RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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आज की मुखौटा सदीमोहल्ले की हर गतिविधि की खबर हमें न हो तो अपने पेट में दर्द का अहसास होता है। तभी तो जब वर्माजी दस-पंद्रह दिन से नजर नहीं आए तो हम सशंकित हुए? यह हो क्या गया? अगर वह युवा कन्या होते तो हम मान लेते कि वह किसी पुरुष मित्र के साथ ‘लिव-इन’ के प्रयोग के लिए प्रस्थान कर गई होगी। माता-पिता की क्या मजाल कि चूँ भी करें। यों कुछ पुरुषों को भी अध्यात्म हो जाता है। कहीं वर्मा को तो नहीं हो गया? कल तक अच्छे-भले घर पर बीवी से तू-तू, मैं-मैं कर रहे थे। सुबह अचानक धर्म का दौरा पड़ा। निकले दफ्तर जाने को और अज्ञातवास में अंतर्धान हो लिये। बाद में पता लगा कि दफ्तर में करोड़ों का घपला कर गए हैं। जैसा दफ्तरों का दस्तूर है, यह खुलासा भी तब ही हुआ, जब चिडि़या खेत ही चुग नहीं चुकी, फुर्र भी हो चुकी थी। अपनी मोहल्ले में ख्याति सर्व ज्ञानी की है। हमने बहुत ताक-झाँक की जहमत से उसे अर्जित किया है। इस पर बट्टा लगना अपने आत्मसम्मान का प्रश्न है। दोस्त क्या कहेंगे, मोहल्ले में भद अलग होगी? कहीं भी एक से दो मिले तो वह अपनी छीछालेदर करेंगे, ‘‘व्यर्थ में मोहल्ले का पंच बनना है। उसे यह खबर तक तो है नहीं कि वर्मा कहाँ गायब है?’’ अपनी इज्जत बचाने के खयाल से प्रेरित होकर हमने वर्मा के घर की घंटी बजा दी। हमें ताज्जुब हुआ, जब श्रीमती वर्मा ने दरवाजा खोला और चहकीं, ‘‘अरे भाई साहब! बहुत दिनों बाद नजर आए? सब कुशल-मंगल तो है?’’ हमने खुद को आश्वस्त किया कि कौन जाने, जैसे कुछ पति पत्नी के मायके-गमन से आनंदित होते हैं, वैसे ही कुछ पत्नियाँ भी पति की गुमशुदगी से चिंतित न रहती हों? संसार का कारोबार ऐसी विविधता के बिना कैसे चले? हमने उनकी खैरियत दरयाफ्त की, ‘‘बहुत दिनों से वर्माजी नहीं दिखे तो हमें चिंता हो गई। मोहल्ले के भाईचारे के नाते हम खुद ही चले आए खैरियत जानने। फोन क्या करना, वह तो अकसर मृतप्राय ही रहते हैं, कभी-कभार चेते तो चेते।’’ श्रीमती वर्मा ने शराफत जताई। हमें ड्राइंगरूम में निमंत्रित कर चाय के साथ सूचित किया कि उनके पति आजकल अपने नए धंधे में व्यस्त हैं। ‘कौन सा धंधा’ जैसे सवालों पर उन्होंने अनभिज्ञता प्रगट की, ‘‘वह सुबह-सुबह सैर को जरूर जाते हैं। कल आप उनसे ही पता कर लेना।’’ कहते हुए उन्होंने हमें विदा किया। हमारे ऐसे कई दूसरों के लिए जीते हैं। वर्मा का नया धंधा जानने की उत्सुकता में हम रात भर करवटें बदलते रहे। यहाँ तक कि पत्नी को तबीयत का हाल पूछना पड़ा। ‘‘नींद नहीं आ रही है।’’ सुनकर उन्होंने सुझाव दिया, ‘‘दफ्तर के रिकॉर्ड रूम की फाइलें गिनने की कोशिश करो, खुद-ब-खुद अंटागफील होंगे।’’ जो काम जीवन भर कभी नहीं किया था, वह भी किया, याने सूरज को उगते देखा। मोहल्ले के पास एक ही पार्क है। हमने वर्मा को वहीं जा पकड़ा। वह धावक की पोशाक ही नहीं पहने थे, दौड़ने जैसी नामाकूल हरकत भी कर रहे थे। उन्होंने हमें भी निमंत्रित किया, अपनी इस बेहूदा कसरत में। हमें पास की बैंच पर बैठकर प्रतीक्षा करने का विकल्प अधिक रुचिकर लगा। दरअसल, हम एक बेहद अहिंसक किस्म के इनसान हैं। किसी भी हिंसक गतिविधि में भाग लेना हमें मंजूर नहीं है। क्या वर्मा को