हवाएँ चुप नहीं रहतीं

हवाएँ चुप नहीं रहतीं

रहीम अब्दुल्ला समय से पहले नई दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर पहुँच गया। भीड़ काफी थी। वह सब तरफ देखकर भी कहीं नहीं देख रहा था। यहाँ आकर उसका मन हल्का हो चुका था। जहूर की नमाज के बाद एक मिनट नहीं बैठा। आज का दिन बहुत मसरूफ रहा काम-काज में। दिमाग खपाते-खपाते थक गया था। पिछले दो-तीन महीने से बड़ा अच्छा समय जा रहा था। अल्लाह की मेहरबानी से व्यापार में फायदा हो रहा था। पर्स रुपयों से भरा था। चेहरे पर दौलत की आँच थी। सोलह साल मशक्कत करके उसने बहुत कुछ हासिल कर लिया था। जमीला से बात हो गई, हिना और रेहान से भी। उसकी काबिलियत की वजह से ही वह घर-बार से बेफिक्र होकर अपना ध्यान काम में लगा पाता है। लगभग नौ साल बाद कारोबार के सिलसिले में पटना जा रहा था। वहाँ आलोक उसके इंतजार में है। जमीला ने उसकी बीवी-बच्चों के लिए जयपुर से सौगात भेजी है। वह कितने ही अरसे के बाद आलोक से मिले, उसे भला सा अहसास होता है। जाने क्यों लोग होशियारी के चक्कर में काँइयाँ, धूर्त, कठोर और बेईमान बन जाते हैं? आलोक उसके कॉलेज के जमाने का दोस्त है, देबूसराय दिनों का। एक बार देबूसराय छूटा तो छूट ही गया। वह सोचने लगा, रोजों का वक्त करीब आ रहा है। मैं अल्लाह को खुशियों के बीच पा जाता हूँ। वह इसी भाव में आसमान तक पहुँच गया। उसे याद आया—बरसों पहले किसी ने उससे कहा था कि आसमान तक पहुँच गए तो कोई दिशा नहीं, सब तरफ आसमान-ही-आसमान है।

वह अपनी जगह से उठकर वहाँ की दुनिया देखने लगा। फागुन का समय था। सबकुछ नया सा लग रहा था। साथवाले बेंच पर बैठे मियाँ-बीवी पर उसकी नजर पड़ी। वह उनको देखने लगा। किसी इरादे से नहीं, बस यों ही वफापरस्त निगाहों से। उस औरत को देखकर एक भूला चेहरा याद आने लगा। कौन...? वह जो...ओ हाँ, वैसी ही लग रही है। कभी-कभी एक सी शक्ल देखने को मिल जाती है। उसने फिर देखा, देखकर हैरतजदाँ हुआ। यह तो वही है—कात्यायनी!

तभी उद्घोषणा हुई कि ट्रेन एक घंटा लेट है। टे्रन शायद सवारियों के मन को समझती है—मशीन होते हुए भी अक्ल है उसमें। रहीम खामोशी से उस औरत को देख रहा था, पर उसका मन बोल रहा था। वक्त की उम्र रोज बदलती है, लेकिन शक्ल नहीं बदलती, वही रोशनी, वही साया। लेकिन इनसान हर वक्त खत्म होते रहता है। उम्र उसे घेरती है, किंतु यह कात्यायनी तो ज्यादा नहीं बदली। उसने मन-ही-मन हिसाब लगाया। ठीक इक्कीस साल पहले ऐसे ही मौसम में मिली थी। तब उसकी मोहब्बत ने उसे घेर लिया था। उजाले में, अँधेरे में हवा में; वह उसे घेरे रहती। क्या मैं उससे बहुत प्यार करता था? प्यार तौला नहीं जाता, इसके घटने-बढ़ने का हिसाब नहीं लगाया जा सकता। इनसान है तो प्यार करेगा ही, न करना अस्वाभाविक है। लेकिन एक दिन वह धूप, बारिश, हवा की महक के साथ उसे छोड़कर चला आया। वजह का क्या, वजहें सही या गलत नहीं होतीं, वे बस होती हैं। जमी हुई धुंध के बीच कुछ याद रहा, कुछ फिसल गया। सोचा, पुरानी बातों को छेड़ने से क्या फायदा? लेकिन वे पल कितने भी पुराने हों, उन अहसासों को भुलाना आसान नहीं। वह सिंदूरी शाम भुलाई जा सकती है क्या? जो फूल अँधेरे में खिल चुका था, उसकी सुगंध हवा में फैलती चली गई। हवाएँ चुप नहीं रहतीं।

