चपाती की संवेदना

"आंटी!’’ भिखारी उसके घर के बाहर खड़ा था, ‘‘एक चपाती दे दो, कल से भूखा हूँ!"

"क्या... चपाती!" क्षणों में ही उसके कदम आगे बढे़ और फुरती से उसके गालों पर एक चपत रसीद कर दी।

एकाएक उसकी चेतना झनझना उठी। भिखारी-वारदात से उसे एक गहरा आघात सा महसूस हुआ और वह अंदर-ही-अंदर पिसती चली गई।

‘भूलवश या आवेश में उससे भिखारी के साथ बड़ा अन्याय-अत्याचार हो गया है!’ वह मायूसी से बुदबुदाई।

मगर चंद मिनटों में ही उसकी सूझ ने उसे समझाया-सुझाया कि तुरंत उसे भिखारी के पास चलना चाहिए। सो वह रसोईघर से एक चपाती हाथों में झुलाती दरवाजे तक आई, किंतु चहुँओर सन्नाटे में दूर-दूर तक वह भिखारी नदारद था।

‘‘अब भिखारी को वह कहाँ ढूँढ़ती फिरे!’’ वह खिन्न सी हो चली।

फिलहाल, वह उसे चपाती के संग किसी भिखारी के इंतजार में रुआँसी सी ड्राइंग-रूम की खिड़की खोलकर आ बैठी, ‘‘कोई-न-कोई माई का लाल इधर से गुजरेगा ही!’’ और वह निश्चिंत थी।

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