सेलिब्रिटीज के शिक्षाप्रद कथन

सेलिब्रिटीज के शिक्षाप्रद कथन

हमारे यहाँ एक संस्था है विचार-मंच। यह संस्था हर महीने एक व्याख्यान आयोजित कराती है, जिसमें बडे़-बडे़ सेलिब्रिटीज आते हैं। सेलिब्रिटीज को बुलाने के बडे़ फायदे हैं। सबसे पहले तो संस्था के सदस्यों से उनकी जान-पहचान हो जाती है। यह जान-पहचान बहुत काम की चीज है, जाने कब जरूरत पड़ जाए। वक्त-बेवक्त कम-से-कम उनसे मिल तो सकते हैं। ‘हमारे शहर में उस कार्यक्रम में आए थे आप’, यहाँ से शुरू करके फिर अपने मतलब की बात आसानी से कही जा सकती है। कार्यक्रम की इस उपयोगिता और महत्ता को देखते व्याख्यानमाला के आयोजन की भूमिका बनी। लगे हाथ नई पीढ़ी को यह भी पता चल जाए कि वह सेलिब्रिटीज कैसे बना? नई पीढ़ी उससे आवश्यक प्रेरणा भी ग्रहण कर ले, इस सदुद्देश्य के साथ कार्यक्रमों का सिलसिला चल निकला। कई महीनों से मैं इनके कार्यक्रमों में जा रहा हूँ। वहाँ मुझे कई महारथियों के जीवन-दर्शन और उनके विचारों को निकट से सुनने-जानने का अवसर मिला। सबसे पहले मैं एक बडे़ नेता के वक्तव्य का सार आपको बताता हूँ। जैसा कि आजकल चलन है, हर सेलिब्रिटीज यह बताते नहीं अघाते कि उसका बचपन बहुत गरीबी और अभाव में बीता। अब यहाँ गरीबी के नए-नए इमोशनल दृश्य उपस्थित करना वह नहीं भूलता। उन दिनों घर में खाने को नहीं होता था। पिता कड़ी मेहनत करते थे। माँ किसी प्रकार थोडे़ में बड़ा परिवार पालती थी। इन बातों को ज्यादा आगे बताना ठीक नहीं होगा, वरना पाठक भी इमोशनल हो जाएँगे, जो उचित नहीं होगा। हालाँकि सेलिब्रिटीज इन बातों को उस हद तक खींचे चला जाता है, जहाँ तक आप रूमाल निकालकर आँसू नहीं पोंछने लगते और महिलाएँ भावुक होकर ‘हाय’ नहीं करने लगतीं। आपको बचपन के हृदय-विदारक दृष्टांत सुनाकर फिर वह सेलिब्रिटीज अपनी यौवन की दहलीज पर आता है। वह बडे़ गर्व से बताता है कि वह पढ़ने में बहुत तेज था। हर परीक्षा में वह अव्वल नंबरों से पास होता रहा। हालाँकि गरीबी और अभाव राहु व केतु की भाँति पीछे लगे हुए थे, परंतु उसने उनकी कोई परवाह नहीं की। अर्जुन की भाँति उसने चिडि़या की आँख (अपनी मंजिल) पर निशाना साधकर रखा और अंततः सफलता पाई। एक अदने कार्यकर्ता की तरह वह पार्टी में आया और अपनी मेहनत, लगन और ईमानदारी के बल पर आज इस मुकाम पर है। (तालियाँ) इस प्रकार उन महान् नेता का भाषण सुनकर मैं भी गद्गद हो गया। भाषण ही ऐसा था कि कोई भी गद्गद हुए बिना नहीं रह सकता। भाषण समाप्त होने के पश्चात् संस्था के सदस्य गण उनके स्वागत-सत्कार की दूसरी व्यवस्था में व्यस्त हो गए। इस बीच मेरी उनसे नमस्ते हुई। उन्होंने पहचान लिया, परंतु कोई बातचीत करने का औचित्य नहीं था। मैं उन्हें बचपन से जानता हूँ। बडे़ बाप के बिगडै़ल बेटे हैं। जीवन में पढ़-लिखकर कुछ नहीं बन पाए तो उनके पिता ने पार्टी फंड में मोटा अनुदान देकर चुनाव में उन्हें टिकट दिलवा दिया। तब से वे राजनीति में उत्तरोत्तर प्रगति कर रहे हैं; क्योंकि पार्टी हाईकमान के कृपापात्र बने रहने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। एक बार तो किसी कार्यक्रम के दौरान उन्होंने पार्टी हाईकमान की सरेआम चरण पादुकाएँ भी खाई थीं।

