकर आत्मा तक को नहला रही थी।

कभी प्राग्ज्योतिषपुर गए सिद्ध गुरु गोरखनाथ ने वहाँ कामाक्षी मंदिर के यहाँ पर्वतों से उतरे अनघ प्रकाशप्रवाह को देखा, तो भूमा उस माहात्म्य का भेद अनेक रूपों में दृष्टिपथ में अक्षरांकित हो गया। देहलोक के प्रज्ञाचक्रों का साक्षात्कार कर चुकी उनकी प्रतिभा की आँख ने कामरूप की सिद्ध-प्रसिद्ध ‘कामाख्या पीठ’ को आध्यात्मिक चक्रों के समांतर पाया। सिद्धप्रवर की पश्यंती मेघा प्रकटी और वे बोल उठे—

आधारं प्रथमं चक्रं, स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम्।

योनिस्थानं द्वयोर्मध्ये पङ्कज च चतुर्दलम्॥

तन्मध्ये प्रोयते योनिः, कामाख्या सिद्ध वन्दिता।

अर्थात् प्रथम चक्र जो मूलाधार है और दूसरा जो स्वाधिष्ठान, इन दोनों के मध्य है योनिस्थान और वही काम (रूप) पीठ है। मूलाधार संज्ञक, गुदा के समीपस्थ चतुर्दल कमल के मध्य त्रिकोणाकृति योनि है—यही कामाख्या पीठ कहलाती है। मुझे लगा कि सब ओर से रक्षित यह रक्षम् भी इस देवधरा की विरजा योनिस्थली है, जो सहस्रों जीवात्माओं की जननी है।

सभी सात चक्रों के अपने-अपने स्वरूप हैं, जो कमल दलों की तरह विवेचित हैं। ये अपनी-अपनी विशिष्टताओं के द्योतक हैं। कुंडलिनी जिस-जिस पद्म चक्र के दलों का विकचन करती है। वे दल साध-योगी को अपनी-अपनी सामर्थ्यों से भर देते हैं। आत्मद्रष्टा योगियों ने मूलाधार के चार, स्वाधिष्ठान के छह, माणिपूर के दस, अनाहत के बारह, विशुद्ध के सोलह, आज्ञा के दो और सहस्रार के हजार दल/पत्र करे हैं। इन पत्रों के संपर्क में आने पर बुद्धि तत्तत् कार्यों की अचूक क्षमता-दक्षता पा जाती है। कुंडलिनी के प्रथम चक्र मूलाधार से संपर्क हो जाने पर विद्या-आरोग्य की प्राप्ति, दूसरे चक्र के संपर्क से काव्य-प्राप्ति, तीसरे से विविधविद्या-सामर्थ्य, चौथे से ईशत्व, पाँचवें से वक्तृता, छठे आज्ञा से वाकसिद्धि और अंतिम सातवें चक्र के संपर्क से मुक्ति प्राप्ति कही गई है। शरीर के पंचतत्त्वों से भी क्रमशः मूलाधार का पृथ्वी तत्त्व से, स्वाधिष्ठान का जल से, मणिपूर का तेज से, अनाहत का वायु से, विशुद्ध का आकाश से, आज्ञा का महत् से और सहस्रार का तत्त्वातीत निःसीम से योग माना गया है। इन तत्त्वों के क्रमशः रक्त, सिंदूरी, नील, अरुण, धूम्र, श्वेत और वर्णातीत रंग कहे गए हैं। मनीषी सातों चक्रों का संबंध उत्तरोत्तर, भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्य लोकों से भी जोड़ते हैं। इन सभी चक्रों का विकास हो जाने पर व्यक्ति सतत अनेक लोकों के संपर्क में आने की योग्यता हासिल कर लेता है। आत्मविज्ञान इन चक्रों के स्थान के बारे में पहले चक्र मूलाधार की स्थिति गुदा व योनि, दूसरे की पेडू तीसरे की नाभि, चौथे की हृदय, पाँचवें की कंठ, छठे की भू्रमध्य और सातवें सहस्रार की संस्थिति मस्तिष्क में कहता है। कुछ साधक अन्नादि पंच कोशों और त्रिनाडि़यों सषुम्नादि से भी कुंडलिनी जागरण ऊर्ध्वारोहण को अनुसूत्रित करते हैं।

मैं सोच रहा था कि हमारी यात्रा भी कई सँकरे मार्गों, बीहड़ दर्रों, भयावह मोड़ों से होती हुई, मूलाधार, शिमला से प्रारंभ होकर रामपुर के स्वाधिष्ठान से चलकर, वांगतू के मणिपूर से चढ़कर साँगला की अनाहत वैली से गुजरती हुई रक्षम् के विशुद्ध द्वार पर पहुँची है। अगले दिन छितकुल के आज्ञाचक्र को छूकर प्रदेश के सीमोत्तर देश में मनसा प्रवेश हेतु तत्पर है। आत्मा आज एक अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव कर रही॒थी।

रक्षम् से हिमाचल के अंतिम सीमावर्ती गाँव छितकुल की दूरी एक घंटे भर की है। वहाँ जाने के लिए हम सभी बहुत उत्साहित थे। होते भी क्यों न? प्रदेश के आखिर एक सीमांत गाँव को देखने का दुर्लभ अवसर मिल रहा था। रक्षम् रेस्ट हाऊस के चौकीदार को धन्यवाद कहकर हम लक्ष्य की ओर अग्रसर हुए। गहरे गड्ढों, भयंकर खाइयों के साये मन-मस्तिष्क पर हावी थे। देखते-ही-देखते सँकरे मार्ग को प्रशंसनीय धैर्य, सावधानी और तत्परता से स्ववश करते हुए उत्सव ने सूचना दी कि छितकुल कुल बीस मिनट का सफर है। तभी हम भूर्जवृक्षों के एक बड़े प्राकृतिक उपवन में प्रवेश कर गए। हमने तत्काल गाड़ी रोक दी। असंख्य वर्षों से असंख्य रूपों में जिनकी महिमा गाई जाती रही है, हमने उन परम पवित्र वृक्षों के दर्शन करके स्वयं को धन्य माना। मैंने उत्सव को इन वृक्षों की महत्ता, गुणवत्ता, श्रेष्ठता तथा उपयोगिता के बारे में बताया। मैंने कहा, बेटे! हमारे हस्तलखित उस आदि आर्ष ज्ञान के संरक्षक ये भूर्जवृक्ष ही हैं। इनके ही पत्रों और छाल पर हमारे प्रथम आचार्यों ने वेद-वेदांग, उपनिषद्, आरण्यक एवं ब्राह्मण ग्रंथ आरेखित किए। तरह-तरह के छोटे-बड़े वृक्षों की एक साथ अवस्थिति को देखकर, मन सहअस्तित्व। सहवर्तित्व के बोध से उल्लसित हो उठा। मैंने उस उत्सर्गपरायण महान् वृक्ष परंपरा को मन-ही-मन शत-सहस्रशः प्रणाम किए। जिस वृक्ष संतति ने सरस्वती की रक्षा अपनी खाल-छाल देकर की। यह वृक्ष परंपरा सर्वथा-सर्वदा नमस्य है। धन्य है यह महा देश, वृक्ष तक अपनी जननी, जन्मभूमि तथा संस्कृति की सुरक्षा हेतु वीरों की तरह सदा तन-प्राण तक न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं।

जी-६, नॉल्जवुड कॉलोनी

शिमला-१७१००२ (हि.प्र.)

दूरभाष : ०९४१८०५४०५४

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