विमुद्रीकरण और संसद् का शीतकालीन सत्र

जैसी कि आशंका थी, प्रधानमंत्री के विमुद्रीकरण यानी नोटबंदी के विरोध के कारण संसद् का शीतकालीन अधिवेशन व्यर्थ गया। विरोधी दलों में नोटबंदी के विषय में तृणमूल नेता और केजरीवाल चाहते हैं ‘रोल बैक’, यानी यह निर्णय वापस लिया जाए। यह संभव नहीं है। जेडी(यू) के अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री के निर्णय का समर्थन किया। उनका कहना है कि कालाधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जो कदम उठाया गया है, उसका वे समर्थन करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि विमुद्रीकरण के उपरांत बेनामी संपत्ति पर भी काररवाई होनी चाहिए, जैसा उन्होंने बिहार में किया। यह प्रधानमंत्री के एजेंडा में है। उनके सहयोगी दल के नेता और अध्यक्ष लालू प्रसाद ने प्रारंभ में विरोध किया, पर बाद में चुप्पी साध ली। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और उनके दल बीजू जनता दल ने नोटबंदी के कदम का समर्थन किया। मुख्य विरोधी दल कांग्रेस और वामपंथी सी.पी.आई. और सी.पी.एम. प्रारंभ से ही कड़ा विरोध कर रहे थे और संसद् में गतिरोध की रणनीति के रचनाकार थे। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस विषय में बहुत ही मुखर और सक्रिय रहीं। विरोधी दलों को एकजुट करने में ममता बनर्जी की खास भूमिका है। सी.पी.एम. और कांग्रेस ने पिछला विधानसभा चुनाव साथ लड़ा था, उनसे मिलकर ममता बनर्जी ने कहा कि एकजुट होकर हमें विरोध करना चाहिए। सी.पी.एम. विशेषतया इस बात से हिचकिचाता रहा। संक्षेप में कहना यह है कि आपसी मतभेद होते हुए भी संसद् की काररवाई रोकने में विरोधी दल सहमत रहे। संसद् परिसर में भी वे धरना देने बैठे। एकजुटता प्रदर्शन के लिए विरोध करनेवाली पार्टियों के सांसदों ने हाथ में हाथ मिलाकर एक मानव शृंखला भी बनाई। समाजवादी दल और बसपा के सदस्य भी इन काररवाइयों में शामिल हुए; किंतु जब भारत बंद का प्रस्ताव आया तो दलों ने अलग-अलग रास्ते अपनाए। देश में भारत बंद का कोई विशेष असर नहीं हुआ। ममता की पहल के कारण बंगाल में प्रभाव दिखा, पर वहाँ भी तृणमूल कांग्रेस और सी.पी.एम. अलग-अलग आंदोलन करते रहे। कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने कहा कि हमने भारत बंद का आह्वान नहीं किया था, यह केवल आक्रोश दिवस था, जनता की तकलीफों को उजागर करने के लिए। बसपा इस मामले में उदासीन ही रही। मायावती केवल बयानबाजी ही करती रहीं, पर राज्यसभा में काफी सक्रिय रहीं। उधर बैंकों और एटीएम के सामने लंबी कतारों के होते हुए भी, प्रधानमंत्री के अपने व्यक्तिगत सर्वेक्षण में लोगों ने अपनी कठिनाइयों के होते हुए भी कहा कि मोदी के कालेधन के विरुद्ध अभियान का वे समर्थन करते हैं। कुछ अन्य स्रोतों से भी इस बात की संस्तुति हुई है।

