राह

हसिया जैसे घुमावदार पहाड़ी राह से कुरवय्या उतर रहा था। उसके पीछे उसके गाँववाले चल रहे थे। दूर से देखने पर मानो पहाड़ से कोई अजगर लिपटा हो, ऐसा प्रतीत होता था।

अरहर, भुट्टा, कोचई, जौ, बाजरा और राह के दोनों ओर की गई खेती, हरे-भरे लहलहाते पेड़-पौधे; पहाड़ के नीचे से देखनेवालों को खूबसूरत नजारा नजर आता था। यह राह पहाड़ से उतर दूर-दराज शहर की ओर जानेवाली सड़क से जा मिलती है। आई.टी.डी.ए. ने पहाड़ी नाले पर बाँध बनाया। बाँध का पानी नीला, चमचमाता व खूबसूरत दिखाई पड़ता था।

‘हम सुबह-सुबह चल पडे़, क्या मालूम, वो मिले-न-मिले।’ संगमैसु ने शक जताया।

‘नहीं मिला तो कोई बात नहीं, हम साप्ताहिक बाजार देख लौट जाएँगे।’ उसके साथ चलते व्यक्ति ने जवाब दिया। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों एक-न-एक दिन अवश्य मिलेगा, कहाँ जाएगा। राह चलते लोग आपस में बतिया रहे थे।

ये राह वर्षों पहले घनघोर पहाड़ी जंगल की पगडंडी से थी। राह के दोनों ओर सफेद अर्जुन, बीजा, आम, महुआ, कटहल जैसे तरह-तरह के वृक्षों की छाँह से शीतल रहा करती थी। इसी राह से होकर लोग इन पहाडि़यों की चोटी तक पहुँचा करते थे। कभी-कभी स्थानीय लोग पहाड़ी हिंसक जानवर का शिकार कर इस राह की बगल से उसे चीर-फाड़कर मांस पकाकर खाया करते थे। कुरवय्या सोचता चल रहा था।

इसी राह के बाजू में शोंडोडु ने शराब बेचने की दुकान खोल ली थी। पहाड़ के नीचे गाँव का बनिया उससे दोस्ती कर भोले-भाले पहाड़़ी लोगों को ऋण देने का धंधा प्रारंभ किया। ब्याज के रूप में वह पहाड़ी उपज फूलझाड़ू, इमली, महुआ, कटहल, माडि़या, जौ, बाजरा, कावड़-कावड़ भर लोगों से धरवा लिया करता था।

रबर फूल, लालचूड़ी, मोतीमाला, सूई धागा, आईना, कंघी, सुगंधित तेल, पावडर वगैरह-वगैरह इसी मार्ग से चल पहाड़ी घरों तक पहँुचे थे। फलस्वरूप पहाड़ी लोगों के हाथ से पहाड़ के नीचे की उपजाऊ जमीन छिन गई।

कुरवय्या बनिया के पास आया।

घर के मुख्य द्वार के दोनों ओर ऊँचे चबूतरे, घर में सीमेंट का फर्श, लोहे की छड़ोंवाली खिड़कियाँ, बंद दरवाजे में बड़ा ताला; ये सब इस पहाड़ी क्षेत्र ने पहले-पहल इसी घर में देखा था। घर के बीचोबीच आँगन, आँगन के चारों ओर बंद अँधेरे कमरे, उसमें पहाड़ी उपज भरकर कमरे की छत छूते कई-कई पंक्तियों में रखी बोरियाँ, महकता चारों ओर का वातावरण।

‘कौन...कौन है बे,’ चीखता बनिया घर के बाहर आया। ऊँचा, मोटा, काला शरीर, शरीर पर घने रोम। वह गले में सोने का हार पहने हुए था। हार के नीचे से गले में जनेऊ लटक रहा था।

‘मेरा बेटा लड़की भगा लाया है, बिरादरी में भोज कराना होगा।’ कुरवय्या धीरे-धीरे मानो अपने आपसे कह रहा हो।’ फुसफुसाकर कहा।