रहीम आज फिर उसी रास्ते पर था। उसकी चाल से लग रहा था कि राहें उसकी जानी-पहचानी हैं। जाने-पहचाने रास्तों पर कदम सोच-समझकर नहीं पड़ते, बस पड़ जाते हैं। वह इस उम्मीद से इधर आया था कि वह लड़की दिख जाए, वही जो भोर के गुलाब के फूल जैसी सुंदर है। उसकी आँखें सुहाने ख्वाब का जाल बुन रही थीं। दिन की पहली नमाज में उसने दुआ माँगी थी कि वह लड़की उसे दिख जाए। वह अपने कॉलेज से इसी रास्ते वापस घर लौटती है, अपने बुरकेवाली सहेली के साथ। कल जहाँ वह दिखी थी, वहीं एक पीपल के पेड़ के पीछे खड़ा हो गया, थोड़ा छिपकर। सामने से आता उसका जगमगाता चेहरा नजर आया। वह बुरकेवाली सहेली के साथ बातों में मशगूल थी। उसे देखते ही रहीम जैसे किसी बहाव में बह जाता। लड़की ने उसे अपनी ओर देखते हुए देख लिया। वह बोलते-बोलते रुक गई, उसकी नजरें झुक गईं और वह सँभल गई। रहीम भी सँभल गया। इस तरह किसी लड़की की तरफ देखते रहना बेअदबी मानी जाती है। वह पेड़ की ओट में चला गया, जहाँ से वह तो उसे देख सके, लेकिन वह लड़की नहीं। लड़की की निगाहें उसे ढूँढ़ने लगीं। उसकी यह अदा उसके दिल में तूफान मचाने के लिए काफी थी। धीरे-धीरे दोनों आँखों से ओझल हो गईं। वह आँख बंद करके उस लड़की का चेहरा देखने लगा कि उसका चेहरा कैसा था? क्या वह हमारी तरह इनसान है? इस वक्त शाम नहीं हुई थी, पर सूरज की गरमी कम हो गई थी। आसमान साफ था और हवा में एक तृप्ति थी, उस तृप्ति में एक ताप थी।

पेड़ के साये में सड़क थी। वह आलोक के घर की तरफ चल पड़ा। आलोक! उसका हमउम्र, उसके दिल का राज जाननेवाला अजीज दोस्त! उसका मोहल्ला हमेशा की तरह परम निश्चिंत होकर अपने में मगन था। एक तरफ बच्चे खेल रहे थे। आलोक वहीं मिल गया। दोनों दोस्तों ने वहीं से आगे का रुख कर लिया। उसका चेहरा देख आलोक समझ गया कि जनाब अभी उस लड़की का दर्शन करके आ रहे हैं। उसने उसका मजाक बनाते हुए कहा, ‘बेगुनाह पकड़ा गया, इश्क में जकड़ा गया।’

रहीम यों मुसकराया ज्यों हँसने पर पाबंदी लगी हो, ‘तुम इश्क करो तो जानो। इश्क का रास्ता है खुशी का, मर्सरत का। यह हैरानी भरा रास्ता है, दिल पर असर करता है।’

‘आप तो पक्के राग गानेवालों की तरह अलाप में ही खो गए। आपकी नीयत कुछ ठीक नहीं लगती।’

‘मोहब्बत में बुरी नीयत से कुछ नहीं सोचा जाता।’

‘यह बताओ, उसकी तरफ से कोई संकेत मिला या नहीं?’

‘उसके दिल का हाल हम कैसे जानें? उस बेवफा ने अभी तक तो कोई इशारा नहीं किया।’

‘उसे प्यार भी करते हो और बेवफा कहते हो।’

‘प्यार में बेवफा कहा जाता है, समझा नहीं जाता। सच! महीनों से उसे देख रहा हूँ, लेकिन उसके बारे में कुछ नहीं जान सका।’

‘महाकाल के हिसाब से चंद महीने ज्यादा समय है क्या?’

‘मगर मेरी जिंदगी में तो है।’

‘यार रहीम, तुम जज के बेटे हो, अच्छी-खासी अक्ल है, इस बार एम.ए. में तुम्हारा फर्स्ट क्लास तय है। सब तरह से लायक, क्या चाहिए तुम्हें? क्यों मन को दुःखी करते हो?’

‘इन चीजों के अलावा एक चीज और चाहिए, वह है उस लड़की का प्यार। उसकी आँखों में सपने ही सपने थे।’

‘कोई भी बात करो, तुम घूम-फिरकर उसी लड़की पर आ जाते हो। मैं चलूँ रहीम, मुझे मंदिर जाना है। वहाँ रघुनाथ पांडे से शोभा की कुंडली बनवानी है। वे हाथ की रेखाओं को पढ़कर भविष्य बता देते हैं। बडे़ ज्ञानी हैं। लोग उन पर विश्वास करते हैं। पापा जब भी उलझन में होते हैं, इनके पास ही जाते हैं।’ शाम होने लगी थी। सड़कें लोगों से भरने लगीं। दोनों मित्रों ने एक-दूसरे से विदा ली और अपनी-अपनी राह पकड़ ली।

रहीम आजकल हरदम किसी अलौकिक घटना की उम्मीद किया करता, मानो कुछ घटित होने की राह देख रहा हो। रमजान का महीना खत्म होनेवाला था, ईद आने ही वाली थी। जब वह घर पहुँचा तो सेवईंयाँ पक रही थीं। पुलाव और दो प्याजा की खुशबू आ रही थी। उसके अब्बू गफूर साहब ने जब बेटे का चेहरा देखा तो उनके दिल को ठंडक मिली। उनका बेटा खूबसूरत है, हिम्मती है, मेहनती भी है, पर जज्बाती बहुत है। उनकी दिली तमन्ना थी कि बेटा उनके जैसा अफसर बने, लेकिन उनके और बेटे के ख्वाबों में अंतर था। रहीम का हर काम ही अलग था। जवान बेटे से ज्यादा सवाल-जवाब करना उनकी आदत न थी। वे रोजा, जकात, हज-नमाज में डूबे पक्के मुसलमान थे। सुबह-सुबह पश्चिम की तरफ मुँह करके बैठ जाते और दुआ माँगते कि या खुदा, मेरे बेटे को लंबी उम्र दे। तंदुरुस्त रख, यही मेरी इल्तजा है।

