RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
E-mail: sahityaamritindia@gmail.com
दीवाली आई, रात सुहानी ले आईपुरा काल से लेकर आज तक ज्ञान-अज्ञान का जो सतत संघर्ष चलता रहा है, उसी का पावनतम प्रतीक युग-युग से संपोषित और अपनाया जानेवाला दीपावली-पर्व है। वे भारतीय पर्व और उत्सव, जो आनंद की रसधार बहाने में प्रमुख स्थान रखते हैं, उन सब में दीपावली इसलिए और भी अनुपम बन जाती है कि राजा-रंक, धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित, सज्जन-दुर्जन, योद्धा-कायर, मूर्ख-विद्वान् आदि से उसका समान संबंध रहा है और रहेगा। दीपावली का दिन गृहों की स्वच्छता तथ सजावट का दिन होता है। दुकानों में जवानी आ जाती है। उनमें लावा, लाई, गट्टा, बताशा, पात्र-प्रतिमाओं आदि का प्राचुर्य हो जाता है। सायं लक्ष्मी-पूजन के उपरांत दीपमालिका से अणु-अणु आलोकित करने का मधुर आयोजन संपन्न होता है। व्यवसायी, कृषक, छात्र, अध्यापक आदि सभी अपने गृह और उपयोगी कहे जानेवाले साधनों को दीप-ज्योति से ज्योतित कर देते हैं। इस अवसर पर विद्युत् जैसे अधुनातन वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग भी विज्ञान और संस्कृति के संबंध को स्थायी करता परिलक्षित होता है। जागरण का प्रतीक दीप विभिन्न वर्ग के व्यक्ति के लिए प्रेरणा-पुंज बनकर आता है। साफल्य-प्राप्ति की कामनाएँ इसी दीप के आगे संपन्न होती हैं। प्राचीन हिंदी-कवियों ने दीपमालिका का विस्तृत वर्णन किया है। आधुनिक हिंदी-कवियों ने भी इसके महत्त्वांकन में पीछे रहना स्वीकार नहीं किया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ब्रज-वधूटियों की दीपमालिका का वैशिष्ट्य निम्नलिखित पंक्तियों में प्रकट कर रहे हैं— आज तरनि-तनया निकट परम परमा प्रकट, पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ दीपावली को संबोधित करते हुए उसकी अनंतता, दृढता और आलोकप्रियता का चारू चित्रण करते हैं— सजी फूलों से रहती हो, संसार को ज्योतिर्मय एवं नव्य जीवन-प्रवाह परिपूर्ण करने की पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ कोमल पद-गामिनी दीपावली से अनुनय कर रहे हैं— प्रिय कोमल पद-गामिनि! मंद उतर पंडित सुमित्रानंदन पंत द्वारा दीप-पंक्तियों का मोहक वर्णन प्रस्तुत है— ये कवि के दीपों की पातें, श्रीमती महादेवी वर्मा विश्वास संवलित दीपक के सहज आलोक के स्वामित्व की माँग अपनी भावभीनी शैली में प्रकट कर रही हैं— मेरे विश्वासों से द्रुततर, पंडित रूपनारायण पांडेय ‘कमलाकर’ अप्सरा जैसी स्वर्ण-लोक से उतरनेवाली दीपावली को विश्व में प्रकाश बाँटनेवाली सिद्ध करते हैं— तम-तोम का तापस तोड़ती त्यों, भ्रम-भावना-भीति भगाती हुई। वसुधा की पुलकित दीपावली का रम्य रूप डॉ. हरिवंश राय ‘बच्चन’ की कविता में व्यक्त हुआ है— आँख हमारी नभ-मंडल पर, पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ दीपोत्सव का मधुर पक्ष उद्घाटित कर रहे हैं— बहिना, आज सजा दो धीरे-धीरे दीप-अवलियाँ, डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने दीपोत्सव पर प्रकाश डाला है— आज तुम दुहरा रहे हो प्रथा केवल, श्री स.ही. वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जहाँ दीप को पंक्ति में देने के आग्रह से व्यक्ति के समाज में अंतर्भुक्त होने की भावना को स्वतंत्रता के साथ व्यक्त करते हैं, वहीं दीपावली में प्रत्येक दीपक के महत्त्व की घोषणा भी करते हैं— यह दीप अकेला स्नेह भरा डॉ. रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ दीपों के बहाने अपनी प्रेयसी का मधुर स्मरण कर रहे हैं— तेरी रूप-शिखा में मेरे अंधकार के क्षण जल जाते। दीपोत्सव की शाश्वता को श्री गिरिजा कुमार माथुर ने इस प्रकार प्रकट किया है— झिलमिलाते जलते दीप धरा के सदियों से श्री गोपाल सिंह नेपाली दीपों और तारों की संख्या को समान बतला रहे हैं— दीपावली दीपों का मेला, श्री देवराज ‘दिनेश’ ने दीपावली में जलनेवाले दीपक को नवीन परिसर का उद्घाटक बतलाया है— प्रतिवर्ष सुखद सुंदर दीवाली आती है, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की वास्तविक घोषणा करनेवाली दीपमालिका का झिलमिलाता, जगमगाता और चमकीला तेजोमय प्रकाश दुर्गण-विनाश की साधना और उन्नति के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देता हुआ सबके मन का प्रिय बनता है तथा सभी को समान रूप से प्रभावित एवं आलोकित करता है। वह ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का पावन संदेश देता है। —नलिनी मिश्र |
अप्रैल 2024
हमारे संकलनFeatured |