‘कितना चाहिए?’ पूछा बनिया ने।

‘कितना कहूँ?मेरी बीबी बीमार थी, तब मैं तुमसे १०० रुपए उधार ले गया था। आज तक वो उधार न चुका पाया, उधर मेरी बीबी भी न रही। अब लड़के की शादी है। कम-से-कम तीन सौ तो खर्च होंगे।’ कुरवय्या ने कहा।

बनिया अंदर गया। घर-आँगन में दीवार से लगे आदमकद आईने के सामने खड़ी होकर बनिया की बेटी शृंगार कर रही थी, उसने अपने आँचल को सँवारा, चेहरे पर पाउडर लगाकर माथे पर बिंदी लगाई। कुरवय्या उसे ध्यान से देख रहा था।

‘उसे क्या देख रहा है।’ बनिया की आवाज सुन कुरवय्या ने घबराकर बनिया की ओर घूमकर देखा।

‘क्या तू उसे नहीं पहचानता। वो मेरी बेटी अर्थात् तेरी भानजी है। आ-आ अंदर आ।’ बनिया ने कहा।

इस बार आईने के सामने कुरवय्या खड़ा था। कंधे से लगकर सिर के बाल मुड़ गए, कमर से बँधा लँगोट, हाथ में ले लट्ठ। जीवन में पहली बार कुरवय्या ने अपने आपको आईने में देखा था। बनिया ने उसे पैसे दिए, उसने रुपए कमर में खोंस लिये। उन पैसों से उसने एक गाय खरीदी। गाय का मांस और साँभर-चावल बनवाकर उसने बिरादरी में बेटे की शादी का भोज करवाया।

उस वर्ष छह पेड़ों में इमली फला। उसके खेत में उपजा अरहर और भुट्टा चार-चार कावड़ भरकर, ढोकर खुद ले जाकर वह बनिए के घर दे आया। इस वर्ष बनिए से लिये गए ऋण का उसने ब्याज पटा दिया है। यह याद रखने के लिए उसने एक मोटी डोरी में गाँठ बाँध, झोंपड़ी की छत के बाँस से डोरी बाँध दी। इस तरह हर वर्ष एक गाँठ के हिसाब से बारह गाँठ डोरी में पड़ीं। एक दिन कुरवय्या को बनिए ने बुलाया, ‘अरे यार कुरवय्या, मुझे सात हजार रुपए दे दे, उधार पटाना है।’

कुरवय्या आश्चर्यचकित हो गया, पर बनिए से आँख मिलाने का साहस न कर पाया। वह नीचे जमीन ताकता खड़ा रहा। ‘क्यों रे, जवाब नहीं दे रहा।’ बनिया गरजा।

कुरवय्या ने सिर उठाया। वही घर, वही दीवार, बनिया कुछ और मोटा हो गया था। दीवार पर आईना, पर आईने के सामने बनिए की बेटी के स्थान पर दामाद खड़ा बाल सँवार रहा था। वहीं आँगन में पहाड़ी उपज भरी पड़ी बोरियों पर उसका नाती खेल रहा था। पर कुरवय्या वैसा का वैसा ही था। नहीं-नहीं उसकी कमर झुकने लगी थी। कमर में लँगोट, कान में खोसा बीड़ी, अधनंगे बदन की हड्डियाँ स्पष्ट झलक रहीथीं।

‘अरे यार, क्यों यों ही खड़ा है, आ-आ, इस कागज पर यहाँ एक अँगूठा लगा दे।’ बनिया ने कहा।

अँगूठा लगाना अर्थात् अपनी बस्ती के कई लोगों की तरह अपनी जमीन से हाथ धो बैठना। उसने चुपचाप कागज पर अँगूठा लगा दिया। दिन पूरी तरह ढल चुका था। चारों ओर अँधेरा छा गया था।