इस शहर में अपना उद्बोधन देकर गए उन्हें अभी महीना भर न हुआ था कि किसी होटल में उनकी पत्नी का मर्डर हो गया, इसके पीछे उनके अवैध संबंधों को प्रमुख कारण ठहराया जा रहा है। बहरहाल, पुलिस जाँच कर रही है। दूरसंचार विभाग के बडे़ घोटाले में भी उनका नाम प्रमुख रूप से उभरकर आया है। सच ही कहा था उन्होंने कि उनकी सफलता के पीछे उनकी कड़ी मेहनत, लगन और ईमानदारी का हाथ है। अगले महीने संस्था के कार्यक्रम में एक नामी फिल्म स्टार को आमंत्रित किया गया। अपने शहर में कोई फिल्म अभिनेता आ रहा है, इस बात से बहुत लोग उत्साहित हो जाते हैं। समाचार-पत्रों ने ज्यादा प्रमुखता के साथ इस खबर को छापा। इधर हमारे देश के मीडिया ने फिल्म एक्टरों को तो बिल्कुल महामानव बना दिया है। जैसे ये साक्षात् देवदूत हों, जो सीधे देवलोक से भारत नामक देश में टपके हैं। वे हमारी तरह साधारण इनसान हैं, ऐसा उनके विषय में लिखना-बोलना पाप समझा जाता है। युवा पीढ़ी का तो कहना ही क्या! वह तो इन्हें ऐसे सिर उठाए घूमती है, जैसे यह मनुष्येतर हैं। नियत तिथि में उन फिल्म स्टार महोदय का शहर में आगमन हुआ। सुबह से शाम तक संस्था के सदस्य, उनकी बीवियाँ और बच्चे फिल्म स्टार महोदय के साथ खिलखिलाते हुए फोटो खिंचवाते रहे। इसके लिए समिति सदस्य के परिवारवालों का ताँता लगा रहा। रात सात बजे से उनके भाषण का कार्यक्रम शुरू हुआ। देर तक चले इस स्वागत अभियान में काफी समय बरबाद हुआ, जो होना ही था। जो अभिनेता आज भाषण देने आए हैं, इनके पिता कभी एक बडे़ निर्माता-निर्देशक हुआ करते थे। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत संघर्ष और कड़ी मेहनत जैसे शब्दों से की, जबकि इन शब्दों से उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था। उन्होंने बताया कि उनके माता-पिता बहुत मितव्ययी स्वभाव वाले थे। फालतू एक पैसा खर्च न करते थे। इस कारण से बहुत दिनों तक उन्हें अपना जेबखर्च निकालने के लिए पार्टटाइम काम करना पड़ता था। पापा मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे, इसके लिए उन्होंने मुझे इंग्लैंड पढ़ने भेजा। वैसे यहाँ किसी बडे़ कॉलेज में मोटा डोनेशन देकर वे मुझे डॉक्टर की डिग्री दिला सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे चाहते थे, मैं अपने बल पर कुछ करूँ। डॉक्टरी की पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगा। मैं पढ़ाई छोड़कर अपने देश आ गया। (पढ़ने में डफर थे तो पढ़ाई में मन कहाँ से लगता) यहाँ आकर मेरा संघर्ष शुरू हुआ। मम्मी-पापा नाराज थे कि मैं डॉक्टर नहीं बन सका। मुझे एक्टर बनना है, यह बात मैं उनसे कह नहीं पाया। अब मैं निर्माताओं के दफ्तरों के चक्कर लगाने लगा। सब यही कहते, ‘तुम्हारे पिता इतने बडे़-निर्माता निर्देशक हैं। तुम्हें लेकर वह स्वयं कोई फिल्म क्यों नहीं बनाते?’ अब मैं उनसे क्या कहता! मुझे तो अपने दम पर कुछ करना था। पापा भी यही चाहते थे। चक्कर लगाते-लगाते एक दिन मेहनत रंग लाई। एक निर्माता मुझे लेकर फिल्म बनाने को तैयार हुए। वह पापा के परिचित थे। कभी पापा ने उनकी मदद की थी, इसलिए उनके एहसानमंद भी थे। पापा ने तो साफ कह दिया, ‘तुम्हें अपना पैसा डुबाना है तो उसे लेकर फिल्म बनाओ। बाद में मुझसे कुछ न कहना।’ उन्होंने पापा से कहा, ‘आपका बेटा तो हीरा है, हीरा। मैं इसे तराशूँगा।’ और सचमुच उन्होंने मुझे तराशा और मेरी पहली ही फिल्म सुपरहिट हुई। (तालियों की गड़गड़ाहट और कई कैमरों की एक साथ चमक।)

