एक लंबा अंतराल और 'स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी'

एक लंबा अंतराल और 'स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी'

सर जे.जे. कॉलेज ऑफ आर्किटेक्चर, मुंबई से १९६६ में स्नातक होने के बाद सब सहपाठी बिखर गए थे। आजीविका हेतु अलग रास्तों पर निकल गए थे। अविनाश से फिर मुलाकात नहीं हुई। फोन पर भी कभी बात नहीं हुई। आरंभिक दिनों में एक-दो पत्र मैंने लिखे होंगे, एक-दो उसने। उसके विषय में जानकारी इतनी ही थी कि वह स्नातकोत्तर अभ्यास हेतु अमेरिका चला गया था। सन् १९६६ और २०१०...लंबा अंतराल। इतने लंबे समय में बहुत कुछ बदल जाता है। अविनाश सहपाठी ही नहीं, बहुत अच्छा मित्र था, बहुत सरल व्यक्ति। जब अमेरिका जाने का अवसर आया, अविनाश का खयाल आना स्वाभाविक था। उसके संबंध में कोई जानकारी मेरे पास नहीं थी कि किस राज्य में होगा, किस नगर में होगा, क्या कर रहा होगा आदि?

मैं और पत्नी कड़ाके की ठंड में अमेरिका आ गए हैं बेटी-दामाद के साथ कुछ समय बिताने। हम ओहायो राज्य के कोलंबस शहर से लगे उपनगर जैसे हिस्से डबलिन में हैं। यहाँ पहुँचते ही अपने कॉलेज साथी को ढूँढ़ने की इच्छा और प्रबल हो गई। इंटरनेट पर उसका नाम डाला और खोज आरंभ की। मैंने उसे ढूँढ़ लिया। साथ ही उसका फोन नंबर भी पता चल गया। वह फिलाडेल्फिया राज्य में उत्तर भारतीयों की संस्था में काम कर रहा है। एक मराठी भाषी व्यक्ति के बारे में यह जानकर प्रसन्नता हुई, क्योंकि उन दिनों मुंबई में शिवसेना के कारण हिंदी भाषियों का प्रबल विरोध चल रहा था। एक शंका मन में आई कि पता नहीं यह नंबर कितना पुराना होगा, फोन लगेगा भी या नहीं। मैंने फोन लगाया तो दूसरे छोर पर अविनाश ही था। मुझे प्रतीत हुआ जैसे मैंने कोई बड़ा पुरातात्त्विक शोध कर लिया हो। अपनी सामान्य सोच के अनुसार लगा कि जो व्यक्ति पैंतालीस वर्षों से अमेरिका में है, वह अंग्रेजी में ही बात करेगा। मैंने उसी भाषा में अपना परिचय दिया। उसने पहचान लिया। उसकी आवाज सुनाई दे रही थी, पत्नी को कह रहा था, ‘मालिनी, सुनो मेरा क्लासमेट अमेरिका आया है, पैंतालीस साल बाद मुझसे बात कर रहा है।’ मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। जब उसने कहा, ‘यार! अपन हिंदी में बात कर सकते हैं न। मैं साहित्यिक हिंदी नहीं जानता, पर सामान्य हिंदी बोल सकता हूँ।’ हमारा वार्त्तालाप फिर हिंदी में चला। आरंभ हुआ तो पैंतालीस मिनट चलता रहा। मन-ही-मन फोन का बिल बढ़ने की चिंता हो रही थी। हमने कॉलेज के अपने सोए हुए दिनों को जाग्रत् किया। उसने हमारे उन साथियों के बारे में बताया, जो अमेरिका के अन्य नगरों में हैं। इसके बाद हमने कई बार बातचीत की। उसने बताया कि वह फिलाडेल्फिया के नगर निगम में नगर-नियोजक के पद से सेवामुक्त होने के बाद अब समाज सेवा के कार्यों में समय बिता रहा है।

वह पेंसिल्वेनिया प्रांत के फिलाडेल्फिया शहर से लगभग तीस मील दूर एक छोटे से कस्बे में रहता है। यह स्थान कोलंबस से बहुत दूर है।

भारत वापस जाने में ४-५ दिन शेष हैं। एक दिन संध्या चार बजे अविनाश का फोन आया। उसका आग्रह था, मैं और पत्नी भारत वापसी से पहले उसके घर आएँ। दो-तीन दिन रुकें, फिर वहीं से न्यूयॉर्क चले जाएँ। हमें वापसी उड़ान भारत के लिए लेनी है। वह स्वयं हवाईअड्डे पर हमें छोड़ देगा। मैंने आनाकानी की तो उसने बेटी-दामाद से बात की। वे तुरंत हमारा कार्यक्रम बनाने में जुट गए। हम यदि रेलमार्ग से जाते तो सत्रह घंटों की यात्रा होती। इतनी लंबी यात्रा के लिए हम तैयार नहीं थे। रेल के लिए भी पहले किसी अन्य शहर जाना पड़ता। अंततः हवाईयात्रा की ऐसी टिकट मिली कि पहले फिलाडेल्फिया से विपरीत दिशा में अटलांटा जाना था। वहाँ से दूसरे विमान द्वारा फिर उलटी दिशा में फिलाडेल्फिया। हवाईयात्रा का हमें ज्यादा अनुभव नहीं है। बहुत पहले केवल एक बार इंग्लैंड की यात्रा की थी। मन में आशंका थी कि कोई समस्या न पैदा हो जाए। खासकर अटलांटा में, जहाँ विमान बदलना था। डबलिन या कोलंबस से उड़ान नहीं थी। उसके लिए हमें दूसरे शहर एटन जाना था। कार द्वारा दो घंटे की यात्रा कर एटन हवाईअड्डे पहुँचना था। उड़ान अगले दिन शाम की थी। रात में अंतिम रूप से सामान समेटा, क्योंकि अब वापस कोलंबस नहीं आना था। एटन के लिए दोपहर को रवाना हो गए। मैं, पत्नी, अमित, मीनू और साथ में मात्र सवा माह की नातिन आरोही।

