सौराष्ट्र की तीर्थ परिक्रमा

सौराष्ट्र की तीर्थ परिक्रमा

व वर्ष २०१६ के दूसरे ही दिन सौराष्ट्र यात्रा का कार्यक्रम बन गया। इस बार चाचा रवि की बिटिया की शादी का कार्ड भगवान् द्वारकाधीश को भेंट करना है। सो सात सदस्यीय यात्री-दल में हैं—मेरे मित्र आनंद शर्मा, इनके चाचा हरिप्रसाद शर्मा, रवि शर्मा के अलावा चौ. वीरेंद्र सिंह, नवीन कांडपाल एवं भाई जीत शर्मा। २ जनवरी को दिल्ली से आश्रम एक्सप्रेस में सवार हुए और रुकते-चलते अगले दिन सायं सात बजे हम द्वारका स्टेशन पर उतर गए। तीर्थ-पुरोहित लालूजी हमें लेने आ पहुँचे और उन्होंने अग्रसेन धर्मशाला में ठहरा दिया। रात्रि को शयन आरती में शामिल हो द्वारकाधीश भगवान् के दर्शन किए। अगले दिन प्रातः गोमती में स्नान कर द्वारकानाथ के पुनः दर्शन किए। इसके बाद हम लोग प्रातः में रुक्मणि मंदिर, माँ त्रिपुरसुंदरि के दर्शन कर बेट द्वारका निकल गए। लौटते में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, गोपी तालाब आदि तीर्थों के दर्शन किए। दोपहर के बाद द्वारका के स्थानीय मंदिरों के दर्शन कर सायं को समुद्र तट पर सूर्यास्त देखा। अगले दिन यानी ६ जनवरी को प्रातः आनंदजी ने द्वारकाधीश प्रभु को माखन-मिसरी का भोग लगवाया तथा रवि चाचा ने शादी-कार्ड भेंट किया और तीर्थपुरोहित लालूजी ने विधि-विधान से तुलादान करवाया। इन सब तीर्थों का विस्तृत विवरण पाठक ‘साहित्य अमृत’ के मार्च-१५ के अंक में ‘मोक्षपुरी द्वारका में दो दिन’ शीर्षक लेख में पढ़ चुके हैं।

छह जनवरी को रात्रि ८:४० पर ओखा-सोमनाथ एक्सप्रेस से सोमनाथ के लिए प्रस्थान किया और प्रातः छह बजे सोमनाथ स्टेशन पर उतर गए। सड़क मार्ग से सोमनाथ की दूरी रेल की अपेक्षा काफी कम है, रेल काफी लंबा रास्ता तय कर सोमनाथ पहुँचती है। अस्तु, ऑटो पकड़ हम सोमनाथ मंदिर की ओर चले, जो स्टेशन से एक-डेढ़ कि.मी. से ज्यादा दूर नहीं है। चौराहे पर कमरों के मालिक यात्रियों की तलाश में रहते हैं, सो एक गृहस्थ पंडितजी छह सौ रुपए में दो कमरे देने को तैयार हो गए। परंतु आज भोर से ही यहाँ लाइट नहीं है। कमरे पर सब लोग जब तक दैनिक कर्मों से निवृत्त हों, तब तक मैं आपको ‘सोमनाथ’ के बारे में बताए देता हूँ।

भारत के एकदम पश्चिमी छोर पर समुद्र तट पर झुकी हुई अटारी सा यह प्रदेश अत्यंत रमणीय है, जिसे हम सब ‘सौराष्ट्र’ के नाम से जानते हैं। यह भारत देश की पश्चिम सीमा है, यहाँ से आगे दक्षिणी धु्रव तक समुद्र-ही-समुद्र है, कोई स्थल नहीं है। पूरा सौराष्ट्र पवित्र प्रभास क्षेत्र में फैला है। पहले इसका नाम ‘कुशव्रत’ था। इसे सोरठ, सौराष्ट्र या काठियावाड के नाम से भी जाना जाता है। पुरा काल में यह पूरा प्रदेश ‘आनर्त देश’ भी कहा जाता था। सौराष्ट्र तो शूर, संत और सती की भूमि है। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति में यहाँ के पंचरत्नों की महिमा इस प्रकार बताई गई है—

