चलो, चलें लालकिला मैदान

चलो, चलें लालकिला मैदान

दिल्ली का नाम आते ही मस्तिष्कि के मानचित्र पर लालकिला उभरता है और लालकिले के उभरते ही दिखता है लालकिला मैदान, जहाँ आँधी हो या तूफान, पर आम आदमी को पहुँचना होता है—कम-से-कम वर्ष में एक बार अपनी खोई हुई आजादी को ढूढ़ने, तिरंगे में अपने रंग रँगे देखने।

वर्षों पूर्व जब अंग्रेजी राज में ठंडी सड़क इस मैदान के बीचोबीच बनी, दिल चीरकर बनी। इसके दो हिस्से हो गए और जामा मसजिद की तरफवाले हिस्से का नाम परेड का मैदान हो गया। मैदान के दोनों भागों में एक-एक दरगाह है, जहाँ सावन के बाद दार्शनिक कव्वालियों का जोर होता है। इन कव्वालियों में खुदा की इबादत और अकीदत होती है। इसी से शायद यह मैदान और हिस्सों में बँटने से बच गया। यही वह मैदान है, जहाँ सन् सैंतालीस से एक पागल गाता रहा, ‘इस दिल के टुकडे़ हजार हुए कोई यहाँ गिरा, कोई वहाँ गिरा’। इसी बोल पर एक फिल्मी गीत भी मशहूर हुआ। पागल तो चल बसा, पर दिल के दो टुकड़ों की तरह बसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान इस मैदान में लगातार दिखाई देते हैं।

यह लालकिला मैदान बड़ा ही चित्र-विचित्र है। चित्र तो इसके सारे जहाँ में पाए जाते हैं। विदेशी पर्यटक यहाँ आकर एक चित्र लालकिला का और एक चित्र उनसे भीख माँगते, दुनिया का दर्द अपने चेहरे पर लाते हुए अंधे, लूले, लँगडे़ या तगडे़ भिखारियों के जरूर खींचते हैं।

अहा! लालकिला का मैदान, तेरी है निराली शान। तेरे सीने पर हर बरस आधे अगस्त में आधी रात को पाई गई ‘आजादी’ (?) की दुहाई देनेवाले देश के कर्णधार, भारत की शानदार अर्थव्यवस्था के बारे में बोलते, मतदाताओं को तौलते, वोटों की भीख माँगते हैं। तू सचमुच महान् है, नीचे ठीक लालकिले की नाक के नीचे दरिद्रनारायण नोटों की भीख माँगते हैं। फोटो दोनों के खिंचते हैं, एक से पता चलता है कि कितनी गरीबी है, दूसरे से ज्ञात हो जाता है कि किसकी वजह से गरीबी है।

हे लालकिला मैदान! इन वोटों और नोटों की भिक्षावृत्ति के बीच तेरे दामन पर खड़ा बेचारा निरीह मतदाता विगत पचास वर्षों से तीन बार जोर से जयहिंद बोलता है और अंटी खोलता है—वोट नेता को, नोट भिखारी को दे देता है और अगली बार तक आने के लिए खोखला होकर घर को चल देता है और तू देखता रहता है।

दूर से देखने पर लालकिले को अपनी बाँहों में घेरी खाई आपको नजर नहीं आती है। ऐसी खूबसूरत खाई हमारे हर बडे़ नेता के साथ होती है। दरअसल, जितनी बड़ी और गहरी खाई होती है, उतना ही बड़ा हमारा नेता होता है। दूर से वह आपको जमीन से, आपकी सतह से जुड़ा नजर आता है, पर जैसे ही आप करीब जाते हैं, वह दूर होता है और आप खाई में गिर जाते हैं।

लालकिले के मैदान में बडे़ नेता सन् सैंतालीस से जा रहे हैं और तोपों की सलामी पा रहे हैं। कभी सलामी राजा, महाराजा या वीरों के लिए होती थी, आज होती है हमारे अपने द्वारा लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए हमारे बीच के नेताओं के लिए, जो चुनाव के बाद हमारे नहीं, खबरों के बीच होते हैं।

वाह, क्या सीन है! जरा हमारे कमेंट्रेटर के साथ देखें तो—‘‘राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित कर प्रधानमंत्री लालकिले की ओर रवाना हो गए हैं। वे अब लाहौरी दरवाजे की ओर से आ रहे हैं। सेना के तीनों अंगों के सशस्त्र सैनिक ‘अटेंशन’ हो गए हैं। सेना का बैंड ‘आ जा आई बहार’ धुन बजाकर नेता का स्वागत कर रहा है। देखिए, राष्ट्रगान गाने के लिए पधारे दिल्ली के तीन सौ स्कूलों से ढाई हजार बच्चे प्रिय नेता के अभिवादन के लिए उठ रहे हैं। वे जागे हैं, पर उनके पैर सो गए हैं । उनके सोए पैर देश के प्रतीक हैं, जो केवल नेता के अभिवादन के लिए ही जागता है। प्रधानमंत्री मैदान में उतर आए हैं, वे बहुत चुस्त और प्रसन्नवदन हैं। मैदान में खडे़ सहस्रों व्यक्तियों को देख सहायक से कुछ कह रहे हैं, संभवतः वह कह रहे हैं कि अपनी पार्टी ठीक काम कर रही है, सुबह-सुबह सारा मैदान भर गया है । सहायक कुछ फुसफुसा रहा है, वह यही बता रहा होगा, ‘सर, सुबह मैदान जाने से पहले ही हमने इन्हें लालकिला मैदान में मँगवा लिया है।’