हम एटन हवाईअड्डे के रास्ते पर हैं। मौसम एकदम साफ। सूरज चमक रहा है। पूरे रास्ते जेट विमानों के धुएँ से निर्मित लंबी आड़ी-तिरछी रेखाएँ एक-दूसरे को काटती हुई और धीरे-धीरे धुँधली होती हुईं। लगता है, सफेद अधबुना कपड़ा कोई आकाश में फैला गया है। कई दिनों तक निरंतर हिमपात के बाद मौसम साफ है तो मन में स्फूर्ति है।

एटन विमानतल बहुत बड़ा नहीं है। उड़ान संबंधी औपचारिकताएँ पूरी करने लगते हैं। हमें अटलांटा में विमान बदलना है। अटलांटा विमानतल बहुत विशाल है। अगली उड़ान के बीच मात्र आधा घंटा ही मिलेगा। जरूरी है कि विमान वहाँ नियत समय पर पहुँचे। सारी औपचारिकताएँ  पूर्ण करने के बाद मैं और पत्नी बोर्डिंग पास लेने हेतु प्रतीक्षालय में बैठते हैं। विमान कहीं पीछे से आनेवाला है। अभी तक पहुँचा नहीं है, हम अनिश्चितता की स्थिति में हैं। मन में आशंका है कि अटलांटा से ली जानेवाली उड़ान छूट गई तो! हम जैसे लोगों को जिन्हें विदेश यात्राओं का पर्याप्त अनुभव नहीं होता, ऐसी स्थितियाँ बहुत विचलित कर देती हैं। कुछ देर में देखते हैं कि अमित हमारी ओर आ रहा है। ‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा। बताया कि हवाईअड्डे से बाहर निकलते समय उन्होंने सहज मुड़कर सूचनापट्ट देखा, पता चला कि अटलांटा से हम आगे की उड़ान नहीं पकड़ सकेंगे, क्योंकि यह उड़ान वहाँ देरी से पहुँचेगी। तय किया कि टिकट निरस्त करवाकर कल सुबह किसी अन्य विमान से जाया जाए। यह आसान कार्य नहीं था। देर तक प्रयत्न करने पर टिकट निरस्त हुई तो दूसरी समस्या आ गई। सामान विमान में लदने हेतु जा चुका था। उसे वापस लेने के लिए एक घंटा प्रतीक्षा करनी पड़ी। ये बातें बाद में याद आती हैं तो अच्छा लगता है कि चलो ऐसा एक अनुभव भी हमारे खाते चढ़ा, पर उस समय का तनाव वही जानता है, जिसने वह स्थिति झेली हो।

विकल्पहीन हम डबलिन की अनावश्यक वापसी पर निकलते हैं। वहाँ पहुँचते-पहुँचते रात के साढ़े ग्यारह बज जाते हैं। भोजन कर सोने चले जाते हैं। नींद तो क्या आती, सुबह फिर साढ़े तीन बजे जागना था। सुबह की उड़ान थी तो कोलंबस से ही, मगर हवाईअड्डे तक जाने में एक घंटा लग जाता है। आधी-अधूरी, लगभग नहीं के बराबर पारदर्शी नींद के बाद साढ़े तीन बजे जाग गए। घरेलू उड़ान होने के कारण विमानतल पर कोई विशेष जाँच आदि तो नहीं हुई, फिर भी कुछ समय लग ही गया। सामान खोलकर वहाँ के कर्मचारी ने क्रीम की एक ट्यूब निकाल ली। कहा कि छह इंच से अधिक लंबी ट्यूब नहीं ले सकते। मैंने कूड़ेदान में फेंक देने को कहा तो वह थोड़ा झिझका। उसने अपने ही एक कर्मचारी को भेजकर वह ट्यूब बाहर अमित के पास भिजवा दी। उसका यह नम्र व्यवहार अच्छा लगा। अमित बाहर से लगातार हमें संकेत कर रहा है कि हमें देरी हो रही है। हमारे साथ यह समस्या हो गई थी कि जाँच के दौरान हमारे एक बैग की जिप टूट गई थी। हम बैग को बंद करने की कोशिश कर रहे थे। अंततः बैग उसी स्थिति में किसी तरह विमान तक ले जाना पड़ा।