सौराष्ट्र पञ्चरत्नानि—नदी, नारी, तुरङ्गमाः।
चतुर्थं सोमनाथ च पञ्चमं हरि दर्शनम्॥

सुप्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर पवित्र प्रभास क्षेत्र में ही स्थित है। एक समुद्री बंदरगाह के रूप में प्रभास की ख्याति पूरी दुनिया में रही। इसका प्राचीन नाम ‘देवपट्टन’ था। दूर-दूर से आनेवाले व्यापारी प्रभास आकर सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर खूब भेंट चढ़ाया करते थे, अतः सोमनाथ मंदिर की समृद्धि अपार थी। व्यापारियों के द्वारा इसकी ख्याति भी देश-विदेश में फैल गई। प्रभास शब्द का अर्थ है, ‘अति प्रकाशमान’। सूर्य-चंद्र दोनों प्रकाश के प्रमुख स्रोत हैं, जिनसे पृथ्वी पर जीवन-चक्र चलता है। अतः सोमनाथ स्वयंभू ज्योतिर्लिंग है। सूर्य के नाम पर इसे ‘भास्कर-तीर्थ’, ‘सूर्य-तीर्थ’, ‘अग्नि-तीर्थ’ और चंद्र के नाम पर इसे ‘सोम-तीर्थ’ कहा गया है। लेकिन इसका नाम ‘सोमनाथ’ क्यों? इसके बारे में महाभारत में एक कथा आती है कि दक्ष प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र हुए। उनकी सत्ताईस कन्याओं में से रोहिणी बड़ी सुंदर तथा बुद्धिमान थी, सब बहनों में बड़ा स्नेहभाव था। विवाह के बाद सब बिछुड़ न जाएँ, इसलिए सबने मिलकर निश्चय किया कि हम सब एक पति से विवाह करेंगी। यह निर्णय उन्होंने अपने पिता को भी बता दिया। ऋषि दंपती अत्रि व अनसूया के पुत्र सोम राजा की उस समय बड़ी ख्याति थी, उनके तीन महा तेजस्वी पुत्र थे—दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्र। चंद्र (सोम) रूपवान, प्रतापी तथा बुद्धिमान थे। रोहिणी उनके प्रति आकर्षित थी। पुत्री की इच्छा जानकर दक्ष ने सभी कन्याओं का पाणिग्रहण चंद्र के साथ कर दिया। समय के साथ सोम की प्रीति रोहिणी के प्रति बढ़ती गई। दूसरी सब कन्याएँ इससे दुखी होकर पिता के पास गईं तथा अपनी पीड़ा एवं चंद्र के पक्षपात के बारे में बताया। दक्ष ने सोम (चंद्र) को बुलाकर समझाया, लेकिन सोम के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया। एक पिता के नाते अपनी पुत्रियों की पीड़ा तथा सोम की उद्दंडता पर दक्ष को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने शाप दिया, ‘सोम, तेरा क्षय होगा।’ आज्ञा पाकर क्षय चंद्र के शरीर में घुस गया। क्षयग्रस्त होने पर सोम का रूप-सुंदरता तथा तेज प्रतिदिन क्षीण होने लगा। बहुत इलाज के बाद भी कोई लाभ न हुआ। इससे प्रभावित सृष्टि की दारुण दशा देखकर देवता भी चिंतित हो गए। तब देवताओं की उपस्थिति में चंद्र ने दक्ष के सामने पश्चात्ताप किया। लेकिन दक्ष बोले, ‘मेरे शाप को महेश्वर के अलावा कोई भी मिटा नहीं सकता। अतः सरस्वती के उत्तरतीर्थ में स्नान कर महेश्वर की तपस्या करो तो कोई बात बने।’ चंद्र ने शिवलिंग बनाकर एक सहस्र वर्ष तक शिव की आराधना की। शिव ने प्रसन्न होकर कहा, ‘दक्ष की सब कन्याओं के साथ समान व्यवहार करना, मैं दक्ष के शाप को पूरी तरह मिटा तो नहीं सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि तुम्हारा तेज पूर्ववत् हो जाएगा, पर मास के एक पक्ष में वृद्धि तथा दूसरे पक्ष में क्षय होता जाएगा।’