रहीम भी उनकी कम इज्जत नहीं करता था। अब्बू कहना महज दुनियादारी नहीं थी बल्कि अब्बू उसके दिल की गहराइयों से निकलता था। शाम को सारे दिन का रोजा खोलने का समय हो गया। पूरा परिवार जमा था। रहीम कहीं भी रहे, उसका दिल उस लड़की के पास बंधक रहता।

आलोक जब मंदिर पहुँचा तो आरती शुरू हो चुकी थी। पंडित रघुनाथ पांडे अपनी सुरीली आवाज में आरती गा रहे थे। आरती की धुन इतनी मधुर थी कि भक्तगण भी झूमकर पंडितजी का साथ दे रहे थे। आलोक कद्रदानों की तरह वहाँ का नजारा देखने लगा। श्रीराम-सीता, भरत-लक्ष्मण और शत्रुघ्न की मूर्तियाँ थीं। सामने हनुमानजी विराज रहे थे। उन पर भक्त बेलपत्र, फल एवं चंदन चढ़ा रहे थे। धूप-लोबान की सुगंध फैली हुई थी। पंडितजी के माथे पर चंदन का तिलक, गले में कंठी तथा बदन पर पीली चादर थी। आरती के बाद भक्तगण प्रसाद लेकर लौट गए। आलोक ने अपने पिता का संदेश दिया और छोटी बहन शोभा की जन्मतिथि, समय, स्थान आदि का विवरण देकर लौट आया।

पंडितजी भी अपने घर की ओर चल पडे़। मंदिर के अहाते में ही उनका निवास था, जहाँ वे अपनी पुत्री कात्यायनी के साथ रहते थे। पत्नी एक बीमारी में कुछ बरसों पहले गुजर गई थी। बड़ी बेटी गौरी अपने ससुराल बनारस में थी। शाम का अँधेरा गहराने लगा था। सुबह से उनका मन भरा रहता है, पर शाम के अँधेरा फैलते ही उनका मन बेचैन होने लगता है। वे घर पहँुचे। सबकुछ खूब साफ-सुथरा था। कात्यायनी बरांदे में मसाला पीस रही थी। सूरज डूब गया था, पर चाँद निकला नहीं था। पिता को देखते ही वह हँसी और पूछा, ‘बाबू, क्या इसी समय को गोधूली वेला कहते हैं?’

‘थोड़ा और पहले, अब तो शाम कुछ ज्यादा गहरा गई।’ यह बेटी उनकी आँखों की तारा थी। ‘कैसी सुंदर, निष्पाप और सरल स्वभाव की है मेरी कत्या।’ उनका मन गर्व से भर गया।

‘बाबू, फूलों की निगरानी और अच्छी तरह करनी होगी। चूहों और नेवलों ने कुछ पौधों की जड़ें खोद डालीं।’

‘हाँ कत्या, उसका उपाय करना होगा। आज हम गुलाब के कुछ पौधे लाए हैं, फुलवारी में गीली मिट्टी पर रख दिए हैं। कल सुबह रोपना होगा।’ वे सारे साल अपने फुलवारी के पौधों की देखभाल करते थे—निराई, गुड़ाई, फूलों की पैदावार। इन सबमें वह कात्यायनी को अपने करीब पाते। अपने विचारों में निमग्न वह अपने कमरे में चले गए।

‘बाबू भी न, हजार तरह की बातें सोचते हैं।’

दूसरे दिन कात्यायनी की नींद जल्दी खुल गई। चिडि़याँ रात रहते ही चहकना शुरू कर देती हैं। उनके चहचहाने की आवाज वह लेटे-लेटे सुनती रही। भैरवी राग की तरह धीरे-धीरे सवेरा हो रहा था। वह उस लड़के को याद करने लगी। दुबला-पतला शायरों जैसी शक्ल-सूरत। खोई-खोई-सी नीली आँखें। वह खुद पर हँस पड़ी। सादिया के साथ रहते-रहते वह भी शायरी सीख गई है। पिछले कई महीनों से वह कॉलेज के रास्ते में दिखता है। जब नहीं दिखता है तो उसकी आँखें उसे ढूँढ़ती हैं। उसका दिखना उसे क्यों अच्छा लगता है, यह उसकी समझ में नहीं आया, मगर न समझने पर भी वह उसकी कायल थी। लाल गोले के ऊपर आते ही दसों दिशाएँ रोशनी से भर गईं। वह ‘ओम्’ कहकर झटके से उठ गई। ओम् सृष्टि का प्रथम एवं अंतिम शब्द! पंडितजी मंदिर के पीछे फुलवारी सँभालने चले गए थे। जब कात्यायनी वहाँ पहँुची तो वह बगीचे के बीचो-बीच खडे़ थे। वहाँ बेला, चमेली, जूही, चंपा सभी फूल थे। मैनाएँ इत्मीनान से तुलसी के पौधों के बीच विचरण कर रही थीं। पिता-पुत्री ने मिट्टी खाद डालकर गुलाब के पौधे लगाए।

