फुटपाथ के रैन बसेरे

फुटपाथ के रैन बसेरे

हमारा एक विकसित नगर है। क्यों न हो, राजधानी जो ठहरी। मुल्क के सबसे पिछड़े सूबे की। अविकसित सूबों की एक खासियत है। वहाँ के मंत्री-अफसर खूब विकसित होते हैं। उनके कोठी-बँगले के हर कमरे में एक अदद एअर कंडीशनर और हीटर होना ही होना। मुल्क का मौसम इधर आदमी से भी बदतर है। कौन कहे कब बदल जाए। सवेरे-सवेरे सर्दी हो और दोपहर तक वातानुकूलन की नौबत आ जाए। इसी सूबे के पर्यावरण मंत्री विद्वानों की सभा में फरमा भी चुके हैं, ‘‘पहले आप लोग कहते थे कि ग्लोबल वार्मिंग के दिन हैं! इधर जो कुदरत की कूलिंग है, उसे आप क्या कहेंगे?’’

विद्वान् क्या कहते! एक-दूसरे का मुँह ताकते रह गए। मंत्री को छूट है। वह अनाप-शनाप, अंट-शंट कुछ भी बकने को आजाद हैं। इधर लोग पागलों को ज्यादा गंभीरता से लेते हैं, मंत्री और आला अफसरों के बजाय!

अविकसित प्रांतों की एक और विशेषता है। चुनाव जीतने के पहले तक प्रत्याशी की हसरत जन-प्रतिनिधि बनने की होती है। एक बार चुनाव जीता नहीं कि यही शख्स देवदूत बनता है। उसके अंदर देवत्व जाग्रत् होता है। उसके खुरदुरे मोटे हाथ कर-कमल और अभी तक चप्पल चटकाते पैर अचानक श्री-चरण बनते हैं। जिस गरदन को, उसके आपराधिक कृत्यों से, फाँसी के फंदे से नपना था, फूलों से लादी जाती है। यह दीगर है कि उसकी गरदन में कितने भी गुलाब-गेंदे की मालाएँ बरबाद हों, उसके व्यक्तित्व से दुष्कर्मों की दुर्गंध ही उभरती है।

जाहिर है कि ऐसे पिछड़े प्रांतों के खेतों में गेहूँ-धान उगें न उगें, पर भ्रष्टाचार की फसल खूब लहलहाती है। एक-एक आला अफसर में कमाई की होड़ है। सब कमाऊपर बिकाऊहैं! अनुत्पादक कुरसियाँ सजायाफ्ता याने गिने-चुने थोड़े ईमानदार और थोडे़ आत्मसम्मानी अफसरों के लिए आरक्षित हैं। यह सियासी आका के लिए वसूली के लक्ष्य में चूके थे। डाँट-डपटे गए तो बजाय सिर झुकाकर ‘सॉरी’ कहने के, इन्होंने जुबान लड़ाने की हिमाकत की थी। ऐसे नाकारा-नालायकों का एक ही इलाज है, जल्दी-से-जल्दी उनका अनर्थ (जहाँ अर्थ उर्फ पैसा न हो) वाले पदों पर तबादला।

ऐसे सूबों में कार्यकुशलता, श्रम-परिश्रम का कोई महत्त्व नहीं है। जरूरी है तो फिर यह है कि सियासी आका की हाँ में हाँ मिलाओ! उसके मन की अव्यक्त बात पढ़ने का प्रयास करो। उसी के अनुसार प्रस्ताव दो। अगर इस कला में महारत है तो फिर कहना ही क्या! तरक्की के दरवाजे ऐसों के लिए खुले ही नहीं हैं, उनके स्वागत के लिए वहाँ बंदनवार भी सजे हैं। शिखर में आमंत्रण की शहनाई भी गूँज रही है।

