धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र

धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र

बादल बरसता है, हवा बहती है, अग्नि प्रकट होती है। धरती अपनी प्रकृति में रसवंती होती है। आकाश अनंत हो जाता है। कोयल गाती है। नदी बहती है। पर्वत अपनी सुषमा में गर्व से भर उठता है। मेघा का पानी बरसता है, कृषक निहाल हो उठता है। फसलें अन्न के दाने भर-भरकर दानी की मुद्रा में विनत हो उठती हैं। तपस्वी तप में लीन होता है। बीज धरती की कोख से जन्म लेता है। एक बालिका मनोयोग से अपना पाठ याद कर रही है। माँ अपनी गोद को हरी होते अनुभव करती है और धरती हो जाती है। मालिन झबरी भर पान-फूल लेकर बाग से घर लौटती है। आरती की परात में दीप जाग उठता है। तुलसी की पत्तियों का हरापन पूरे आँगन में पसरकर तुलसी-गंध भर देता है। स्वाति बूँद गिरती है और सीप में मोती जन्म लेता है। सूर्य उदित होता है, धरती का कण-कण आलोक-पर्व में स्नान करने को तत्पर हो जाता है। समूची सृष्टि-क्रियाएँ उत्सव मनाने लगती हैं। यह एक बात हुई।

बूँद-बूँद को जीवन तरसता है। रीते बादल आते हैं, चले जाते हैं। गरजनेवाले बादल भी नहीं बरसते हैं। हवा आँधी बन जाती है। अंधड़ में वृक्ष उखड़ जाते हैं। पहाड़ धसकते हैं और उनकी छाया में बसे गाँव जमीन में समा जाते हैं। आग ज्वाला बन जाती है। गाँव-घर, वन-पर्वत, खेत-खलिहान, तन-मन जलकर राख हो जाते हैं। मुट्ठी भर राख उड़ती है, गिरती है और पथ पर बिछ जाती है। पृथ्वी में दरारें पड़ जाती हैं। सबकुछ सूख जाता है। पंछी कण को तरस जाते हैं। होंठ प्यास को पुकार-पुकारकर प्यास बन जाते हैं। धरती निरवंशी होने लगती है। आकाश तमस की चादर ओढ़कर भूतनाथ बन जाता है। कभी तप-तपकर महाधूम से विभूतिमय हो जाता है। कोयल नहीं गाती है। कई दिनों-महीनों बाद भी नहीं लौटती दूर देश से। नदी सूख जाती है। दग्गड़-पत्थर, रेत-शैवाल हाड़-मांस सरीखे उभरते हैं और श्रीहीन हो जाते हैं। पर्वत ज्वालामुखी से फटते हैं। उनके अग्नि-मुख में सबकुछ लावा बन जाता है। कभी-कभी न मृगशिरा, न आर्द्रा, न पुनर्वसु और न ही मेघा बरसती है। पंख-कटे पंछी की तरह जीवन फड़फड़ाता रहता है। मेनका तपी का तप भंग करती है। दुष्यंत शकुंतला को पहचानने से मना कर देते हैं। भाई-भाई में बैर स्थायी भाव बनकर उभरता है। ईर्ष्या प्रसन्न होकर नाचती है। यह दूसरी बात हुई।