स्नान के बाद ‘ओम् नमः शिवाय’ उच्चारण कर पंडितजी पूजा-अर्चना के लिए मंदिर चले गए। कात्यायनी भी शंकर स्तुति करने लगी। मंदिर के घंटे-घडि़याल की आवाज सुनते ही बोली, ‘बाबा रे! नौ बज गए। सादिया आती ही होगी।’ अब तो वह भी उसे उस लड़के को लेकर चिढ़ाती है। उसकी छवि फिर आँखों के सामने आ गई।

रहीम खुदा का सौ-सौ दफा शुक्र कर रहा था। आज तीन-चार दिनों के बाद उस लड़की को देखा था। एक सतरंगी दुनिया में ख्वाब झिलमिल तैर रहे थे। सामने से आते हुए आलोक ने पूछा, ‘कैसी रही ईद?’

‘बहुत अच्छी।’ एक भेद भरी मुसकान थी, उसके चेहरे पर।

‘एक साथ आपकी दो-दो ईद हुईं क्या?’

‘क्या सारी बात बताना जरूरी है?’

‘हाँ जरूरी है, तुम मेरे दोस्त हो। तुम्हारे अच्छे-बुरे का ध्यान तो रखना ही पडे़गा।’

‘अब क्या बताएँ, जो बताया न जा सके।’

‘ये प्राणों का व्याकुल होना बड़ा रहस्यजनक लगता है।’

‘जो हम देखते हैं, वही दुनिया नहीं है। दुनिया वह है, जो मन में रहती है, ख्वाबों में रहती है। हमारे ख्वाबों की दुनिया बाहर की दुनिया से बहुत बड़ी है।’

‘यार, तुम भी न! जाने वह लड़की कौन है, किसकी है? आशिकी में गलतफहमी का शिकार होना ताज्जुब की बात नहीं। आशिक बेपरवाह हो जाते हैं।’

‘देखो दुश्मनों जैसी बात न करो।’

‘ना-ना, हम तो आपकी दोस्ती चाहते हैं, दुश्मनी नहीं।’

‘ये हुई न बात।’ वह अचानक भावुक हो गया, ‘अब्बू का तबादला होनेवाला है यहाँ से। किसी दिन भी ऑर्डर आ सकता है। लेकिन आलोक, हम जाना नहीं चाहते। यहाँ की जिंदगी मुझे बहुत प्यारी है।’

‘चलो इसी बात पर कल पंकज टॉकीज चलते हैं। श्रीदेवी की फिल्म लगी है ‘चाँदनी’।’

‘कल तो नहीं जा सकूँगा। करीम चक में ईद का मेला लगता है। मेले-ठेले में जाना हमको जरा पसंद नहीं, लेकिन अम्मी के लिए कुछ मजहबी किताबें लेनी हैं, सो जाना पडे़गा।’

आलोक के जाने के बाद उसने जोर से कहा, ‘मैं आशिक हूँ।’ उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि कोई आसपास तो नहीं। खुदा का शुक्र, एक चिड़िया तक नहीं थी।

ईद का मेला था। बेतरह शोर, हजारों की भीड़। जहाँ तक नजर जाती, सिर्फ लोग ही लोग नजर आ रहे थे। कतार की कतार दुकानें थीं। रोशन चौकी पर शहनाई और बाँसुरी बज रही थी। दूसरी तरफ नजारा कुछ और था। बर्फ चढ़ी मिठाइयाँ, दही-बडे़, हाजमी जलजीरे के पानी का मटका, तली पकौड़ियाँ, कुल मिलाकर अजीब आलम था। कात्यायनी पहली बार ऐसे मेले में आई थी। सादिया के साथ उसे मजा भी खूब आ रहा था। सादिया की अम्मी और खाला इनका हर तरह से खयाल रखे हुए थीं। सादिया ने कहा, ‘यहाँ बड़ी गरमी है, चलो शिमला चलते हैं, वहाँ इतनी गरमी नहीं।’

‘क्यों? वहाँ क्या सूरज घूँघट काढ़ के निकलता है?’ खाला ने पूछा।

‘नहीं खाला! बुरका पहनकर।’ कात्यायनी ने कहा।

इस पर सब हँस पड़ीं। वे एक चूड़ी की दुकान पर चूड़ियाँ खरीदने लगीं। मोल-भाव करते समय वे सब एक साथ बोलने लगीं तो दुकानदार खफा हो गया। चूडि़याँ लेकर, बटुआ दाबे कात्यायनी सबके साथ आगे बढ़ गई। एक फकीर एकतारा किस्म की चीज को बड़ी आसानी से बजा रहा था। तमाशबीनों की कमी नहीं थी। इस धक्का-मुक्की में उसके हाथ से छूटकर बटुआ गिर गया। उठाने के लिए झुकी तो किसी ने उसे धक्का मार दिया। जितनी बार झुकती, कोई-न-कोई धकेल देता। कुछ औरतों ने तो दो-चार बातें भी सुना दीं। डर के मारे वह इधर-उधर देखने लगी। उसे न सादिया नजर आई, न अम्मी, न खाला। उसने देखा, सादिया परेशान आँखों से उसे ढूँढ़ रही है। वह उस तरफ बढ़ी। लेकिन पीछे से लोगों का ऐसा रेला आया कि वह दोबारा खो गई। वह बिछुड़ गई है। समझ में आते ही उसकी सारी खुशी हवा हो गई। वह भीतर तक काँप उठी। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।

