बिताएँ वीरभूमि पर चंद दिन

बिताएँ वीरभूमि पर चंद दिन

दिसंबर का महीना, जहाँ उत्तर भारतीयों के लिए शीतकाल है, वहीं मध्य भारत, विशेष रूप से राजस्थान के लिए वसंत। जब यहाँ गुलाबी ठंड की अनुभूति होती है, ऐसे में पर्यटन के शौकीनों को वहाँ जाने का अवसर मिल जाए तो बात ही क्या! यह भी संयोग कहिए कि एक गाड़ी (कालका-जोधपुर) पटियाला होकर जाती है। यों भी लौहपथगामिनी की यात्रा हम जैसे अधेड़ उम्र के लोगों के लिए सुकून भरी होती है, बस आरक्षण करा लिया। २० दिसंबर, २००९ का वह दिन भी आ पहुँचा, जब हम बालू के चमकते पहाड़ों पर पहुँचेंगे। यद्यपि पटियाला में गाड़ी के पहुँचने का समय मध्य रात्रि १२:४५ है, फिर भी हमें न रात्रि की चिंता थी और न शीत की। स्टेशन तक पहुँचाने का शुभ कार्य अपने पुत्र आयुष्मान प्रभात ने संपन्न किया।

सवा बारह बजे हम स्टेशन पहुँच गए। १५ मिनट के विलंब से गाड़ी ठीक एक बजे स्टेशन पर आकर रुकी और हम अपने निर्धारित डिब्बे एस-२ की निर्धारित बर्थों पर पहुँच गए। पहले से लेटे हुए यात्रियों को उठाना चूँकि अच्छा नहीं लगता, इसलिए उनसे क्षमा-याचना करते हुए हमने उनसे अपने लिए स्थान माँगा। थोड़ी ना-नुकुर के बाद उन्होंने हमें स्थान दे दिया। गाड़ी भी सरकने लगी। कुछ देर बाद जाने कैसे जब उन्हें विदित हुआ कि वे हमारी बर्थ पर हैं तो आत्मग्लानि की अनुभूति करते हुए चुपचाप कहीं खिसक गए। हमारे आसपास जो सहयात्री थे, सौभाग्य से केंद्रीय विद्यालयों के अध्यापक थे, जो चंडीगढ़ से प्राचार्य व उपप्राचार्य की लिखित परीक्षा देकर जा रहे थे। इससे यह तो स्पष्ट हो ही रहा था कि वे सब पी.जी.टी. थे, उनकी वार्त्ता यह भी बता रही थी कि वे सभी राजस्थान के जैसलमेर व बाड़मेर जैसे नगरों में स्थापित केंद्रीय विद्यालयों में कार्यरत हैं। हमारी रुचि व जिज्ञासा दोनों ही उनकी वार्त्ता की ओर आकृष्ट हो जाने से निद्रा कहीं पलायन कर गई।

गाड़ी अपनी गति से बढ़ रही थी। भटिंडा, हनुमानगढ़, लालगढ़ व बीकानेर होते हुए नागौर पहुँची, जहाँ बाड़मेर व हरिद्वार को मार्ग देने के लिए लगभग पचास मिनट ठहरी रही। मध्याह्न हो चला था। यहाँ से मेड़ता पहुँचे तो लगा, फिर से पंजाब के आसपास आ गए हैं, क्योंकि कुछ खेत, हरियाली व पशुधन भी दृष्टिगोचर होने लगा था। सायं काल होते-होते अपना गंतव्य स्टेशन ‘जोधपुर’ आ गया। हमें गाड़ी में सहयात्रियों से विदाई लेनी थी, ली और उतर गए।

आज का हमारा पड़ाव ‘जोधपुर’ था, यों भी सायंकाल हो चुका था। स्टेशन के समीप ‘अग्रवाल होटल’ में कमरा मिल गया। सामान वहाँ रखकर थोड़ा तरोताजा हुए।