‘‘प्रधानमंत्री सलामी-मंच पर पहुँच गए हैं। सेना के जवान सलामी दे रहे हैं, सलामी धुन बज रही है। पुरानी चलती हुई धुन है, ‘मेरा सलाम ले ले, दिल का पैगाम ले ले।’ सेना का निरीक्षण करते हुए प्रिय नेता साथ-साथ चल रहे फौजी अफसरों से कदम नहीं मिला पा रहे हैं, दरअसल समूचा देश उनके कदम-से-कदम मिलाकर चलता है, वह किसी से कैसे मिला लें।

‘‘...वह अब लालकिले के भीतर प्रवेश कर गए हैं, बाहर वी.आई.पी. लाउंज में बैठे वी.आई.पी. उचक-उचककर उन्हें अपनी शक्ल दिखा चुके हैं।

बैंड की धुन अब भी बज रही है—‘हम तुम्हारे लिए, तुम हमारे लिए।’

‘‘लीजिए, प्रिय नेता को इक्कीस तोपों की सलामी दी जा रही है, कहा कुछ भी जाए, पर यही सच है। कुछ देर आप गरजती तोपों की आवाज सुनें, धायँ-धायँ-धायँ...। तो जनाब, सीन देखा आपने? कैसा लगा आम जनता के खास प्रतिनिधि जब तोप की सलामी लेते हैं, जाने क्यों आम जनता बड़ी खुश होती है। वास्तव में हमारे नेता खुद ही बड़ी तोप हैं । कुल मिलाकर बाईस हैं, शेष इक्कीस सलामी के लिए सुलग रही हैं। ये सुलगती तोपें वे पक्षीय-विपक्षीय नेता हैं, जो कभी लालकिला आकर ऐसी सलामी लेने की इच्छा लिये हुए हैं।’’

पटेल ने रजवाडे़ मिटा दिए, प्रिवीपर्स भी बंद हो गए, पर हमारे नेताओं के रजवाडे़ बनने लगे, फूलने-फलने लगे, फलों से लदने लगे, लदकर झुकने लगे, जनता को झुकाने लगे। इनके पर्स का मुकाबला बेचारा ‘प्रिवी’ भी क्या करता? तब के कितने राजा इनके दरबार में मंत्री-संतरी हो गए हैं।

लालकिले का मैदान शक्ति का परिचायक है। इसने शाहजहाँ, औरंगजेब से लेकर नादिरशाह तक की शक्ति यहाँ देखी है। आखिरी मुगल बादशाह जफर के वंशजों को इसी मैदान में तोप से उड़ाकर हमारे आका अंग्रेजों की शक्ति भी इसने देखी है। वतन के लिए मरते और वतन को चापलूसी से मारते देखा है इस मैदान में।

यही है वह मैदान, जहाँ से लेजाकर सुभाषचंद्र बोस के साथियों को लालकिले में हो रहे अभियोगों में पेश किया गया। यही है वह मैदान, जहाँ हर वर्ष जनवरी के अंतिम सप्ताह में होनेवाले दूसरे बडे़ राष्ट्रीय पर्ववाले दिन चौदह किलोमीटर दूर राजपथ से चले आ रहे सेना के जवान परेड समाप्त होने पर जूते उतारकर छालों को दबाते देखे जाते हैं। मैदान साफ-साफ देखता है कि शाही आलम आज भी कायम है।

यह मैदान कभी पतंगबाजी और गिल्ली-डंडा के राष्ट्रीय टूर्नामेंट के लिए विख्यात था। यहाँ सलूनों पर अभी भी पेच लड़ाए जाते हैं। आज भी रंग-बिरंगी पतंगें उड़ाई जाती हैं। क्या मजबूत सद्दी प्रयोग की जाती है, क्या तीखा सीसे से गुजारा गया माँजा इस्तेमाल होता है। जिस दल ने पतंग बढ़ा ली, वह विजेता, जिसकी कट गई, वह परास्त। माँजे पर माँजा कैसे रगड़ा जाए कि डोर दूसरे की कटे, अपने की नहीं, यही मैदान सिखाता है, तभी तो कुछ सोचकर ही नेताओं ने इस मैदान में वार्षिक उत्सव मनाने की परंपरा रखी है।

गिल्ली-डंडा क्रीड़ा का वर्णन कवियों ने राम और कृष्ण के संदर्भ में भी किया है। इस मैदान ने इसे भी राष्ट्रीय खेल बनाया है—गुल्ली कैसे उडे़, गुच्ची कैसे पटे, डंडा कैसे चले, अन्नस पर कैसे पडे़; सब यहीं से सीखते हैं।

लालकिला मैदान में संध्या समय चंपी होती है, चंपी का भी राष्ट्रीय महत्त्व है। चंपी करके दल बदल दिया जाता है। सरकारें बदल जाती हैं या देर तक टिकी रहती हैं।

हे लालकिला मैदान! तुम यह सब खेल दिखाते रहे, सिखाते रहे, तुम्हारे शिष्य सीखते रहे, तुम कुछ नहीं माँगते, कुछ नहीं कहते हो, वे रहते हैं, तुम सहते हो, वे फलित होते हैं, तुम पद-दलित होते हो। वे अपनी कठोरता तुम्हें दे, तुमसे आर्द्रता पाते हैं। वे खुश होते हैं, तुम खुश्क होते हो।

और हे भारत के दिल, दिल्ली के वासियो! चलो-चलो, बढ़ते चलो। चलो-चलो, बढ़ते चलो, सजते चलो, लालकिला मैदान तुम्हें पुकारता है।

चलो आँधी या तूफान में लालकिला मैदान में। वही तुम्हारा भविष्य है। जय हिंद, जय लालकिला! जय लालकिला मैदान!

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