वह भीड़ से छिटककर दूर एक पेड़ के नीचे जा खड़ी हुई। क्या करे अब? सादिया का इंतजार करना बेकार था। भला इस शोरगुल में वह उसे कैसे ढूँढ़ पाएगी? आतंक उसकी आँखों में उतर आया। कान के लवे सुलगने लगे, गला सूखने लगा और हथेलियाँ पसीज रही थीं। दिल धक-धक कर रहा था। कहीं कोई सवारी नहीं, रिक्शा नहीं, टेंपो नहीं, कुछ भी नहीं। साँसें रुकने लगीं। वह दम साधे खड़ी थी। उधर मेला अपने पूरे चढ़ाव पर था।

रहीम एक तरफ खड़ा होकर दुनिया देख रहा था। उसकी निगाह उस लड़की पर पड़ी। बदन पर दुपट्टा लपेटे मूर्ति बनी खड़ी थी। नसीब का खेल शायद इसी को कहते हैं। आज का दिन खुशनसीबी का दिन है। खुदा का सौ-सौ शुक्र, लेकिन वह अंदाजा नहीं लगा पाया कि यह यहाँ अकेली खड़ी क्या कर रही है? किसका इंतजार कर रही है? लंबे-लंबे डग भरता वह उसके पास आया। दोनों आमने-सामने। जो रोज खयालों-ख्वाबों में आती है, वह इतनी करीब थी।

कात्यायनी भी उसे आश्चर्य से देखती रही, पलक झपकना भूल गई, रोना भूल गई। यह तो वही लड़का है, जो इस वक्त आसमान से उतरा फरिश्ता लग रहा था। रहीम अभय देनेवाली हँसी हँसा, ‘क्या हम कोई मदद कर सकते हैं?’ उसकी आवाज बेहद मुलायम थी।

किसी जलती शिखा की तरह काँपती आवाज में कात्यायनी ने अपने खोने की आपबीती सुना डाली। उसका तनाव कम हो गया था और उसकी आँखें रहीम पर टिकी थीं। वह गरदन झुकाकर उसकी बातों का अर्थ समझने की कोशिश कर रहा था, किंतु चेहरे पर आश्चर्य का भाव नहीं आने दिया। यों उसके आस-पास की हवा में साँस लेना उसके जीवन को सार्थक कर रहा था।

‘आप वापस लौटना चाहती हैं, लेकिन अभी रिक्शा मिलना मुश्किल है। आप चाहें तो हम आपके साथ पैदल जा सकते हैं। घंटे भर में देबूसराय पहुँच जाएँगे।’ कहकर वह चुप हो गया, पर ‘मैं हूँ न’ वाले भाव में उसकी खलिश, उदारता एवं आत्मीयता टपक रही थी।

कात्यायनी के मन में सैकड़ों सवाल आ-जा रहे थे। उसने नीचे के होंठ को ऊपर के दाँत से दबा लिया। लड़कियों की छठी इंद्री इन मामलों में बहुत सजग होती है। वे भाँप जाती हैं कि कौन किस नीयत का है। ‘हाँ’ कहकर उसने बाईं तरफ सिर झुका दिया। उसका दिल धक से धड़ककर थम गया।

रहीम ने उसे आँखें उठाकर देखा, कहा कुछ नहीं। दोनों ऐसे चल पडे़ जैसे पहले से कोई करार हो। रास्ते में राहगीरों की भीड़ थी, लेकिन शोरगुल के बीच भी एक खामोशी थी। कात्यायनी के भीतर भय की लहर उफनकर गुजर गई थी, ‘हमको मेले में नहीं आना चाहिए था। अभी आप नहीं मिलते तो...’ उसे आगे कुछ कहते न बना।

‘क्यों नहीं आना चाहिए, मेला लगता ही है लोगों के लिए। पहले से कोई मिलने-बिछुड़ने को थोडे़ ही जानता है।’

‘सादिया के कहने से हम यहाँ आए। ऊ तो अच्छा था कि हमारा ई तय था कि जो भी मेला में भुलाएगा, ऊ सीधे रिक्शा लेकर घर लौट जाएगा।’ आवाज में हल्का सा कंपन था और मासूमियत भी।

रहीम उसके चेहरे को अच्छी तरह देखने लगा तो वह दूसरी तरफ देखने लगी। उसको भी इस तरह किसी लड़की के साथ चलने की आदत न थी। चलते-चलते वे मसजिद पार कर गए। अब जगह ऊबड़-खाबड़ थी, घास के बीच मिट्टी का टीला सा निकला था। चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे पेड़, लतर, कँटीली बेलें थीं। उसी में एक पतला रास्ता चला गया था। पेड़ों के झुरमुट के बीच से रोशनी धरती पर आ रही थी। कहीं-कहीं से चिड़ियाँ बोल उठतीं। उनकी बातचीत का कोई सिलसिलेवार तरतीब न था। वे ज्यादातर चुप थे, लेकिन ऐसे में हवाएँ चुप नहीं रहतीं। उन पर वसंत का असर आ जाता है। ये ठंडी हवाएँ रह-रहकर कात्यायनी के बालों को उड़ा देतीं, जो बडे़ रोमांटिक अंदाज से उसके गालों पर छा जाते और हवा मौसम की बाँसुरी बजाने लगती। आनंद के अतिरेक में रहीम का पूरा शरीर ऊर्जा से तरंगित था। उसको यह जन्नत का टुकड़ा लग रहा था। मन-ही-मन कितना सोच डाला। वह कहना चाहता था, ‘कल कॉलेज से लौटते वक्त मजार के पास आपका इंतजार करूँगा, आप आइएगा।’ पर उसमें ऐसा कुछ कहने की हिम्मत ही न थी। इनसान आसमान में चमकनेवाली बिजली से भी जल्दी सोचता है, मगर आँखों के सामने इनसान का काम दुनिया की चाल के मुताबिक चलता है।

‘आप कल कॉलेज जाएँगी?’