ऊपर-ऊपर देखने-जाँचने से लगता है कि एक धर्मक्षेत्र की बात है और दूसरी कुरुक्षेत्र की। एक श्रीमद्भागवत की धर्म-क्रिया का सृष्टि-प्रसार है, दूसरी महाभारत की वृत्ति-छाया का लंब-प्रसार है। एक सोम है। दूसरी रुद्र है। एक सत् है। दूसरी तम है। एक जल है। दूसरी अग्नि है। क्या दोनों स्थितियाँ एक-दूसरे की विरोधी हैं या इनमें परस्पर कोई संबंध-सामंजस्य है? अग्नि भोजन पकाकर क्षुधा-तृप्त करती है। वही अग्नि घर, मकान, दुकान, बाजार फूँक डालती है। जल की एक बूँद जीभ पर गिरती है तो प्यास बुझती है। सहस्र बूँदें मिलकर उत्पात मचाती हैं तो वृक्ष, गाँव, नगर, तीर्थ, खेत सबकुछ जलमग्न हो जाते हैं। एक समय वही व्यक्ति त्याग की प्रतिमूर्ति बनकर जगत् का पथप्रदर्शक बन जाता है और वही इंच-इंच भूमि और पैसे-पैसे के लिए लड़-मरता है। व्यक्ति वही, जीवन वही, आचरण भेद, कर्म-भेद एक ही जीवन में द्वैत खड़ा कर देता है। मेरा नगर गुरु पूर्णिमा पर दाता बनकर खड़ा रहता है और सेवक बनकर भक्तों के पथ में बिछ जाता है। वही नगर फेसबुक पर चित्र देखकर विचलित होकर आपा खो बैठता है और पूरा जन-जीवन कर्फ्यू के ताप में कैद हो जाता है। वस्तु एक, जीवन एक, नगर एक, कभी धर्मक्षेत्र में अवस्थित होता है, कभी कुरुक्षेत्र में खड़ा अपने आयुध-संधान की तैयारी करता है। निर्दोष जिंदगी की पीठ में छुरा भोंक दिया जाता है। सौहार्द-सद्भाव दो-दो आँसू रोते हैं।

नीतिज्ञ चाणक्य कहते हैं, ‘‘बुद्धि ईश्वर का वरदान है, उसका उपयोग पूरे विवेक के साथ होना चाहिए।’’ आज यह नहीं हो रहा है। बुद्धि, प्रज्ञा, मेघा और ऋतंभरा, ये चारों प्रतिभा की पुत्रियाँ हैं। इनकी आराधना व्यक्ति-जीवन, समाज-जीवन और सृष्टि-जीवन को उदात्त रूप प्रदान करने के लिए की जाती है। प्रतिभा, मौलिक प्रतिभा ‘विरजं विशुद्धं’ का ही अंश है। प्रतिभा ‘विरजं विषुद्धं’ की रचनात्मक शक्ति है। यह क्रियात्मक शक्ति अपराजगत् या सगुण सृष्टि की रचना करती है। पंच महाभूत परस्पर सामंजस्य से इस सृष्टि में आकार या द्वैत को रचते हैं। यह सामंजस्य ही सृष्टि के मूल में है। परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों वाले तत्त्वों के बीच ‘सर्जनात्मक गुणवत्ता’ स्थापित करना ही इसका धर्म है। ‘तम’ प्रवृत्ति पर ‘सत्’ का आच्छादन या समाहार ऋतंभरा शक्ति करती चलती है। दोनों को जोड़ने में ‘रज’ शक्ति भी क्रियाशील रहती है। इन तीनों की उत्पत्ति एक ही शक्तिकेंद्र से हुई है। यह केंद्र वही है, जिसे आर्ष चिंतन में ‘विरजं विशुद्धं’ कहा है। दो विपरीत गुण मिलकर ही नए सर्जन-आकार को जन्म देते हैं। सर्जन प्रक्रिया के समय जिस तत्त्व की प्रधानता होती है, उसकी वृत्ति, स्वभाव और प्रकृति वैसी बन जाती है। उसके परिणाम शुभ-अशुभ रूप में सृष्टि-जीवन में फलित होते हैं।