अटलांटा हवाईअड्डे के बारे में हमें जानकारी थी कि वह बहुत विशाल है। एक से दूसरे टर्मिनल तक पहुँचने में बहुत देर लग सकती है, जबकि समय हमारे पास आधा घंटा ही है। यह भी मालूम था कि अंदर-ही-अंदर वहाँ छोटी रेल चलती है। किंतु कहाँ से, कैसे चलती है, कल्पना नहीं थी। विमान में उपलब्ध पुस्तिका में विमानतल का नक्शा मिल गया, जिससे इस संबंध में जानकारी मिल गई। विमान से उतरते ही भागदौड़ करनी पड़ी। रेल सामने ही खड़ी है—चार डिब्बोंवाली बिना ड्राइवर की, स्वचालित। रेल से हम अपने टर्मिनल वाले स्टॉप पर उतरते हैं। यहाँ से भी टर्मिनल काफी दूर है। अनगिनत टर्मिनल हैं, जैसे कोई मुख्य टर्मिनल ‘ई’ है तो उसके उप टर्मिनल ई१, ई२ आदि। इनकी संख्या सौ से भी अधिक हो सकती है। हमारे पास कुछ ही मिनट हैं। यद्यपि स्पष्ट संकेतक जगह-जगह लगे हैं, फिर भी सामान के साथ बहुत भागना पड़ा। हाँफते हुए अपने टर्मिनल तक पहुँचते हैं। हम विमान के अंदर हैं। फिलाडेल्फिया हमारी अपेक्षा से कम समय में ही आ गया। विमान नियत समय से आधा घंटा पहले पहुँच गया। जब तक हम सामान लेनेवाले स्थान पर पहुँचते, विमान कंपनी की महिला कर्मचारी हमारा सामान उतार चुकी थी। बिना कोई पूछताछ किए उसने सामान हमारे सुपुर्द कर दिया। हम प्रतीक्षालय में बेंच पर बैठे हैं। ‘क्याँ जाव छो?’ एक अत्यंत वृद्ध भारतीय महिला पत्नी से पूछती है।

पत्नी प्रश्नवाचक दृष्टि से देखती है। मैं कहता हूँ कि पूछ रही हैं, ‘कहाँ जा रहे हो?’ वह महिला अकेली ही हमारीवाली उड़ान से आई थी। बेटे के आने की राह देख रही थी। विदेश में इस तरह अपने किसी देशवासी से बात कर सुखद अनुभूति होती है। धीरे-धीरे यात्रियों को लेने उनके मित्र-परिजन आते रहे। प्रतीक्षालय खाली होता रहा। अंत में वहाँ वह वृद्धा, हम दोनों और तीन वर्ष की बच्ची के साथ एक भारतीय युवती तथा दो-चार अन्य यात्री ही रह गए। युवती ने मुझसे फोन करने हेतु सिक्के माँगे। मुझे स्वयं भी अविनाश को फोन करना था। उसे कुछ सिक्के दिए और उससे फोन करने का तरीका मालूम किया। दो बार प्रयत्न करके असफल हो चुका था। हमें बैठे-बैठे बहुत देर हो चुकी है। अविनाश का कहीं अता-पता नहीं है। ऊब और अनिश्चितता को खत्म करना जरूरी था। अविनाश के घर फोन लग गया। उसकी बेटी ने अमेरिकी उच्चारण वाली अंग्रेजी में बताया कि पापा अपने किसी मित्र को लेने हवाईअड्डे गए हैं। मैंने बताया मैं ही वह मित्र हूँ। मैंने हिंदी में बात की तो उसने माँ को बुला लिया। अविनाश की पत्नी ने बताया कि वह आधे घंटे पहले घर से निकला है।

एक-एक कर सब यात्री जा रहे हैं। कुछ के रिश्तेदार आ गए थे। कुछ बाहर रास्ते से बस पकड़कर जा रहे हैं। हम ऊबने लगे हैं। अविनाश को वहाँ पहुँचने में और आधा घंटा लग गया। पत्नी पूछती है कि ४५ वर्ष बाद अपने दोस्त को पहचान लोगे? मैंने कहा कि वह देखो, जो नाटा-सा साँवला व्यक्ति आ रहा है, वही होना चाहिए। मैं सही था। इतने वर्ष बाद मिलने का अनुभव वह भी विदेशी धरती पर, अद्भुत था। प्रतीक्षालय खाली हो चुका है। केवल भारतीय वृद्धा ही पुत्र की प्रतीक्षा में बैठी है। अविनाश ने उससे बात की, इस आशय से कि क्या उसे किसी मदद की आवश्यकता तो नहीं। अविनाश ने यहाँ के नगरनिगम के अपने सेवाकाल में इस हवाईअड्डे पर काम किया था। इस कारण वह इस स्थान से अच्छी तरह परिचित है। हमने सामान उठाया और पार्किंग की ओर चल पड़े। यहाँ से हमें तीस मील दूर जाना है। गाड़ी में बैठते ही हम अपने जे.जे. कॉलेजवाले पुराने दिनों में पहुँच गए। कॉलेज परिसर...विख्यात कलाकेंद्र सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ अप्लाइड आर्ट के भवन...सामने दादाभाई नौरोजी मार्ग...वी.टी. स्टेशन, नौरोजी मार्ग के उस पार ‘शांति भोजनालय’; वहाँ हम लंच के समय केवल साठ पैसों में ‘राइसप्लेट’ लिया करते थे, जिसमे नाम के विपरीत पूरियाँ, सब्जियाँ, पापड़-अचार सबकुछ हुआ करता था। सब मेरी आँखों के सामने तैर गया। अद्भुत अनुभव होता है एक समय से निकलकर दूसरे में चले जाना। वहाँ से वापसी, कुछ कठिन ही होती है। शीला ऊब रही होगी। बात-बात में अविनाश को बताया कि पत्नी मराठी बोल सकती है। उसे इतनी खुशी हुई कि उसने कार चलाते हुए ही पत्नी को फोन करके कहा, ‘अरे सुनो, मिसेज नागदेव मराठी बोल सकती हैं। मजा आ जाएगा।’ अपने देश, अपनी मिट्टी, अपनी भाषा से जुदा होने की पीड़ा क्या होती है, उस दिन महसूस हुआ।