‘जोधपुर’, लगा कि कहीं यह जोधाबाई के नाम पर विकसित तो नहीं हुआ?पर नहीं, यह शहर तो राजा जोधासिंह के जोरावर की गाथा है। रात्रि दस्तक दे रही थी, पूर्व रात्रि भी जागरण सा रहा, इसलिए कुछ पेटपूजा, कुछ अगले दिन की आवश्यक जानकारी जुटा, विश्राम करना ही उचित लगा।

२२ दिसंबर की प्रातः उठकर नित्य कर्मों से निवृत्ति के बाद कमरे से निकल पड़े। अल्प जल्याहार कर एक ऑटो रिक्शा लेकर अपनी पहली मंजिल ‘उमेद भवन’ की ओर चल पड़े, जो ‘राई का बाग’ क्षेत्र में स्थित है। ‘उम्मेद भवन’ विश्व का विशालतम भवन। महाराजा उम्मेद सिंह द्वारा निर्मित होने से ‘उम्मेद भवन’ कहलाता है। छीतर झील के पास होने से इसे ‘छीतर भवन’ भी कहते हैं। इसके निर्माण में बीस वर्ष का समय लगा। यह भवन अपनी भव्य एवं उत्कृष्ट सज्जा से सज्जित है। इसमें ऐश्वर्य, विलास व आमोद-प्रमोद के सभी साधन उपलब्ध हैं। महल में प्रवेश द्वार के बाहर ही ४०,००० वर्ग फीट में फैला घास का मैदान, उसमें भी गुलाब की विभिन्न प्रजातियों के पुष्पों की फैली गंध सारे वातावरण को सुगंधित बना देती है।

महल के प्रवेश द्वार पर नियुक्त द्वारपाल ने बताया कि महल के तीन सौ तैंतालीस कमरों को ‘होटल’ के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। एक भाग में शाही परिवार रहता है। होटल में प्रवेश व वहाँ बैठकर चाय या कॉफी का एक कप, एक व्यक्ति (पर्यटक) के लिए कम-से-कम एक हजार रुपया खर्च, कोई आश्चर्य वाली बात नहीं। भूतल पर एक म्यूजियम बनाया गया है, जिसमें वहाँ के राजाओं की, उनके क्रियाकलापों की, युद्ध-कौशल की अनेकानेक जानकारी चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत की गई है। ‘भवन’ का मॉडल भी प्रदर्शित किया गया है। चित्र व मॉडल, सभी कुछ यहाँ के कलाकारों की कलाभिज्ञता को भी बताता है। सबकुछ इतना सुंदर, सजीव, भव्य व मनमोहक था कि दृष्टि किसी भी चित्र पर चिपक सी जाती थी, जिसे वहाँ से जबरन हटाना पड़ता था, क्योंकि अभी हमें अपने दूसरे गंतव्य की ओर बढ़ना था। गंतव्य था—मंडोर गार्डन।

यह शहर से ९-१० कि.मी. दूर उत्तर में स्थित है। यह उद्यान मारवाड़ की पुरानी राजधानी मांडव्यपुर के समीप जोधपुर नरेशों के द्वारा बनाया गया था। ‘मांडव्यपुर’ का ही उपभ्रंश रूप ‘मंडोर’ है। यहाँ उन नरेशों की समाधियाँ भी बनाई गई हैं तथा जिनके पुनरुद्वार का कार्य प्रगति पर था। रख-रखाव की दृष्टि से उद्यान सामान्य लगा, लेकिन शिल्पकला व स्थापत्य कला की दृष्टि से उत्कृष्ट है। यहाँ बनाया गया भगवान् कृष्ण का मंदिर कला की उत्कृष्टता का प्रमाण है। चट्टानों को काट-काटकर निर्मित सीढ़ीनुमा उद्यान दर्शनीय है। ‘रानी उद्यान’ के आगे तीन तलों वाली एक इमारत, इसकी प्रहरी जान पड़ती है। मार्ग के दोनों ओर जलाशय बने हैं, जो स्वच्छता व निर्मलता की प्रतीक्षा में चिंतित से जान पड़ते हैं। उद्यान में प्रवेश करते ही वहाँ के लोकगीत गायक अपने-अपने वाद्यों पर किसी-न-किसी हिंदी या राजस्थानी गीत की धुन छेड़कर, पर्यटकों को प्रसन्न कर उनसे कुछ दक्षिणा की आकांक्षा करते जान पड़ते थे, क्योंकि उनके बालक पर्यटकों के समीप आकर हाथ फैला रहे थे, जो उनकी विपन्न स्थिति बयाँ कर रहा था।