राह चल रहे लोगों में सबसे वयोवृद्ध कुरवय्या ही था। औरतें, युवक और वृद्ध सब पहाड़ से उतर मैदानी राह पहुँच चुके थे। अभी-अभी वे सब जिस राह से चलकर आए थे, वह कभी पगडंडी थी, बाद में इसे बी.सी.सी. रोड बना दिया गया, उसके बाद साहूकार जैसे धनवान लोगों के लिए गाड़ी चलाने योग्य इसे चौड़ा किया गया, उसके बाद सरकारी योजनाओं के तहत अब यह शहर मुख्य मार्ग से जा मिलनेवाली डामर की सड़क बन गई है।

पहाड़ से उतरे लोग पेड़ की छाँव में रुके, ‘जंगल में पेड़ की छाँव तलाशने के दिन आ गए’ कहता कुरवय्या पेड़ के तने से लगकर बैठ गया। ‘दादा, तू चल नहीं पाएगा। मत आ, हमने तुझे मना किया था। तू नहीं माना।’ शरीर से चू रहा पसीना पोंछते तोयकोडु ने कहा।

‘मैं तुम सबमें एक हूँ। मेरा तुम्हारे साथ आना जरूरी है।’ कुरवैय्या ने जवाब दिया। गाँव की समस्या जैसे गाँव में बिजली के खंभे हों, गाँव में पक्की सड़क हो, गाँव में बस सुविधा हो, सरकारी बैंक से ऋण लेने जैसी माँगों को लेकर गाँव के लोग आज से पहले बहुत बार इस तरह सरकारी कार्यालय समूह बनाकर कई-कई बार चक्कर लगा चुके हैं। पर आज उनका कुछ और ही इरादा था। आज वे मंडल कार्यालय अध्यक्ष से सवाल-जवाब करने जा रहे थे। जो कुरवय्या का पोता था। उसका नाम तविटय्या है। वो गाँव के लोगों को विश्वास में लेता गया और अपना कद बढ़ाया। गाँव के लोगों को याद है। जब उसने अपने पैरों तले जमीन बना ली। लोगों को धोखा दिया। कुरवय्या को इस बात का दुःख है कि वह उसका पोता है।

उस दिन गाँव के बडे़-बूढे़ और युवा सब बैठकर विचार कर रहे थे कि गाँव की देवी की पूजा का उत्सव कैसे मनाया जाए? कुछ लोग रस्सी से बुनी खटिया पर बैठे थे, कुछ निवाड़वाली खटिया पर, कुछ प्लास्टिक कुरसी पर। वहाँ बैठे ज्यादातर लोग पहाड़ी जमीन पर खेती कर जीवनयापन करनेवाले थे। कुछ स्थानीय सरकारी संस्थानों में काम करनेवाले शिक्षक, सेल्समैन, पुलिस जवान; सरकारी शाला निवास-गृह में खाना बनानेवाले रसोइए और पहरेदार वगैरह थे।

वे सब कौन कितना चंदा दे सकता है, कुल कितना चंदा जमा होगा, हिसाब लगा रहे थे। व्यक्तिगत चंदे के अलावा गाँव में बोवाई-कटाई के समय एक साथ बहुत काम रहता है। मजदूर नहीं मिलते। उन दिनों गाँव के लोग छोटे-छोटे समूह में बँट ठेका लेकर काम करते हैं। इस तरह ठेका काम स्वरूप मिली मजदूरी में से औसतन कितना धन चंदा हेतु वसूल किया जाए। उक्त बातों पर लोग विचार-विमर्श कर रहे॒थे।

‘माँ को बलि देनेवाले गाय-बकरे का खर्च मैं उठाऊँगा।’ तविटय्या कुरसी से खड़ा होकर बोला। वह क्यों अपनी जगह से खड़ा हुआ और क्या कह रहा है। पलभर वहाँ बैठे लोग समझ न पाए। तविटय्या ने अपनी बात दुहराई। उसकी बातें सुन लोग चकित रह गए। तविटय्या जी.सी.सी. में सेल्समैन की नौकरी किया करता था।