इस शाप से मुक्ति के बाद सोम ने महेश्वर से विनती की कि मैंने जिस शिवलिंग की पूजा की है, इसमें आप हमेशा के लिए निवास करें। भोलेशंकर ने सोम की विनती स्वीकार कर ली, तब से भोलेनाथ यहाँ शिवलिंग रूप में विराजमान हैं, उसी समय से यह तीर्थ ‘सोम’ के नाथ यानी ‘सोमनाथ’ ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हो गया। चूँकि चंद्र (सोम) को यहाँ पुनः प्रभा (तेज) प्राप्त हुई, सो उसी दिन से इस क्षेत्र का नाम भी ‘प्रभास क्षेत्र’ हुआ। इससे इतर खगोलीय दृष्टि से चंद्र और उसके २७ नक्षत्रों की बात इस कथा को सार्थक बनाती है कि अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा प्रभास क्षेत्र में सूर्य तथा चंद्र की किरणें कुछ ज्यादा प्रकाशमान होती हैं, इससे इसका ‘प्रभास’ नाम सार्थक है।

चंद्र द्वारा निर्मित इस भव्य मंदिर का वैभव तथा संपन्नता इसके लिए अभिशाप बन गई। आक्रांता मोहम्मद गजनवी ने सन् १००० से १०२६ के बीच भारत पर सोलह बार आक्रमण किए। अंतिम आक्रमण में उसने सोमनाथ मंदिर को निशाना बनाया और इसे लूटकर खंडित कर दिया। इस युद्ध में सौराष्ट्र के सहस्र वीरों ने प्राणाहुति दी, पर वे मंदिर को बचा न सके। लगभग दस करोड़ दीनार की संपत्ति उसने सोमनाथ मंदिर से लूटी, शिवलिंग को खंडित कर मंदिर को आग के हवाले कर दिया। इसी से उसे संतोष न हुआ, उसने पूरे प्रभास क्षेत्र को लूटा। कुछ काल पश्चात् मालवा के राजा भोज परमार, पाटण के भीमदेव सोलंकी और सोरठ के नरेश रानवघण के सहयोग से मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ। अब सोमनाथ मंदिर का यश-वैभव पहले से भी ज्यादा हो गया था। दिल्ली के क्रूर शासक अलाउद्दीन खिलजी की वक्रदृष्टि इस ओर हुई, उसके साले अलफखान ने गाजी सेना लेकर सोमनाथ को लूटा, मंदिर का विध्वंश कर डाला तथा शिवलिंग खंड-खंड कर दिया। हालाँकि गुजरात के हिंदू राजा वीरतापूर्वक लडे़। विजय उन्माद में गाजी सेना ने गाँव-के-गाँव जला डाले। १३०८ ई. में रानवघणा (चतुर्थ) के नेतृत्व में सोमनाथ मंदिर की पुनः स्थापना हुई। महमूद तुगलक ने फिर इसे लूटा। इस तरह कई बार मंदिर का विनाश हुआ और हर बार मंदिर का निर्माण होता रहा।

अठारहवीं सदी में रानी अहल्याबाई के द्वारा छठी बार सोमनाथ मंदिर का भाग्योदय हुआ। सोमनाथ मंदिर के अवशेषों से कुछ दूर रानी ने दो मंजिला मंदिर का निर्माण कराकर भूगर्भ में शिवलिंग की स्थापना करा दी, ताकि यह आततायियों के आक्रमण से बचा रहे। ऊपर के तल पर अहल्येश्वर महादेव की प्राण-प्रतिष्ठा हुई। यह मंदिर आज भी तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केंद्र है; यहाँ तीर्थयात्री अपने हाथ से जलाभिषेक कर सकते हैं। सन् १९४७ में भारत आजाद हुआ, तब भारत के लोकप्रिय नेता लौहपुरुष वल्लभ भाई पटेल ने इसकी दुर्दशा को देखा तो १३ नवंबर, १९४७, दीपावली के दिन वहीं पर समुद्र जल को हाथ में लेकर सातवें सोमनाथ मंदिर के निर्माण का संकल्प लिया। उनके निर्देश तथा मुरारजीभाई के नेतृत्व में सोमनाथ ट्रस्ट की स्थापना हुई और विधि-विधान से इसका शिलान्यास हुआ। १३ मई, १९५१ को नव-निर्मित गर्भगृह में ज्योतिर्लिंग की प्राण-प्रतिष्ठा भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र बाबू के कर-कमलों से संपन्न हुई। इस अवसर पर २२ तोपों की सलामी के साथ मंदिर के शिखर पर ध्वजारोहण हुआ। इसके सामने सरदार पटेल की आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई। १ दिसंबर, १९९५ को राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा यह मंदिर राष्ट्र को समर्पित किया गया।