विमुद्रीकरण के एक माह के बाद आजकल इस निर्णय के विविध पक्षों के संबंध में समाचार-पत्रों, टी.वी. में बहुत विचार-विमर्श चल रहे हैं। विरोधी दलों का खयाल है कि विमुद्रीकरण का विरोध संसद् में ही सबसे प्रभावी है, क्योंकि टी.वी. पर जनता देखेगी और सरकारी कामकाज भी बाधित रहेगा। यहाँ तक कि जी.एस.टी. १ अप्रैल, २०१७ से लागू हो सकेगा या नहीं, इसमें भी संशय उत्पन्न हो गया। देश की आर्थिक व्यवस्था और विकास के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है। सभी देशों ने भारत के इस संभावित कदम की सराहना की, पर यह भी राजनीतिक गतिरोध का शिकार हो गया। राज्यसभा में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का छोटा, किंतु बड़ा कटु भाषण विमुद्रीकरण के विरोध में था। उन्होंने अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदू’ में इस विषय पर एक लेख भी लिखा, जो चर्चा में रहा। उनके अनुसार विमुद्रीकरण का निर्णय एक भयंकर भूल है, बड़ी त्रासदी और कुप्रबंधन का बड़ा उदाहरण है। सालों के लिए आर्थिक विकास पिछड़ जाएगा और इस समय साधारण जनता जो तकलीफें भुगत रही है, वह अलग। इस मामले में अर्थशास्त्रियों की अलग-अलग राय है। कुछ समर्थन करते हैं, कुछ विरोध। ‘हिंदू’ दैनिक पत्र में ही प्रत्युत्तर स्वरूप दो लेख आए, एक डॉ. डे ब्राय का, जो नीति आयोग के सदस्य हैं और दूसरा एस. गुरुमूर्ति का, जो एक आर्थिक और राजनीतिक विषयों के टिप्पणीकार हैं। प्रश्न उठाया गया कि सबसे अधिक कालेधन का सृजन यू.पी.ए. सरकार के दस वर्षों के शासन में हुआ और प्रधानमंत्री की हैसियत से उन्होंने इस ओर क्यों कोई कदम नहीं उठाया था। इस विवाद में अधिक जाने की आवश्यकता नहीं है। विरोधी दल और सरकार दोनों बहस की बात करते रहे, पर वह हो नहीं पाई। राज्यसभा में जैसे ही मनमोहन सिंह बोल चुके, तो कांग्रेस के सदस्यों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। वे नहीं चाहते थे कि मनमोहन सिंह के तर्कों का सरकार की ओर से तुरंत कोई उत्तर मिले। राज्यसभा में वे प्रधानमंत्री से क्षमा माँगने की बात करते रहे, चूँकि उन्होंने एक सभा में कहा कि जो विमुद्रीकरण का विरोध कर रहे हैं, क्या वे कालेधन का समर्थन करते हैं। राज्यसभा में विरोध पक्ष यह भी चाहता था कि प्रधानमंत्री बहस के दौरान बराबर उपस्थित रहें, बहस में भाग लें और प्रश्नों का उत्तर दें। प्रधानमंत्री के भाग लेना और बोलना स्वीकार किया। जहाँ तक प्रश्नों का मामला था, सरकारी पक्ष के अनुसार वित्तमंत्री स्पष्टीकरण देते। लोकसभा में कांग्रेस और उनके सहयोगी दल चाहते थे कि प्रधानमंत्री बहस में भाग लें। उनकी जिद रही कि बहस के बाद वोटिंग होनी चाहिए; हालाँकि वे जानते हैं कि लोकसभा में तो एन.डी.ए. का बहुमत है। सरकार ने उनकी इस माँग को अनावश्यक कहकर नकार दिया। पार्टियाँ राष्ट्रपति के पास शिकायत लेकर जाती रहती हैं, नोटबंदी के मामले में भी गईं, पर राष्ट्रपति ने अपने एक जनभाषण में संसद् की काररवाई रोकने की तीव्र आलोचना की और कहा कि भगवान् के लिए संसद् में अपने कर्तव्य का पालन करिए। लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। राष्ट्रपति महोदय ने कहा—लोकतंत्र में, यानी डिमोक्रेसी के माने हैं डिस्सेंट (विभिन्न राय रखना), डिबेट (वाद-विवाद) और इसके उपरांत डिसीजन (निर्णय) लेना। संसद् न चलने देना निरर्थक है। उधर भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को भी रोष आ गया। उन्होंने कहा कि न लोकसभा की अध्यक्ष और न संसदीय मामले के मंत्री सदन को ठीक से चला पा रहे हैं। आडवाणी ने अपने दल के सदस्यों के शोर-शराबा करने के लिए क्षोभ प्रकट किया। संसद् के चलने के कोई आसार दिख नहीं दिखे। अंततः पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। कांग्रेस उपाध्यक्ष संसद् के बाहर कहते रहे, यदि उन्हें बोलने दिया जाए तो भूचाल आ जाएगा। प्रधानमंत्री का भी कहना है कि उन्हें जनसभाओं में बोलना पड़ रहा है, क्योंकि उन्हें संसद् में बोलने नहीं दिया गया। ऐसा लगता है कि नोटबंदी की राजनीति में कांग्रेस और उसके सहयोगी दल उत्तर प्रदेश, पंजाब या जहाँ २०१७ में विधानसभा के चुनाव होने हैं, तब तक विमुद्रीकरण के मामले को खींचना चाहते हैं। इसमें उनको लाभ दिखाई देता है।

