आदिवासी विद्रोह एवं मानगढ़ की शहादत की गौरव-गाथा

आदिवासी विद्रोह एवं मानगढ़ की शहादत की गौरव-गाथा

भारत में आदिवासियों के दमन, शोषण और उनके द्वारा किए जाते रहे प्रतिरोध एवं संघर्ष की लंबी परंपरा रही है। आजादी के लिए भारतीय जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो लड़ाई लड़ी, उसमें आदिवासी संघर्ष अहम स्थान रखता है। प्रतिरोध की अपनी परंपरा में आदिवासियों ने अपने सभी अंचलों में अंग्रेजी सत्ता (चाहे वह ईस्ट इंडिया कंपनी थी या ब्रिटिश राज) के द्वारा अपने ऊपर हो रहे शोषण और अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष किया, जो १७७०-७१ के पलामू विद्रोह से नागारानी गाईदिल्यू (१९३२-४७) तक जारी रहा। राजपूताने में, ब्रिटिश काल में, अंग्रेजों और रियासती सत्ता ने मिल-जुलकर आदिवासी क्षेत्रों में जो अत्याचार किए, वह इतिहास का एक त्रासद काल-खंड है। इस दौर में आदिवासियों के पुश्तैनी वन-संपदा और जल-जमीन-जंगल के अधिकार से छेड़छाड़ की गई। बेगार की प्रथा का बोझ पहले से चला ही आ रहा था। ऊपर से कृषि-करों में भी भारी वृद्धि कर दी गई। राजे-रजवाड़ों और उनके अधीनस्थ जागीरदारों-हाकिमों व छुटभैया सहायकों के खर्चों का भार काफी सीमा तक आदिवासियों पर पड़ा। इसके विरुद्ध आदिवासियों द्वारा जगह-जगह बगावतें की गईं।

राजस्थान (अतीत का नाम राजपूताना) उन्नीस रियासतों का प्रदेश था, जहाँ तिहरी गुलामी स्थापित थी। फिर भी यह भारत के उन कतिपय राज्यों में से था, जहाँ १८५७ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के साथ ही क्रांति की ज्वाला भड़क चुकी थी। राजस्थान में क्रांति की जोत तात्या टोपे के माध्यम से जली। सन् १८५८ में क्रांतिवीर तात्या टोपे ने मध्य प्रदेश की सीमा पार कर बाँसवाड़ा में प्रवेश किया तो भील-आदिवासियों ने उनका साथ दिया; क्योंकि वनवासी वन-संपदा को अपनी संपत्ति मानते थे, जो अंग्रेजी सत्ता (ईस्ट इंडिया कंपनी) से १८१८ की संधि के बाद उनसे छीन ली गई थी। बाँसवाड़ा तात्या टोपे के अधिकार में आ गया। प्रारंभ में ही राजस्थान के लगभग चार हजार आदिवासी उनके साथ हो गए। कई वीर राजपूत जागीरदारों ने भी जगह-जगह उनका खुलकर साथ दिया। किंतु किसी ने उन्हें धोखे से पकड़वा दिया। अंत में अंग्रेजों ने उन्हें फाँसी पर लटका दिया। लेकिन वह खून रंग लाया और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह भड़कते ही गए। इसी क्रम में वर्तमान राजस्थान के दक्षिणांचल के बाँसवाड़ा में स्थित मानगढ़ पर्वत पर शहादत की अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना १७ नवंबर, १९१३ (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को घटित हुई थी। इस संदर्भ में राजस्थान के बागड़ प्रदेश के भीलों के प्रथम उद्धारक के रूप में लोकप्रिय संन्यासी गोविंद गिरी का नाम इतिहास के स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना अपेक्षित है।

वर्ष १८५८ में डूँगरपुर जिले में बेड़सा गाँव में बंजारा परिवार में गोविंद गिरी का जन्म हुआ, जिन्होंने भीलों में जनजागरण तथा समाज-सुधार के लिए आंदोलन प्रारंभ किया। पत्नी एवं बच्चों के असामयिक निधन ने उन्हें अध्यात्म की ओर आकर्षित किया। वे संन्यासी बन गए। बूँदी-कोटा अखाड़े के साधू राजगिरी से दीक्षा लेकर अपने गाँव में ‘धूनी’ स्थापित की तथा निशान (ध्वज) आरोपित कर आसपास के भीलों को अध्यात्म की शिक्षा देने लगे। शीघ्र ही इनका आध्यात्मिक पंथ बागड़ के भीलों में लोकप्रिय हो गया। भील सदियों पुराने सामाजिक-धार्मिक बंधन व रूढि़यों से स्वतंत्र होकर हीन भावना से मुक्त होने लगे। उनके विचारों ने भीलों में सामाजिक जागरूकता का प्रसार किया। भील सोचने लगे कि उनको वर्तमान राजा व ठाकुरों ने दलित बनाया है, जबकि वे (भील) भूमि के स्वामी थे एवं उन्हें पुनः इस पर (भूमि) राज करना चाहिए। कालांतर में गोविंद गिरी आदिवासी चेतना के पुरोधा बन गए।