हर व्यक्ति और ठेके में से औसतन लिये जानेवाले चंदे से भी उत्सव का खर्च पूरा न पड़ रहा था। वहाँ बैठे लोगों से कुछ ज्यादा चंदा देने मात्र से वे नाराज हुए जा रहे थे। ऐसे में इतना ज्यादा खर्च करने की बात तविटय्या कह रहा था। लोग आश्चर्यचकित ही नहीं, शक की निगाहों से उसकी ओर देखने लगे।

‘हम अपने गाँव में दस साल में एक बार देवी का त्योहार मनाते हैं। ऐसे में ‘हाय पैसा, हाय खर्च’ कहकर सिर पीटना ठीक नहीं। आप लोगों में से खुशी-खुशी जो चंदा देना चाहते हैं दें, वरना न दें, मैं देवी पूजा उत्सव की जिम्मेवारी लेता हूँ।’ तविटय्या ने सिर्फ कहा ही नहीं, यथा सही प्रकार उत्सव हो, इसकी जिम्मेवारी भी उठाई, उत्सव के समय शौक रखनेवालों को जी-भरकर शराब भी पिलाई। ग्रामदेवी पूजा के त्योहार के बाद लोग तविटय्या पर शक करना छोड़ उसकी इज्जत करने लगे।

एक रात पहाड़ी नाले के उस पार झोंपड़ी में सो रहे लोगों को पुलिस दलवालों ने खींच ले जाकर हवालात में बंद कर दिया। दूसरी सुबह तविटय्या गाँववालों को साथ ले जाकर पुलिस थाने गया। एस.आई. साहब से मिल समझौता करवाना चाहा। एस.आई. ने एक न मानी। तविटय्या एम.आर.ओ. साहब के पास विनती-पत्र लेकर गया, फिर भी बात न बनी तो स्थानीय विधायक को लेकर मंत्रीजी से मिला, तब जाकर गाँव की जेल में बंद लोगों को बेल पर छोड़ा गया।

‘तविटय्या न होता तो हमारा क्या होता।’ पुलिस थाने से छूटे लोग तविटय्या के एहसान के तले दब गए।

उक्त घटना के बाद तविटय्या स्थानीय समस्याओं को लेकर सरकारी कार्यालय घूमा करता। गाँव के वृद्ध एवं विधवाओं को सरकारी पेंशन दिलाने में सफल रहा। कोई युवा कॉलेज छोड़ यों ही घूमता उसे दिख जाता तो उसे समझा-बुझाकर विद्यालय भेजा करता। गाँव के गरीब माता-पिता बच्चे की फीस न भर पाते, बच्चे का स्कूल जाना छूट जाता तो तविटय्या अपनी जेब से बच्चे की फीस भरा करते थे।

तविटय्या ने गाँव पगडंडी को चौड़ी सड़क बनाने का सरकारी ठेका लिया। सूखे के समय लोगों को मजदूरी मिली। इतना ही नहीं, सप्ताह के अंत में वह लोगों को मात्र मजदूरी के पैसे ही नहीं, मुरगा मांस और शराब भी खिलाया-पिलाया करता था। तविटय्या ने कोशिश कर गाँववालों को सरकारी अनुदान दिलवाया, ताकि गाँव में झोंपडि़यों के स्थान पर टिनवाले सीमेंट के पक्के मकान बनें। गाँव के लोग घर की छत छाने जब जंगल से लकड़ी काट रहे थे तो फॉरेस्ट वालों ने उन्हें पकड़ लिया, तब तविटय्या ने फॉरेस्ट वालों को गाँव बुलाकर अपने खर्चे से पार्टी और घूस देकर लोगों को छुड़ाया। अब गाँव का बच्चा-बच्चा तविटय्या के एहसान तले दब गया। तविटय्या जैसा व्यक्ति गाँव में कम-से-कम एक होना चाहिए। गाँव के लोग कहने लगे थे।