तीस मील की दूरी तय करके अविनाश के कस्बे में प्रवेश करते हैं। छोटा सा, साफ-सुथरा कस्बा। चारों ओर खुलापन और हरियाली। हरियाली के मध्य सलीके स्थापित ढलवाँ छतों वाले दुमंजिले मकान। हर मकान में तलघर। यहाँ तलघर एक तरह से अनिवार्यता है। फालतू सामान रखने के अलावा टॉरनेडो-भयानक चक्रवात के समय शरण लेने हेतु इसका उपयोग किया जाता है। अविनाश ने पहले ही बता दिया था कि तीन दिन पहले आए भारी आँधी-तूफान के कारण तलघर में पानी भर गया था। पत्नी को कार्य से अवकाश लेकर एक दिन घर रहना पड़ा पानी निकालने के लिए। तब से दोनों तलघर की सफाई करने में लगे हुए हैं। हमने अगले दिन तलघर देखा तो उनकी परेशानी की कल्पना हुई। अमेरिका में श्रमिक आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। मजदूरी इतनी अधिक देनी होती है कि सामान्यतः लोग स्वयं ही वे सारे काम कर लेते हैं, जिन्हें करना हम भारत में बेइज्जती समझते हैं। अच्छी बात यह है कि ऐसे कामों हेतु यहाँ सब आवश्यक साधन उपलब्ध हैं।

हम जब घर के रास्ते पर ही थे, फोन पर अविनाश की पत्नी ने बता दिया था कि सब लोग भोजन एक भारतीय भोजनालय में करेंगे। हवाईअड्डे से हम सीधे वहीं पहुँच जाएँ। वह अपनी एक बेटी के साथ पहुँच जाएगी। मैं थक गया था। मैंने पहले घर पहुँचकर हाथ-मुँह धोकर, फिर होटल जाने की बात की। घर पर अविनाश, उसकी पत्नी और सबसे छोटी बेटी की मदद से सामान घर में रखा।

यहाँ सब लोग कुत्ते और बिल्लियाँ पालते हैं। मैं उन घरों में जाने से घबराता हूँ, जहाँ कुत्ते होते हैं। एक बुरे अनुभव से गुजर चुका हूँ। अविनाश ने अपनी कुतिया के बारे में बताया कि जब तक उसे स्पर्श नहीं किया जाए, कुछ नहीं करती। स्पर्श करने पर स्थिति बिगड़ सकती है। हर समय वहाँ इस बात का ध्यान रखना पड़ा। उन्होंने एक सुनहरी बिल्ली भी पाली है। दोनों पशुओं को ‘मुडे’ सरनेम के साथ नाम दिए हैं, जैसे वे भी परिवार के ही सदस्य हों।

हम सब कुछ देर में भोजनालय के लिए प्रस्थान करते हैं। उसे एक पंजाबी सज्जन चलाते हैं। सप्ताह में एक दिन वहाँ स्वरुचि भोज होता है। आज वही है। एक लंबी मेज पर सामिष-निरामिष व्यंजन सुसज्जित थे। हमारे भोजनालय में प्रवेश करते ही व्यवस्थापकों में से एक सिख युवक हमारे पास आया और पत्नी व श्रीमती मुडे से शुद्ध मराठी में धाराप्रवाह वार्त्तालाप करने लगा। इतनी अच्छी मराठी बोलते सुना तो आश्चर्यचकित रह गए। पता चला कि वह मुंबई में ही पला-बढ़ा, वहीं उच्च शिक्षा प्राप्त की। वह मराठी के अलावा विश्व की पंद्रह भाषाएँ धाराप्रवाह बोल सकता है। उसने बताया, उसकी आकांक्षा विश्व के विभिन्न देशों में होटल व्यवसाय में ही कार्य करने की है। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ बाधक न बनें, इसलिए उसने तय किया है कि वह अविवाहित रहेगा। उसकी उत्कट इच्छा और आत्मविश्वास से लगा कि वह अपने ध्येय में अवश्य सफल होगा। इस मनोरंजक व्यक्तित्व से मुलाकात के बाद भोजन किया। जिस तरह वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति अविनाश से आत्मीयता और आदर के साथ मिल रहा था, लगा कि वह बहुत लोकप्रिय है। भोजन के बाद वापस घर लौटते हैं।

मौसम इन दिनों बहुत अच्छा है। बर्फ गिरनी बंद हो गई है। ठंड कम है। अविनाश की पत्नी कन्नड़ मूल की है, लेकिन मराठी ही बोलती है। वह स्थानीय अस्पताल में मनोरोग चिकित्सक है। पूरे घर में अविनाश की पूर्व अमेरिकन और वर्तमान भारतीय पत्नी और तीनों पुत्रियों के छायाचित्र लगे हुए हैं।