प्रधानमंत्री ने अपने आठ नवंबर के भाषण में कहा था कि विमुद्रीकरण के निर्णय से जनता को शुरू में कठिनाइयाँ होंगी, पर बड़े हित की दृष्टि से जनता को उन्हें बरदाश्त करना चाहिए। विरोधियों के आंदोलनों तथा उकसाने के बावजूद जनता सहयोग कर भी रही है। यह भी सही है कि एक गोपनीय निर्णय में अधिक लोगों से बात कर व्यवस्था बनाने की एक सीमा होती है। विरोध पक्ष को यह समझना है, पर नोटबंदी की राजनीति के कारण वे जान-बूझकर अनबूझे बने हुए हैं। हम फिर भी यह कहना चाहेंगे कि सरकारी प्रबंधकों को अधिक समझदारी तथा कल्पनाशीलता दिखानी चाहिए थी। असंगठित क्षेत्र में काम करनेवाले तथा रोज कमाकर खाने वालों के लिए विशेष व्यवस्था कर सकते थे। इसी प्रकार रबी की बुआई का समय था, उसमें किसान के लिए खाद और बीज की व्यवस्था को ध्यान में रखना था। सब जानते हैं कि शादी-ब्याह का मौसम कब होता है। शादी-समारोहों में पुरोहित, नाई, माली, चूड़ीवाले तथा इसी प्रकार के काम करनेवालों को पचास या सौ रुपए अलग-अलग अवसरों पर देने होते हैं, इस दृष्टि से २००० रुपए का नोट शादी-ब्याह में किस काम का? वैसे भी जब शादी के लिए ढाई लाख देना तय भी हुआ, तो उसमें शर्तें ऐसी डाल दी गईं, जिससे वह सुविधा बेमानी हो गई। लोग शादी का निमंत्रण-पत्र लिये घूम रहे थे, पर बैंक उनसे अदायगी की रसीदें माँग रहे थे।

यह सही है कि बैंकों के कर्मचारियों को बहुत काम करना पड़ा, पर उनकी अदूरदर्शिता और संवेदनशीलता में भी कोई कमी नहीं है। वरिष्ठ नागरिकों, महिलाओं, विद्यार्थियों आदि के लिए विशेष व्यवस्था आवश्यक थी, यह उनको सूझा ही नहीं। वैसे भी नीति-निर्धारण के स्तर पर अच्छा होता, यदि १००० के नोट को पहले अमान्य किया जाता। पुराना ५०० का नोट तो आज हरेक के हाथ में दिखाई देता है, क्योंकि रुपए की क्रयशक्ति ही इतनी गिर गई है। शायद तब जनता को इतना कष्ट नहीं सहना पड़ता, न राजनीतिक दलों को कुछ वर्गों में असंतोष भड़काने का मौका मिलता। एक और बात हम कहना चाहेंगे। ८ नवंबर का भाषण प्रधानमंत्री का जनता को उद्बोधन था। अच्छा होता, यदि सरकार की ओर से व्यवस्था की जाती कि प्रधानमंत्री स्वमेव दोनों सदनों में बयान देते, क्योंकि संसद् प्रारंभ होनेवाली थी, तो संभवतः विरोध इतना मुखर नहीं हो पाता। संसद् का सम्मान हो जाता कि प्रधानमंत्री ने जैसे ही पहला अवसर मिला, संसद् सदस्यों को एक महत्त्वपूर्ण निर्णय के बारे में विश्वास में लिया। जिनके अपने स्वार्थों पर कुठाराघात हुआ, वे तो चिल्लाते ही, पर अन्य साधारण लोग प्रधानमंत्री के इस साहसिक कदम से अधिक आश्वस्त होते। अब आवश्यकता इस बात की है कि जैसा प्रधानमंत्री कह चुके हैं, ३० दिसंबर के बाद से हालात सामान्य होने चाहिए।

विमुद्रीकरण कितना आवश्यक था और कितनी गंदगी हमारे सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्थाओं में है, इसका प्रमाण हैं वे समाचार कि कैसे-कैसे अमान्य नोटों को बदलने की कोशिश की जा रही है और किस प्रकार नए नोट चंद लोगों ने चतुराई के साथ हथिया लिये हैं। आठ नवंबर के तुरंत बाद जो बड़े-बड़े मगरमच्छ हैं, जिनके पास अथाह अघोषित धन है, उन्होंने बैंक अधिकारियों से संपर्क साधा। लोग कतारों में इंतजार करते रहे और इधर हेरा-फेरी शुरू हो गई। इसके लिए बैंक अधिकारी ही जिम्मेदार हैं। अमान्य नोट लाखों और करोड़ों की संख्या में नए नोटों में बदले गए। बैंकों के बाहर नोटिस लगा दिया गया कि नकदी समाप्त हो गई। बेचारे आम लोग कतार में खड़े मायूस होकर अगले दिन की आशा दिलों में पालते रहे। इस सब घोटाले में नौकरशाही, पुलिस और नेताओं की भूमिका रही है। दिल्ली, चेन्नई, मुंबई, बंगलुरु, जयपुर, कोलकाता, गुवाहाटी आदि शहरों में जहाँ सोना बरामद हो रहा है, नई मुद्रा भी बरामद हो रही है, केंद्रीय जाँच एजेंसियाँ बराबर निगरानी रखे हुए हैं। सफलता इस पर निर्भर करेगी कि सरकारी अधिकारी कितनी ईमानदारी और प्रतिबद्धता से अपने कर्तव्यों का अनुपालन करते हैं। दिल्ली के एक पॉश इलाके में एक कानूनी फर्म में करोड़ों की रकम मिलना हमारे नैतिक पतन का ही प्रतीक है। बंगलुरु में जनार्दन रेड्डी का दावा था कि उन्होंने बेटी की शादी में जायज खर्चा किया है, पर बाद में समाचार आया कि एक प्रशासनिक अधिकारी ने, जो रेड्डी के इलाके में तहसीलदार रह चुका था, किस प्रकार धन शोधन (मनीलॉण्डरिंग) में रेड्डी की मदद की। इसका विवरण नायक के ड्राइवर ने अपनी आत्महत्या के पहले एक पत्र में दिया, जो पुलिस के पास है। ये विसंगतियाँ और विडंबनाएँ ही लोकतंत्र की जड़ें खोदती हैं। प्रधानमंत्री ने लगातार यह कहा है कि वे जो कर रहे हैं, गरीबों की भलाई के लिए कर रहे हैं, बेईमानों को बक्शा नहीं जाएगा। आशा है, प्रशासन तंत्र प्रधानमंत्री के इस आश्वासन को पूरा करने की चेष्टा करेगा। जो नए नोट छापों में जब्त किए गए हैं, वे यदि जनता को उपलब्ध हो सकें तो नकदी की तरलता (कैश लिक्युडिटी) का जो अभाव बाजार में है, उसमें कमी आ सकती है। सरकार ने कहा भी है कि जब्त की गई नई मुद्रा को बैंकों के द्वारा लेन-देन में लाया जाएगा।