उक्त घटना के बाद तविटय्या सरकारी पहाड़ी लकड़ी कटवाकर बेधड़क शहर भेज दिया करता था। एक दिन तविटय्या ने गाँव के बडे़-बूढे़ और युवाओं को बुलाकर सभा की, कहा, ‘मैं नौकरी छोड़ देना चाहता हूँ।’ लोग एक-दूसरे का मँुह ताकने लगे। उन्हें कुछ समझ ही न आया। तविटय्या ने आगे बात बढ़ाते हुए कहा, ‘आप सबकी अनुमति हो तो मैं चुनाव लड़ना चाहता हूँ, मैं एम.पी. टी.सी. के चुनाव में खड़ा होना चाहता हूँ।’

तविटय्या अब तक लोकप्रिय हो चुका था। किसी ने उसका विरोध नहीं किया। थोड़ी देर बाद एक ने धीरे से कहा, ‘सारा गाँव यही चाहता है।’ एक के बाद दूसरे ने, दूसरे से तीसरे ने उसका समर्थन किया।

‘बेटा, तू नौकरी छोड़ देगा, तुझे याद है कि भूल गया, ये नौकरी तुझे कैसे प्राप्त हुई।’ बेसुरी बूढे़ ने कहा। सब बूढे़ की ओर देखने लगे। वह बीड़ी पी रहा था। उसने बीड़ी बुझाई। कान में खोंसी, मुँह में जमा थूक पी थूका, उसके बाद अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘तेरे दादा ने मात्र ४०० रुपए बनिए से उधार लिये थे। वो लगातार ब्याज पटा भी रहा था, फिर भी बनिए ने ४०० रुपए के स्थान पर ७००० रुपए बताकर तेरे दादा से अँगूठा लगवाकर तुम्हारी जमीन छीन ली। यह अन्याय तेरा बाप सह न पाया, लालझंडा पकड़ घने जंगल की ओर भाग गया और भाइयों से जा मिला। तेरे बाप ने पुलिस के डंडे खाए, भूखा-प्यासा रहा, जंगल-जंगल घूम-घूमकर आंदोलन करता रहा। दिन-पर-दिन आंदोलन उग्र रूप धारण करने लगा।

‘आंदोलन क्रांति में न बदल जाए, इसलिए सरकार समझौते पर उतर आई। फलस्वरूप हम सबको हमारी खेती पुनः प्राप्त हुई। सरकार ने ‘पहाड़ी लोगों की जमीन दूसरी जाति का कोई न खरीद सकता है, न बेच सकता है, ऐसा नियम बना दिया। आंदोलन सफल होने के बाद सरकार ने प्रस्ताव रखा कि जंगल और विद्रोह मार्ग छोड़ जो भाई समाज में रहेगा, उसे सरकार सरकारी नौकरी देगी। तेरा बाप गाँव आकर रहने लगा, पर सरकारी नौकरी न स्वीकारी। तेरे दादा कुरवय्या ने कहा, तुझे सरकारी नौकरी नहीं चाहिए तो कोई बात नहीं, कम-से-कम तू अपने बेटे के लिए यह नौकरी सुरक्षित करवा ले। तेरे पिता ने ऐसा ही किया, इसी वजह से तुझे सरकारी नौकरी मिली। आज तू इस नौकरी को छोड़ देगा, कह रहा है?’ बूढे़ ने कहा। बेसुरी बूढे़ ने उन दिनों घटित घटना का वर्णन किया। वहाँ उपस्थित बढे़-बूढ़ों को उन दिनों के संघर्ष की यादें ताजा हो गईं। कुरवय्या को अपने बेटे की याद आई। उसने कितने दुःख सहे, याद कर उसका मन भारी हो गया। वो चुपचाप वहाँ से उठकर चला गया।

‘मुझे सब मालूम है। याद भी है, फिर भी गाँव का एक व्यक्ति सरकार में रहे तो गाँव का भला होगा। मैंने चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है। वो भी आप सब स्वीकार करें तो।’ तविटय्या ने कहा। लोगों ने उत्साहपूर्वक उसका समर्थन किया।

