शाश्वत रिश्ता

शाश्वत रिश्ता

उसने धीरे से दरवाजे पर दस्तक दी। थोड़ी देर प्रतीक्षा कर उसे धकियाकर अंदर आ गई। चारपाई पर लेटे व्यक्ति ने हुए उजाले में आनेवाले को देखा। युवती ने पास आकर उनके पैर छुए, झुर्रियों भरे चेहरे को आनेवाले की पहचान नहीं हो पा रही थी। उसने प्रश्ननुमा गरदन उठाई। युवती ने परिचय दिया, ‘‘दादाजी, मैं आपके गुड्डू की पत्नी हूँ।’’

अपने पोते के बचपन के नाम को सुनकर वे प्रसन्नता से उद्वेलित बोले, ‘‘तो तू है अनीता! गुड्डू बता रहा था कि तूने मनोविज्ञान में एम.ए. किया है।’’

उसने विनम्रता से उत्तर दिया, ‘‘हाँ दादाजी।’’

बहू ने सहारा देकर दादा को साथ पड़ी कुरसी पर बिठा दिया। उनके बिस्तर को ठीक किया और दो तकिए टिकाकर उन्हें पुनः चारपाई पर बैठने में सहायता दी। फिर खिड़कियों के पल्लों को खोल दिया। ताजा हवा के झोंके अंदर आने लगे। अपने साथ लाए फूलों के गुलदस्ते को एक स्टूल पर टिका दिया। दादा के पास बैठकर उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर पूछा, ‘‘दादाजी, आज आप नाश्ते में क्या खाएँगे और दोपहर और रात के खाने में?’’

वह एक बारगी चौंक गए, ‘‘तू यह सब क्यों पूछ रही है, बिटिया? तुम्हारी अभी-अभी शादी हुई है। बहू को भेज देती या पवन और सुमेर पोतों की बहुएँ हैं, वे आ जातीं।’’ कहने को तो वे कह गए, परंतु वे जानते थे कि उनके कमरे में कोई नहीं आता। केवल काम करनेवाली आती थी।

‘‘दादाजी, इसमें मेरा स्वार्थ है।’’ वह हौले से मुसकाई।

उन्होंने आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्या स्वार्थ है?’’

‘‘मुझे आपसे कुछ पूछना है।’’

‘‘पूछो?’’

‘‘दादाजी, अगर आपका गुड्डू मुझसे नाराज हो जाए तो मुझे क्या करना चाहिए?’’

‘‘उसे मना लेना चाहिए!’’

‘‘और अगर मैं नाराज हो जाऊँ तो?’’

वे खिलखिलाए, ‘‘मैं उसका कान पकड़कर तुम्हें मनाने के लिए भेज दूँगा, पर यह सब मुझे बता देना।’’

यह सुनकर वह खनकी और साथ ही बोली, ‘‘दादाजी, एक बात और पूछनी है?’’

दादा अब तक समझ चुके थे कि वह उन्हें खुश करने के लिए बतिया रही थी। उसे भी इस नटखट बहू से बातें करते हुए बेहद खुशी का अहसास हो रहा था। वह बिना सहारा लिये स्वयं उठे और कुरसी पर बैठ गए। बहू के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा, ‘‘बोल, अब और क्या पूछना है?’’

‘‘दादाजी, सबसे शाश्वत रिश्ता कौन सा होता है?’’

इस गंभीर प्रश्न को सुनकर वे चौंके। फिर धीरे-धीरे बोले, ‘‘मैं जानता हूँ कि तुम पढ़ी-लिखी हो और सब समझती हो। फिर भी बताए देता हूँ, जो रिश्ता सुख और दुःख में समान रूप से सहयोगी रहे।’’ वे क्षणभर रुके और दीवार की ओर इंगित करके आगे बोले, ‘‘सामने दीवार पर लटके दादी के चित्र को देख रही हो न। वह मेरे पल-पल की साथिन थी। मेरे दुःख के साथ उसका दुःख बँधा हुआ था, मेरे सुख के साथ सुख। मेरे कमरे में अकसर कोई नहीं आता। मैं अकेले में इसी चित्र के साथ बातें करता हूँ। बस एक ही रिश्ता है जिंदगी भर चलने का, बाकी सब रिश्ते बीच में छूट जाते हैं।’’ कहकर वे चुप्पी साध गए, मानो कहीं गहरे में खो गए हों। काफी देर बाद गंभीर स्वर में आगे बोले, ‘‘तू मेरे गुड्डू का उसके हर सुख-दुःख में साथ देना!’’

यह कहते-कहते उनकी आँखें पनिया आईं। बहू ने दादा को एक चुटकी भर स्नेह देकर एक शाश्वत रिश्ते का अर्थ समझ लिया था। उसने अपनी उँगलियाँ बढ़ाकर दादा के चेहरे पर फैले आँसुओं को पोंछ दिया और बच्चों की मानिंद उनके गले लग गई!

कोठी नं. ८५४, शहीद विक्रम मार्ग, सुभाष कॉलोनी

करनाल-१३२००१ (हरियाणा)

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