रानी उद्यान के बाईं ओर पहाड़ी की एक चट्टान पर वहाँ के वीरों व देवताओं की विशाल मूर्तियाँ बनाई गईं। चट्टान को काटकर मूर्तियों को दरशाया गया है, वह दृश्य अनुपम है। मंडोर गार्डन के दृश्यों से अभिभूत हम मेहरान गढ़ किले की ओर बढ़ने लगे, जो शहर के मध्य में ४०० फुट ऊँची पहाड़ी पर २० फीट से १२० फीट ऊँची दीवार के परकोटे से घिरा है। इसका निर्माण कार्य १४५९ में जोधाजी राव द्वारा कराया गया था। उसके परकोटे में जगह-जगह बुर्जियाँ बनाई गई हैं।

इस किले में भव्य प्रवेश द्वार जयपोल, लोहपोल व फतहपोल बने हैं। जयपोल तक आते-आते ही शहर नीचे रह जाता है और हम काफी ऊपर आ जाते हैं। दोपहर की रेगिस्तानी धूप व शाम की चमकती चाँदनी में शहर का भव्य व मनोरम दृश्य यहाँ से बड़ा ही मनभावन दिखाई देता है। ये प्रवेश द्वार जोधाजी राव के विभिन्न वंशजों द्वारा विजय के प्रतीक रूप में बनवाए गए हैं। द्वारों की दीवारों पर जौहर करनेवाली वीरांगनाओं के हस्तचिह्न भी बने हैं। दुर्ग के अंदर कई भव्य व विशाल भवन हैं, जैसे—मोतीमहल, फूलमहल, शीशमहल, दौलतखाना, फतहमहल व रानी सागर आदि। कहीं बैठकखाना तो कहीं दीवानेखास; दीवानेआम है तो होली चौक भी। होली चौक में ‘होली’ जैसे पर्व का भव्य आयोजन होता था, जिसमें सभी महिलाएँ सम्मिलित होकर उसका आनंद उठाती थीं। दीवाने खास की खासियत यह थी कि जब राजा किन्हीं विशिष्ट लोगों के साथ किसी विशेष विषय पर वार्त्ता करता था तो ऊपर की ओर दीवारों में निर्मित झरोखों में बैठकर रानियाँ भी उस विचार-विमर्श से अवगत होतीथीं।

यहाँ की कला की प्रदर्शनी हेतु पेंटिंग्स व दरिया भी प्रदर्शित की गई हैं। पेंटिंग्स वृक्षों की छालों व चावल पीसकर बनाए गए पेपर (कागज) पर तैयार की गई है, जिनमें प्रकृति के अवयवों से तैयार रंगों का प्रयोग किया गया है। एक कक्ष में दरियाँ बनाने की प्रक्रिया भी वास्तविक रूप में दिखाई गई है। सजावटी सामान माला, चूड़ियाँ व दरियाँ आदि उस प्रदर्शनी से क्रय भी की जा सकती हैं। यहीं चंडिका देवी का विशाल व भव्य मंदिर भी है, जो भारत के प्रमुख मंदिरों में गिना जाता है और प्रदेश का सर्वोत्तम मंदिर माना जाताहै।