भारतीय चिंतन में यह बात बहुत पहले स्पष्ट हो गई थी कि अक्षरब्रह्म का ही प्रसवित रूप यह जगत् है। यह द्वैत रूप में है। साकार रूप है। परस्पर विरोधी तत्त्वों के विमिश्र से इसकी रचना हुई है। उस रचना की सर्वोत्तम कृति मनुष्य है। मनुष्य में भी उस परमाप्रकृति की दोनों तरह की कलाएँ प्रकृतिदत्त होती हैं। गुणात्मक संघनन की मात्रा व्यक्ति-व्यक्ति में कम-ज्यादा हो सकती है। उसमें बल, पौरुष, ओज, तप, त्याग, ज्ञान, पराक्रम है। उसमें कोमलता, सरसता, दया, करुणा, सौंदर्यबोध, शांति, सौंदर्य, शील, सौम्य, उदारता भी है। भारतीय संस्कृति सूर्योपासक है। सूर्य की किरणों के सात रंगों के प्रतीकार्थों का गहराई से विश्लेषण करें तो उपर्युक्त सभी गुणों का समाहार भली-भाँति हो जाता है। साहित्य और संस्कृति इन्हीं गुणों का चरित्रांकन कर वैपरीत्य में सामंजस्य स्थापित करने का शब्द-यज्ञ और कर्म-यज्ञ संपन्न करती है। मैथ्यू आर्नाल्ड ने साहित्य में जिन दो तत्त्वों प्रकाश (स्पहीज) और माधुर्य (मजदमे) की चर्चा की है, उनका संबंध भी सूर्य और सूर्य-कलाओं से ही है। ये सारी कलाएँ जब सृष्टि-धर्म का निर्वाह करती हुई ‘सृर्जनात्मक गुणवत्ता’ प्राप्त करती हैं, तब ही सृष्टि में श्रेय और प्रेय जन्म लेता है। नोबल पुरस्कार प्राप्त अमेरिकन कवि रॉबर्ट फास्ट की एक ‘आईस एंड फायर’ नामक कविता है—

कुछ लोग कहते हैं कि

विश्व का नाश हिम-प्रपात से होगा,

कुछ लोग बताते हैं कि

विश्व का नाश अग्नि-प्रपात से होगा;

लेकिन मुझे लगता है कि

विश्व का नाश हिम से भी शीतल

और अग्नि से भी अधिक दाहक

ईर्ष्या से होगा।

मूल भारतीय समाज ने ईर्ष्या के इस दाहक गुण को बहुत पहले समझ लिया है। तब उसने एक ऐसी सभ्यता और संस्कृति की रचना की, जिसमें सबकी परस्पर सहभागिता हो और सबका कल्याण हो। किसी एक गुण का अतिरेक विनाश की ओर उन्मुख करता है। इसलिए भारतीय व्यक्ति और समाज की मूल एवं मौलिक संरचना में किसी विरोधी तत्त्व का विनाश नहीं, उसकी प्रचंडता को कम कर, दबाकर सद्वृत्ति या सद्गुण के साथ उसका समाहार किया जाता है। शकों, हूणों, कुषाणों की विधर्मी प्रवृत्ति के साथ ऐसा ही किया गया और उन्हें भारतीय जीवन पद्धति में अनुरंजित और समाहित कर लिया गया। बैर, ईर्ष्या, झगड़ा और युद्ध के सद् पक्ष भी हैं। उसमें समूह बुद्धि के विवेक की निर्णायक भूमिका होती है। भीष्म पितामह और कर्ण की मूल प्रकृति धर्मक्षेत्र की है, लेकिन उनकी राजनिष्ठा ने उन्हें कुरुक्षेत्र में युद्ध हेतु विवश किया। उन्होंने अपनी मूल धर्म प्रकृति के विरुद्ध कर्म का संपादन किया। अतः हार का सामना करते हुए जीवन से हाथ धोना पड़ा। तब भी पांडवों-कौरवों के युद्ध में क्या सब कौरव या कौरवों के पक्ष सब समाप्त हो पाए? अश्वत्थामा, गांधारी, धृतराष्ट्र ईर्ष्या की दाहक अग्नि में मरण का वरण करने तक जलते रहे। कोई भी जाति युद्ध या ईर्ष्या या लड़ाई द्वारा समूल नष्ट नहीं की जा सकती। इतिहास साक्षी है। तब फिर जीवन के धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बना देने का पागलपन और नासमझी क्यों? युग प्रवर्तक अज्ञेय लिखते हैं—

