जन्मदिन का अर्थशास्त्र

जन्मदिन का अर्थशास्त्र

मैं इस बार पहली मार्च को अपनी तनख्वाह ले जैसे ही घर की ओर चला तो मन रास्ते में घर-खर्च के आइटमों की बार-बार उल्टी-सीधी गिनती करने में उलझ गया। इसी उधेड़बुन में मैं घर पहुँच, अपने कमरे का दरवाजा खोल, बूट उतार और कोट हैंगर में टाँगकर अपनी कुरसी पर सुस्ताने बैठ गया। इसी दौरान कुछ ही मिनटों में मेरे पैरों की आहट या शायद पहले से ही मेरे आने का इंतजार करती मेरी पत्नी ट्रे में चाय के दो प्याले लिये कमरे में दाखिल हुई और बोली, ‘‘क्या बात है, आज कुछ थके-थके से मालूम हो रहे हो? लीजिए, चाय पी लीजिए, जिससे कि थकान दूर होकर ताजगी आए।’’

मैंने श्रीमतीजी की इस अप्रत्याशित भक्ति पर हैरान हो उनकी तरफ देखा और टे्र में से चाय का प्याला उठा लिया। मेरे चाय के पहला घूँट भरने के साथ ही श्रीमतीजी बडे़ प्यार से बोलीं, ‘‘आपको याद है न जी, इसी सात मार्च को अपने बिट्टू का जन्मदिन आनेवाला है।’’

मैंने धीरे से कहा, ‘‘तो फिर?’’ वे तपाक से बोली, ‘‘फिर क्या? इस बार बिट्टू का जन्मदिन मनाना है और वह भी पूरी धूमधाम से। आखिर हमको भी तो लोग अपने बच्चों के जन्मदिन-समारोहों में बुलाते हैं। इन पिछले तीन महीनों में ही हम कितने ही ऐसे फंक्शनों में जा चुके हैं। अभी पिछले ही सप्ताह जब हम सब मेरी सहेली के बच्चे के जन्मदिन पर उसके घर गए थे तो चलते वक्त उसने मुझसे पूछ ही लिया था—‘दीदी, तुम कब बुला रही हो?’ और मैं शर्म के मारे मुसकराकर चली आई थी।’’

इसी समय शायद पहले से सोची-समझी रणनीति के अनुसार मेरा पाँच साल का बेटा बिट्टू उछलता-कूदता आकर मेरी गोद में बैठ गया और कहने लगा, ‘‘पापा, इस बार मेरा जन्मदिन जरूर मनाना है। देखो न, नीटू ने अपने जन्मदिन की मिठाई हमारी क्लास के सब बच्चों को खिलाई थी और कह रहा था कि उसको उसके जन्मदिन पर ढेर सारे खिलौने और बहुत सारे कपडे़ मिले थे। पापा, इस बार मैं भी अपने जन्मदिन पर अपनी क्लास के बच्चों को मिठाई खिलाऊँगा और मुझे भी ढेर सारे खिलौने और नए-नए रंग-बिरंगे कपडे़ मिलेंगे।’’ और फिर दोनों हाथों से मेरा कंधा हिला अपने बालहठ में यह पूछने लगा, ‘‘पापा, बोलो मनाओगे न मेरा जन्मदिन, जरूर मनाओगे न, वादा करो।’’

मैं इस आकस्मिक आक्रमण से हड़बड़ाकर युद्ध के मैदान में पकडे़ जानेवाले निहत्थे योद्धा की तरह जान बचाने के लिए अपनी पत्नी की तरफ मुखातिब हो बोला, ‘‘तुम तो सब समझती हो, इस तनख्वाह में तो घर-खर्च ही पूरा नहीं पड़ता। बच्चों की फीस भरनी है, उनकी स्कूल की नई डै्रस बनवानी है और फिर बहन की दो महीने बाद होनेवाली शादी के लिए भी तो आखिर कुछ थोड़ा-बहुत सामान खरीदना है। ऐसे में बच्चे के जन्मदिन-समारोह पर होनेवाले खर्च को आखिर हम कहाँ से पूरा करेंगे। यह अपने जैसे लोगों के बस की बात नहीं। अब तुम्हीं बिट्टू को समझाओ और यदि ज्यादा ही हठ करता है तो इसे एक मिठाई का डिब्बा और एक जोड़ी कपडे़ ला देंगे इसके जन्मदिन पर।’’