सब लोग लगभग शौचादि से निवृत्त हो चुके हैं, सो चाय पीकर यहाँ से एक-डेढ़ कि.मी. दूर स्थित हिरण, कपिला और सरस्वती नदी के संगम पर स्नान के लिए पैदल ही चल पड़े। हरिहर वन मार्ग से चलते हुए संगम आ पहुँचे हैं। यहाँ पक्के घाट बने हैं। पानी खूब ठंडा, लेकिन मीठा है। बड़े भक्तिभाव से स्नान किया। सूर्योदय हो रहा है, बालरवि को संगम-जल से अर्घ्य दिया। पौराणिक काल से ही इस त्रिवेणी संगम का बड़ा महत्त्व रहा है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार तो यहाँ पाँच नदियों का संगम होता था, समयांतर में उनमें से ‘रजनी’ तथा ‘नेन्कु’ नदियाँ लुप्त हो गईं, सो वर्तमान में हिरण, कपिला तथा सरस्वती का ही संगम है। अरब सागर का जल इस पवित्र जल से मिल जाने के कारण यह और भी महिमापूर्ण तीर्थ बन गया। इस संगम पर मातृ-पितृ श्राद्ध, सर्वपितृ श्राद्ध, नारायण बलि आदि विधियाँ संपन्न होती हैं। अस्थि-विसर्जन के लिए बड़ी संख्या में लोग यहाँ आते हैं। श्राद्ध पक्ष में तो यहाँ भारी भीड़ होती है। पूजाविधि के लिए पंडा-तीर्थ पुरोहित भी यहाँ उपलब्ध हैं। यहीं पर पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की अस्थियाँ विसर्जित की गई थीं। यहाँ घाट पर उनकी प्रतिमा भी स्थापित है। यह संगम भी स्नानार्थियों की बुरी आदत का शिकार है। स्नान के बाद लोग अपने गीले कपड़े यहीं छोड़ जाते हैं।

दिनभर घूमने के लिए सवेरे ही एक गाड़ी कर ली गई थी, सो यहाँ से जल्दी लौटकर सब लोग सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए चल पडे़। मंदिर के सामने लंबा-चौड़ा विशाल पक्का मैदान जालीदार रेलिंग से घेर दिया गया है। यहाँ कोई शॉर्टकट नहीं है, हजारों की संख्या में कबूतर दाना चुग रहे हैं, तीर्थयात्री इनके लिए बाजरा आदि डाल रहे हैं। अनेक शौकीन यात्री इनके साथ फोटो भी खींच रहे हैं। जूता-चप्पल रखने के लिए निशुल्क व्यवस्था है, फिर भी तीर्थयात्री यत्र-तत्र जूते-चप्पल छोड़ जाते हैं। सोमनाथ का विशाल भवन स्वर्णाभा से देदीप्यमान हो रहा है। दर्शनार्थी कतारबद्ध अंदर जा रहे हैं, प्रवेश-द्वार पर जाँच-पड़ताल की जा रही है। चमड़े की कोई भी चीज तथा मोबाइल अंदर नहीं जा सकता। भगवान् महेश्वर के जलाभिषेक के लिए परची ले ली गई है, इसके साथ प्रसाद के दो लड्डू भी हैं। परची दिखाकर आगे एक लोटा जल मिलेगा। पंक्ति आगे खिसक रही है। सामने लिंगरूप भोलेनाथ विराजमान हैं, साज-सज्जा इतनी मोहक है कि मैं तो अपलक निहारता रह जाता हूँ। मेरी बारी आने पर पुजारीजी ने जल का लौटा मुझे थमाया। मेरे ठीक सामने घड़े के मुँह जितना छेद है, मैं श्रद्धाभाव से ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप करते हुए उसमें जल गिराता हूँ, ठीक सामने कुछ दूर शिवलिंग पर जल की धार गिर रही है। कमाल की व्यवस्था है, आप जलाभिषेक करते-करते जलाभिषेक होते हुए भी देख सकते हैं। भोलेशंकर की अलौकिक आभा यहाँ चहुँ ओर व्याप्त है। अजब लीला है भोलेभंडारी! सब लोग इसी तरह जलाभिषेक करते हैं, मैं पंक्ति से बाहर आकर बाईं ओर बैठ दंडवत् प्रणाम करता हूँ, नमन करता है—करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं, सदा बसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानि सहितं नमामि। मंदिर में स्थित विभिन्न देव-मूर्तियों को प्रणाम किया, दाईं ओर स्थित दीया सोमनाथ, यानी अखंड ज्योति को प्रणाम कर मंदिर की एक प्रदक्षिणा की।