आज हमने कहीं और जाने का कार्यक्रम नहीं बनाया। मूल कार्यक्रम के अनुसार यहाँ न पहुँच पाने के कारण आज का दिन व्यर्थ गया। कल रविवार है। अविनाश की पत्नी के अवकाश का दिन। कल हमारा कार्यक्रम विश्व प्रसिद्ध प्रतिमा ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ देखने का है। आज दिनभर अविनाश की बेटी साथ थी। उसे हिंदी नहीं आती। घर में मराठी अच्छी बोल लेती है। वहाँ बसे हुए लोगों के सामने यह एक सांस्कृतिक प्रश्न मानसिक तनाव का कारण है कि भारत से नितांत भिन्न परिवेश में बच्चों को कैसे संस्कार दिए जाएँ कि वे अपनी जड़ों से भी जुड़े रहें और जिस देश के अब नागरिक हैं, वहाँ की संस्कृति, नियम-कानून आदि के अनुसार आचरण करने में भी असहजता का अनुभव न करें। यह सचमुच बहुत ही कठिन होता होगा।

कल संध्या और आज सुबह भोजन की मेज पर हम फिर कॉलेज के दिनों में चले गए। शीला और मालिनी क्या सोच रही होंगी, पता नहीं। भोजन में अधिकतर व्यंजन भारतीय हैं, जो लगभग हर शहर में ‘पटेल ब्रदर्स’ या कुछ अन्य दुकानों पर आसानी से उपलब्ध हैं। सामान्यतः सभी भारतीय इन दुकानों में सप्ताहांत में जाकर आवश्यक सब्जियाँ, फल आदि लाकर फ्रिज में रख लेते हैं। यहाँ न तो रेहड़ी-ठेलेवाले सब्जियाँ लेकर घर-घर बेचने आते हैं, न मोहल्ले में सब्जियों अथवा परचून की छोटी-मोटी दुकानें होती हैं। फ्रिज में से खाद्य सामग्री निकाली, गरम की और मेज पर सजा दी। घरों में बहुत ही कम व्यंजन बनाए जाते हैं। सामान्यतः पति-पत्नी दोनों ही नौकरी करते हैं। अतः इतना समय भी किसी के पास नहीं होता। दुकानों में भारत के सब प्रदेशों के भोज्य पदार्थ उपलब्ध हैं, जो शायद भारत में भी हर प्रदेश में न मिलें। अचार, चटनी, पापड़, कचौरी, समोसे, ढोकला, इडली, दोसा, वड़ा-साँभर सबकुछ मिलता है। नाश्ता करते और छोटे-मोटे काम निबटाते हुए बहुत समय निकल गया। आज न्यूयॉर्क की तरफ जाना है ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ देखने। कार्यक्रम ऐसा था कि सुबह जल्दी निकलकर न्यूयॉर्क शहर में गाड़ी कहीं पार्किंग में खड़ी कर स्थानीय टूरिस्ट बस द्वारा शहर का भ्रमण करते, फिर यह विश्वप्रसिद्ध स्मारक देखते। घर से निकलने में ही विलंब हो जाने के कारण न्यूयॉर्क देखने का कार्यक्रम छोड़ देना पड़ा। हम सीधे स्मारक जाएँगे।

वे दोनों पति-पत्नी और हम, कुल चार लोग निकलते हैं। घर से कुछ ही दूर एक दुमंजिली इमारत दिखी, जिसे नींव सहित वैसा का वैसा हटाकर मूल स्थान से लगभग सौ गज दूर स्थापित किया गया है। मकान का ऐतिहासिक महत्त्व होने के कारण उसे ढहाया नहीं जा सकता था। हम उस बहुत छोटे से कस्बे की खुली-खुली, साफ-सुथरी सड़कों से गुजर रहे हैं। गंतव्य तक पहुँचने में ढाई घंटे लग सकते हैं। रास्ते में एक छोटे-से रेस्तराँ पर रुककर कॉफी पीकर पुनः यात्रा पर निकल पड़ते हैं।

न्यूयॉर्क शहर अभी दूर है। रास्ते में बाईं ओर एक हवाईअड्डा दिखाई दे रहा है। यह नेवर्क हवाईअड्डा है। इस क्षेत्र में भारतीय बहुत बड़ी संख्या में हैं, विशेषकर गुजराती। इस कारण यहाँ से भारत के लिए अनेक उड़ानें हैं, जो भारतीयों से ही भरी होती हैं। अहमदाबाद के लिए यहाँ से सीधी उड़ान है।

हम न्यूजर्सी राज्य के ‘लिबर्टी स्टेट पार्क’ पहुँच गए हैं। पार्किंग में गाड़ी खड़ी करते हैं। दूर समुद्र में एक द्वीप के कोने पर ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ दिखाई दे रही है। वहाँ जाने के लिए हमें टिकटें खरीदनी होंगी। पता चलता है कि टिकटें साढ़े तीन बजे तक ही मिलती हैं। हमें देरी हो गई है। हमारे पास समय बहुत कम रह गया है। अतः मालिनी टिकट लेने जल्दी-जल्दी आगे चली जाती है। वह हमसे बहुत आगे निकल गई है। उसके पीछे अविनाश है। हम बहुत पीछे हैं। पत्नी बहुत धीरे-धीरे चल रही है। यह बाद में पता चला कि पत्नी के पेट में बहुत पीड़ा थी। उस व्याधि से मुक्त होने में छह मास लग गए थे। टिकटें मिल गईं। लेकिन प्रवेश वाली लाइन में लगने से पहले सुरक्षा जाँच आवश्यक थी। उसके लिए पीछे लौटकर एक पुराने भवन में आते हैं। सुरक्षा जाँच के बाद आकर लाइन में लग जाते हैं।