मेरे इतना कहते ही श्रीमतीजी जोर से खिलखिलाकर हँसी और बोली, ‘‘आप इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर भले ही होंगे, किंतु दुनियादारी की इकोनॉमिक्स आपको बिल्कुल नहीं आती। आपने नेशनल इकोनॉमी के दो-चार गुर भले ही याद कर लिये हों, किंतु हाउसहोल्ड इकोनॉमी का तो आपको क ख ग भी नहीं आता। जन्मदिन-समारोहों पर किया जानेवाला खर्चा खर्च नहीं होता बल्कि वह तो सबसे कम समय में और सबसे ज्यादा रिटर्न देनेवाला लाभदायक इनवेस्टमेंट होता है। यह तो वह नुस्खा है, जिसका प्रयोग कोई भी चतुर गृहस्थी अपने परिवार के बजट के डेफिसिट को पूरा करने के लिए कर सकती है।’’ श्रीमतीजी इस प्रकार धड़ाधड़ बोले जा रही थी और मैं कॉलेज में नए-नए दाखिला लेनेवाले भोले-भाले विद्यार्थी की तरह अपनी समझ को कोसता हुआ अवाक् हो उनका धाराप्रवाह लेक्चर सुने जा रहा था। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था और रह-रहकर मेरे मन में महँगाई के बोझ से सिकुड़ती जा रही तनख्वाह और उस पर पड़नेवाले इस अतिरिक्त खर्च के बोझ का भय चक्कर काट रहा था। पर मैं क्या करता? बेबस था, आखिर मैंने इस दरख्वास्त के साथ आत्मसमर्पण कर दिया कि अगर तुम सबकी ऐसी ही इच्छा है तो ठीक है, पर हमें अपनी औकात और जेब के मुताबिक ही काम करना है और कम खर्च में सीधा-सादा समारोह ही करना है। बिट्टू तो खुशी से नाच उठा और श्रीमतीजी अपनी विजय पर मंद-मंद मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘तो फिर ठीक है, अब मैं खाना बना लेती हूँ और रात को खाना खाने के बाद हम प्रोग्राम की डिटेल्स तय कर लेंगे।’’ यह कहकर श्रीमतीजी तो रसोई में खाना बनाने चली गईं और मैं हारे-थके सैनिक की तरह बिस्तर पर लेट गया और न जाने कब आँख लग गई।

श्रीमतीजी ने जब खाना खाने के लिए जगाया और मैंने घड़ी पर निगाह डाली तो ध्यान आया कि पूरा एक घंटा बीत गया है। मैं उठा और हाथ-मुँह धोकर परिवार के सब लोगों के साथ खाना खाने मेज पर बैठ गया। खाना खाने के बाद मैं, मेरी पत्नी और बारह वर्षीय बड़ी बेटी कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने बैठे। थोड़ी देर में बिट्टू भी बड़े ध्यान से हमारी बातें सुनने हमारे पास आ बैठा। छोटी-मोटी बातों के बाद बात जन्मदिन मनाने के तरीके पर आकर अटक गई। मेरा आग्रह था कि कार्यक्रम यज्ञ-हवन व दीप प्रज्वलन से शुरू किया जाए और वे सब केक काटने और मोमबत्ती बुझाने की पश्चिमी पद्धति पर जोर दे रहे थे, मैं समारोह को सीधा-सादा और कम खर्च में निपटा लेना चाहता था, किंतु उनकी मंशा तड़क-भड़क और शान-शौकत वाला कार्यक्रम करने की थी। मुझे अपनी बात पर अड़ा देख श्रीमतीजी झुँझलाकर बोलीं, ‘‘पता नहीं, आपको क्यों नहीं यह समझ में आता कि आजकल के जमाने में ऐसे प्रोग्राम से भी लोगों का स्टैंडर्ड मापा और जाना जाता है। हम जिस स्टैंडर्ड के लोगों को इस प्रोग्राम में बुलाना चाहते हैं, हमें प्रोग्राम भी उसी स्टैंडर्ड का करना होगा, तभी तो हम ऊँचे स्टैंडर्ड के लोगों के बीच घुल-मिल सकेंगे और शान से उठ-बैठ सकेंगे। फिर आप यह क्यों भूल जाते हैं कि बर्थ-डे गिफ्ट भी प्रोग्राम के स्टैंडर्ड के मुताबिक ही मिला करते हैं। प्रोग्राम की शान-शौकत और तड़क-भड़क बढ़ने के साथ-साथ गिफ्ट का साइज भी बढ़ता जाता है।’’