उल्लेखनीय है कि गोविंद गिरी के धर्म व समाज-सुधार आंदोलन का प्रभाव मुख्यतः डूँगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़, कुशालगढ़ (राजस्थान), ईडर, पोल, सूंथ (गुजरात) के भीलों में सर्वाधिक था, जहाँ भीलों की संख्या अत्यधिक थी। वे गुजरात के पड़ोसी राज्यों में भी अपने पंथ को फैलाने में सफल रहा। १९११ में उन्होंने अपने पंथ को नए रूप में संगठित किया तथा धार्मिक शिक्षाओं के साथ-साथ भीलों की सामंती व औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति की युक्ति भी समझाने लगा। उसने प्रत्येक भील गाँव में अपनी ‘धूनियाँ’ स्थापित कीं तथा इनकी रक्षा हेतु कोतवाल नियुक्त किए गए थे। गोविंद गिरी के द्वारा नियुक्त कोतवाल केवल धार्मिक मुखिया ही नहीं थे, बल्कि अपने क्षेत्र के मामलों के प्रभारी भी थे। वे भीलों के मध्य विवादों का निपटारा भी करते थे। इस प्रकार अन्य अर्थों में गोविंद गिरी की समानांतर सरकार चलने लगी थी। किंतु दूसरी ओर राजा व जागीरदारों द्वारा गोविंद गिरी व उनके शिष्यों का उत्पीड़न भी जारी था। गोविंद गिरी के सुधार आंदोलन के प्रभाव में भील आदिवासी शराब पीना छोड़ने लगे थे। बाँसवाड़ा, डूँगरपुर, कुशालगढ़, सूंथ, ईडर राज्यों के राजस्व का एक-तिहाई से षष्ठांश भाग शराब से प्राप्त होता था। अतः अधिसंख्य आदिवासियों द्वारा शराब छोड़ने से राज्य एवं शराब के ठेकेदार चिंतित होने लगे थे।

गोविंद गिरी के शिष्यों की संख्या तथा सामाजिक-धार्मिक गतिविधियाँ दिन-ब-दिन बढ़ रही थीं। इससे राजाओं, जागीरदारों तथा अधिकारियों में बेचैनी बढ़ने लगी थी। वे गोविंद गिरी के बढ़ते हुए प्रभाव से भयभीत थे कि कहीं उनकी सत्ता पलट न जाए अथवा दुर्बल न हो जाए। अतः वे इन उपदेशकों अथवा प्रचारकों को अपने राज्य अथवा जागीर की सीमाओं से बाहर निकल जाने पर मजबूर करने लगे थे, जिससे वर्गीय कटुता बढ़ने लगी थी, इससे यह समाज एवं धर्म सुधार आंदोलन राजनीतिक स्वरूप प्राप्त करने लगा था। गोविंद गिरी के नेतृत्व में १९०५ में आरंभ आदिवासी भीलों का समाज एवं धर्म-सुधार आंदोलन १९१३ में राजनीतिक व आर्थिक विद्रोह में परिवर्तित हो गया।

आदिवासी प्रतिरोध के नायक गोविंद गिरी ने लोगों में जागृति लाने के लिए विलायती शासन की मुखालफत अपने एक गीत से की थी, जिसकी मुख्य पंक्ति थी, ‘नी मानु रे भूरेटिया’, यानी ‘रे भूरेटिया (अंग्रेज), मैं माननेवाला नहीं हूँ। अपनी लड़ाई लड़ता रहूँगा, जो आदिवासियों के अधिकारों और राष्ट्र की आजादी की लड़ाई है और मेरा लक्ष्य है, अंत में दिल्ली की गद्दी पर कब्जा करना। यह देश तुम्हारे चंगुल से आजाद होकर रहेगा। हम इसे आजाद कराएँगे।’ गोविंद गिरी की अगुवाई में गठित ‘संप सभा’ ने तत्कालीन डूँगरपुर, बाँसवाड़ा, मेवाड़, कुशलगढ़, प्रतापगढ़ और गुजरात की ईडर और संतरामपुर रियासतों के भील आदिवासियों को ब्रिटिशराज और देशी रियासतों के शोषण और अत्याचारों के विरुद्ध लामबंद होकर आजादी के लिए अपनी लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया। आदिवासियों की एकजुटता और प्रतिरोध को ब्रिटिश और रजवाड़ी सत्ताओं ने विद्रोह की संज्ञा दी और उसे कुचलने का षड्यंत्र रचा। डूँगरपुर के महारावल ने अंग्रेज अधिकारी (पॉलिटिकल एजेंट, राजपूताना) को स्थिति की गंभीरता के बारे में लिखा था कि ‘भीलों को शांत करने में हो रहे विलंब का बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है।’