चुनाव के दिन आ गए। तविटय्या ने नौकरी छोड़ दी और एम.पी.टी.सी. पद हेतु चुनाव में खड़ा हुआ। वह गाँव-गाँव घूमकर प्रचार करता। भाषण में अपने पिता के त्याग का जिक्र करता। वह कहता, मैं अपने पिता की तर्ज पर चलना चाहता हूँ, पर मेरे पिता ने सरकारी नीतियों के खिलाफ आंदोलन किया था। मैं सरकार में रहकर पहाड़ी निवासियों के हित में काम करना चाहता हूँ। कृपया आप मेरा विश्वास करें और मुझे मौका दें।’ लोगों ने तविटय्या का विश्वास किया। वह चुनाव जीत गया। अब वह अपने क्षेत्र का मंडल अध्यक्ष बन गया।

गाँव के लोग खुशी से झूम गए। उन्होंने उत्सव मनाया। तविटय्या हमारा है, अब हमारे क्षेत्र की उन्नति होगी। हमारे यहाँ युवा को रोजगार मिलेगा। गाँववालों का आत्मविश्वास बढ़ गया। पहले वे जब काम से सरकारी दफ्तर जाया करते थे। कर्मचारी की चापलूसी कर काम करवाया करते थे। अब वे सरकारी दफ्तर में कर्मचारी पर दबाव डाल काम करवाने लगे।

चुनाव जीतने के बाद कुछ दिन तविटय्या ने अपने क्षेत्र में विकास का काम करवाया। गाँव के बेरोजगार युवाओं को वह प्रोत्साहित कर सरकारी ठेका दिलवाया करता था। जिस युवा के पास धन न होता, उसे ऋण देकर ठेका दिलवाता। काम सँभल होने के बाद जब युवा उधार पटाने आता, वह अपना प्रतिशत जोड़कर ऋण वसूल लेता, फिर भी लोग उससे खुश ही रहते। वह अपने साथ सामनेवाले को भी फायदा पहुँचा रहा है।

एक दिन संध्या तविटय्या मोटरसाइकिल पर गाँव आया। उसके पीछे एक अनजान व्यक्ति बैठा हुआ था। गाँव के लोगों ने तविटय्या और साथी का दिल खोलकर स्वागत किया। लोगों ने गाँव के बीच खाट बिछाकर उसे बैठाया, कच्चा नारियल तोड़ पानी पीने को दिया, ‘अरे-अरे, यह मेरा गाँव है। तुम सब मेरे अपने हो। इस तरह मुझे सम्मान देने की जरूरत नहीं।’ कहता हुआ उसने नारियल पानी पिया। तविटय्या ने उसके सामने बैठे लोगों पर एक नजर डाली और कहना प्रारंभ किया, ‘आज मुझे तुम सबकी सहायता की आवश्यकता है।’ लोगों ने एक-दूसरे की ओर प्रश्न भरी नजरों से देखा। तविटय्या ने बात आगे बढ़ाई, ‘मुझे कुछ धन की आवश्यकता है।’

लोग चकित रह गए। उनमें से एक ने अचरज भरे स्वर में पूछ लिया, ‘धन की आवश्यकता है और तुम हमारे पास आए हो?’

‘हाँ-हाँ, मैं आपके पास ही आया हूँ।’ उसने इत्मीनान से अपनी कमर के पीछे खाट पर हाथ टिकाकर बैठते हुए लोगों की ओर ध्यान से देखते हुए कहा।

अब आगे वह क्या कहनेवाला है। लोग उत्कंठित भाव से उसकी ओर देख रहे थे।

‘मैंने लोन लेकर एक डेयरी फार्म खोलने का निर्णय लिया है। मैंने कुछ पैसे खर्च किए हैं और पैसों की जरूरत है।’ बूढ़ा कुरवय्या बीड़ी पीता, लकड़ी टेकता वहाँ आकर खड़ा हुआ। वहाँ किस विषय पर चर्चा हो रही है। उसे कुछ समझ न आया। वह ध्यान से सुनने लगा। उसने बीड़ी बुझाकर कान में खोंस ली।