आखिर हममें इस बात पर समझौता हुआ कि शुरू-शुरू में यज्ञ-हवन निपटा लिया जाए, किंतु बाद में कार्यक्रम का मुख्य हिस्सा केक काटने और मोमबत्ती बुझाने से ही शुरू हो। कार्यक्रम की बाकी रचना के बारे में श्रीमतीजी को पूर्ण अधिकार दे दिए गए। बस फिर क्या था, अगले दिन सवेरे उठकर श्रीमती ने टैंट, साज-सज्जा, खाना, वीडियो फिल्म आदि सब चीजों के ऑर्डर अपने मन के मुताबिक दे डाले और निमंत्रण-पत्र भी छपने दे दिए। निमंत्रित किए जानेवालों की लंबी-चौड़ी सूची बनाई गई थी। सभी नाते-रिश्तेदार, दोस्त-मित्र, मिलने-जुलनेवाले, श्रीमतीजी की नई पुरानी सखी-सहेलियाँ, बच्चों के दोस्त, सहपाठी सबको शामिल किया गया था। सूची बनाते समय श्रीमतीजी ने एक बात का खास ध्यान रखा था कि टेलीफोन डायरेक्टरी में से कार व कोठीवाले नामों को छाँटकर ऐसे सभी को सूची में जरूर शामिल कर लिया था, चाहे इनमें से कुछ से हमारा कभी-कभार दूर से दुआ-सलाम का ही रिश्ता हो।

अगले दिन जैसे ही निमंत्रण-पत्र छपकर आए, श्रीमतीजी मुझसे बोलीं, ‘‘देखिए, बाकी निमंत्रण पत्र तो हम सर्वेंट के हाथ भिजवा देंगे। किंतु कुछ लोगों को तो हमें पर्सनली जाकर ही इनवाइट करना होगा।’’ और यह कुछ लोगों की सूची उन्होंने अपने ही आधार पर बनाई थी। मैंने इस चक्कर से बचने के इरादे से बहाना बनाते हुए कहा, ‘‘तुम और मंजू हो आना। मेरा इस बार कॉलेज कोर्स बाकी रह गया है और परीक्षाएँ नजदीक हैं। अतः लेक्चर तैयार करना है।’’ पर श्रीमतीजी कब माननेवाली थीं, बोलीं, ‘‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। कुछ जगह तो आपको चलना ही होगा। मैंने टैक्सीवाले को कहला भेजा है, आधे घंटे में टैक्सी आती होगी, आप तब तक तैयार हो लें।’’

थोड़ी देर में टैक्सी आ गई और हम टैक्सी में बैठ निमंत्रण-पत्रों का बंडल साथ ले चल दिए। नगर के एक बहुत बडे़ उद्योगपति जैन साहब की कोठी आते ही श्रीमतीजी ने टैक्सीवाले को रुकने का इशारा किया। हमने टैक्सी से उतरकर जैन साहब की कोठी के बाहर लगी कॉल बैल बजाई। अंदर से मुसकराती हुई श्रीमती जैन निकलीं और हमको अंदर लिवा ले गईं। निमंत्रण दिया और ‘जरूर आने का आग्रह किया’। चाय की चुस्की लेते हुए बातों ही बातों में श्रीमती जैन ने पूछ लिया, ‘‘क्या बात है भाभीजी, आपने हमें बिट्टू के पिछले जन्मदिन-समारोहों के समय याद नहीं किया या पाँच साल बाद पहली बार ही जन्मदिन मना रहे हो?’’ प्रश्न सुनकर मैं मन-ही-मन खीझ रहा था अपनी पत्नी की हठधर्मी पर, और कह रहा था, ‘अब नानी याद आएगी, देखें क्या जवाब देती हैं?’ पर मेरी पत्नी ने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थीं। वह माथे पर जरा भी सलवट लाए बिना तुरंत मुसकराकर बोली, ‘‘भाभीजी, भला कहीं ऐसा हो सकता था कि बिट्टू का जन्मदिन मनाते और आपको न बुलाते। दरअसल, बात यह थी कि बिट्टू के जन्म से ही मैंने ‘संतोषी माता’ की यह मनौती मानी थी कि इसके पाँच साल होने पर ही इसका जन्मदिन मनाएँगे, उससे पहले नहीं।’’