इसका एक अन्य सुखद परिणाम है। जो अफसर सियासी आका को कभी सूटकेस, कभी हीरे-जवाहरात खिलाते हैं, वह खुद क्यों न खाएँ। यह तो वैसा ही विरोधाभास है कि कोई रसोईया पूरे घर को छप्पन भोग खिलाए और खुद भूखा रहे। यों खिलानेवाले अफसर और पकाने वाले रसोइए में एक समानता है। दोनों खुद भी खाते हैं, पर अकाल पीडि़त की छवि बनाकर। इस छवि के भी फायदे हैं। मालिक रहमदिल है, दयावान है। कभी-कभी ऐसे निष्ठावानों को टुकड़ा फेंक देता है, जैसे लोग पालतू कुत्ते को! कोई उसके खाने की शिकायत करे तो वह तत्काल हड़काता है, ‘‘ऐसी निरीह शक्लवाला बेचारा अनुमति के बिना पानी तक नहीं पीता है, खाएगा कैसे? आप उसे व्यर्थ में बदनाम करने पर तुले हैं।’’

इस पारस्परिक खिलाई-पिलाई का नतीजा खतरनाक है। ऐसी शाश्वत दौड़ में व्यस्त महारथी जनता की भलाई की सोचें तो कैसे सोचें? उनके पास फुरसत ही कहाँ है? उनके चहेते अफसर उन्हें विश्वास दिलाते हैं, ‘‘सर! आप इसी प्रकार खाते रहो। आप ही तो जनता के सर्वोच्च प्रतिनिधि हैं। आपने खाया, जनता ने खाया, फर्क ही क्या है?’’

इसके बाद वह ‘सर’ को आश्वस्त करते हैं कि उन्होंने जन-कल्याण की इतनी योजनाएँ बना रखी हैं कि एक बार वे शुरू हुई नहीं कि जनता को कल्याण की अपच हो जाएगी। उसे खट्टी डकारें आएँगी। उसके पेट में ऐसा अफरा होगा कि वह लंबी तानकर सोएगी। उनका सियासी आका से एक ही अनुरोध है, ‘‘सर! आप बस थोड़ा समय निकालिए और हमारी कागजी सुख-समृद्धि को जमीन पर उतारकर उनका शिलान्यास कर दीजिए!’’

सत्ताधारी राजनीतिज्ञ हमेशा जनहित का उधार खाए बैठे रहते हैं। वे जानते हैं कि ऐसी किसी भी स्कीम में करोड़ों का बजट है। पंद्रह-बीस परसेंट का ‘कट’ वो अफसर के माध्यम से मिलना-ही-मिलना। इससे बेहतर क्या होगा कि वोटर का भी भला हो और अपना भी? इसलिए तो विद्वान् बताते हैं कि जनतंत्र नेता के लिए, नेता के द्वारा जनता को उल्लू बनाने का तंत्र है। दल कोई भी हो। इस मंत्र को अपनाने में सब एकमत हैं।

चुनाव पास आ रहे हैं। आज के नेता अतीत के राजा-महाराजा हैं, बस पोशाक और सवारी का फर्क है। इलेक्शन की दस्तक पर नेता ने सोच-समझकर फैसला किया कि वह पहले के राजाओं की तर्ज पर, भेष बदलकर अपनी प्रजा के हालात का मौका-मुआयना करेगा। उसके विश्वस्त सहायकों ने समझाया कि बिना सिक्योरिटी उसे निकलना नहीं चाहिए। आशंका जान की है। दुश्मन ताक लगाए ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में है। वह नहीं माना! लोकतंत्र का वीर जो ठहरा। कई सार्वजनिक सभाओं में उसकी हाय-हाय हुई थी। ईंट-पत्थर चले थे, पर वहाँ से वह फिर भी नहीं टला था।

उसने सबको बताया कि मरते तो सब हैं, एक न एक दिन। अगर उसे शहीद ही होना है तो वह लोकतंत्र पर शहीद होगा। रात को उसने नकली मूँछें, दाढ़ी, जटा जूट लगाए। वह जानता था कि इस सेक्यूलर  देश में स्वामी-साधू आज भी सेफ हैं। उसके साथ भगवा पहने उसका आला अफसर भी था। सियासी आका ने देखा कि हाड़ कँपाती सर्दी में भी हर फुटपाथ पर ठिठुरते-काँपते लोग पडे़ हैं। उसने अफसर को प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा। अफसर उसका मन भाँपने का एक्सपर्ट था। तभी उसका प्रमुख अधिकारी था। उसने सूचित किया, ‘‘सर, यह रोड जो है, ‘टू इन वन’ है। दिन में आवागमन के काम आती है, रात को इसके फुटपाथ रैन बसेरा बनते हैं। इन सबके अपने घर हैं। दरअसल ये कुदरत के इतने करीब हैं कि खुले गगन के नीचे ही इन्हें नींद आती है।’’