आगे उन्होंने अपनी कई फिल्मों के डायलॉग सुनाए, जो दूसरों ने लिखे थे। अपनी आगामी फिल्मों के विषय में विस्तार से बताया, जो सभी उनके होम प्रोडक्शन की हैं। अपनी सफलता के पीछे वही संघर्ष और कड़ी मेहनतवाली बात उन्होंने फिर दोहराई।

यों वह किसी काम के नहीं थे। पढ़-लिख नहीं पाए, इसलिए फिल्मों में आ गए। बाप का जमा-जमाया व्यवसाय और उनके नाम का सहारा लेकर वे आगे बढे़। इन दिनों सभी होम प्रोडक्शन की फिल्मों में काम कर रहे हैं। फिल्म कला के विषय में वह कुछ नहीं, फिल्म व्यवसाय के विषय में सबकुछ जानते हैं। उनके कारण कई प्रतिभाशाली लोग, जो यहाँ आ सकते थे, नहीं आ पाए। सबके पास बाप का नाम और पैसों का सहारा थोडे़ ही होता है। फिल्म जगत् में इनके कई स्कैंडल हैं और कर-चोरी का एक मामला कोर्ट में चल रहा है। अखबारों में छपता रहता है कि ड्रग्स माफिया वालों से उनके अच्छे संबंध हैं। फोन पर विदेशों में बसे ‘डॉन’ से इनकी बातचीत भी पिछले दिनों लीक हुई थी। हाँ, उनके अनुसार उनकी सफलता का राज है—संघर्ष और कड़ी मेहनत। तो भैया, संघर्ष कहाँ नहीं होता? और कड़ी मेहनत के बिना इतने संबंध-संपर्क भी तो नहीं बनते, जितने इनके हैं।