मैं हैरान था श्रीमतीजी की इस हाजिरजवाबी और तर्कशास्त्र के ज्ञान पर। इस प्रकार हम श्रीमती जैन से विदा ले आगे चले और पूरे तीन घंटे तक नगर के कई बडे़-बडे़ व्यापारियों, उद्योगपतियों, सरकारी अफसरों, डॉक्टरों, वकीलों आदि के घर निमंत्रण-पत्र बाँटते रहे। विशेष सूची में से शेष बचे रह गए निमंत्रणों को अगले दिन मेरी पत्नी, बेटी मंजू को साथ ले स्वयं ही दे आई। यद्यपि निमंत्रण-पत्र में रात के आठ बजे का समय दिया था, किंतु साढे़ सात बजे से ही लोगों का आना शुरू हो गया था। आठ बजे तक यज्ञ-हवन पूरा किया जा चुका था और ठीक सवा आठ बजते ही श्रीमतीजी बिट्टू को साथ ले, उस मेज के पास आईं, जहाँ केक रखा था। ढूँढ़कर मुझे भी बुलाया गया। केक कटा, मोमबत्तियाँ बुझीं और लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ‘हैप्पी बर्थ डे, हैप्पी बर्थ डे’ कहा। फिर क्या था, बधाई देनेवालों का ताँता लग गया। श्रीमतीजी बिट्टू के साथ गिफ्ट देनेवालों से घिरी खड़ी थीं और एकाध बार मनाही की औपचारिकता निभाने के बाद बर्थ डे के नाम पर दिए जानेवाले गिफ्टों व रकमों को अपने पास जमा करती जा रही थीं। टेप-रिकॉर्ड पर गीत चल रहे थे, वीडियो फिल्म दिखाई जा रही थी और लोग रोशनी की चकाचौंध में एक-दूसरे से मिलते-जुलते, हँसते-मुसकराते, गरम-गरम खाने और मिठाइयों का आनंद ले रहे थे। इस प्रकार पूरी चहल-पहल के साथ सब लोगों को बिदा करते-करते रात के बारह बज गए। मैं थककर चूर हो चुका था। अतः बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ गई।

सवेरे उठा तो आठ बज चुके थे। हाथ-मुँह धोकर मैं जैसे ही नाश्ते के लिए तैयार हुआ तो श्रीमतीजी नाश्ता ले आईं और यह कहकर तरह-तरह की मिठाइयाँ खिलाने लगीं कि पता नहीं, रात को आपने कुछ खाया भी था या नहीं। पास के कमरे में बिट्टू खिलौनों से घिरा बैठा था और ढेर सारे डिब्बों में से तरह-तरह के कपडे़ निकाल-निकालकर नाप रहा था। मैं मिठाइयाँ खाता हुआ मन-ही-मन कल के खर्चे के बिल का हिसाब लगा रहा था। इतने में श्रीमतीजी पर्स निकाल उसकी रकम की गिनती पूरी कर व्यंग्य भरी मुसकराहट के साथ बोलीं, ‘‘सब बिलों का पेमेंट करने के बाद बिट्टू के खिलौने और कपड़ों के अलावा पूरे साढे़ तीन हजार रुपए बचे हैं, प्रोफेसर साहब! समझ में आया आपको बच्चे के जन्मदिन का अर्थशास्त्र? जन्मदिन भी धूमधाम से मन गया और बच्चे के अगले जन्मदिन तक के खर्चे का इंतजाम भी पूरा हो गया।’’

बी-८४, अहिंसा विहार
सेक्टर-९, रोहिणी
दिल्ली-११००८५

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