महाराष्ट्र का नवसंवत्-उत्सव : गुड़ी पड़वा

महाराष्ट्र का नवसंवत्-उत्सव : गुड़ी पड़वा

भारतभर में गुड़ी पड़वा विक्रम संवत् का प्रारंभ दिवस है। धर्म-कर्म सभी का शुभारंभ दिवस। इस पावन पर्व पर महाराष्ट्र में ऐसा कहते हैं कि यह ब्रह्मा की सृष्टि-रचना का समापन दिवस है। जगत्-निर्माता ब्रह्मा ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही यह सारा संसार बनाकर खड़ा किया। इसी दिन से उन्होंने अनंत कालचक्र की गणना की शुरुआत भी की। यहाँ यह ब्रह्मा के दिन-रात, तिथि, वार, वर्ष, षड्ऋतु संवत्सर, कल्प, युग मन्वंतर सभी की अवधि की गणना पत्रा-पंचांग शुरू होने का दिन भी माना जाता है। अग्नि का जन्मदिन भी कहा जाता है।

गुड़ी पड़वा के दिन घर के द्वारों पर गुड़ी उभारना महाराष्ट्र के नव संवत् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के उत्सव की अपनी विशेषता है। चैत शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत् और शालिवाहन शक संवत् दोनों शुरू होते हैं। पूरे भारत में इस दिन होनेवाले पर्व-उत्सवों की भरमार है, पर महाराष्ट्र में प्रतिपदा और गुड़ी का संबंध लंका विजय के बाद राम के अयोध्या लौटने पर हुए स्वागत-समारोह से जुड़ता है। राम के वनवास काल में सारी अयोध्या पर जैसे उदासी की छाया पसरी थी। १४ वर्ष बाद जब विजयी राम घर लौटे तो अयोध्यावासियों का उत्साह-उमंग उमड़ पड़ी। लंका-विजयी राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने गली-चौराहों पर केशर, चंदन, रोली, हल्दी, गुलाल का छिड़काव किया। राम की लंका-विजय की विजय-पताकाएँ घर-घर पर फहराई गईं। और वह दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का था।

आज भी जन-जन के राजा राम हैं और गुड़ी पड़वा की गुड़ी रामराज्य की कीर्ति-ध्वजा है, जिसे नूतन संवत्सर के दिन राम की लंका विजय की स्मृति में जनलोक फहराकर आज भी रामराज्य की ध्वजा ऊँची करता है। पुणे के जनकवि ग.दि. माडगूलकर ने इस विश्वास और जनभावना को वाणी दी है—

‘विजय पताका श्रीरामाची

झड़कती अंबरी

गुंड्या तोरणे धरोधरी

प्रभु आले मंदीरी।

यहाँ ऐसी भी अनुश्रुति है कि इस दिन शिवाजी ने कोंडना का किला जीता था, उस उपलक्ष्य में भी यश-ध्वजा लहरी, विजयोत्सव मना।

पर मेरे विचारों में गुड़ी पड़वा की ‘गुड़ी’ राम के लंका विजय की कीर्ति-ध्वजा के अतिरिक्त बहुत कुछ है। इस गुड़ी में गुड़ी पड़वा के पर्व से जुडे़ अर्थ और अभिप्राय भी अभिव्यंजित हैं।

मेरी समझ से गुड़ी में सृष्टि-रचना की स्मृति, सृष्टि के सर्जनहार ब्रह्मा, उनकी शक्ति और काल गणना का आधार संवत्सर की पूजा है। गुड़ी पड़वा को गुड़ी खड़ी करने के विषय में कोल्हापुर की गंगूबाई नानावरे ने गुड़ी उभारने के दो और संदर्भ बता गुड़ी में लगाई जाती वस्तुओं के प्रतीकार्थ भी बताए। उन्होंने कहा कि यह तिथि ब्रह्माजी का पहला दिन है और सृष्टि की जन्मतिथि भी। प्रतिपदा को ब्रह्माजी ने ब्राह्म मुहूर्त में शुरू करके सूर्योदय तक सृष्टि रचना कर फैलाई थी। इसके आगे गंगूबाई ने कहा कि इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और पांडवों में सबसे बड़ा पांडव जुडीधर (युधिष्ठिर) गादी (सिंहासन) पर बैठा था। तो धर्मराज आहे (वह धर्मराज है); महाभारत युद्ध में धर्म और सत्य की जीत हुई, इसलिए उस दिन जनता ने अपने-अपने घरों पर विजय-पताकाएँ फहराईं। पांडव सच्चे मानुष थे, धर्म के लिए लडे़ थे। तो यह गुड़ी धर्म-ध्वजा है। यह गुड़ी पाँच पांडव ही हैं, जिन्हें प्रजा अपने-अपने द्वारों पर स्थापित करके पूजा करती है। गुड़ी पड़वा न्याय और सत्य के पक्षधर धर्मराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का दिन है, इसलिए प्रजा वर्ष प्रतिपदा के दिन धर्म-ध्वजा उभारती है।

