शिष्टाचार

शिष्टाचार

जब तीन दिन की अनथक खोज के बाद बाबू रामगोपाल एक नौकर ढूँढ़कर लाए तो उनकी क्रुद्ध श्रीमती और भी बिगड़ उठीं। पलंग पर बैठे-बैठे उन्होंने नौकर को सिर से पाँव तक देखा और देखते ही मुँह फेर लिया।

‘यह बनमानस कहाँ से पकड़ लाए हो?इससे मैं काम लूँगी या इसे लोगों से छिपाती फिरूँगी?’ इसका उत्तर बाबू रामगोपाल ने दिया।

‘जानती हो, तलब क्या होगी?केवल बारह रुपए। इतना सस्ता नौकर तुम्हें आजकल कहाँ मिलेगा?’

‘तो काम भी वैसा ही करता होगा।’ श्रीमती बोलीं।

‘यह मैं क्या जानूँ?नया आदमी है, हाल ही में अपने गाँव से आया है।’

श्रीमतीजी की भौंवें चढ़ गईं, ‘तो इसे काम करना भी मैं सिखाऊँगी? अब मुझ पर इतनी दया करो, जो किसी दूसरे नौकर की खोज में रहो। जब मिल जाए तो मैं इसे निकाल दूँगी।’

बाबू रामगोपाल तो यह सुनकर अपने कमरे में चले गए और श्रीमती दहलीज पर खड़े नौकर का कुशल-क्षेम पूछने लगीं। नौकर का नाम हेतू था और शिमले के नजदीक एक गाँव से आया था। चपटी नाक, छोटा माथा, बेतरह से दाँत, मोटे हाथ और छोटा-सा कद, श्रीमती ने गलत नहीं कहा था। नाम-पता पूछ चुकने के बाद श्रीमती अपने दाएँ हाथ की उँगली पिस्तौल की तरह हेतू की छाती पर दागकर बोलीं, ‘अब दोनों कान खोलकर सुन लो। जो यहाँ चोरी-चकारी की तो सीधा हवालात में भिजवा दूँगी। जो यहाँ काम करना है तो पाई-पाई का हिसाब ठीक देना होगा।’

श्रीमती का विचार नौकरों के बारे में वही कुछ था, जो अकसर लोगों का है कि सब मक्कार, गलीज और लंपट होते हैं। किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता। सभी झूठ बोलते हैं, सभी पैसे काटते हैं और सभी हर वक्त नौकरी की तलाश में रहते हैं, जो मिल जाए तो उसी वक्त घर से बीमारी की चिट्ठी मँगवा लेते हैं। इसीलिए श्रीमतीजी का व्यवहार नौकरों के साथ नौकरों का सा ही था। यों भी घर में उनकी हुकूमत थी। जब उन्हें पतिदेव पर गुस्सा आता तो अंग्रेजी में बात करतीं और जब नौकर पर गुस्सा आता तो गालियों में बात करतीं। दोनों की लगाम खींचकर रखतीं। उनकी तेज नजर पलंग पर बैठे-बैठे भी नौकर के हर काम की जानकारी रखती कि नौकर ने कितना घी इस्तेमाल किया, कितनी रोटियाँ निगल गया है। अपनी चाय में कितने चम्मच चीनी उड़ेली है। जासूसी नॉवलों की शिक्षा के फलस्वरूप उन्हें नौकरों की हर क्रिया में षड्यंत्र नजर आता था।

काम चलने लगा। हेतू कुरूप तो था ही, उस पर उजड्ड और गँवार भी निकला। उसके मोटे-मोटे स्थूल हाथों से काँच के गिलास टूटने लगे, परदों पर धब्बे पड़ने लगे और घर का काम अस्त-व्यस्त रहने लगा। श्रीमती दिन में दस-दस बार उसे नौकरी से बरखास्त करतीं। पर तब भी हेतू की पीठ मजबूत थी। दिन कटने लगे और बाबू रामगोपाल की खोज दूसरे नौकर के लिए शिथिल पड़ने लगी। नौकर उजड्ड और कुरूप था, पर दिन में केवल दो बार खाता था। उस पर वेतन केवल बारह रुपए। जो किसी चीज का नुकसान करता तो उसकी तनख्वाह कटती थी। दिन बीतने लगे, हेतू के कपडे़ मैले होकर जगह-जगह से फटने लगे, मुँह का रंग और भी काला पड़ने लगा और गाँव का जाट धीरे-धीरे एक शहरी नौकर में तब्दील होने लगा। इसी तरह तीन महीने बीत गए।