‘क्यों?’ कहकर वह हँस दी।

इस हँसी ने उसे दुविधा में डाल दिया कि यह पास खींच रही है या दूर ढकेल रही है। उसके चेहरे से समझ पाना मुश्किल था। अब पक्की सड़क आ गई थी। मन का हाल इजहार किए बगैर रहीम ने कहा, ‘हम पहुँचने ही वाले हैं।’

कात्यायनी ने कृतज्ञता से उसे देखा तो उसका जैसे जीवन धन्य हो गया। किसी इनसान को खुश कर पाने से कितना सुकून महसूस होता है। उसने कुछ कहना चाहा, पर कुछ लोगों को आते हुए देखकर चुप हो गया। एक लड़की का इस तरह एक अजनबी के साथ चलना यहाँ के कायदे के खिलाफ था। दिन की रोशनी खत्म हो रही थी। उसके दिल में कोई लौ जल रही थी, मानो वह मन में बहुत कुछ सँजो रहा है। मंदिर में कीर्तन हो रहा था। आवाज सड़क तक आ रही थी। कात्यायनी मंदिर के पिछले द्वार पर ठहर गई, ‘आ गया मेरा घर, आज आप नहीं मिलते तो भगवान् जाने क्या होता!’

उसने धड़कते दिल से पूछा, ‘आप कहाँ रहती हैं।’

‘यहीं, मेरे पिताजी इसी मंदिर के पुजारी हैं। कात्यायनी नाम है मेरा और आपका?’ कहकर हँस दी।

वह सन्न रह गया। उसके हँसने का उस पर कोई असर नहीं हुआ। ‘तो क्या...तो क्या ये हिंदू है।’ अब तक वह उसे मुसलमान माने बैठा था। तीखे नाक-नक्श से तो यह एकदम मुलतानी लगती है। वह उससे कितना कुछ पूछना चाहता था, पर सारी जिज्ञासाएँ बिखरी पड़ी थीं। उसके चेहरे को देख कात्यायनी को लगा, कहीं कुछ गलत तो नहीं कह दिया, जिससे उसे ठेस पहुँची हो। वह जाते-जाते रुक गई, उसे देखा, फिर एक शब्द बोले बगैर आगे जाकर गायब हो गई। शाम होने के बावजूद रहीम के माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आईं। इस तकलीफ को वही समझ सकता है, जो कोई ख्वाब पालता है। कितनी ही देर तक वह इस भाव में था, उसे याद नहीं। ठहरा वक्त फड़फड़ा रहा था। बंद रह गए कबूतर की तरह।

कात्यायनी जब घर लौटी तो उसका मन भरा-भरा था, लेकिन पंडितजी का मन बेकाबू हो रहा था, सब्र का बाँध टूट रहा था। बेटी को देखते ही उसकी दोनों हथेलियाँ इस तरह पकड़ लीं, मानो वह अभी-अभी पानी में डूबकर बाहर निकली हो। वे आतंकित भाव से बोले, ‘अब तुम मीना बाजार मत जाना, हमको बड़ी चिंता हो रही थी।’

घर पहुँचकर कात्यायनी का डर खत्म हो गया था, ‘आप सोचते बहुत हैं बाबू!’ फिर एक अनजाने सुख से बोली, ‘ठीक है, अब से नहीं जाएँगे।’ मेले में खोने की बात उसने जान-बूझकर नहीं बताई। इससे बाबू और परेशान हो जाते।

पंडितजी का चेहरा स्वाभाविक हो गया। अँधेरे में उगा चाँद बाग पर धुँधला प्रकाश बिखेर रहा था। वह धीमे-धीमे मुसकरा रही थी। रहीम के साथ बिताए पल उसकी आँखों के सामने उग रहे थे।

घर पहुँचकर भी रहीम के सीने में एक अनजानी सी ऐंठन हो रही थी। एक भीषण अंतर्द्वंद्व ने उसे चक्रवात की तरह घेर लिया था। दिमाग में जैसे अदालत लगी हो। किसी के मुँह पर मजहब लिखा होता है क्या? कोई हिसाब लगाकर इश्क करता है क्या? प्यार का कोई मजहब होता है क्या? हिंदू और मुसलमान के बीच सूफी प्रेम बाँटते हैं, वे भेदभाव नहीं करते। किसी धार्मिक गुरु ने कहा है—कुरान की बहुत सी बातें हिंदुओं के वेद में मिल जाएँगी। हिंदुओं का कहना है—भगवान् प्रेम से वश में आते हैं, डर से नहीं। इस बात को मुसलमान भी मानते हैं। प्यार करना खुदा की देन है। उसकी बुद्धि धर्म और प्रेम के बीच पड़कर झूल रही थी। ‘क्या उसे भगाकर कहीं ले जाऊँ?’