भोर की दौड़ में यह अंदाज भी है कि इससे सैकड़ों कीड़े-मकोड़ों की जान जाने की आशंका है? दूब की बस्ती-बस्ती त्राहि-त्राहि अलग करती होगी! इसीलिए जब साथी चमड़े का पहनते हैं, हम किरमिच के जूते से काम चलाते हैं। आज के अलावा हमने कम ही पैरों को कष्ट दिया है। हिंसक हरकतें अपने स्वभाव के प्रतिकूल हैं। आस-पास की दूरी के लिए स्कूटर है, दफ्तर के लिए नगर बस! संभव है कि सड़क में अदृश्य कीड़े-मकोड़ों की पूरी कॉलोनी हो। उसे नष्ट करने का पाप नगर-बस भोगे, हम इसके भागीदार क्यों बनें? हमारे इसी अहिंसक चिंतन के दौरान वर्मा दौड़ की हिंसा पूरी करके लौट आए। इतने दिनों से दर्शन न हो पाने की अपनी चिंता हमने उन्हें जताई। उन्होंने अपनी व्यस्तता का हवाला दिया। ‘‘क्या नया कर रहे हैं?’’ हमने जानना चाहा। ‘‘हमने मुखौटों का उद्योग लगाया है। एक शो रूम भी खोला है अपने उत्पाद का।’’ हम चौंके। माना कि इधर दुनिया में रोज कुछ-न-कुछ नया हो रहा है, फिर भी मुखौटों का ‘मास-प्रोडक्शन’ तो वाकई अजूबा है। हमने हिम्मत कर प्रश्न किया, ‘‘वर्माजी, यह क्या बला है?’’ उन्होंने हमारे अज्ञान और आश्चर्य को बिना भाव दिए बताया, ‘‘दक्षिण के कथककली नृत्य का तो आपने नाम सुना होगा। इसमें मुखौटों की ही माया है। आज पूरे देश में या तो मुखौटों की सांस्कृतिक एकता है या फिर करप्शन की। यदि हमें मुल्क को भ्रष्टाचार से बचाना है तो मुखौटों को बढ़ाना ही बढ़ाना है।’’ यह उलटबासी अपने पल्ले न पड़ी। हम जिद की हद तक अड़े रहे। ‘‘पर मुखौटों का उपयोग क्या है?’’ उन्होंने हमें ऐसे देखा जैसे आकाश का सतरंगी इंद्रधनुष धरती की रंग बदलती अदनी गिरगिट को देखे। फिर कृपा-भाव से उन्होंने हमें ज्ञान दिया, ‘‘आज समाज से लेकर सियासत तक, यदि किसी का सर्वाधिक प्रचलन है तो वह मुखौटों का है। हर इनसान कोई-न-कोई मुखौटा लगाए है। आप दूसरे का उदाहरण क्यों लें? अपने ही अंदर झाँकें। आप क्या अपनी पत्नी के बारे में उतने ही जिज्ञासु हैं, जितने मोहल्ले के बारे में? क्या आपने शादी के पूर्व या उसके बाद के उनके जीवन का उतनी ही बारीकी से अध्ययन किया है, जितना मोहल्ले के लोगों का? क्या उनके कार्यालय के मित्रों की आपको जानकारी है? इसका सीमित अर्थ है कि घर पर आपकी सहज पति की भूमिका है और मोहल्ले में जबरदस्त जिज्ञासा का मुखौटा! जो आप हैं नहीं, वह मुखौटे से दिखने का प्रयास करते हैं। आपके असली चेहरे पर जिज्ञासा का सिर्फ एक मुखौटा है। यह दीगर है कि आपको इसकी खबर नहीं है। हमारा ध्येय आप जैसों के इसी प्रयत्न को और विश्वसनीय बनाना है।’’ मियाँ की जूती से मियाँ के सिर को ही निशाना बनाकर उन्होंने हमें अपनी मुखौटा-महारत का परिचय दिया। हमारे मन में फिर भी प्रश्न कुलबुला रहे थे। क्या यह अदृश्य मुखौटे बनाते हैं? चेहरे पर कोई यह झिल्ली चढ़ा ले तो हत्यारा, क्या उससे वर्तमान का नैतिक बेचारा नजर आता है? उन्होंने हमें ज्ञान दिया कि इतना ही नहीं, वह अपने कस्टमर को उसके चहेते स्वाँग में पटुता का प्रशिक्षण भी देते हैं। उन्होंने एक ऐसा वैज्ञानिक मुखौटा बनाया है, जिससे कोई काला अक्षर भैंस बराबर, चतुर चालाक जब जी चाहे साहित्यकार बने, जब जी चाहे विद्वान् और जब मन करे, समाज सेवक। ‘‘यह हमारा बहु-उद्देशीय मुखौटा है। जो आजकल बाजार में बड़ा लोकप्रिय है। इसका रिमोट मुखौटा लगानेवाले की जेब में रहता है और वह समयानुसार बटन दबाकर मौके के अनुरूप बन जाता है।’’ उन्होंने हमें सूचना दी कि आजकल यह मुखौटा उनका सबसे पॉपुलर प्रॉडक्ट है। समाज से लेकर सियासत तक सब इसके तलबगार हैं। पार्क के पास ही चाय का एक ढाबा है। हमें शक हुआ कि वर्माजी ने हमें देखकर अपना मार्केटिंग का मुखौटा लगा लिया है। इससे जाहिर है कि हम उनसे कितना प्रभावित हुए हैं। उन्होंने ढाबे में चाय ही नहीं पिलाई, अपनी उपलब्धियाँ भी गिनाईं। ‘‘आप तो घर के हैं, आपसे क्या छिपाना!’’ से प्रारंभ कर उन्होंने बताया कि कैसे उनके शो-रूम में भीड़ उमड़ती है। शादी-शुदा महिलाएँ, जो पर-पुरुष के प्रेम में फँसी हैं, कैसे पति-प्रेम के मुखौटे की ओर आकृष्ट होती हैं। लड़के की शादी के समय तक दहेज के प्रबल पक्षधर कैसे लड़की के विवाह के वक्त दहेज के प्रखर विरोधी बनते हैं और उचित मुखौटे का मुँहमाँगा मूल्य चुकाने को प्रस्तुत हैं। हम ऐसों की काउंसलिंग भी करते हैं। हमारी पूरी कोशिश है कि कोई यदि उनके सैद्धांतिक विरोधाभास को पकड़ भी ले तो वह उसे औचित्यपूर्ण उत्तर देकर कैसे पछाड़े। हमने चाय का घूँट लेते जिज्ञासा प्रगट की, ‘‘वह कैसे?’’ उन्होंने हमारे मन के तम में तर्क के जुगनू चमकाए, ‘‘इसमें क्या मुश्किल है? बस इतना ही तो कहना है कि जो वक्त के साथ बदले नहीं, वह आदमी क्या! वह तो पशु के समान है। हर इनसान का चिंतन, विचार, नजरिया वक्त के साथ बदलता है। दहेज के दुर्गुणों और अन्याय का आभास उसे दहेज लेकर ही हुआ है।’’ उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बताया कि दल-बदल में भी यही तर्क काम आता है। कभी लोग चुनाव के समय उसूल के बहाने पार्टी बदलते हैं। अब वह यह कहने में असमर्थ है कि पार्टी में जो भी उपलब्ध था, खूब डकारा, अब वहाँ था ही नहीं कुछ खाने को, तो नए व्यंजनों से भरपूर दूसरी पार्टी में टहल लिये। उनके लिए हमारा दल-बदल मुखौटा उपयोगी है। सबसे पहले हमारी सलाह पर वह अपने नेता को सर्वथा नकारा और नालायक घोषित करते हैं। इसके कुछ निर्धारित और सर्वस्वीकृत मानक हैं। मसलन, नेता घनघोर रूप से हिटलर का अवतार है। ठकुरसुहाती के अलावा कुछ भी और कोई बोले तो वह बहरा है। एक और मुद्दा है, नेता की आलोचना के लिए। उसमें पैसे की ऐसी हवस है कि बिना करोड़ों लिये योग्य से योग्य प्रत्याशी को टिकट के नाम पर ठेंगा दिखाता है। आर्थिक भ्रष्टाचार का यह भयंकर रूप उनकी अंतरात्मा को भीतर तक क्षत-विक्षत कर गया। जब उनका दम घुटने लगा तो जनसेवा के लिए उन्हें कहीं अन्य ठिकाना खोजना ही पड़ा। आजकल वह इस्तीफा देकर समर्थकों से सलाह ले रहे हैं कि किस दल को कृतार्थ करें। एक अन्य अंतर सेक्युलर और कट्टर का भी है। समय के साथ जनता की ऐेसे फर्क में आस्था नहीं रही है। उसे बोध हो गया है कि ऐसे सारे ‘लेबल’ वोट की भेड़ों को मूँड़ने के दाँव हैं। कट्टर दल छोड़कर कोई आए तो ऐसे गंगा नहाए कि तत्काल सेक्यूलर बने! उसके पुराने पाप धुलें ही नहीं, आँखों से ओझल हों! अब उनकी याद पार्टी को तभी आए, जब वह फिर दल को त्यागने की कगार पर हों! चाय के प्लास्टिक प्याले या कुल्हड़ों में आजकल चुल्लू भर चाय होती है। वर्मा ने देखा कि हमारी चाय का चुल्लू समाप्त हो रहा है तो उन्होंने फौरन से पेश्तर दूसरे चुल्लू का