इसी से जुड़ा एक मुद्दा है इ-कॉमर्स और इ-पेमेंट का। प्रधानमंत्री प्रारंभ से ही तकनीकी के विस्तार पर जोर दे रहे हैं। उन्होंने सर्वसाधारण को सलाह दी है कि साधारण मोबाइल फोन का प्रयोग भी इसके लिए किया जा सकता है। यह प्रावधान भी सरकार करनेवाली है कि मालिक लोग सब कर्मचारियों को नकदी की जगह पैसा उनके बैंक खाते में भेजें। इस तरह हर व्यक्ति पूरा वेतन प्राप्त कर सकता है, कोई हेराफेरी संभव नहीं है। डिजिटल जानकारी के अभियान जोरों से शुरू किए गए हैं। यह उचित है। उनका और अधिक विस्तार होना चाहिए। साथ ही साथ हमें जमीनी हकीकतों का भी ध्यान रखना चाहिए। बैंकिंग सुविधाएँ अभी भी बहुत सीमित हैं। कहीं-कहीं तो हैं ही नहीं। आधे एटीएम काम नहीं कर रहे थे, यह जानकारी भी अमुद्रीकरण के दौरान मिली। बैंकों का फर्ज है कि वे देखें कि एटीएम हमेशा ठीक काम करें। इसमें सुस्ती की आवश्यकता नहीं है। बैंकों के कुछ अधिकारियों की बिचौलियों के साथ साँठगाँठ ने विमुद्रीकरण के कार्यक्रम को बाधित किया, जिससे जनता की कठिनाइयाँ और बढ़ीं। वरिष्ठ लोग, जो किसी प्रकार की डिजिटल सुविधा का प्रयोग नहीं कर रहे थे, वे भी इस पर पुनर्विचार कर रहे हैं। हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम कैशलेस इकोनॉमी अर्थात् नकदी विहीन अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ें। इसमें समय लग सकता है। भारतीय समाज की परंपराओं और सीमाओं को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। अशिक्षा भी कम हो रही है, अतएव तकनीकी का प्रयोग धीरे-धीरे आसान हो जाएगा।

प्रधानमंत्री ने जनता की इस समय की तकलीफों को दूर करने का एक उपाय बताया और जो दीर्घकालीन दृष्टि से लाभकर है, किंतु उसे किसी पर थोपने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। बहुतों की मान्यता है कि भारत के हालात ऐसे हैं कि यहाँ कभी भी कैशलेस इकोनॉमी नहीं हो सकती। वैसे भी कोई अर्थव्यवस्था पूर्णतः नगदी विहीन हो ही नहीं सकती है। बढ़ती जागरूकता के साथ आदतों में भी परिवर्तन होगा। यह बात ध्यान रखने की है कि प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार, कालाधन, जाली नोट और अतिवादियों को जो धन प्राप्त हो रहा है, उस पर प्रहार की बात कही थी। कैशलेस इकोनॉमी हमारा लंबा ध्येय है, वहाँ तक धीरे-धीरे सोच-समझकर कदम रखते हुए पहुँचेंगे। उसे विमुद्रीकरण के उद्देश्यों से जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। अब यह ध्यान रखना होगा कि कालाधन पैदा न हो। ऐसी नीतियाँ बनें। अभी तक तो कृषि-आय बताकर लोग बच जाते थे। चुनाव सुधार के लिए भी शीघ्रातिशीघ्र प्रयास होना चाहिए। विचार-विमर्श होना चाहिए कि प्रधानमंत्री के सुझाव स्टेट फंडिग को कैसे प्रभावी बनाया जा सकता है। डिजिटल लेन-देन की प्रणाली को प्रोत्साहित करने की निरंतर कोशिश होनी चाहिए, ताकि देश नगदी रहित अर्थव्यवस्था की ओर प्रगति करे; किंतु जिन स्थानों, जिन वर्गों में समय-समय पर नगदी की आवश्यकता है, उन्हें वह उपलब्ध होनी चाहिए। भारत चौदहवीं सदी से लेकर इक्कीसवीं सदी में एक साथ रह रहा है। यह नहीं भूलना चाहिए। मोबाइल बैंकिंग इस समय काफी उपयोगी हो सकती है। इस समय आवश्यकता है कि जितना शीघ्र संभव हो सके, गाँवों, दूरदराज के क्षेत्रों, पहाड़ी इलाकों में नए नोट पहुँचने चाहिए। दिहाड़ी मजदूर, खोमचेवाले तथा असंगठित क्षेत्र के लोगों को जो कठिनाइयाँ उठानी पड़ रही हैं, उनका निवारण शीघ्र होना चाहिए।

बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न

पिछले दिनों बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के समाचार आए हैं, उन पर विशेष चर्चा नहीं हुई है। अलग-अलग अवसरों पर जब हिंदुओं ने वहाँ से पलायन किया, उसके विषय में कुछ दस्तावेज हैं। बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में भारत की उल्लेखनीय भूमिका रही है। १९७१ में पाकिस्तान से अलग होने के बाद बांग्लादेश एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में उभरा था, पर १९८८ में एच.एम. इरशाद ने, जो एक सैनिक जनरल थे और बाद में राष्ट्रपति बने, संविधान में परिवर्तन कर उसको इसलामिक स्टेट बना दिया। इस समय वहाँ कट्टरपंथी मानसिकता बहुत बढ़ रही है। केवल हिंदू ही इसके शिकार नहीं हैं, बल्कि अन्य अल्पसंख्यक जैसे ईसाई, बौद्ध, अनीश्वरवादी आदि भी हैं। हिंदू, बुद्धिष्ट, क्रिश्चियन यूनिटी कौंसिल, यूएसए ने हाल ही में अमेरिका में राष्ट्रपति निवास के सामने प्रदर्शन किया और राष्ट्रपति ओबामा से अनुरोध किया कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की समाप्ति हो। उनके संरक्षण के लिए गुहार लगाई गई। अपने ज्ञापनपत्र में अनुरोध किया कि राष्ट्रपति ओबामा नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को अल्पसंख्यकों की उत्पीड़न समस्या से अवगत कराएँ। कुछ समय पहले नेत्रिकोना में हिंदुओं के एक मंदिर पर आक्रमण कर मूर्तियों को तोड़फोड़ दिया गया। इसके पहले भी कई घटनाएँ इस प्रकार की हो चुकी हैं। उपद्रवियों ने न केवल पुजारी वरन् अन्य उपासकों की भी हत्या की है। पुलिस वस्तुतः निष्क्रिय है, केवल औपचारिक काररवाई करती है। भारत सरकार का रुख भी स्पष्ट नहीं है, हालाँकि बांग्लादेश से हमारे संबंध अच्छे हैं। हिंदू-बौद्ध-ईसाई एकता परिषद् के अनुसार अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के २७३ मामले दर्ज हैं। इसी वर्ष जुलाई में एक कैफे में आतंकवादियों ने २२ लोगों की हत्या कर दी थी, मरनवालों में एक हिंदू लड़की भी थी। बढ़ती हुई धर्मांधता की ओर बांग्लादेश सरकार का ध्यान जाना चाहिए, क्योंकि वह उनके लिए भी जानलेवा हो सकती है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बेगम शेख हसीना भारत आनेवाली थीं। मुक्ति संग्राम में भाग लेनेवाले बहादुरों का सम्मान भी करनेवाली थीं, पर उनकी भारत यात्रा फरवरी के लिए टल गई है। भारत सरकार को इस मामले को गंभीरता से उठाना चाहिए। बांग्लादेश स्थित भारत के उच्चायुक्त को भी अधिक सक्रिय होना चाहिए। इस विषय में भारत के मुसलिम बुद्धिजीवियों और नेताओं की भी कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। एक टिप्पणीकार के अनुसार, दो दशकों में हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि शायद ही कोई हिंदू बांग्लादेश में रह पाए।

राष्ट्रगान से नाराजगी/उदासीनता क्यों?