आगे विचार मंच के एक कार्यक्रम में किसी बडे़ क्रिकेट खिलाड़ी को बुलाया गया। इन्होंने भी अपने भाषण में सबसे पहले अपनी गरीबी का रोना रोया। आजकल गरीबी का रोना एक फैशन बन गया है। किसी का भी भाषण सुन लो, सब लोग यही कहते पाए जाते हैं कि मैंने बहुत गरीबी झेली है, जैसे गरीबी कोई बडे़ गौरव की बात है। भले ही वह संपन्न परिवार से रहे हों। सोने का चम्मच मुँह में लेकर पैदा हुए हों, परंतु जब अपने विषय में बोलेंगे तो शुरुआत यहीं से करेंगे, मैंने बहुत गरीबी भोगी है। बहुत अभाव झेला है। उन दिनों मैं पाई-पाई को तरस गया। लैंपपोस्ट के नीचे बैठकर मैंने पढ़ाई की। कई-कई मील दूर पैदल स्कूल जाना पड़ता था। किताबें न खरीद सकता था, दूसरों से किताबें माँगकर पढ़ाई की, फिर भी हर परीक्षा में अव्वल रहा। ये शब्दावलियाँ आप किसी के भाषण में आए दिन सुन लो। इनसे भाषण प्रभावशाली बनता है और लोग आपकी प्रतिभा का लोहा, जो बहुत पिलपिला है, मानने लगते हैं। तो हमारे मेहमान खिलाड़ी महोदय ने गरीबी का भीषण हवाला देते हुए अपनी बात प्रारंभ की। संघर्ष और कड़ी मेहनत की बात आनी ही थी, इसके बिना तो भाषण में मजा ही नहीं आता। इसका जिक्र किए बिना कोई भी भाषण प्रभावशाली नहीं बनता। इसलिए बात को महत्त्वपूर्ण बनाने के लिए संघर्ष और कड़ी मेहनतवाले मनगढ़ंत किस्से सुनाने पड़ते हैं, जबकि चाचाजी केंद्रीय मंत्री न होते तो नेशनल टीम में कभी उनका चयन न हो पाता। फिर क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में भी तो अपने ही रिश्तेदार थे। इस प्रकार गाड़ी चल निकली सो चल निकली। मैच फिक्सिंग के मामले में कई बार इनका नाम उछला। एक-दो मैचों में तो इन्हें टीम से बाहर रखा गया; परंतु प्रभाव भी कोई चीज होती है कि नहीं? बहुत बड़ी चीज होती है प्रभाव। इसके आगे तो प्रतिभा पानी भरती है। वह अत्यंत प्रभावशाली हैं, इसलिए फिर टीम में आए और मैच खेलने विदेशी दौरों पर अपनी गर्लफ्रेंड सहित गए। खेलों में अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा है, इसलिए खोटे सिक्के यहाँ ज्यादा नहीं टिकते। सिर्फ राष्ट्रीय मामला होता तो खेल के मैदान में यह पूरी उम्र खेलते। अब खेलों से किनारा लेकर सर्वत्र खेलों पर भाषण देते हुए पाए जाते हैं, लेकिन सेलिब्रिटीज हैं। चड्डी से लेकर शराब तक के विज्ञापनों में छाए रहते हैं।

इस बार एक पुरस्कृत लेखक को भी विचार मंचवालों ने अपने यहाँ भाषण के लिए बुलवा लिया। वह लेखक अभी-अभी पुरस्कृत हुए थे, इसलिए भाषण देने के लिए बुला लिये गए। पुरस्कृत न हुए होते तो सेलिब्रिटीज कैसे होते? हालाँकि आजकल साहित्य-जगत् में पुरस्कारों की बड़ी दुर्गति है। उत्कृष्ट साहित्य को छोड़कर शेष कई मापदंड हैं, यहाँ पुरस्कृत होने के लिए। अब तो पुरस्कृत लेखक सुनकर ही तरह-तरह के संदेह होने लगते हैं। बहरहाल, वे हमारे शहर में भाषण देने आए। कोई लेखक अपनी गरीबी और बदहाली का जिक्र न करे तो वह लेखक काहे का? कोई उसे लेखक मानने को तैयार न हो। यदि उसके जीवन में गरीबी के मजेदार किस्से न हों। जिसके पास जितना जानलेवा, हृदय-विदारक, गरीबी से भरा हुआ दृष्टांत हो, वह उतना ही बड़ा लेखक। इस प्रकार हमारे इन लेखक महोदय ने भी अपने बचपन की भीषण गरीबी का जिक्र करते हुए अपना भाषण प्रारंभ किया। अब लेखक का बचपन से ही प्रतिभाशाली होना जरूरी है, भले ही वह हर परीक्षा में थर्ड डिवीजन में पास होता रहा हो। अतः वह भी बचपन से ही अत्यंत मेधावी थे अर्थात् तुकबदियाँ कर लेते थे। लेखक होने के लिए यह माना जाता है कि जीवन में कोई अफसल प्रेम-प्रसंग अवश्य होना चाहिए। वरना वियोग भाव कैसे उत्पन्न होगा? और वियोग के बिना कविता नहीं फूटती। कहा भी गया है, ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।’ वियोग की यहाँ कोई कमी नहीं है, क्योंकि उनके जीवन में अनगिनत प्रेम-प्रसंग हैं। हर शहर में एक प्रेमिका है। किसी शहर में एक से अधिक भी, क्योंकि जिस शहर में भी वे काव्य पाठ करने गए, वहाँ की नई पीढ़ी, विशेषकर कन्याओं को इन्होंने कविता के गुर जरूर सिखाए। बदले में वह उनकी प्रेमिका हुई। उनके शहर छोड़ते ही दोनों तरफ वियोग भाव उत्पन्न हो गया और कविताएँ जो हैं, सो परवान चढ़ने लगीं। इस प्रकार वे साहत्यिक जगत् में लोकप्रिय कवि के रूप में पहचाने जाने लगे। लगभग सभी पुरस्कार समितियों में जो विद्वान् साहित्यिक लोग हैं, वे गैर-साहित्यिक कारणों से ही अपनी समिति का पुरस्कार घोषित करते हैं। कहीं तो आधी पुरस्कार राशि समिति को वापस (अनुदान में) करने की भी प्रथा है।