इसके बाद हम दूसरी पहाड़ी पर स्थित ‘जसवंत थड़ा’ नाम से विख्यात जसवंत स्मारक देखने चल पड़े। आज का यह हमारा अंतिम दर्शनीय स्थल था, थक भी गए थे। सौभाग्य या दुर्भाग्य से उस दिन वह बंद था, किंतु प्रवेश-द्वार के एक ओर महादेव का मंदिर तो दूसरी ओर देव सरोवर। सरोवर में तो यों भी पर्यटकों का जाना निषेध था, हाँ यहाँ अनेक पक्षी भाँति-भाँति कीचिड़ियाँ चहचहाकर अपनी प्रसन्नता की सकारात्मक ऊर्जा पर्यटकों को प्रदान कर रही थीं। यह स्मारक १९०३ में महाराजा जसवंतसिंह की स्मृति में बनाया गया था। चार अन्य समाधियाँ भी बनाई गई हैं। सभी श्वेत चमचमाते संगमरमर पत्थर से बने हैं। जोधपुर के इन सभी स्थलों की चित्रकला, स्थापत्य कला व मूर्तिकला को देखकर  भारतीय कलाकारों को नमन करने का मन करता है। अब सूर्यदेव भी अपनी किरणों को समेट अस्ताचलगामी हो रहा था। फलतः हमने भी अपने विश्राम स्थल की ओर बढ़ना था, किंतु ऑटोवाला राजस्थानी हैंडीकाफ्ट समिति के शोरूम पर पहुँच गया, विवशतः हम भी वहाँ की वस्तुएँ देखने लगे और इच्छा न होने पर भी कुछ खरीदारी कर ली।

जोधपुर से जैसलमेर रात्रि की गाड़ी जोधपुर-जैसलमेर एक्सप्रेस से तत्काल का आरक्षण कराया और चल पड़े। अगली प्रातः २३.१२.२००९ को हम जैसलमेर स्टेशन पर उतरे ही थे, कई लोगों ने अपने होटल ले जाने के लिए हमें उसी प्रकार से घेर लिया जैसे प्रयागराज के पंडे यात्रियों को घेर लेते हैं। समय व्यर्थ न गँवाते हुए हम शीघ्र ही स्वागतम् होटल की वैन में बैठ गए और थोड़ी ही देर में हम होटल के स्वागत-कक्ष में आसीन थे।

एक कक्ष में हमारा सामान पहुँचाकर दिनभर का कार्यक्रम होटल के मालिक ने ऐसे निर्धारित कर दिया, जैसे किसी पूर्व परिचित अतिथि का। थोड़ी देर के बाद ही नगर-भ्रमण की व्यवस्था हो गई। हमारे साथ तीन परिवार और भी थे। सबसे पहले यहाँ का सबसे बड़ा आश्चर्य देखने गए—पटवा की हवेलियाँ। १८वीं सदी में शहर के प्रसिद्ध व्यापारी सेठ पटवा ने अपने पाँच पुत्रों के लिए इन हवेलियों का निर्माण कराया था। एक के निर्माण में १२ वर्ष का समय लगा। शहर के मध्य में खड़ी ये पाँच हवेलियाँ कलात्मक वास्तुशिल्प का अद्भुत नमूना हैं। इनकी छतें बहुत ही खूबसूरत पत्थर के खंभों (स्तंभों) पर खड़ी हैं। हवेलियों में पत्थर से बनी जालियों का काम, कई पारदर्शक झरोखे, सोने की कलम से की गई चित्रकारी, सीपी व काँच का कार्य पर्यटकों को आश्चर्यचकित कर देता है। इतना ही नहीं, एक तल से दूसरे तल पर पत्थर के ‘इंटरलॉक’ से ऐसे मिला दिया गया है कि पता ही नहीं लगता कि एक ही पत्थर से बना है या पत्थरों को जोड़कर बनाया गया है। धन्य हैं वे शिल्पकार, जिनके हाथ और मस्तिष्क ने यह करिश्मा किया है।

वर्तमान में तीन हवेलियाँ बिक चुकी हैं, एक हवेली में पटवा का कोई वंशज रहता है। एक हवेली पर्यटकों के दर्शनार्थ है। कहते हैं कि साल में एक बार राजा की सवारी इन हवेलियों के नीचे से जाती थी, क्योंकि हवेलियाँ रास्ते के दोनों ओर बनी हैं, ऊपर से पुल (छत) बनाकर उन्हें जोड़ दिया गया है। हवेलियों के झरोखे व छत से आम जन भी दर्शन करते थे। पर्यटकों के दर्शनार्थ हवेली में आज भी पाकशाला में प्रयुक्त होनेवाले बड़े-बड़े पात्र, पानी रखने के लिए विशालकाय घट, जिनमें भीषण गरमी में भी जल ऊष्ण नहीं होता था, महिलाओं के तैयार होने के लिए शृंगार कक्ष आदि उपलब्ध हैं। व्यापारियों से बातचीत के लिए अलग से बैठकखाना निर्मित है। धार्मिक अनुष्ठान के लिए हवन कुंड भी बना है।