यहाँ से सामने बाईं ओर न्यूयॉर्क-मैनहट्टन की गगनचुंबी अट्टालिकाएँ दिखाई दे रही हैं। इन प्रसिद्ध इमारतों के चित्र कई बार देखे हैं। विशेषकर, कॉलेज में वास्तुकला का अध्ययन करते हुए। दूरी पर होने और महासागर के किनारे की धुँध के कारण पूरा दृश्य कुछ धुँधला सा है। कई दशकों तक विश्व की सर्वोच्च इमारत होने का गौरव प्राप्त ‘एंपायर एस्टेट बिल्डिंग’ देखने की मुझे उत्सुकता थी। वर्षों से स्मृति में रही है इसकी छवि, अतः इमारतों के जंगल में उसे ढूँढ़ निकालने में कोई कठिनाई नहीं हुई। इमारतों की गगनरेखा में एक स्थान पर खुली जगह की ओर संकेत कर अविनाश ने बताया कि ‘वर्ल्ड ट्रेड सेंटर’ की दोनों इमारतें ध्वस्त होने से पहले वहाँ थीं। थोड़ी देर के लिए कुछ वर्ष पूर्व देखा गया उनके ध्वंस किए जाने का भयानक मंजर आँखों के सामने घूम गया।

‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ किनारे से दूर एक द्वीप पर है। वहाँ मोटरबोट द्वारा जाना होगा। हम उसी की लाइन में लगे हैं। भारतीय बड़ी संख्या में दिखाई दे रहे हैं, भारत के लगभग हर प्रदेश के लोग, पर अधिकतर गुजराती और दक्षिण भारतीय। कुछ लोग अधिक शिक्षित नहीं लग रहे हैं। ये गाँव-कस्बों से आए हुए वे लोग हैं, जो यहाँ नौकरी अथवा व्यवसाय कर रहे अपने बच्चों के पास कुछ समय व्यतीत करने आते हैं। बच्चों से वृद्धों तक हर आयु वर्ग के लोग।

हम मोटरबोट में जाते हैं। ऊपर-नीचे दोनों मंजिलों पर खूब चहल-पहल, खूब शोरगुल है। विश्व के सभी भागों से आए हुए लोग हैं। मोटरबोट धीरे-धीरे चलने लगी है। मौसम साफ है। हम इस दृश्य का पूरा-पूरा आनंद उठा रहे हैं। दूर तक फैला अटलांटिक महासागर। एक ओर न्यूयॉर्क की गगनचुंबी अट्टालिकाएँ। दूसरी ओर दूर एक द्वीप के छोर पर ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ का धुँधला आकार। मोटरबोट पर मँडराते सफेद समुद्री परिंदे ‘सीगल्स’। मध्य में अन्य द्वीप पर विशाल पुरातन इमारत। इस द्वीप का नाम एलिस द्वीप है। इस इमारत में संग्रहालय है। यहाँ अमेरिका के आरंभिक दशकों का इतिहास सँजोकर रखा गया है। जब यूरोप और दुनिया के तमाम अन्य देशों से बेहतर जीवन की तलाश में जहाजों में भर-भरकर अत्यंत ही दयनीय अवस्था में लाखों प्रवासी आए थे। उन्हें सबसे पहले इसी इमारत में आना होता था। यहाँ उनकी जाँच होती थी। विशेष रूप से स्वास्थ्य संबंधी जाँच बहुत कठोर होती थी।

‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ प्रतिमा फ्रांस के नागरिकों ने अमेरिका के नागरिकों को सन् १८८६ में भेंट की थी, जिसे अब विश्व भर में स्वतंत्रता के प्रतीक रूप में पहचाना जाता है। १९२४ में इसे अमेरिका द्वारा राष्ट्रीय स्मारक का दरजा दिया गया। एलिस द्वीप वह प्रवेशद्वार था, जिससे १८९२ और १९५४ के मध्य लगभग १२० लाख आप्रवासी धर्म और विचारों की स्वतंत्रता व आजीविका की तलाश में यहाँ आए थे। एलिस द्वीप को उस घटना के इतिहास के संग्रहालय के रूप में १९९० में पर्यटकों के लिए खोला गया।

आप्रवासी जब यहाँ पहुँचते तो उनके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की कठोर जाँच की जाती थी। इस द्वीप पर जिस आप्रवासी की सबसे पहले जाँच की गई, वह एनी मूर नाम की एक पंद्रह वर्षीया आयरिश किशोरी थी। यहाँ इटली, रूस, हंगरी, ऑस्ट्रिया, जर्मनी, इंग्लैंड, आयरलैंड, स्वीडन, यूनान, स्कॉटलैंड, स्पेन, बेल्जियम, स्विट्जरलैंड, नॉर्वे, फिनलैंड कितने ही देशों से लोग आए। अमेरिका एक ऐसे नए देश के रूप में जन्म ले रहा था, जहाँ कोई भी नागरिक स्वतंत्र होने का अनुभव कर सकता था।