न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति अमिताभ राव की पीठ के सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने के पहले राष्ट्रगान बजाए जाने के आदेश के विरुद्ध कुछ जानेमाने लोगों ने एक बाबेला मचा दिया। किसी ने इसको अति राष्ट्रवाद की संज्ञा दी और किसी ने इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विरुद्ध कहा। तथाकथित कुछ उदारवादियों ने इसे देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता का ही एक और उदाहरण बताया। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के निर्णय का केवल तात्पर्य यही था कि प्रत्येक देश अपने राष्ट्रगान के प्रति सम्मान प्रकट करता है। जब राष्ट्रगान खड़े होकर गाया जाता है और अपेक्षा रहती है कि शांति का वातावरण रहे। उस समय अन्य प्रकार की क्रियाएँ वर्जित होती हैं। अपेक्षा रहती है कि राष्ट्रगान के प्रारंभ होते ही शांत रहें और लोगों का आना-जाना बंद हो। राष्ट्रगान देश की अस्मिता का प्रतीक है। आजादी के बाद संविधान बनाते समय जो वातावरण था, उसमें अधिक जोर व्यक्ति के अधिकारों पर था, हालाँकि गांधीजी उस समय भी बार-बार दोहरा रहे थे कि अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल में संविधान में जो संशोधन हुए, उसमें नागरिकों के कर्तव्य का एक अध्याय है। देर आयद दुरुस्त आयद। उसी में शामिल है राष्ट्रगान के प्रति आदर। प्रस्तावना में दो शब्द सोशलिस्ट और सेकुलर भी जोड़े गए, जिनको विधान निर्मात्री सभा ने स्वीकार नहीं किया था, क्योंकि उनके अर्थ अलग-अलग निकाले जाते हैं, किंतु उन शब्दों की भावना संविधान में व्याप्त है। आपातकाल की समाप्ति पर बहुत से संशोधन निरस्त किए गए, किंतु नागरिक अधिकारों के अध्याय को ज्यों-का-त्यों रखा गया। संविधान संशोधन में इन कर्तव्यों का अनुपालन कैसे होगा, इसका निरूपण नहीं है। कर्तव्यों का उल्लंघन करने पर कौन सजा देगा और क्या सजा होगी, उसका उल्लेख भी नहीं है। इस संशोधन द्वारा अच्छा नागरिक कैसा होना चाहिए, मात्र यह परिलक्षित होता है। क्रियान्वयन कैसे हो, इसके लिए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी, जिसने अपनी रिपोर्ट तैयार की, पर वाजपेयी सरकार का कार्यकाल समाप्त हो गया और बाद में यूपीए सरकार ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। जस्टिस वर्मा समिति की सिफारिशों के कार्यान्वयन की आवश्यकता है, ताकि हमारे देश में कर्तव्यों की संस्कृति पैदा हो। यह दुरूह और लंबा कार्य है। इसका प्रारंभ शिक्षा से होना चाहिए। मोदी सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए।

राष्ट्रगान चुनने की लंबी कहानी है, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम तो बंकिम बाबू के वंदेमातरम् से उद्वेलित हुआ था। आरकेस्ट्रा की धुन की सुगमता के कारण टैगोर का ‘जनगण मन’ राष्ट्रगान घोषित हुआ। यह भी कहा गया कि वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है और वह उतना ही सम्मानीय है। अब राष्ट्रगान के प्रति आदर व्यक्त करने का एक प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने शुरू किया तो उस पर भी छींटाकशी होने लगी। कैसी विडंबना है कि तरह-तरह तर्कों के द्वारा उसका भी विरोध हो रहा है। हम देशप्रेम की भावना को इस प्रकार से नकार रहे हैं। मजे की बात है कि यह निर्णय अभी अंतरिम है, फरवरी में सर्वोच्च न्यायालय पुनः सुनवाई करेगा। हम देखते हैं कि राष्ट्रपति की उपस्थिति में जो आयोजन होते हैं, राष्ट्रगान के समय अक्षम व्यक्ति बैठे रहते हैं, इस पर कोई एतराज नहीं करता। सवाल तो है मूलतः राष्ट्रगान के प्रति आदर की अभिव्यक्ति का। आवश्यकता इस बात की है कि देश में कर्तव्यों की संस्कृति किस प्रकार उत्पन्न हो। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरोधियों को भगवान् सम्मति दे, यही हमारी प्रार्थना है। किसी भी प्रकार का नागरिक अनुशासन उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन लगता है। युवा वर्ग प्रसन्न है कि सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय को उचित माना है।