इस सोमनाथ मंदिर की विशेषता यह भी है कि विगत आठ सौ वर्षों में मंदिर-स्थापत्य की नागर थैली में बना यह देश का पहला मंदिर है। इस सात मंजिला मंदिर में शिखर सहित गर्भगृह, सभामंडप तथा नृत्यमंडप बने हैं। भूतल से शिखर की ऊँचाई १५५ फीट है। शिखर पर ध्वजा तथा डमरूयुक्त ध्वजदंड ही ३७ फीट लंबा है, जिसकी परिधि एक फुट की है। ध्वजा १०४ फुट लंबी है। गर्भगृह तथा उसके ऊपर की मंजिल शामिल करें तो यह भव्य मंदिर नौ मंजिला है। शिखर पर जो कलश दिखाई पड़ रहा है, वह पत्थर को तराशकर बनाया गया है और इसका वजन दस टन है। सभागृह तथा नृत्यमंडप तीन-तीन मंजिल के हैं। इनके गुम्मद पर पत्थर के १००१ छोटे-छोटे कलश तराशे गए हैं। पूरा मंदिर नक्काशीदार सुंदर मजबूत ७२ स्तंभों पर टिका है, जिनकी नींव जमीन में तीस फुट नीचे रखी गई है। सायं को यहाँ लाइट ऐंड साउंड शो होता है, जिसे हम आज सायं को देखनेवाले हैं। मंदिर के ठीक सामने दिग्विजय-द्वार भी कम दर्शनीय नहीं है, इसका निर्माण राजमाता गुलाब कुँवर बा द्वारा अपने पति निजाम साहब की याद में कराया गया, इसका अनावरण सत्य साईं बाबा ने किया था। मंदिर के तीन ओर रत्नाकर हहराता है, किंतु शांत-मौन। पुनः-पुनः दंडवत् प्रणाम कर मंदिर से बाहर निकल सरदार पटेल की प्रतिमा को भी प्रणाम किया। इसके ठीक सामने स्थित अहल्येश्वर महादेव मंदिर में भी दर्शन कर आए। अब हम अपने वाहन में बैठ तीर्थों के दर्शन के लिए निकल पडे़।

हरिहर वन मार्ग पर लगभग एक डेढ़ कि.मी. दूर तथा संगम से थोड़ा आगे बाईं ओर कामनाथ महादेव, नृसिंह भगवान्, पांडवों की गुफा, जहाँ माता हिंगलाज विराजमान हैं, कहा जाता है कि यहाँ पर भी पांडवों ने अज्ञातवास किया था, के साथ-साथ सिद्धनाथ महादेव के दर्शन किए। यहाँ से दो कि.मी. आगे चलकर ‘श्रीगोलोकधाम तीर्थ’ है, इसे ‘देहोत्सर्ग तीर्थ’ भी कहते हैं। यह विशाल प्रांगण में विस्तृत है। यहीं पर भगवान् श्रीकृष्ण ने योग समाधि लेकर इस धरती पर से अपनी लीला का समापन कर गोलोकधाम को प्रस्थान किया था। उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार यहीं हिरण नदी के तट पर किया गया था। यहाँ नदी के घाट पर भगवान् के चरण-चिह्न स्थापित हैं। यहीं पर शेषावतार बलदाऊ की गुफा है, जहाँ से उन्होंने अपना मूल शेषनाग स्वरूप धारण कर निजधाम को प्रस्थान किया था। यहाँ थोड़ा नीचे उतरना पड़ता है, लेकिन दर्शन भली प्रकार होते हैं। यहाँ महाप्रभु की बैठक भी है।