अमेरिका को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से अपने मुक्ति संघर्ष में फ्रांस से बहुत मदद मिली थी। इसलिए दोनों देशों की मित्रता एवं स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में फ्रांस द्वारा ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ अमेरिका को उपहार में दी गई।

सामान्यतः आप्रवासी परिवार में से पहले कोई एक व्यक्ति आता था, फिर कुछ समय बाद परिवार के अन्य सदस्यों को बुला लेता था। उन दिनों कई महीनों की समुद्री यात्रा जहाज में करके ये आप्रवासी अत्यंत भयानक, बहुत ही दीनहीन मानसिक व शारीरिक अवस्था में एलिस द्वीप पहुँचते थे। उसके बाद उन्हें स्वास्थ्य की जाँच और रजिस्ट्रेशन की कठोर प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था।

संक्रामक बीमारियों संबंधी जाँच तो जहाज पर ही हो जाती थी। अन्य जाँचें द्वीप पर की जाती थीं। यदि कोई गंभीर बीमारी से ग्रस्त होता अथवा मानसिक स्थिति ऐसी होती कि जीवनयापन के लिए कोई कार्य करने में अक्षम होता तो अधिकारी उसे वापस अपने देश भेज देते थे। बारह वर्ष या अधिक उम्र के बालकों को अकेले ही भेज दिया जाता था। छोटे बच्चों के साथ माँ या पिता में से किसी एक को जाना पड़ता था। ऐसे समय के दृश्य बहुत ही कारुणिक होते थे। पहले यह तय करना कि बच्चे के साथ कौन अभिभावक जाएगा और फिर उनकी अश्रुपूर्ण विदाई। सभी जाँचें पूर्ण होने के बाद आप्रवासियों को द्वीप छोड़कर अमेरिका की मुख्य भूमि पर जाने दिया जाता था। ये ही वे लोग थे, जिनसे आज का अमेरिका बना है।

हम कभी मोटरबोट के अंदर जाते हैं, कभी अधिक अच्छी तरह महासागर का अवलोकन करने बाहर डेक पर आ जाते हैं। एलिस द्वीप को पार कर हम धीरे-धीरे ‘लिबर्टी आइलैंड’ की दिशा में बढ़ रहे हैं। निरभ्र आकाश, अच्छी धूप, हवा में हल्की ठंडक। श्वेत समुद्री परिंदे पाँतों में इधर-उधर उड़ रहे हैं। मोटरबोट के निकट आते हैं और ऊपर से उड़ते हुए दूर चले जाते हैं या तीर की तरह तेज़ी से डुबकी लगाकर जल में ओझल हो जाते हैं। दोपहर ढल रही है। मैनहट्टन और न्यूयॉर्क की अट्टालिकाएँ धुँधली होने लगी हैं। अटलांटिक महासागर पर भी धुंध छा रही है। जल शांत है। लहरें अलसाई सी हैं। तट से जब प्रस्थान किया था तो ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ छोटी सी हरी मोमबत्ती जैसा दिखाई दे रहा था, द्वीप के एक छोर पर। वह आकार में अब बड़ा और स्पष्ट हो गया है। लगता है, इस विशाल प्रतिमा ने आकाश को अपने आकार में काट दिया है। मोटरबोट की सारी निगाहें अब मानवीय स्वतंत्रता की इस प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति पर जम गई हैं।

अमेरिका को ब्रिटिश सामाज्यवादियों से मुक्ति की क्रांति में फ्रांस ने हथियार, जहाज, धन आदि से बहुत सहायता की थी। दो देशों में इस तरह जो मैत्री संबंध बना, वह एक दिन ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ में परिणत हुआ। यह प्रतिमा १५१ फुट ऊँची है। इसका भार २२५ टन है। लोहे से बनी प्रतिमा पर ताँबे का मुलम्मा चढ़ा है। प्रतिमा हरे रंग की है। केवल मशाल से निकल रही अग्नि की लपट का रंग नारंगी है। इसे एक युवा फ्रांसीसी मूर्तिकार फ्रेड्रिक बार्थोल्डी ने बनाया था। कुछ समय तक इसे पेरिस में प्रदर्शन हेतु रखा गया, फिर अलग-अलग हिस्सों में विभाजित कर १८८५ में जहाज द्वारा अमेरिका की लंबी यात्रा पर भेज दिया गया। संपूर्ण कार्य पर बहुत अधिक खर्च आनेवाला था। अतः तय किया गया कि आधार अमेरिका द्वारा निर्मित किया जाएगा। आधार की परिकल्पना अमेरिकी वास्तुकार रिचर्ड मारिस हंट की है। बलुआ पत्थर का बना यह आधार ८९ फुट ऊँचा है। २८ अक्तूबर, १८८६ को भव्य समारोह में प्रतिमा का अनावरण किया गया। उस दिन पूरे अमेरिका में छुट्टी का दिन घोषित किया गया। स्वतंत्रता की इस महान् प्रतिमा के निकट से गुजरते हुए मन में कुछ अंतर्विरोधी विचार आ रहे हैं। आज के अमेरिका ने तो अकसर विश्व के अन्य देशों के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप किया है और अपने हितों के लिए उनकी स्वायत्तता पर प्रहार किया है। यह प्रतिमा फिर भी संपूर्ण विश्व को स्वतंत्रता, बंधुत्व और शांति का संदेश आनेवाली कई शताब्दियों तक देती रहेगी।