इनके अतिरिक्त भी वहाँ नाथामलजी की हवेली व सलीम सिंहजी की हवेली ‘पटुआ की हवेलियों’ जैसी खूबसूरत है। इनकी भी जालियाँ, झरोखे और दीवारों पर की गई चित्रकारी दर्शनीय है। द्वार पर बलुई पत्थर से बनी ‘हस्त-प्रतिमाएँ’ प्रहरी की भाँति खड़ी हैं।

यह सब देखने के बाद दुर्ग व राजमहल की ओर जीप बढ़ चली। भूतल से २५० फीट ऊँची, १५०० फीट लंबी व ७५० फीट चौड़ी तीन शिखरों वाली त्रिकुट पहाड़ी पर स्थित दुर्ग अति विशाल व ऊँचा है। इसके परकोटे में ९९ बुर्जियाँ थीं, जिनमें बड़ी-बड़ी तोपें रखी गई थीं तथा चबूतरों पर बड़े-बड़े पत्थर, जो युद्ध के समय प्रयुक्त होते थे। सबसे ऊपर पहुँचकर नीचे बसा शहर, भवन आदि खिलौने जैसे प्रतीत होते थे। ऊपर जाने के लिए लिफ्ट का प्रबंध है। एक विशेष उद्यान भी है, जिसको संगीत, प्रकाश और छाया से अधिक आकर्षक बनाने का प्रयास किया गया है।

मुख्य द्वार से किले की सीढि़यों तक जाने के लिए लंबा घुमावदार रैंपनुमा मार्ग, जिसे हमने ऑटो से तय किया, तत्पश्चात् सीढि़याँ चढ़नी आरंभ कीं। किले की दीवारें बहुत मोटी, ऊँची व ठोस मोटे पत्थरों से बनाई गई थीं। जोधपुर के किले की तरह इसमें भी अंदर कई मंदिर व महल बने हुए हैं, जिनकी कलात्मकता पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देती है। चित्तौड़गढ़ के बाद राजस्थान का सबसे भव्य व दुर्गम दुर्ग यही है। यहाँ से रत्नाकुमारी ने अलाउद्दीन की भारी-भरकम सेना का बारह वर्ष मुकाबला किया है।

आज ही ‘सम’ का कार्यक्रम भी था। ‘सम’ एक ग्राम है, जो होटल से ११-१२ कि.मी. दूर रेत की चादर पर बसा है। इस ‘सम’ ग्राम से डेढ़-दो कि.मी. पहले ही जीप ने हमें उतार दिया, जहाँ कई सारे रेगिस्तानी जहाज (ऊँट) अपनी सवारियों की प्रतीक्षा कर रहे थे। हम भी एक जहाज में सवार हो गए। डर भी लग रहा था, प्रसन्नता भी हो रही थी, उत्सुकता भी। हमारी मंजिल थी—सूर्यास्त केंद्र-बिंदु। ऊँट की सवारी का यह पहला अनुभव था। ऊँटों की कतारें ही कतारें, सभी पर नर-नारी और बाल-वृद्ध सवार थे, शायद सभी की हृदयगति वैसे ही धड़क रही थी, जैसी हमारी। फिर भी रोमांचकारी व मनोरंजक। कुछ ऊँट अपनी सवारियों को गंतव्य तक पहुँचाकर वापस आ रहे थे। एक ओर रोहतांग में बर्फ का पहाड़ देखा था, अमरनाथ में हिम का शिवलिंग ही नहीं, हिम की धरती, हिम का फर्श देखा था। यहाँ रेत के मखमली गद्दे, जिन पर आपके पग पाँच-सात अंगुल नीचे धँसते जाते हैं। पंक्तिबद्ध ऊँटों की कतारें, उन पर रंग-बिरंगी पोशाकों में आसीन पर्यटक शायद अपने गिरने के भय में खोए दम साधे बैठे थे। देखते-ही-देखते हम सब अपने गंतव्य पर पहुँच गए। क्या अद्भुत दृश्य था। बच्चों के खिलौने, दूरबीन, चिप्स, कुरकुरे, खाकड़ा, चाट-पकौड़े जैसी अनेक वस्तुएँ लिये विक्रेता चलती-फिरती दुकानों की तरह घूम रहे थे। कुछ राजस्थानी कन्याएँ व स्त्रियाँ लोकगीत सुनाकर पर्यटकों को प्रसन्न करने में निमग्न थीं। अनेक पर्यटक अपने कैमरे के बटन ऑन कर अस्ताचलगामी भास्कर को कैमरे में बंद करने के लिए सन्नद्ध थे। देखते-ही-देखते चमकता सूर्य ताम्रवर्णी होकर जल्दी-जल्दी दूर क्षितिज में लय होता जा रहा था, साथ ही पर्यटकों के कैमरों में कैद भी। कुल मिलाकर वह जन सैलाब किसी महाकुंभ की याद ताजा करा रहा था।