‘‘और सर्दी?’’ भेष बदले आका ने सवाल उठाया।

‘‘सर! ये सब खाँटी हिंदुस्तानी हैं। इनकी जिजीविषा इतनी प्रबल है कि बरसात, गरमी या जाडे़ से इन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता है। अपनी भी खाल गैंड़े की है, इनकी भी।’’

भेष बदले राजा को अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का एक स्वर्णिम अवसर इन फुटपाथ पर ठिठुरते लोगों में नजर आया। उसने अधिकारी को निर्देश दिया, ‘‘कल रात हम फिर आएँगे और इन्हें कंबल बाँटेंगे। इंतजाम करो।’’ दूसरी रात मंत्री अपनी सिक्योरिटी के साथ बिना शक्ल बदले आया। उसके पीछे एक कंबल भरी गाड़ी भी थी। उसने कंबल बाँटे, फुटपाथ के रैन-बसेरे में। उसके साथ प्रेस के संवाददाता भी थे। उन्हें अच्छी गुणवत्ता वाले कंबल दिए गए। वह भी दो-दो। फोटू खिंची। लौटकर व्हिस्की-मुरगा चला। बड़ी-बड़ी फोटुओं के साथ मंत्री महाराज की कंबल-दरियादिली सुर्खियों में छाई।

सियासी आका खुश हुए। उन्होंने फिर अफसर को तलब किया, ‘‘तुमने हमें इस ‘टू इन-वन’ के बारे में पहले क्यों नहीं बताया। तुमने विकास का इतना ऐतिहासिक काम किया और वह भी हमें अँधेरे में रखकर। आगे से ऐसा नहीं होना चाहिए।’’ अफसर कोई कम चतुर था? वह भी उनका निहितार्थ समझ गया। वह अगले दिन फिर आया। ‘सर’ उसने बताया, ‘‘यह कंबल की डील भी टू इन-वन है। जैसे फुटपाथ रात को जन-जन के रैन-बसेरे हैं, वैसे ही यह कंबल भी।’’

‘‘वह कैसे?’’ आका ने जिज्ञासा जताई।

‘‘इस प्रकार सर!’’ कहते हुए अफसर ने रुपयों से भरा एक सूटकेस उनके चरण-कमलों पर रख दिया। आका के चेहरे पर संतोष के भाव उभरे। पर वह मुसकराया नहीं। उसने अफसर को निर्देश दिया, ‘‘तुम निरे गधे हो! जनहित का यह काम हर फुटपाथ पर होना चाहिए। गाँवों के लिए भी ग्राम-उत्थान का कोई ऐसा ही कार्यक्रम बनाओ। मुख्य ध्येय कंबल बाँटना हो। हम तो जाएँगे ही, जहाँ-जहाँ जा सकते हैं, बाकी हमारे छोटे जागीरदार-राजा याने राज्य मंत्री और मंत्री करेंगे।’’

इधर सूबे में धड़ाधड़ ‘कंबल बाँटे अभियान’ चालू है, सबका अपना-अपना कट भी। इस महान् प्रजातंत्र की यही तो महानता है। अपने प्यारे प्रजातंत्र में जनकल्याण के नाम पर ऐसे ‘सदाचार’ का हर काम सूबे के सियासी राजा के इशारे पर ही होता है। उसूल सीधा है—

बस जनहित के नाम पर
है फंडों की छूट
सत्ता की इस हाट में,
लूट सके सो लूट

इस सबके बावजूद हर सरकार का दावा है कि तरक्की का तवारीखी सफर चालू है, वहीं फुटपाथ के रैन बसेरे की आबादी की दिनोदिन प्र्रगति का भी।

—गोपाल चतुर्वेदी
९/५, राणा प्रताप मार्ग
लखनऊ-२२६००१

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