वहाँ बैठे लोगो में से एक ने सबके बदले पूछा।

इसी प्रश्न का तविटय्या को इंतजार था, वह उत्साहपूर्वक कहने लगा, ‘बताता हूँ, बताता हूँ, यह गाँव मेरा है। मैं आप सबका हूँ। आप सब मेरा विश्वास करते हैं। कम-से-कम मैं तो ऐसा ही मानता हूँ।’

किसी ने आपत्ति नहीं जताई।

‘मैं सोच रहा हूँ। आप लोगों की जमीन का पट्टा ले जाऊँ और उस पर कुछ धन ऋण लँू। आप अपनी-अपनी खेती में जोतते-बोते रहें, जब मेरा धंधा चल निकलेगा। मैं एक-एक कर ऋण चुका दँूगा। जो पट्टा पुस्तक आपके घर में रखी है, वह बैंक में सुरक्षित रहेगी। अगर आप मेरा विश्वास करते हैं तो दें, वरना...’ जान-बूझकर उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

लोगों ने सहज ही अपनी जमीन की पट्टा-पुस्तक तविटय्या को दे दी। तविटय्या ने अपनी साख के बलबूते बैंक से ज्यादा-से-ज्यादा ऋण ले लिया।

दिन-महीने-महीनों से साल गुजर गए। गाँव में डेयरी फार्म नहीं खुला। गाँव के लोग अपनी-अपनी जमीन जोतते रहे। फसल उगाते रहे। हारी-बीमारी या बच्चों की पढ़ाई में पैसों की जरूरत आडे़ समय आती कुछ लोग तविटय्या के पास गए। उन्होंने अपनी जमीन का पट्टा पुस्तक माँगी।

‘मेरा काम नहीं हो पाया है। मेरा धन फँस गया है। ऋण डेयरी का सारा काम धरा रह गया है। कोई-न-कोई अड़ंगा लगा रहा है।’

तविटय्या के पास गए लोगों को कुछ समझ न आ रहा था। वह एक-दूसरे का मँुह ताकते यों ही खडे़ रहे। ‘सच हो सकता है, यह हमारा आदमी है। हमसे झूठ नहीं कहेगा।’ कुछ ने सोचा।

‘एक काम करते हैं। आडे़ वक्त आप मेरे पास आए हैं। वैसे भी वह पहाड़ी-पथरीली जमीन जब पानी बरसे तब फसल देती है, वरना नहीं। हम उस पर जितनी मेहनत करते हैं। उस हिसाब से हमें फसल नहीं प्राप्त होती। अकसर हम उस जमीन को बेच देने की सोचते हैं, पर हम पहाड़ी लोगों से कोई जमीन खरीदने के लिए तैयार नहीं होता। मैं आपकी जरूरत को समझ सकता हूँ। मैं उस जमीन के बदले आपको कुछ धन देकर जमीन मैं रख लेता हूँ।’

तुरंत तविटय्या का प्रस्ताव मान लिया। कुछ लोगों ने कुछ दिन सोच-विचार करने के बाद तविटय्या के पास जाकर जमीन के बदले पैसे ले लिये।

पेड़ की छाँव में कुछ देर सुस्ताने के बाद लोग चल पडे़।

‘हम जा तो रहे हैं, क्या मालूम तविटय्या मिले न मिले।’ उनमें से एक ने शंका जताई।

‘अब तो इतनी दूर आ गए हैं।’ दूसरे ने कहा।

उस दिन साप्ताहिक बाजार होने की वजह से मंडल कार्यालय में बहुत भीड़ थी। वहाँ का वातावरण बहुत गरम था। तविटय्या के गाँववाले वहाँ पहुँच जाने के कारण और वहाँ का वातावरण गरमा गया। लोगों ने मंडल अधिकारी कार्यालय में है या नहीं, पता लगाया।

‘सरकार ने डेयरी फार्म हेतु अनुमति दे दी है। बहुत दिनों बाद कार्यालय आए हैं। अधिकारी उसी काम में व्यस्त हैं।’ कार्यालय में पता चला। लोग सीधे तविटय्या के कमरे में जा घुसे। एक साथ उसके गाँव के लोग उसके कमरे में आ गए, देख तविटय्या चकित रह गया। वह कुछ कागजों में दस्तख्त कर रहा था।