ऋषियों की अस्थियों से भी

सुरगण केवल अस्त्र बना पाए,

क्यों नहीं उनसे खाद बनी

जो अकाल-अनावृष्टि में

रसा वसुंधरा को फलवती बनाए;

जो लोक-जीवन के काम आए।

भारतीय ऋषियों और समाज व्यवस्थापकों ने संपूर्ण मानव समूह को मन, चित्त, गुण, स्वभाव और कर्म के आधार पर सामाजिक दायित्व सौंपने की अवधारणा विकसित की थी। परस्पर विरोधी तत्त्वों को विकास की प्रक्रिया में ‘सकारात्मक सहभाग’ के रूप में स्वीकृत किया था। प्रत्येक में अंतर्ग्रंथन और समन्वय था। सबका साथ, सबका विकास और सबका मंगल लक्ष्य था।

जातियों के बीच वैमनस्य भारतीयता के लिए भयावह है। भारतीय जन मूलतः शांतिप्रिय होता है, क्योंकि उसके पास सृष्टि-धर्म की समझ है। उसने अपनी सभ्यता के आरंभिक काल में ही यह समझ लिया था कि यह संसार विरोधी गुणों का समुच्चय है। इसमें परस्पर संघर्ष होगा तो विनाश होगा। सामंजस्य और समाहार होगा तो नव सर्जन होगा। अतीत से चलकर वर्तमान के मुहाने तक आते-आते भारतीय समाज भाषा, क्षेत्र, मत, पंथ, अल्पसंख्या, बहुसंख्या और सांप्रदाकिता की अनेक धाराओं में बँट गया है। यह राष्ट्रीय एकता और संस्कृति के लिए शुभ नहीं है। आधुनिक शिक्षा और अधकचरी विदेशी संस्कृति की समझ के धर्म-धुरीणों ने इसे हवा देने का कार्य किया और ऐसा वह अभी भी कर रहे हैं। ऐसे ज्ञानकुप्पों ने कविता में तो छंद को तोड़ा ही, वह भारतीय जन और भारतीय समाज के छंद को भी तोड़ने की कोशिश में लगे हैं। (यह ध्यान रहे कि महाकवि निराला ने छंद को नहीं तोड़ा था।) छंद के टूटने से जैसे कविता बिखर गई है। वह जन की अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों से दूर हो गई है। वैसे ही भारत के समाज के छंद को नष्ट करके भी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय बिखराव को एक तरह से अनजाने ही सही, आमंत्रित करना है। इसलिए जातियों, उपजातियों और संप्रदायों में जीवित समाज को एक भारतीय छंद में संगुंफित करके रखना और आंतरिक रूप से अपने-अपने विश्वासों-मान्यताओं को संपन्न करने की स्वतंत्रता देना अनिवार्य है। यह विरुद्धों के सामंजस्य और अशुभों के विलोपीकरण से संभव है।

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहम्।

धीः विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥

संतों और फकीरों ने अपनी वाणियों में सत्संग का बहुत महत्त्व बताया है। यहाँ तक कहा, ‘सठ सुधरहिं सत संगति पाई, पारस परस कुधातु सुहाई।’ और दूसरी ओर यदि ऐसा हो कि ‘विधिबस सुजन कुसंगति परहीं, फणिबिनु मणि जिमि गुण अनुसरहीं।’ सर्प का साथ पाकर भी मणि अपना गुण-धर्म नहीं छोड़ती। चंदन के वृक्षों पर साँप लिपटे रहते हैं, परंतु चंदन में विष नहीं व्यापता है। वे अप्रभावित रहते हैं। सीपी का साथ पाकर जल-बूँद मोती में बदल जाती है। काठ का साथ कर, नाव में लगकर लोहा जल में डूबता नहीं, जल पर तैरता है। हवा के संग पतंग निराधार नभ में उड़ती है। शिव के गले में भुजंग भूषण बन जाता है। रसखान भुवन मोहिनी वंशी की धुन में सुध-बुध खो बैठते हैं। फटाक् से कातर-आकांक्षा लरजती है, ‘मानुष हो तो वही रसखान बसौ बृज गोकुल गाँव के ग्वारन।’ अकबर की सेना के सेनापति थे अब्दुल रहीम खानखाना। अंतरात्मा की आवाज सुनी और बात प्रकट कर दी—‘चित्रकूट में बसी रहै, रहिमन अवध नरेस, जेहि पर विपदा परत है, सो आवत एहि देस।’ सेना का कोलाहल छोड़कर मंदाकिनी के शांत-सुरम्य तट पर आ जाते हैं। जीवन कुरुक्षेत्र से धर्मक्षेत्र बन जाता है।