बीस-पच्चीस मिनट में प्रतिमावाले द्वीप तक पहुँच जाते हैं। द्वीप के अंदर भी प्रतिमा तक का रास्ता बहुत लंबा है, जिसे पैदल ही तय करना है। मुझे थकान महसूस हो रही है। सामने एक छोटा सा रेस्तराँ है। सब पर्यटक वहीं जा रहे हैं। आगे जाने से पहले शरीर में कुछ शक्ति और ताजगी भर लेने। रेस्तराँ में बहुत भीड़ है। हम कुछ काउंटरों पर पंक्ति में खड़े होकर भोज्य पदार्थ लेकर बाहर खुले स्थान में आ जाते हैं। अच्छी धूप और हरे-भरे वृक्ष। मेजें और कुरसियाँ। हम एक वृक्ष के नीचे बैठते हैं। वृक्षों की पत्तियों के पीछे दूर हरे रंग की ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ झाँक रही है। यों तो यह सामान्य सा रेस्तराँ है पर विश्व की महानतम प्रतिमाओं में से एक की छाया में चायपान की यह अनुभूति रोमांचक है।

दोपहर ढलने लगी है और हमें प्रतिमा को अच्छी तरह देख लेना है। इससे पहले कि मोटरबोट की वापसी का समय हो जाए। यहाँ दुनिया के तमाम देशों के लोग विभिन्न वेशभूषाओं में हैं और जैसे एक बिखरे हुए जुलूस के रूप में जा रहे हैं। सभी की नजरें रास्ते पर नहीं, प्रतिमा पर हैं। उसकी ऊँचाई, भव्यता और कलात्मकता मन-मस्तिष्क पर छा गई है। प्रतिमा में जादुई सम्मोहन है। हम प्रतिमा के पिछले हिस्से की ओर हैं। सामने तक जाने में कुछ समय लग जाएगा, क्योंकि लोग जगह-जगह रुकते हैं, फोटो लेते हैं, फिर आगे बढ़ते हैं। हम प्रतिमा के विस्तृत आधार को घेरकर बनाए गए रास्ते पर चल रहे हैं। लोग भिन्न-भिन्न कोणों व दूरियों से प्रतिमा की भव्यता का अवलोकन कर रहे हैं। हल्के नीले निरभ्र आकाश की पृष्ठभूमि में धूप में चमकती प्रतिमा अद्भुत प्रभाव डालती है। हम जबसे इस क्षेत्र में पहुँचे हैं, मैं दूसरी दिशा में न्यूयॉर्क की अट्टालिकाओं के बीच ‘एंपायर एस्टेट’ की इमारत को देखता और कैमरे में उसकी छवियाँ कैद करने को व्यग्र रहा। अब सामनेवाली प्रतिमा ने ध्यान वहाँ से हटा दिया है।

हम प्रतिमा के नीचे आ गए हैं। नीचे से प्रतिमा का शीश देख सकना मुश्किल है। इतनी ऊँची प्रतिमा है कि नीचे खड़े व्यक्ति का फोटो उसके शिरस्त्राण और मशाल के साथ लेना लगभग असंभव है। अविनाश घुटनों के बल बैठकर हमारा फोटो लेने का प्रयत्न कर रहा है। उसने अंततः ऐसा एक फोटो ले ही लिया। सभी पर्यटक ऐसा ही प्रयत्न कर रहे हैं। हमने प्रतिमा की परिक्रमा पूरी कर ली है। पहले प्रतिमा के अंदर लिफ्ट द्वारा शिरस्त्राण तक पर्यटकों को ले जाने की व्यवस्था थी। अब सुरक्षा कारणों से केवल आधार की ऊँचाई तक ही जाने दिया जाता है। हम जब तक टिकट खिड़की पर पहुँचते हैं, खिड़की आज के लिए बंद हो जाती है। ऊपर से समुद्र और न्यूयॉर्क-मैनहट्टन की अट्टालिकाओं का विहंगम दृश्य देखने से हम वंचित रह जाते हैं।

शाम ढलने लगी है। पैदल चल-चलकर थक चुके लोगों का दल तट की ओर लौट चला है। किनारे पर दो मोटरबोटें लगी हैं, न्यूयॉर्क और न्यूजर्सी की ओर जानेवाली। हम न्यूजर्सी वाली बोट से वापस लौट रहे हैं। संध्या के धुँधलके में अटलांटिक की वे हिलोरें, साथ उड़ते समुद्री परिंदे, न्यूयॉर्क की ऊँची, अधिकतर गहरे रंग के काँच के आवरण वाली इमारतें, एलिस द्वीप और हवा में बढ़ती जा रही ठंड। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे हैं, विश्व की एक महानतम प्रतिमा को धीरे-धीरे छोटा होते हुए देख रहे हैं। थोड़ी ही देर में वह एक बार फिर हरी मोमबत्ती सी दिखाई देने लगेगी। ऐसी प्रतिमाएँ आकार में भले ही छोटी हो जाएँ, उनमें निहित भावनाएँ कभी छोटी नहीं हो सकतीं। मैं यह दृश्य जी भरकर देख लेना चाहता हूँ। इस जन्म में संभवतः यहाँ फिर कभी आना न हो।

राजेंद्र नागदेव
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