‘क्या बात है?तुम सब मिलकर यहाँ क्यों आए हो?’ उसने सिर उठाए बिना पूछा।

‘हमसे पूछ रहे हो, क्या तुम्हें नहीं मालूम?’ एक ने कहा।

‘जब तक तुम नहीं बताओगे, मुझे कैसे पता चलेगा?’ उसने कहा।

‘तो सुनो, हमें सबकुछ पता चल गया है। हमारी जमीन पर तुमने बैंक से जो ऋण लिया था, सरकार ने वह ऋण माफ कर दिया। तुमने हमारे पैसे हमें देकर जमीन खरीद ली। हमें तुमने जो पैसे दिए, वह पैसे काटकर एक एकड़ का दस हजार के हिसाब सें हमें रुपए दो या हमारी जमीन हमें लौटा दो।’ मंडंगी बूढ़ी ने तविटय्या के सामने खड़े होकर स्पष्ट कह दिया। दरअसल, एक स्वच्छंद संस्था प्रतिनिधि गाँव आया था, उसने गाँव में सभा की, सरकार ने पहाड़ी लोगों की जमीन पर दिया ऋण माफ कर दिया है। गाँववालों को बता दिया।

बुढि़या का साहस देख पल भर तविटय्या हकबकाकर चुप रह गया। कुछ देर बाद बोल, ‘अब वह जमीन मेरी है, मैं उससे बैंक ऋण लूँ और बैंक ऋण माफ करे, इससे तुम्हें मतलब?’

तविटय्या साफ मुकर जाएगा, इस बात का वहाँ आए लोगों को अंदाजा था। वहाँ आई महिलाएँ तविटय्या को शाप देने व चीखने-चिल्लाने लगीं। पुरुष वाद-विवाद पर उतर आए। बिगड़ते माहौल को देख तविटय्या ने अटेंडर को घंटी बजाकर बुलाया और कहा, ‘इन सबको कमरे के बाहर ढकेल दो—चार-पाँच लोगों ने मिलकर अटेंडर को ही कमरे से बाहर ढकेल दिया। तविटय्या ने फोन करना चाहा। लोगों ने फोन तार तोड़ दी। अब तविटय्या डर गया।

कुरवय्या के मन में तूफान चल रहा था। पहाड़ी निवासी की किस्मत में क्या हमेशा छला जाना ही लिखा रहता है। इसके पहले हमें बाहरी लोगों ने छला। आज अपना ही छल रहा है। कुरवय्या गुस्से में लोगों के बीच से चलकर तविटय्या के पास आया, ‘क्यों रे तविटी, तू हमारा है, हमारे साथ है, कहता था। हमारे साथ चलने का दिखावा करता रहा और अपने लिए अलग राह चुन ली। पर याद रख, जहाँ चाह हो, वहाँ अनगिनत राह खुद-ब-खुद खुल जाती हैं। हम भी देख लेंगे कि तू हमें छलकर, हमें नकारकर वह डेयरी फार्म कैसे खोलेगा, कैसे चलाएगा।’ कुरवय्या अपनी बात कह कमरे से बाहर निकल गया। गाँव के लोग उसके पीछे निकल गए। सब कमरे का दरवाजा बंद कर कमरे के बाहर दीवार जैसे खडे़ हो गए।

‘हमारी जमीन या धन हमें देगा या नहीं?स्पष्ट जवाब मिलने तक हम इसे नहीं छोड़नेवाले।’ उन्होंने कहा।

उनके सामने पहाड़ मानो उन्हें दृढ निश्चयी होने का आशीर्वाद दे रहा था। वे जिस राह से होकर आए थे, वह भी उनके साथ थी।

वुढा कॉलोनी
फेस-३, एम.आई.जी. १/२५०
विजयनगरम्-५३५००३ (आं.प्र.)

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