संत साहित्य में निर्दिष्ट है कि कैसे हमारा जीवन कुरुक्षेत्र से धर्मक्षेत्र में बदल जाता है। संत रवि साहब कबीरदास की परंपरा में हुए थे। वे गुजराती भाषा के संत थे। गुजरात में उनके नाम से रवि भांड परंपरा प्रचलित है। भांड रवि साहब के गुरु थे। परंतु प्रसिद्धि मिली रवि साहब को। जैसे निमाड़ी भाषा साहित्य के संत सिंगाजी के गुरु मनरंगगीर स्वामी थे। मनरंगगीर से संत सिंगाजी ने ब्रह्मगीर का भजन सुना, ‘समुझि लेओ रे मना भाई, अंत न होय कोई आपणा।’ भजन सुनकर सिंगाजी को आत्मज्ञान हुआ। उन्हें अपने गुरु से अधिक प्रसिद्धि मिली। संत सिंगाजी हो गए। ऐसे ही रवि साहब ने निर्णुण-सगुण का समायोजन कर अपनी बात कही। एक समय की बात है, रवि साहब गुजरात से द्वारका जा रहे थे। मार्ग में लिमड़ी गाँव में उन्होंने रात्रि विश्राम किया। उनका आगमन सुनकर गाँव के लोग जुटे। रात्रि में सत्संग हुआ। संत मंडली जुटी। संतों में एक संत मीठा ढाँढी भी आए थे। मीठा ढाँढी ने तन्मय होकर गाया—‘बँसरी बज रही इस वन में,’ भजन सुनकर रवि साहब की विचलन समाप्त हो गई। द्वंद्व के बादल छँट गए। मन का आकाश निर्मल हो गया। ज्ञान का प्राकट्य हुआ। वह योग साधना में लग गए। द्वारका जाने का विचार छोड़ दिया। द्वारका नहीं गए, जामनगर के पास खंभालीड़ा गाँव में रहने लगे। वहीं योग साधना की। मन वृंदावन-द्वारका बन गया। उनके भजन पूरे गुजरात में गाए जाते हैं। उनका कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र बन जाता है।

हमारे पंचतत्त्वी गुणीभूत भव में नभ, भूमि, जल, अनल, अनिल है। यह निश्चित है कि आग जलाती है। हवा उसे और-और प्रज्वलित करती है। जल उसे बुझा देता है। लेकिन सृष्टि-धर्म  की सर्जनात्मक गुणवत्ता से ‘सोई जल अनल अनिल संघाता, होई जलद जग जीवनदाता।’ जलते हुए अग्नि पिंड या अंगारे को हवा देंगे तो जल जाएगा। उसी अंगारे पर राख डाल दी जाए तो चिनगारियाँ नहीं फूटेंगी। वह राख बहुत देर और बहुत दिनों तक धधकते हुए अंगारे पर पड़ी रही तो वह अंगारा राख में बदलकर मिट्टी हो जाएगा। आकाश वह सब क्रियाएँ मौन देखता रहेगा। एक दिन आकाश में बादल घिरेंगे, पानी बरसेगा। उसी अंगारे की मिट्टी हुई राख से कोई अंकुर फूटेगा। सृष्टि का सौंदर्य और सुषमा उस पर न्योछावर हो जाएँगे। कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र बन जाएगा।

आजाद नगर

खंडवा-४५०००१ (म.प्र.)

दूरभाष : ७३३२२४६६५५

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