दीवाली आई, रात सुहानी ले आई

दीवाली आई, रात सुहानी ले आई

पुरा काल से लेकर आज तक ज्ञान-अज्ञान का जो सतत संघर्ष चलता रहा है, उसी का पावनतम प्रतीक युग-युग से संपोषित और अपनाया जानेवाला दीपावली-पर्व है। वे भारतीय पर्व और उत्सव, जो आनंद की रसधार बहाने में प्रमुख स्थान रखते हैं, उन सब में दीपावली इसलिए और भी अनुपम बन जाती है कि राजा-रंक, धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित, सज्जन-दुर्जन, योद्धा-कायर, मूर्ख-विद्वान् आदि से उसका समान संबंध रहा है और रहेगा।

दीपावली का दिन गृहों की स्वच्छता तथ सजावट का दिन होता है। दुकानों में जवानी आ जाती है। उनमें लावा, लाई, गट्टा, बताशा, पात्र-प्रतिमाओं आदि का प्राचुर्य हो जाता है। सायं लक्ष्मी-पूजन के उपरांत दीपमालिका से अणु-अणु आलोकित करने का मधुर आयोजन संपन्न होता है। व्यवसायी, कृषक, छात्र, अध्यापक आदि सभी अपने गृह और उपयोगी कहे जानेवाले साधनों को दीप-ज्योति से ज्योतित कर देते हैं। इस अवसर पर विद्युत् जैसे अधुनातन वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग भी विज्ञान और संस्कृति के संबंध को स्थायी करता परिलक्षित होता है।

जागरण का प्रतीक दीप विभिन्न वर्ग के व्यक्ति के लिए प्रेरणा-पुंज बनकर आता है। साफल्य-प्राप्ति की कामनाएँ इसी दीप के आगे संपन्न होती हैं। प्राचीन हिंदी-कवियों ने दीपमालिका का विस्तृत वर्णन किया है। आधुनिक हिंदी-कवियों ने भी इसके महत्त्वांकन में पीछे रहना स्वीकार नहीं किया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ब्रज-वधूटियों की दीपमालिका का वैशिष्ट्य निम्नलिखित पंक्तियों में प्रकट कर रहे हैं—

आज तरनि-तनया निकट परम परमा प्रकट,
ब्रज-बधुन मिली रची दीप-माला।
ज्योति-जाल जगमग दृष्टि थिर नहीं लगत,
छूट छवि को परत अति बिसाला॥

पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ दीपावली को संबोधित करते हुए उसकी अनंतता, दृढता और आलोकप्रियता का चारू चित्रण करते हैं—

सजी फूलों से रहती हो,
सुंदरी सर-सा महती हो।
ज्योति-धारा में बहती हो,
न जाने क्या-क्या कहती हो।
झलक किसकी है दृग में बसी,
क्यों नहीं पलक लगाती हो।

संसार को ज्योतिर्मय एवं नव्य जीवन-प्रवाह परिपूर्ण करने की पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ कोमल पद-गामिनी दीपावली से अनुनय कर रहे हैं—

प्रिय कोमल पद-गामिनि! मंद उतर
जीवन्मृत तरु-तण गुल्मों की पृथ्वी पर,
हँस-हँस निज पथ आलोकित कर
नूतन जीवन भर दो!
जग को ज्योतिर्मय कर दो!!

पंडित सुमित्रानंदन पंत द्वारा दीप-पंक्तियों का मोहक वर्णन प्रस्तुत है—

ये कवि के दीपों की पातें,
शलभ प्रीति शोभा पंखों से,
चंचल मन कहती घातें।
प्राण-वर्तिका जलस्र हो उज्ज्वल,
मिट्टी से उठ मिल लौ के बल,
आलोकित कर भव रजनी को,
करती हँस तारों से बातें।

श्रीमती महादेवी वर्मा विश्वास संवलित दीपक के सहज आलोक के स्वामित्व की माँग अपनी भावभीनी शैली में प्रकट कर रही हैं—

मेरे विश्वासों से द्रुततर,
सुभग, न तू बुझने का भय कर।
मैं अंचल की ओट किए हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल।
सहज-सहज मेरे दीपक जल।