पर यहाँ पहुँचकर श्रीमती एक भूल कर गईं। कहते हैं कि स्त्री में संकीर्णता का इलाज पुरुष के पास तो नहीं, पर प्रकृति के पास अवश्य है। श्रीमान और श्रीमती के एक छोटा सा बालक था, जो अब चार बरस का हो चला था और प्रथानुसार उसके मुंडन संस्कार के दिन नजदीक आ रहे थे। पूरे घर में बड़े उत्साह और प्यार से मुंडन की तैयारियाँ होने लगीं। बेटे के वात्सल्य ने श्रीमतीजी की आँखें आटे, दाल और घी से हटाकर रंग-बिरंगे खिलौनों और कपड़ों की ओर फेर दीं, शामियाने और बाजे का प्रबंध होने लगा। मित्रों-संबंधियों को निमंत्रण-पत्र लिखे जाने लगे और धीरे-धीरे चाबियों का गुच्छा श्रीमतीजी के दुपट्टे के छोर से निकलकर नौकर के हाथों में रहने लगा।

आखिर वह शुभ दिन आ पहुँचा। श्रीमान और श्रीमती के घर के सामने बाजे बजने लगे। मित्र-संबधी मोटरों व ताँगों पर बच्चे के लिए उपहार ले-लेकर आने लगे। फूलों, फानूसों और मित्र मंडली के हास्य-विनोद से घर का सारा वातावरण जैसे खिल उठा था। श्रीमान और श्रीमती काम में इतने व्यस्त थे कि उन्हें पसीना पोंछने की भी फुरसत नहीं थी।

ऐन उसी वक्त हेतू कहीं बाहर से लौटा और सीधा श्रीमान के सामने आ खड़ा हुआ।

‘हुजूर, मुझे छुट्टी चाहिए, मुझे घर जाना है।’

श्रीमान उसी वक्त दरवाजे पर खडे़ अतिथियों का स्वागत कर रहे थे, हेतू के इस अनोखे वाक्य पर हैरान हो गए।

‘क्या बात है?’

‘हुजूर, मुझे घर से बुलाया है, मुझे आप छुट्टी दे दें।’

‘छुट्टी दे दें। आज के दिन तुम्हें छुट्टी दे दूँ?’ श्रीमान का क्रोध उबलने लगा, ‘जाओ’ अपना काम देखो। छुट्टी-वुट्टी नहीं मिल सकती। मेहमान खाना खानेवाले हैं और इसे घर जाना है।’ हेतू फिर भी खड़ा रहा, अपनी जगह से नहीं हिला। श्रीमान झुँझला उठे।

‘जाते क्यों नहीं?छुट्टी नहीं मिलेगी।’

फिर भी जब हेतू टस-से-मस न हुआ तो श्रीमान का क्रोध बेकाबू हो गया और उन्होंने छूटते ही हेतू के मुँह पर एक चाँटा दे मारा।

‘उल्लू के पट्ठे, यह वक्त तूने छुट्टी माँगने का निकाला है।’

चाँटे की आवाज दूर तक गई। बहुत से मित्र-संबंधियों ने भी सुनी और आँख उठाकर भी देखा, मगर यह देखकर कि केवल नौकर को चाँटा पड़ा है, आँखें फेर लीं।

श्रीमती को जब इसकी सूचना मिली तो वह जैसे तंद्रा से जागीं। हो न हो, इसमें कोई भेद है। मैं भी कैसी मूर्ख, जो इस लंपट पर विश्वास करती रही और सब ताले खोलकर इसके सामने रख दिए। इसने न मालूम किस-किस चीज पर हाथ साफ किया है, जो आज ही के दिन छुट्टी माँगने चला आया है। भागी हुई बाहर आईं और बरांडे में खड़ी होकर हेतू को फटकारने लगीं। उन्होंने वह कुछ कहा, जो हेतू के कानों ने पहले कभी नहीं सुना था। कुछ एक संबंधी इकट्ठे हो गए और जलसे मे विघ्न पड़ता देखकर श्रीमान को समझाने लगे। एक ने हेतू से पूछा, ‘क्यों, घर क्यों जाना चाहते हो?’

हेतू चुपचाप खड़ा रहा, पहले कुछ कहने लगा, फिर इधर-उधर देखकर रुक गया और बोला, ‘जी काम है।’

‘क्या काम है?’

हेतू ने फिर धीरे से कह दिया।

‘जी काम है।’

इस पर श्रीमती का गुस्सा और भड़क उठा, मगर बाकी लोग तो बात को निबटाना चाहते थे, हेतू को चुपचाप धकेलकर परे हटा दिया। फिर पति-पत्नी में परामर्श हुआ। आखिर दोनों इस नतीजे पर पहुँचे कि इस वक्त चुप हो जाना ही ठीक है। मुंडन के बाद इसका इलाज सोचेंगे।

हेतू बजाय इसके कि फिर काम में जुट जाता, बरांडे के एक कोने में जाकर बैठ गया और न हूँ न हाँ, चुपचाप इधर-उधर ताकने लगा। इस पर श्रीमान आपे से बाहर होने लगे। पहले तो देखते रहे, फिर उसके पास जाकर उससे कड़ककर बोले,‘काम करेगा या मैं किसी को बुलाऊँ?’