‘कहाँ जाओगे भागकर?’

‘इतने बडे़ हिंदुस्तान में हमें जगह नहीं मिलेगी क्या?’

‘तुम पहली औलाद हो, अब्बू ने न जाने कितने ख्वाब देखे हैं।’

उसकी चेतना रोकती, उप चेतना ठेलती। उसे बोधगम्य शब्दों में उत्तर नहीं मिल रहा था। सब पहेली जैसा लग रहा था।

मानसिक थकान से उसकी आँखें मुँदती जा रही थीं। चारों तरफ बत्तियाँ बुझ गई थीं। रात में चरनेवाले पक्षी की कुब-कुब सुनाई दे रही थी। अँधेरे में जीवन प्रवाहित हो रहा था, अँधेरे में कायनात की रोशनी दिखाई दे रही थी। इसी अँधेरे में उसे पंडित रघुनाथ पांडे की याद आई।

सुबह उठा तो अम्मी ने खबर दी, ‘तुम्हारे अब्बू का तबादला पटना हो गया है। चलो, फिर से बाँधो बोरिया-बिस्तर!’ उनकी आवाज तेज थी, पर आँखों में अफसोस था। जब वह घर से निकला, उसके कदम खुद-ब-खुद मंदिर की ओर बढ़ने लगे। कुछ ही देर में वह पंडितजी के सामने था। वे सुबह-सुबह ठंडी हवा का आनंद ले रहे थे। उनकी दृष्टि रहीम पर पड़ी। कुछ पल खामोश रहने के बाद रहीम ने कहा, ‘आप से अपनी हाथ की रेखा पढ़वाने आए हैं।’

पंडितजी ने उसकी तरफ सीधी आँखों से देखा, उसका आंतरिक भाव बलात् प्रकट हो रहा था मानो मन में आँधी चल रही हो, लेकिन आँखों में सूरज की गरमाहट थी। पंडित ऐसे कहने पर हस्तरेखा नहीं पढ़ते थे, पर इस भोलेपन युक्त म्लान चेहरे को देखकर मना न कर सके। वे वहीं एक चौकी पर बैठ गए। रहीम ने हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘देखिए, जरा मेरा नसीब क्या कहता है?’

अपने दोनों हाथों से पंडितजी ने उसका हाथ पकड़ लिया। गोरी-चिट्टी हथेली पर लाल आभा के बीच कुछ दृढ रेखाएँ थीं। वह कुछ देर पढ़ने के भाव में डूबे रहे, फिर बोले, ‘इतनी प्रबल और भाग्यशाली रेखाएँ बहुत कम लोगों की होती हैं, सफलता सदा तुम्हारा द्वार खोलेगी।’

इसका रहीम पर कोई असर नहीं पड़ा। उसके सामने कात्यायनी का चेहरा उभर आया, ‘मेरा एक बेहद निजी सवाल है, वह हम किसी से नहीं कह सकते।’

‘ज्यों अत्यंत निजी है तो उसका गुप्त रहना ही अच्छा। उसे प्रकट करना ठीक नहीं।’

‘किसी बात को लेकर मेरे भीतर लड़ाई छिड़ गई है। एक मन ‘हाँ’ कहता है तो दूसरा मन ‘न’ क्यों कहता है, यह मैं जानना चाहता हूँ।’

‘जब मनुष्य अपने भीतर युद्ध करने लगता है, तब वह अवश्य ही किसी योग्य होता है। जीवन कौतूहल से भरा है। आदमी जानना चाहता है और यह जानने की इच्छा स्वाभाविक है।’

‘मेरी एक चाहत है, हम उसकी याद में दिन-रात खोए रहते हैं।’

‘तुम मोहग्रस्त हो गए हो। मोहग्रस्त होने से विचार मंद पड़ जाते हैं।’

‘हम क्या करें? हम तो चाहत के आसमान तक पहुँच गए हैं।’

‘आसमान तक पहुँच गए हो, वहाँ कोई दिशा नहीं रहती। सब तरफ आसमान ही आसमान है—सब तरफ रास्ता है।’

‘हम आजाद हैं, हममें ताकत भी है, पर कुछ ऐसा है, जो हमको उसे पाने से रोकता है।’

‘आजादी और ताकत अपने साथ जिम्मेदारी लाती है। हमें अपनी जिम्मेदारियों को खुद से ज्यादा गंभीरता से लेना चाहिए। सबका हित सबसे बड़ी बात है।’

पंडितजी की बातों को वह समझ रहा था। पर दिल था कि मानता ही नहीं था, ‘हमको लगता है, हम उसे जीत सकते हैं।’

‘तुमको लगता है कि तुम उसे जीत सकते हो, किंतु उसके पक्ष को भी जानो। जो किसी विषय में केवल अपना ही पक्ष जानता है, वह उस विषय में बहुत कम जानता है। किसी बात को यों ही मानकर मत चलें। भली-भाँति विचार करो। दूसरों को जीतने से अच्छा है, पहले स्वयं को जीतो।’ पंडितजी ऐसे बोल रहे थे जैसे कोई गुरु अपने शिष्य को जीवन का गूढ रहस्य बता रहा हो।

‘कुछ ही दिनों में यह शहर हम से छूट जाएगा, मेरे दोस्त छूट जाएँगे, मेरा...’