अब सब गाड़ियों की ओर चल पड़े, जो लगभग आधे फर्लांग पहले खड़ी थीं, उस मार्ग में चलते हुए उस मखमली फोम के गद्दों की अनुभूति हो रही थी। जीप पर सवार हुए और आ गए सांस्कृतिक आयोजन स्थल पर, जहाँ पर्यटकों के स्वागतार्थ रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम व रात्रि-भोज का प्रबंध था। मध्य में अग्नि प्रज्वलित की गई थी। तीन ओर दर्शकों के बैठने की व्यवस्था थी तो एक ओर प्रस्तुति देनेवाले कलाकारों का मंच बनाया गया था। उसमें राजस्थान के जाने-माने कलाकारों ने वहाँ की लोक संस्कृति को नृत्य-नाटिका व गायन के माध्यम से जो प्रस्तुति दी, वह अद्भुत थी। देश-विदेश में प्रस्तुति देने वालों का यह संगम दर्शकों को भाव विभोर किए था, एक तो मध्य में प्रज्वलित अग्नि, दूसरी ओर मंत्र-मुग्ध करता कार्यक्रम, न किसी को ठंड की अनुभूति होने दे रहा था और न ही समय का ज्ञान, फिर भी आयोजकों को तो ध्यान रखना था। रात्रि-भोज की तैयारी संपन्न हो चुकी थी। इसलिए भोज की ओर प्रस्थान करने के बार-बार संकेत मिल रहे थे। सभी ने उधर प्रस्थान किया। भोजन में राजस्थानी व्यंजनों का वैविध्य था। बड़ी-बड़ी मेजों पर बड़े-बड़े बरतनों में भोजन रख दिया गया था। सेल्फ सर्विस—जैसा रुचे, जितना रुचे, लीजिए, खाइए, आनंद उठाइए की तर्ज पर सब भोजन कर रहे थे। ‘स्वागतम् होटल’ के मालिक ने होटल के नाम को सार्थक करते हुए वास्तव में हम सब पर्यटकों का हार्दिक स्वागत किया, जो हमारे लिए अविस्मरणीय बन गया।

इन सब स्मृतियों के साथ होटल वापस, वहाँ से भी सामान उठा पुनः स्टेशन, वही रात्रि यात्रा और पहुँच गए ‘जोधपुर’। जैसलमेर से ‘चित्तौड़’ जाने के लिए ‘जोधपुर’ आना ही एकमात्र विकल्प था। यहाँ से दिनभर की यात्रा कर हम २४ दिसंबर के सायंकाल तक ‘चित्तौड़गढ़’ पहुँच गए। यहाँ हमने जैन-धर्मशाला में रात्रि-विश्राम किया और २५ दिसंबर की प्रातः शहर भ्रमण के लिए चल पडे़।