रामानंद चटर्जी और मॉर्डन रिव्यू

प्रख्यात पत्रकार रामानंद चटर्जी के संबंध में आज की पीढ़ी अनजान है। वे कोलकाता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक रहे। बाद में कायस्थ पाठशाला इलाहाबाद, जो विश्वविद्यालय से संबद्ध है, के प्रिंसिपल रहे। १९०८ में वे कोलकाता वापस चले गए। १९०७ में उन्होंने अंग्रेजी मासिक पत्रिका ‘द मॉडर्न रिव्यू’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। रामानंद बाबू का १९४३ में देहांत हो गया, पर मॉडर्न रिव्यू उनके सुपुत्र केदारनाथ चटर्जी ने १९६५ तक चलाया। यह अपने ढंग का मासिक पत्र था। इसकी तुलना इंग्लैंड की १९वीं सदी की कुछ मैगजीनों से की जा सकती है। भारत में उस समय पत्रकारिता व्यवसाय नहीं, एक मिशन था। मॉडर्न रिव्यू की महत्ता का अनुमान इस बात से होता है कि इसमें देश-विदेश के विद्वान् अपनी रचनाएँ प्रेषित करते थे। वास्तव में मॉडर्न रिव्यू हमारे स्वतंत्रता संग्राम का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय समस्याओं पर रामानंद बाबू अपनी विद्वत्तापूर्ण टिप्पणियाँ लिखते थे। वह पत्र किसी दल का नहीं था, बल्कि स्वराज को समर्पित था। सिस्टर निवेदिता, लाला लाजपतराय, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, लाला हरदयाल, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, सी.एफ. एंड्रूज, रोमा रोलाँ, एच.वी. रुदरफोर्ड, संत निहालसिंह आदि की रचनाएँ इसमें प्रकाशित हुई हैं। आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक विषयों के साथ-साथ साहित्य, संस्कृति, कला आदि पर रंगीन चित्रों के साथ लेख छपते रहे। गत वर्ष रामानंद बाबू की १५०वी वर्षगाँठ थी। स्मरणस्वरूप मॉडर्न रिव्यू में छपी रचनाओं का एक छोटा सा संचयन प्रकाशित हुआ है। वह संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है, फिर भी वह रामानंद बाबू की याद दिलाता है। इंडियन कौंसिल ऑफ सोशल रिसर्च द्वारा प्रयास होना चाहिए कि विषय वार चयन निकाले जाएँ, जो शोध के लिए अत्यंत उपयोगी होंगे। अन्य संबंधित परिषदें भी इसमें सहयोग दे सकती हैं।

रामानंद चटर्जी बँगला भाषा में ‘प्रवासी’ पत्रिका निकाल ही रहे थे, जो अत्यंत लोकप्रिय थी। बाद को हिंदी में ‘विशाल भारत’ का प्रकाशन भी प्रारंभ किया। हिंदी साहित्य के पाठक जानते हैं कि उसके प्रथम संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी थे और उसके बाद अज्ञेयजी।

‘मॉडर्न रिव्यू’ की तरह देश में दो मैगजीन १९४७ के पहले निकल रही थीं। एक पटना से ‘हिंदुस्तान रिव्यू’ प्रकाशित होता था डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा के संपादकत्व में। दूसरी थी ‘इंडियन रिव्यू’ मद्रास से, जिसके संपादक थे जी.ए. नटेशन। उन्होंने होम रूल तथा बहुत सा अन्य साहित्य राष्ट्रीय आंदोलन और उनके कर्णधारों के बारे में प्रकाशित किया था। १९४७ के बाद ये दोनों भी तिरोहित हो गए। राष्ट्रीय आंदोलन के लिए शायद अपना दायित्व पूरा कर उन्होंने आज की चमकीली-भड़कीली व्यावसायिक पत्रिकाओं के लिए रास्ता प्रशस्त कर दिया। मॉडर्न रिव्यू और अन्य दोनों मैगजीनों का व्यापक प्रभाव था, चाहे उसके खरीदनेवाले कम ही रहे हों, आज की स्थिति को देखते हुए इन पत्रिकाओं का प्र्रभाव क्षेत्र विस्तृत ही था। बौद्धिक वर्ग, वकील, शिक्षक, सरकारी अधिकारी तक सभी जानना चाहते थे कि किसी विषय पर ये क्या लिख रही हैं।

निवेदिता और कार्नीलिया का १५०वाँ जयंती वर्ष

स्वाधीनता संग्राम की दो अद्भुत महिलाओं की १५०वी वर्षगाँठ है। एक हैं भगिनी निवेदिता और दूसरी हैं कार्नीलिया सोराबजी। भगिनी निवेदिता तो अपने गुरु स्वामी विवेकानंद के निर्देश पर बिल्कुल भारतीय हो गईं। एक मित्र से जानकारी मिली कि शारदा मठ, बेलूर बड़े जोर-शोर से इस पर आयोजना की तैयारी कर रहा है। साहित्य अमृत भी इनके कुछ जाने-अनजाने पहलुओं को प्रस्तुत करेगा। पारसियों की इस देश को अभूतपूर्व देन है। पारसी महिलाओं में मैडम कामा की सेवाओं से थोड़ा बहुत हम सब परिचित हैं और साहित्य अमृत में इन पर चर्चा भी हुई है। कार्नीलिया सोराबजी का जीवन संघर्ष का जीवन रहा। कैसी कठिनाइयों के रहते हुए उन्होंने भारतीय महिलाओं की स्थिति सुधारने और उनके सशक्तीकरण के लिए क्या-क्या प्रयास किए, अगले अंकों में यह जानकारी प्रस्तुत करेंगे। भारतरत्न महान् गायिका सुव्वालक्ष्मी का शती वर्ष प्रारंभ हो गया है। इसकी चर्चा इस स्तंभ में पहले हो चुकी है, पर कुछ और सामग्री प्रस्तुत करने का इरादा है। हिंदी के मूर्धन्य कवि त्रिलोचन शास्त्री का भी यह शतीवर्ष है। साहित्य अमृत का प्रयास रहेगा कि आगे के अंकों में उनके जीवन और कृतित्व पर रोशनी डालने वाली सामग्री प्रस्तुत की जाए।