गोविंद गिरी अक्तूबर १९१३ में अपने शिष्यों के साथ गुजरात व राजस्थान की सीमा पर स्थित मानगढ़ की पहाड़ी पर पहुँचे तथा दशहरा व दीपावली के अवसर पर डेढ़ माह के मेले का आयोजन आरंभ किया। पहाड़ी पर अपनी ‘धूनी’ स्थापित कर तथा ‘ध्वज’ लगाकर धार्मिक कार्यों में संलग्न हो गया। हजारों की संख्या में भील इस पहाड़ी पर एकत्र होने लगे थे तथा झुंड-के-झुंड आदिवासी पहँुच रहे थे। अंग्रेजों के दस्तावेजों अनुसार लगभग ४००० भील एक साथ इस पहाड़ी पर एकत्र थे। बाँसवाड़ा, डूँगरपुर, सूंथ व ईडर के राजाओं व सामंतों में भारी बेचैनी बढ़ने लगी थी। अतः इन्होंने भीलों को कुचलने के लिए अपने अंग्रेज हुक्मरानों से विनती की। ६ से १० नवंबर, १९१३ के मध्य मानगढ़ की पहाड़ी के समीप हजारों सैनिक (अंग्रेजी सेना) पहुँचे, जिनमें मेवाड़ भील कोर, १०४ वेलेजली राइफल व ८वीं राजपूत रेजीमेंट के सैनिक सम्मिलित थे। सैनिक अभियान का नेतृत्व बंबई सरकार के उत्तरी संभाग के अंग्रेज आयुक्त के हाथ में था। उसके प्रयासों से भीलों से १० नवंबर, १९१३ को संवाद आरंभ हुआ था एवं गोविंद गिरी ने समझौते के लिए अपनी ओर से ३३ सूत्री माँगपत्र प्रस्तुत किया। इस माँगपत्र में गोविंद गिरी ने भीलों के राजनीति, आर्थिक, सामाजिक व धार्मिक अधिकारों का उल्लेख किया था। गोविंद गिरी को कहा गया कि पहले वह पहाड़ से आदिवासियों के जमावड़े को तितर-बितर करे, तदुपरांत ही माँगपत्र पर विचार किया जा सकता है। जबकि गोविंद गिरी का कहना था कि पहले उनकी माँगें मानी जाएँ और उसके बाद ही समझौता संभव है।

अंततः १७ नवंबर, १९१३ को अंगे्रजी फौजों ने मानगढ़ की पहाड़ी पर आक्रमण कर दिया। मानगढ़ की पहाड़ी के सामने दूसरी पहाड़ी पर अंग्रेजी फौजों ने तोपें व मशीनगनें तैनात कर रखी थीं एवं वहीं से गोला-बारूद दागे जाने लगे थे। लगभग एक घंटे तक मानगढ़ पर भीलों ने सेना का सफल मुकाबला किया, किंतु आधुनिक युद्ध-सामग्री के समक्ष अधिक समय तक नहीं टिक सके। मानगढ़ की पहाड़ी के नीचे तैनात अंग्रेजी फौज ने पहाड़ी को घेरते हुए ऊपर पहुँचकर भीलों को अंधाधुंध गोलियों से भूनना आरंभ किया। कुछ ही समय में भीलों ने आत्मसमर्पण कर दिया। उसके बाद भी भीलों का ‘कत्लेआम’ जारी रहा। अंग्रेजों के दस्तावेजों के अनुसार कुल १०० भील मारे गए थे तथा ९०० भीलों को बंदी बना लिया गया, जबकि अन्य स्रोतों का कहना है कि लगभग १००० भील शहीद हुए थे। बाबा गोविंद गिरी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था तथा उन्हें ११ फरवरी, १९१४ को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई, किंतु इनकी लोकप्रियता के कारण इस सजा को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया गया, जिसे बाद में दस वर्ष सजा में बदल लिया गया। डूँगरपुर रियासत से देश-निकाला दे दिया गया।

आश्चर्य की बात तो यह है कि इतना बड़ा हत्याकांड (जो कि जालियाँवाला बाग जैसा ही वीभत्स था) की उपेक्षा राष्ट्रीय स्तर पर हुई। परंतु बागड़ के भील आदिवासियों की यह शहादत बेकार नहीं गई। इस घटना के बाद बाबा गोविंद गिरी द्वारा रखी अधिकांश माँगों को संपूर्ण आदिवासी क्षेत्रों (मेवाड़ सहित) में आंशिक तौर पर मानकर लागू कर दिया गया। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि सदियों पुराने अंधकार से निकलकर भील आदिवासियों ने नए सवेरे की रोशनी में आँखें खोली। इस भूले-बिसरे शहादत के स्वर्णिम अध्याय को सेवा-निवृत्त पुलिस महानिरीक्षक हरिराम मीणा ने उजागर कर शहीदों का स्तुत्य श्राद्धकर्म किया है। आज मानगढ़ एक तीर्थ-स्थान है, जहाँ १७ नवंबर को ‘शहीदी मेला’ आयोजित होने लगा है और शहीदों को आंचलिक स्तर पर पर श्रद्धांजलि दी जाने लगी है।

डी-१४८ ए/२ दुर्गा मार्ग

बनी पार्क, जयपुर-३०२०६१

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