दापोली कोंकण की सरिताबाई ठकार ने बताया, ‘‘अरे! गुड़ी का डंडा जो है, वह सबसे बड़ा पांडव जुडीधर है।’’

डंडे के ऊपर पीतल-ताँबे का बना जो कलश रखा जाता है, वह अर्जुन है। गुड़ी को लगाए जाते साड़ी खण (चोली) कपडे़ भीम है, नीम की डाल सहदेव है और गाठी (शक्कर के बने पदकों की माला) नकुल है। उन्होंने यह भी कहा कि गुड़ी लोकजीवन में ब्रह्मा माने जाते कुम्हार के चाक चलाने का डंडा है। परजापति कहा जाता है—कुम्हार। भारतीय लोकजीवन, लोकविश्वासों में, कथा कहानियों में, सृष्टि सर्जक ब्रह्मा कुम्हार रूप है, चाक कालचक्र और चाक को घुमाने का डंडा सर्जन-शक्ति, उसी से चाक घूमता है तथा माटी विभिन्न रूपाकार लेती है—छोटे से दीपक से घडे़ तक। इस लोकविश्वास के संदर्भ में मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि महाराष्ट्र की गुड़ी सृष्टि सर्जक ब्रह्मा, उनकी शक्ति और कालचक्र का सम्मिलित प्रतीक लोकदेवता है। यह तथ्य रूप अवधारणा गुड़ी पड़वा के यहाँ के लोक प्रचलित पूजा के विधि-विधान और पर्व मनाने की संरचना गुड़ी उभारने में प्रयोग की जाती वस्तुओं से स्वतः ही अभिव्यक्ति होती है।

यहाँ एक दृष्टि में महाराष्ट्र का नवसंवत् उत्सव और गुड़ी उभारना उसके विधि-विधान देख लिए जाएँ।

यहाँ नववर्ष की प्रतिपदा के दिन तड़के उठना होता है। प्राचीन समय में तो छोटे-छोटे गाँवों में बाजा बजानेवाले सुबह तड़के घर के चबूतरों पर ५-७ मिनट शहनाई बजाकर प्रतिपदा के दिन जगाते थे और दोपहर को ये त्योहारी लेने आते थे। आजकल स्वयं ही उठना पड़ता है। वैसे अभी भी कहीं-कहीं यह प्रथा बची है। इसके बाद घर-द्वार की विशेष सफाई, दरवाजों पर आम के पत्तों-फूलों के धनी-मानी लोगों के घर में विशेष बंदनवार, जिसे यहाँ तोरण कहते हैं, लगाए जाते हैं। उसके बाद घरभर का अभ्यंग स्नान, मराठवाड़ा में पलाश के पत्तों पर बैठकर नहाते हैं। आजकल तो गुड़ी खड़ी करने को यहाँ कपडे़ सुखाने में काम आता डंडा किसी भी लकड़ी का हो, चलता है, पर प्राचीनकाल में गुड़ी के लिए नया बाँस और नया कलश लाते थे। कोंकण में तो अभी भी गुड़ी के लिए येलू (बाँस का एक प्रकार का डंडा) लेते हैं। मराठवाड़ा में शेवगा (सहिजन) का लंबा डंडा लेते हैं।

डंडा किसी भी वृक्ष का हो, पहले उसे तेल लगाकर गरम पानी से नहलाया जाता है। फिर उस पर हल्दी, रोली से रेखाएँ बनाते हैं। गुड़ी के सिरे पर चाँदी, ताँबे, पीतल का, अब किसी भी धातु (लोहे को छोड़) का बना लोटा, गिलास पंचपात्र उल्टा रखते हैं।