यहाँ के सब पवित्र स्थलों के भली प्रकार दर्शन कर बाहर निकले कि मुख्यद्वार के ठीक सामने एक शबरी माँ मोटे-मोटे बेरों की टोकरी लिये बैठी है। बेर खरीद लिये गए। बेर खाते हुए आगे बढ़े तो ‘श्रीभालका तीर्थ’ में आ पहुँचे। यह वेरावल और सोमनाथ पाटण के बीच स्थित है। गांधारी के शापवश और श्रीकृष्ण की इच्छा से जब यादव मदिरा पी उन्मत्त हो एक-दूसरे को मारने लगे तो देखते-ही-देखते यादव कुल नष्ट हो गया। इस विनाश के बाद श्रीकृष्ण यहाँ विश्रांति के लिए पीपल वृक्ष के नीचे उसका सहारा लेकर घुटने पर पैर रखकर लेट गए। उसी समय जरा नाम के शिकारी ने उनके चरण-कमल को हिरण समझकर बाण चला दिया, जो उनके दाहिने पैर के तलवे में लगा और उनकी अंतिम लीला का कारण बना। जब व्याध अपने शिकार के पास पहुँचा तो मृग की जगह यादव पीतांबरधारी पुरुषोत्तम को देखकर भयभीत हो अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे समझाया, ‘तू दुःखी न हो, जो कुछ हुआ है, वह मेरी इच्छा से ही हुआ है।’ व्याध को क्षमा कर उन्होंने निजधाम को प्रस्थान किया। यहाँ व्याध ने भल्ल (बाण) मारा था, इसलिए यह स्थान भल्ल या ‘भालका तीर्थ’ कहलाता है। हमने देखा, भगवान् कृष्ण विश्राम मुद्रा में लेटे हुए हैं तथा दाहिने पैर में बाण लगा है, सामने विनयावनत एवं दुखी शिकारी बैठा है। यह प्रतिमा अत्यंत सुंदर है, मैं इसे अपलक निहारता रह जाता हूँ। इस मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा १९ मई, १९६७ में तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई के द्वारा हुई। हम देख रहे हैं कि यहाँ श्रीकृष्ण मंदिर निर्माण का कार्य युद्ध स्तर पर चल रहा है। पीपल का वह पुराण-वृक्ष आज भी हरा-भरा है। इसे ५५०० वर्ष पुराना यानी कृष्ण-काल का बताया जाता है। यहाँ पर ट्रस्ट द्वारा भालका कुंड का निर्माण भी कराया जा रहा है। इसके बाईं ओर प्रकटेश्वर महादेव मंदिर स्थित है।

यहाँ भली प्रकार दर्शन कर हमारा काफिला आगे बढ़ा। रास्ते में ही भीरभंजन महादेव तथा उस स्थान पर स्थित शिवलिंग के दर्शन किए, जहाँ से व्याध ने बाण चलाया था। यहाँ तीन शिवलिंग बिल्कुल समुद्र के अंदर हैं। सिंधुजल की जलतरंगें बराबर इनका अभिषेक करती रहती हैं। यहाँ से लौटकर अब हमारा वाहन सोमनाथ-दीव राजमार्ग पर दौड़ रहा है। लगभग दोपहर हो चला है, भूख भी लग रही है, सो सड़क के दाईं ओर स्थित जलराम गेस्ट हाऊस ढाबे पर खाना खाया—दाल-रोटी। खाना एकदम स्वादु है। खाने से निबटकर अब हम दीव की ओर बढे़। यहाँ सड़क के दोनों ओर गहन खेती हो रही है। अचंभित-विस्मित मैं रबी और खरीफ की फसल एक साथ फलते-फूलते हुए देख रहा हूँ। गेहूँ और बाजरा की बालियाँ साथ-साथ लहरा रही हैं। गन्ना, नारियल, ज्वार के खेत हैं तो धनिया के बडे़-बडे़ खेत भी दिखाई पड़ रहे हैं। यहाँ उत्तर भारत की अपेक्षा गेहूँ की फसल जल्दी तैयार हो जाती है। कृषि की दृष्टि से यह बड़ा संपन्न इलाका है। बाहर प्रकृति की सुंदरता तथा चहुँ ओर बिखरा वैभव देखकर मेरा मन रोमांचित है, पर गाड़ी के अंदर राजनीतिक बहस छिड़ी हुई है। नवीनभाई बडे़ प्रफुल्लित हैं। फोन पर जुटे हैं, संभवतः उनके विवाह के संबंध में बात हो रही है। हम लोग दीव आ पहुँचे। यहाँ क्रमशः किला, निर्मल माता चर्च, दीव म्यूजियम, पाँच पांडवों द्वारा स्थापित पाँच शिवलिंग, गंगेश्वरी मंदिर, पारसी बँगली आदि देखे, फिर नागवा बीच पर आनंदजी और जीतभाई ने स्नान किया। इसी बीच पर सब लोगों ने चाय का आनंद लिया। छह बजे ड्राइवर को छोड़ना था, सो यहाँ से तुरंत वापस लौट पडे़। रास्ते में एक जगह गुड़ की महक आ रही थी; देखते हैं कि दाहिनी ओर क्रेशर चल रहा है, गुड़ बन रहा है। ड्राइवर को भेजकर गुड़ मँगवाया। यहाँ का गुड़ हमारे यहाँ की तरह सूखकर सख्त नहीं होता, मुलायम ही रहता है, इसलिए डिब्बों में मिलता है, पर गुड़ बड़ा स्वादिष्ट है। सब लोगों ने गुड़ खाया। बड़ा मजा आया।