पंडित रूपनारायण पांडेय ‘कमलाकर’ अप्सरा जैसी स्वर्ण-लोक से उतरनेवाली दीपावली को विश्व में प्रकाश बाँटनेवाली सिद्ध करते हैं—

तम-तोम का तापस तोड़ती त्यों, भ्रम-भावना-भीति भगाती हुई।
कमला की उतारती आरती सी, दुःख-दैन्य में आग लगाती हुई॥
सुर बालिका सी यह दीपमालिका, हर्ष हिये उपजाती हुई।
चली आरती अंबर से उतरी, जग में जुग-जोति जगाती हुई॥

वसुधा की पुलकित दीपावली का रम्य रूप डॉ. हरिवंश राय ‘बच्चन’ की कविता में व्यक्त हुआ है—

आँख हमारी नभ-मंडल पर,
वहीं हमारा नीलम का घर।
दीपमालिका मना रही है,
रात हमारी तारोंवाली।
साथी, घर-घर आज दीवाली॥

पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ दीपोत्सव का मधुर पक्ष उद्घाटित कर रहे हैं—

बहिना, आज सजा दो धीरे-धीरे दीप-अवलियाँ,
घनी साँझ-वेला, आलोकित हो जीवन की गलियाँ ;
रूखे दीप तेल के प्यासे, भर दो पलियाँ-पलियाँ,
अंचल ओट करो खिल जाएँ, ये संध्या की कलियाँ।

डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने दीपोत्सव पर प्रकाश डाला है—

आज तुम दुहरा रहे हो प्रथा केवल,
आज घट-घट में नहीं है स्नेह-संबल।
आज जन-जन में नहीं है ज्योति का बल,
आज सूनी वर्तिका का सुलगता गुल।
दीप बुझते जा रहे हैं विवश ढुल-ढुल॥

श्री स.ही. वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जहाँ दीप को पंक्ति में देने के आग्रह से व्यक्ति के समाज में अंतर्भुक्त होने की भावना को स्वतंत्रता के साथ व्यक्त करते हैं, वहीं दीपावली में प्रत्येक दीपक के महत्त्व की घोषणा भी करते हैं—

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर।
इसको भी पंक्ति को दे दो।

डॉ. रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ दीपों के बहाने अपनी प्रेयसी का मधुर स्मरण कर रहे हैं—

तेरी रूप-शिखा में मेरे अंधकार के क्षण जल जाते।
तेरी सुधि के तारे मेरे जीवन को आकाश बनाते।
आज बन गया हूँ, मैं इन दीपों का केवल तेरे नाते।

दीपोत्सव की शाश्वता को श्री गिरिजा कुमार माथुर ने इस प्रकार प्रकट किया है—

झिलमिलाते जलते दीप धरा के सदियों से
जीवन की लौ उठती रहती
नगर, ग्राम, वन, नदियों से!

श्री गोपाल सिंह नेपाली दीपों और तारों की संख्या को समान बतला रहे हैं—

दीपावली दीपों का मेला,
झिलमिलाते महल-कुटी गलियारे।
भारत भर में उतने दीपक जलते,
जितने नभ में तारे।

श्री देवराज ‘दिनेश’ ने दीपावली में जलनेवाले दीपक को नवीन परिसर का उद्घाटक बतलाया है—

प्रतिवर्ष सुखद सुंदर दीवाली आती है,
जीवन के पथ पर अगणित दीप जलाती है।
यह नन्हे-नन्हे दीप नशीले हैं कितने,
इनके आगे तारों की नगरी शरमाई।
दीवाली आई, रात सुहानी ले आई।

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की वास्तविक घोषणा करनेवाली दीपमालिका का झिलमिलाता, जगमगाता और चमकीला तेजोमय प्रकाश दुर्गण-विनाश की साधना और उन्नति के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देता हुआ सबके मन का प्रिय बनता है तथा सभी को समान रूप से प्रभावित एवं आलोकित करता है। वह ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का पावन संदेश देता है।

—नलिनी मिश्र
एम-१/६३, सेक्टर-बी,
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४ (उ.प्र.)
दूरभाष : ९९८४७६२६५८

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