२६ जनवरी को प्रतिवर्ष की तरह गणतंत्र दिवस का आयोजन हो रहा है। सीमा के रक्षक सैनिक और अर्धसैनिक बलों के जवानों की शहादत कभी भुलाई नहीं जा सकती। उनकी स्मृति में उनके प्रति हमारा श्रद्धावनत नमन। अगला वर्ष भी कठिनाइयों भरा हो सकता है। पाकिस्तान का नीति और व्यवहार कैसा होगा, यह उस पर निर्भर करेगा। पाकिस्तान सेना के नए अध्यक्ष ने पद सँभालने के बाद कहा कि नियंत्रण रेखा पर शीघ्र सुधार होगा, यद्यपि उसी रोज निवर्तमान सेना अध्यक्ष जनरल खलील शरीफ जाते-जाते भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आए। नए सेना अध्यक्ष जनरल वाजवा ने आई.एस.आई. का एक नया मुखिया बनाया है। वह स्वयं भी नियंत्रण रेखा की समस्याओं से परिचित हैं। उनका कैसा रुख होगा, यह देखना है। ११ दिसंबर, २०१६ को केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने देश के लिए बलिदान हुए शहीदों की स्मृति में कठुआ में हुए कार्यक्रम में आपने भाषण में कहा कि पाकिस्तानी छद्म युद्ध की शुरुआत जनरल जिया ने की थी, वह अभी भी जारी है। लेकिन वास्तव में पाकिस्तान किसी तरह जम्मू कश्मीर को भारत से अलग कर बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में भारत ने जो भूमिका अदा की, उसका बदला लेना चाहता है। अपने पिछलग्गुओं के द्वारा बराबर वह अशांति फैलाने की चेष्टा करता है। शिक्षा भविष्य की उन्नति का द्वार है, किंतु पाकिस्तान के दलालों ने करीब तीस स्कूलों की इमारतें जला दीं। जम्मू और कश्मीर के लड़के-लड़कियाँ पढ़ना चाहते हैं, पर पाकिस्तान की मदद से कुछ आतंकवादी इसमें रोड़े अटकाने की कोशिश करते हैं। वे उन्हें जहालत में ही रखना चाहते हैं। जनता सामान्य स्थिति चाहती है। इसीलिए गृहमंत्री को चेतावनी देनी पड़ी कि धर्म के आधार पर और दो राष्ट्र के सिद्धांत को उभारकर पाकिस्तान अब सफल नहीं हो सकता; वह इस प्रकार की कोशिश करेगा तो स्वयं पाकिस्तान के दस टुकड़े हो जाएँगे, क्योंकि उत्पीड़न के कारण वहाँ भारी क्षेत्रीय आक्रोश है। यह पाकिस्तान को धमकी नहीं है, एक कटु सत्य है, पर भारत के लिए भी यह एक सतर्कता की चुनौती है और देश की रणनीति को चुनौती है कि शीघ्रातिशीघ्र जम्मू कश्मीर में किस प्रकार सामान्य स्थिति बन सके। आज की परिस्थितियों में देश की सीमाओं की रक्षा करनेवाले जवानों के प्रति हमारा विशेष दायित्व है। हर प्रकार से उनका मनोबल मजबूत बना रहना चाहिए।

हमें प्रसन्नता है कि नवंबर मास का साहित्य अमृत बाल साहित्य पर केंद्रित था, सुधी पाठकों को पसंद आया। कई विद्वान् पाठकों ने नवंबर अंक को ‘बाल विशेषांक’ की संज्ञा दी। नवंबर अंक में प्रयास यह था कि बाल कथाओं के साथ-साथ कुछ लेख बाल साहित्य के रूप और स्वभाव का विवेचन भी करें। यह सही है कि बँगला भाषा की तुलना में हिंदी में बाल साहित्य बहुत कम है और बाल साहित्यकारों को उनका उचित स्थान प्राप्त नहीं हो रहा है। आवश्यकता है कि बाल साहित्य के महत्त्व को साहित्यिक स्तर पर पहचाना जाए।

हिंदी साहित्य की एक अन्य विधा ‘लघुकथा’ को उजागर किया जाए तो उत्तम होगा, ऐसा विचार हुआ। इसलिए जनवरी २०१७ का अंक ‘लघुकथा विशेषांक’ के रूप में आपके सम्मुख है। आशा है आपको रुचिकर लगेगा। इस अंक का संयोजन-संकलन-आकल्पन सुप्रसिद्ध लघु कथाकार श्री बलराम अग्रवाल तथा बलरामजी ने किया है; इस श्रमसाध्य कार्य और उनके अतिशय सहयोग के लिए हम हृदय से आभारी हैं।

नववर्ष तथा गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई व सबके उत्कर्ष-उन्नयन हेतु मंगलकामनाएँ।

(त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी)

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