फिर उसे जरी की पल्लू बार्डरवाली साड़ी चुनकर खठा की चोली नीम की डाल फूलमाला और गाठी (शक्कर के १२ पदकों का बना हार) को गुड़ी की डोरी से बाँधते हैं। गुड़ी को कपास से बनी गजमाल या गजवस्त्र, जो कपास की लंबी बत्ती बना, अँगूठे और तर्जनी में हल्दी रोली लगा ६ या १२ आँकडे़ बनाकर बनती है, वह भी पहनाते हैं, यों गुड़ी का शृंगार पूरा होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा को घर के छोटे और नए जनमे बच्चे को गाठी (शक्कर के पदकों से बना हार) अवश्य पहनाया जाता है। यह पाँच वर्ष पहनाना जरूरी है। मेरी पड़ोसन अंजली को तो उसकी दादी अभी तक गाठी पहनाती है। गुडी पड़वा के हर्षोल्लास के वातावरण में बच्चे गाठी के शक्कर के पदक खाते, घूमते, खेलते हैं और प्रसन्न होते हैं।

द्वार पर या बालकनी में गुड़ी उभाने की जगह गृह स्वामिनी रँगोली बनाती हैं। घर का वयोवृद्ध गृहस्वामी गुड़ी उभारता और पूजा करता है। गुड़ी की पूजा धूप, दीप, हल्दी, रोली, अक्षत द्वारा पंचोपचार पूजा होती है, पर गुड़ी की पूजा में संपूर्ण महाराष्ट्र में तेल का दीपक हमेशा दो बत्तियोंवाला जलाया जाता है। सामान्यतः पूरे महाराष्ट्र में गुड़ी को पूरनपोली का नैवेद्य दिखाया जाता है, विशेषकर के मराठवाड़ा में। शेष महाराष्ट्र में श्रीखंड-पूरी, बूँदी-पूरी का प्रचलन बढ़ चला है। इस अवसर पर कोई भी मीठा व्यंजन बनाते हैं।

दोपहर को भोजनोपरांत उपाध्याय, जयोतिषी से पंचांग बँचवाकर भविष्यफल सुना जाता है। यद्यपि भोजन के बाद ही सुनें, ऐसा कोई नियम नहीं है। पर पंचांग सुनना आंशिक और पूर्ण, दोनों तरह का होता है। उसे सुनने के क्रमानुसार सुनने के फलादेश भी बताए गए हैं। तिथि योग सुनने से लक्ष्मी बढ़ती है। वार योग सुनने से आयु बढ़ती है। नक्षत्र योग सुनने से रोगों का, ग्रह योग सुनने से पापों का नाश होता है। पंचांग योगों के फल वर्ष भविष्य आदि सुनने के बाद उपाध्याय की पूजा करके दक्षिणा देते हैं। इस तरह पंचांग-पूजा, भविष्यफल सुनना, शुभ मुहूर्त गुड़ी पड़वा को नए-नए कार्यों का शुभारंभ खरीद-फरोख्त, मिलना-जुलना पूरे दिन आनंदमय वातावरण रहता है।

शाम सूर्यास्त के बाद हल्दी, कुंकुम, अक्षत् डाल गुड़ी उतार ली जाती है। अक्षत डालते हुए गृहस्वामी कहता है, ‘पुनरागमना चे’ फिर से आने को जाओ, फिर से आओ। यही महाराष्ट्र का विदाई वाक्य भी है। बर, ये तो, अच्छा आता हूँ। यहाँ विदा के वक्त जाता हूँ या चलता हूँ नहीं कहते तो फिर सिर पर मुकुट मसाहिरण्यमय पात्र लिये, जरी बॉर्डर की साड़ी, चोली पहने, प्रकृति पुरुष, टाइम और स्पेस दोनों तत्त्वों की दीपक की दो बत्तियों में ज्योति लिये ब्रह्मा की सर्जन शक्ति और गाठी गजमाल के रूप में वर्षचक्र की षड्ऋतु और १२ महीने धरे संवत्सर देवता से, गुड़ी देवी से लोक फिर से आने का, फिर-फिर आने का आग्रह ही तो कर सकता है और यही वह संवत्सर के दिन करता भी है।

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