चित्तौड़गढ़ का नाम आए या चेतक का, तुरंत एक वीर, साहसी और स्वाभिमानी देशभक्त का चित्र मानसपटल पर सजीव हो उठता है। महाराणा प्रताप, जिन्होंने चित्तौड़ की रक्षा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, लेकिन आत्म-समर्पण नहीं किया। भले ही महलों को त्यागकर जंगल में शरण लेनी, बच्चों व परिवार को भूखा रखना पड़ा, विशाल धरती शैया व खुला नीलगगन रहा, पर हार नहीं मानी। ऐसे ही एक और देशभक्त व स्वामिभक्त की याद ताजा हो जाती है—भामाशाह। जिसने अपनी सारी पूँजी अपने स्वामी सम्राट् राणा प्रताप के चरणों में अति विनम्र भाव से रख दी। इसी शहर से मीरा जैसी कृष्ण भक्तिन की यादें भी जुड़ीहैं।

यों यह छोटा सा शहर है, लेकिन इसके कण-कण में वीरता, त्याग और भक्तिभाव भरा दिखता है। यहाँ के बशिंदों की सहजता, सरलता व भाईचारा देखकर सहज ही यहाँ के महापुरुषों के गुणों की अभिव्यक्ति हो जाती है, जो इन्हें विरासत में मिले प्रतीत होते हैं।

दर्शनीय स्थलों में एक विशाल दुर्ग है, जिसके विषय में कहा जाता है कि दुर्गों में दुर्ग चित्तौड़गढ़, बाकी सब गढ़ैया। यह किला समुद्रतल से १३५० फीट ऊँची पहाड़ी पर ७०० एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। इस गढ़ के अंदर मीरा मंदिर, विजय स्तंभ, गौमुखी कुंड, कालिका मंदिर, पद्मिनी महल, जौहरकुंड, कुंभा महल, जैन मंदिर व श्री महाराणा म्यूजियम जैसे अनेक दर्शनीय स्थल हैं। जैन मंदिर में सभी २४ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं। सभी प्रतिमाएँ श्वेत संगमरमर के आकर्षक पत्थर से निर्मित हैं, कई प्रतिमाओं में समानता प्रतीत होती है, जबकि वे अलग-अलग जैन मुनियों की हैं। किले से पहाड़ी तक सर्पाकार मार्ग से जाना पड़ता है, जिसमें बीच-बीच में अनेक पोल (द्वार), जैसे—पांडव पोल, भैरों पोल, हनुमान पोल, गणेश पोल, रामपोल व लक्ष्मण पोल आदि। पश्चिम की ओर बना रामपोल ही किले का मुख्य प्रवेशद्वारहै।

जैन मंदिर के सामने ही बड़े से गेट में विजय स्तंभ है, जो महाराणा कुंभा द्वारा मालवा के सुल्तान व गुजरात के सुल्तान के संयुक्त आक्रमण की साहसिक विजय के रूप में बनाया गया। जौहर कुंड और रानी पद्मिनी जैसी वीरांगनाओं के जौहर की कहानी का प्रतिबिंब है।

यहाँ के पार्क में भी महाराणा प्रताप की एक आकर्षक प्रतिमा ‘चेतक’ पर स्थापित है। राजस्थान के इन तीन शहरों की यात्रा ने एक गीत की कुछ पंक्तियाँ याद दिला दी—

‘यह देश है वीर जवानों का, अलबेलों का, मस्तानों का,

इस देश का यारों क्या कहना, यह देश है धरती का गहना।’

संक्षेप में यदि मैं कहूँ कि यह वीरभूमि है, जहाँ त्याग भी है, बलिदान भी, शत्रु को परास्त करने का जज्बा भी है तो कला की परख भी, देशभक्ति भी है, ईश-भक्ति भी। यहाँ जौहर है तो अपने स्वत्व व सतीत्व की रक्षा का आदर्श भी तो रंच मात्र भी अत्युक्ति न होगी। भारतीय संस्कृति की धनी इस भूमि को हमारा शत-शत नमन!

२८-बी, पे्रमनगर, भादसो रोड
पटियाला-१४७००१ (पंजाब)
दूरभाष : ९४१७०८८४६६

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