‘जीवन चलने का नाम है। प्रकृति भी सदैव क्रियाशील है। अनंत जीवन, अनंत प्रवाह। बुद्धिमत्ता से धीरे चलो। भरी नदी शांत बहती है। उनके पूजा-अर्चना का समय हो गया था, ‘ईश्वर तुम पर कृपा करें।’ कहकर वे उठ खडे़ हुए।

रहीम ने विनयपूर्वक सिर झुकाया और बिना कुछ कहे चला गया। कल से जो द्वंद्व मन को मथे दे रहा था, वही पंडितजी की रूहानी नसीहत से कुछ हद तक कम हो गया। घर आया तो अम्मी को परेशान देखा। अब्बू अपने ही अंदाज में उनको समझा रहे थे, ‘जो दूसरे के साथ मनमानी न करे, वही सच्चा मुसलमान है रहीम की अम्मी। आपको यह शहर छोड़ने का गम है, अरे भाई, सुबह को देखते ही लोग शाम को भूल जाते हैं।’

‘इस शहर के बिना हमारी जिंदगी बेकार हो जाएगी। यहीं...’

‘यह तो आशनाई हो गई न! कोई जगह या कोई भी आदमी को बेहिसाब चाहने से खराबी पैदा होती है। एक शहर, एक दोस्त छोड़ोगी, हजार शहर, हजार दोस्त तुम्हारे खातिर में मिलेंगे। तुम अकेली नहीं रहोगी। इस दुनिया में हम एक मुसाफिर की तरह आए हैं, सैर करके लौट जाना है। यह मेरा नहीं है, जो ऐसा मानते हैं, वही अक्लमंद होते हैं।’

रहीम मन-ही-मन नियत को बाँधकर खुदा को याद करने लगा। दुनिया का खेल ही ऐसा है कि कोई भी चीज ठहरी नहीं रहती। समय किसके लिए रुकता है, जो उसके लिए रुकता—एक जगह से दूसरी जगह, एक जिंदगी से दूसरी जिंदगी...दिन, मास, ऋतुएँ बदलती रहीं। कात्यायनी का तो नामोनिशान मिट गया था, अगर इस तरह आज...।

पहले वह कात्यायनी को आँख उठाकर देखने से कतरा रहा था। लेकिन देखने लगा तो देखता ही रह गया। आँखें न हटा सका। उसका चेहरा सुख से नहाया हुआ लग रहा था। उसका पति कहीं चला गया था। वह अकेली थी, बेखबर, वहाँ के शोर-शराबे से उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। रहीम को जानने की इच्छा हुई कि क्या वे दिन, वह मेला, मेले से लौटना उसे याद है? आज इस रहीम में उस रहीम को ढूँढ़ पाना मुश्किल है। दाढ़ी-मूँछ से ढका उसका चेहरा भले न पहचाना जा सके, पर उसकी आवाज को पहचाननेवाले पहचान ही सकते हैं। वह उसकी तरफ बढ़ने लगा। जब तक वह पहुँचता, उसका पति आ गया, ‘‘हाँ बताओ, तुम कुछ कह रही थीं?’’

‘‘हाँ’’, अपनी पुरानी आदत के मुताबिक उसने बाईं ओर से झुककर कुछ कहा।

पति हँस पड़ा, ‘‘एक ही बात को कितनी बार कहोगी?’’

धड़धड़ाती गाड़ी स्टेशन पर आ पहुँची। हलचल मच गई। सवारियाँ चढ़ने के लिए दौड़ लगाने लगीं। हर तरफ से निकलते शब्दों का मिश्रण एक शोर बनकर उभरने लगा। कात्यायनी भी खड़ी हुई। रहीम पर उसकी दृष्टि पड़ी। असमंजस में उसे देखने लगी। आँखों में लहराया असमंजस पल भर में खो गया। उसके चेहरे पर स्वतः एक मुसकान थिरकी। वह भी मुसकरा दिया। विचार-शून्य मुसकराहट। उम्र के साथ भावनाओं को नियंत्रण में रखना साध लिया था। वे एक-दूसरे को देख रहे थे, यह देखना उस देखने से कितना अलग था। दोनों में से कोई अंदाजा नहीं लगा पा रहा था कि क्या कहना चाहिए। समय स्तंभित समुद्र की तरह थम गया था। वक्त रंग बदलता है, जो नहीं बदलता, वह भी क्या वैसा है, जो पहले था? इतनी भावुकता में भी कात्यायनी का ध्यान पति की ओर था। वह मुड़ी और पति के पीछे चल पड़ी। रहीम की नजर उसकी पीठ पर जम गई। वह उल्का की तरह जैसे अचानक आई थी, वैसे ही चली गई।

अपना डब्बा खोजकर वह भी अपनी जगह आ बैठा। एक सीटी देकर गाड़ी चल दी। उसकी दुनिया में सबकुछ पहले की तरह होने लगा। लेकिन हवाएँ तो चुप नहीं रहतीं। स्वप्न, स्मृति, यथार्थ की भूल-भूलैया में उसे भटकाने लगीं। गाड़ी की रफ्तार बढ़ती जा रही थी, बाकी सब छूटता जा रहा था।

—मृदुला बिहारी
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