यह प्रथा अब लोकप्रिय हो रही है। बड़ा लेखक कहने के लिए एक बात बहुत जरूरी है, वह यह कि आपका लेखन कार्य भले ही बड़ा न हो, परंतु आपका गुट बड़ा होना चाहिए। गुट में आपकी पैठ होते ही खुद आपको पता नहीं चलता कि कैसे आप रातोरात बडे़ लेखक हो गए? यदि आप किसी सत्ता पक्ष के मंत्री के कृपापात्र हैं तो कहना ही क्या! फिर तो बड़ा लेखक होने से आपको कोई माई का लाल नहीं रोक सकता। फेलोशिप, विदेश यात्राएँ, पुरस्कार, अलंकरण आदि सब आपकी झोली में। इस प्रकार आप सेलिब्रिटीज बन गए। अब पधारिए हमारे यहाँ और भाषण दीजिए। आप आए। आपने कृपा की और अपना महत्त्वपूर्ण भाषण दिया। आजकल यह भी फैशन है कि कोई भी लेखक अपने भाषण में विदेशी लेखकों और उनके कालजयी लेखन का जिक्र जरूर करता है। उसके बिना तो वह भाषण दो कौड़ी का। हमारे मेहमान लेखक ने भी ऐसा ही किया। भारतीय साहित्य का कोई भी जिक्र किए बना उन्होंने अपने भाषण में दुनिया भर के लेखकों और उनके साहित्य की विस्तारपूर्वक चर्चा की। अंत में अपने महत्त्वपूर्ण लेखन के विषय में बताना उन्हें जरूरी लगा, बस यही कुछ था, जो भारतीय साहित्य पर उनके द्वारा कहा गया।

सुबह होटल वाले ने बताया कि विचार मंच वाले जो मेहमान आते थे, उन्होंने इतनी ज्यादा पी ली थी कि रातभर उल्टियाँ करते रहे। होटल का कीमती कालीन खराब कर गए।

तरह-तरह के सेलिब्रिटीज को देखते-सुनते हुए मुझे वह मजबूर लोग याद हो आते हैं, जो प्रतिभाशाली होते हुए भी शिखर पर नहीं पहुँच पाए, जिन्हें रौंदकर ये लोग आगे बढ़ गए। उनके प्रयासों को प्रणाम करते हुए बाबा ‘नागार्जुन’ लिखते हैं, ‘जो नहीं हो सके पूर्ण काम, मैं उनको करता हूँ प्रणाम, जिनकी सेवाएँ अतुलनीय, पर विज्ञापन से रहे दूर, प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके, कर दिए मनोरथ चूर-चूर, मैं उनको करता हूँ प्रणाम।’

५२५-आर, महालक्ष्मी नगर

इंदौर-४५२०१०

दूरभाष : ९४२५१६७००३

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