हेतू ने फिर वही रट लगाई।

‘साहब, मुझे जाने दो, मैं जल्दी लौट आऊँगा, मुझे काम है।’

आखिर जब जलसे में बहुत से लोगों का ध्यान उसी तरफ जाने लगा तो दो-एक मित्रों ने सलाह दी कि उसका नाम-पता लिख लिया जाए, उसकी तनख्वाह रोक ली जाए और उसे जाने दिया जाए। श्रीमान ने अपनी डायरी खोली, उस पर हेतू का पूरा पता लिखा, नीचे अँगूठा लगवाया और धक्के मारकर बाहर निकाल दिया।

दूसरे दिन श्रीमती ने अपना ट्रंक खोलकर अपनी चीजों की पड़ताल शुरू की। अपने जेवर, सिल्क के जड़ाऊ सूट, चाँदी के बटन, एक-एक करके जो याद आया, गिन डाला। मगर बडे़ घरों में चीजों की सूची कहाँ होती है और एक-एक चीज किसे याद रह सकती है। श्रीमती जल्दी ही थककर बैठ गईं।

‘तुमने उसे जाने क्यों दिया?कभी कोई नौकरों को यों भी जाने देता है? अब मैं क्या जानूँ क्या-क्या उठा ले गया है।’

‘जाएगा कहाँ?उसकी तीन महीने की तनख्वाह मेरे नीचे है।’

‘वाह जी, सौ-पचास की चीज ले गया तो बीस रुपए तनख्वाह की वह चिंता करेगा?’

‘तुम अपनी चीजों को अच्छी तरह देख लो। अगर कोई चीज भी गायब हुई तो मैं पुलिस में इत्तला कर दूँगा। मैंने उसका पता-वता सब लिख लिया।’

‘तुम समझे बैठे हो कि उसने तुम्हें पता ठीक लिखवाया होगा?’

दूसरा नौकर आ गया और घर का काम पहले की तरह चलने लगा। जब श्रीमतीजी को कोई चीज न मिलती तो वह हेतू को गालियाँ देतीं। पर श्रीमान धीरे-धीरे दिल ही दिल में अफसोस करने लगे। कई बार उनके जी में आया कि उसके पैसे मनीऑर्डर कराकर भेज दें, मगर फिर कुछ श्रीमती के डर से, कुछ अपने संदेह के कारण रुक जाते।

एक दिन शाम का वक्त था। श्रीमान थके हुए दफ्तर से घर लौट रहे थे, जब उनकी नजर सड़क के पार एक धर्मशाला के सामने खड़े हुए हेतू पर पड़ गई। वही फटे हुए कपड़े, वही शिथिल कुरूप चेहरा। उन्हें पहचानने में देर नहीं लगी। झट से सड़क पार करके हेतू के सामने जा खड़े हुए और उसे कलाई से पकड़ लिया।

‘अरे तू कहाँ था इतने दिन?गाँव से कब लौटा?’

‘अभी-अभी लौटा हूँ साहब।’ हेतू ने जवाब दिया।

‘काम कर आया है अपना।’

हेतू ने धीरे से कहा—‘जी।’

‘कौन सा ऐसा जरूरी काम था, जो जलसेवाले दिन भाग गया?’ हेतू चुप रहा।

‘बोलते क्यों नहीं, क्या काम था?मैं कुछ नहीं कहूँगा, सच-सच बता दो।’

सहसा हेतू की आँखों में आँसू आ गए। होंठ बात करने के लिए खुलते, मगर फिर बंद हो जाते। बार-बार आँसू छिपाने का यत्न करता, मगर आँखें ऐसी दलक आई थीं कि आँसुओं को रोकना असंभव हो गया था।

बाबू रामगोपाल पसीज उठे।

‘अच्छा क्या बात है?’ उसका कंधा सहलाते हुए बोले।

‘जी मेरा बच्चा मर गया था।’ लड़खड़ाती हुई आवाज में हेतू ने कहा।

बाबू रामगोपाल को सुनकर दुःख हुआ। थोड़ी देर तक चुपचाप खडे़ उसके मुँह की ओर देखते रहे, फिर बोले, ‘मगर तुमने उस वक्त कहा क्यों नहीं? तुमसे बार-बार पूछा गया, मगर तुम कुछ भी न बोले?’

हेतू ने धीरे से कहा, ‘जी वहाँ कैसे कहता?’

‘क्यों?’

‘खुशीवाले घर में यह नहीं कहते। हमारे गाँव में इसे बुरा मानतेहैं।’

और श्रीमान स्तब्ध और हैरान उस उजड्ड-गँवार के मुँह की ओर देखने लगे।

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