ऑर्डर दे दिया। उनका दृढ निश्चय था कि मोहल्ले में मुखौटों का प्रचार हो। उन्हें यह भी विश्वास रहा होगा कि इसके लिए बिना पैसे का प्रचारक उनके सामने उपस्थित है। उन्होंने बात आगे बढ़ाई। सामान्य लोगों के लिए भी उनके पास हर अवसर के आधुनिक मुखौटे हैं। अमर युवा प्रेम के नाटक से लेकर कई-कई आशिकों को उल्लू बनाने तक। इनके सहारे बेटे, माँ-बाप, बहन-भाई को चूना लगाने में समर्थ है। माँ-बाप तो दौलत हथियाने के बाद केवल कूड़ेदान के सुपात्र हैं। यों दिखाने को वह घर में ही रहते हैं। पूरे मोहल्ले में पुत्र की छवि आज्ञाकारी व समर्पित बेटे की है। बस जब कोई घर आए तो अकसर पाया जाता है कि वह उनसे मिलने में अस्वस्थ होने के कारण असमर्थ है। स्वस्थ रहें भी तो कैसे? पूरी उम्र उन्होंने जेब काट-काटकर इच्छाओं का दमन किया है बेटे की उच्च शिक्षा के लिए। आज उस पर आश्रित होकर वह ‘आउट-हाउस’ का सुख भोग रहे हैं। वर्मा बताते हैं कि यह उनके मुखौटे का कमाल है कि कोई अन्वेषक भी असलियत ताड़ नहीं सकता है। वर्मा के पास मुखौटों की इतनी विविधता है कि देश में बोलियों की क्या होगी। इसे लगाकर ही पीढि़यों से ऐशो-आराम में रहने के आदी, गरीबों के मसीहा बनते हैं। इसे लगाया नहीं कि कुबेर से कंपटीशन करने वाले जनसेवक अभावग्रस्त व दलितों के तारनहार का चोला धरते हैं, वह भी इतना सटीक कि कोई सपने में भी शक तक न करे। उन्होंने अपना निष्कर्ष सुनाया कि सारी चोला-संस्कृति सिर्फ मुखौटों की देन है। उन्हें यकीन हो गया कि दो चुल्लू चाय पिलाकर उन्होंने हमें बिना भुगतान का निष्ठावान प्रचारक बनाने में सफलता पाई है। अचानक उन्होंने घड़ी देखी और अपना मुखौटा मॉल बनाने का संकल्प सुनाकर वह अपनी शोफर ड्रिवन गाड़ी में बैठकर कूच कर गए। उनके मुखौटा-वर्णन का हम पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि कोई जब आदर्श, उसूल, देशप्रेम या अपने गृहस्थी के लगाव वगैरह की बात करता है तो एकबारगी हमारा मन करता है कि इसके चेहरे को नोचकर परखें कि इसने मुखौटा लगा रखा है कि नहीं? जब बड़े नेता गरीबों, किसानों, वंचितों, दलितों आदि के हमदर्द बनते हैं, तब भी अपना मन इनके पास पहुँचकर इनकी असलियत भाँपने का होता है, पर इनकी सुरक्षा के किले से पार पाना कठिन है। कहीं सारी सुरक्षा मुखौटे के लिए तो नहीं है? वर्मा से बात कर अब हम लोगों के मुख के बारे में कम, मुखौटे के विषय में अधिक सजग हैं। हम तो यहाँ तक आशंकित हो गए हैं कि कितने पति या पत्नी अथवा प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे की वास्तविक शक्ल से वाकिफ हैं? जो वह निहारते हैं, वह मुखौटा ही तो है। बस, कभी-कभार, उन्माद के क्षण में कलई खुलती है और तब संबंध टूटने की नौबत भी आ जाती है। फिलहाल गनीमत है। वर्माजी का सिर्फ मुखौटों का शो-रूम है। हम सोच-सोचकर परेशान हैं कि जब मुखौटों का मॉल खुला तब रिश्तों का क्या होगा? कौन कहे तब धोखा, छल, फरेब, कपट, नाटक, झूठ, रटे-रटाए आदर्श वाक्य वगैरह-वगैरह और न पनपें? कहीं इक्कीसवीं सदी का दूसरा नाम मुखौटा सदी तो नहीं है? यदि नहीं है तो कहीं हो न जाए! ९/५, राणा प्रताप मार्ग लखनऊ-२२६००१
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अप्रैल 2024
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