करीब सायं सवा सात बजे हम वापस सोमनाथ मंदिर परिसर में आ पहुँचे और तुरत-फुरत टिकट लेकर सुविधाजनक स्थान पर बैठ गए। मंदिर के खुले प्रांगण के एक कोने में स्टेडियम जैसा बना है और ठीक पीछे रत्नाकर रात-दिन भगवान् भोलेनाथ की अभ्यर्थना करता रहता है। शो शुरू हुआ। समुद्रदेव ने गुरुगंभीर मगर करुण आवाज में मंदिर पर पड़नेवाली लाइट की दृश्यावलियों के माध्यम से आद्योपांत मंदिर के उत्थान-पतन तथा पुनर्निर्माण की गाथा को बडे़ ही सुंदर ढंग से पेश किया। पचपन मिनट के इस शो को दर्शकों ने साँसें रोककर सुना। यह अपने आप में बहुत रोचक और जिज्ञासा पैदा करनेवाला शो है, यहाँ जानेवाले तीर्थयात्रियों को इसे अवश्य देखना चाहिए। मंदिर के बाईं ओर सारे ज्योतिर्लिंग प्रदर्शित किए गए हैं। रंग-बिरंगी रोशनी में रात्रि को इनकी शोभा देखते ही बनती है। शो देखने के बाद अपनी समृद्ध आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत पर कैसा गर्व और रोमांच हो आया, उसे शब्दों में कैसे व्यक्त करूँ!

रात्रि साढ़े नौ बजे तक कमरे पर लौट आए। फिर सब भोजन करने निकले। एक दुकानदार ने बताया कि केशुभाईर् पटेल द्वारा अपनी पत्नी की याद में स्थापित ट्रस्ट में भोजन अच्छा मिलता है। वास्तव में वहाँ भोजन बढ़िया था, साठ रुपए थाली, यानी भरपेट भोजन। कमरे पर लौटकर सोने का उपक्रम करने लगे। चौधरी वीरेंद्र सिंह, जीत शर्मा तथा मैं एक कमरे में सोए, बाकी सब दूसरे कमरे में। दिनभर के थके-माँदे थे, सो बड़ी मीठी नींद आई। प्रातः शौचादि से निवृत्त हो स्नान किया। नवीन भाई आज सबसे पहले तैयार हुए, वैसे उनकी तैयारी सबसे बाद तक चलती है। उनके साथ आनंदजी तथा अन्य लोगों ने अहल्येश्वर महादेव का दुग्धाभिषेक किया। आचार्य की पोशाक में होने के कारण तीर्थ पुरोहित जल्दी ही उनसे प्रभावित हो जाते हैं। मैं और जीतभाई स्नान कर एक बार पुनः सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने गए, वापसी में प्रसाद भी लिया। फिर हम दोनों भी अहल्येश्वर महादेव मंदिर में दूध से शिवलिंग का अभिषेक करने के लिए पंक्तिबद्ध हो गए। आज भीड़ ज्यादा है। जीतभाई आगे हैं, उन्होंने लंबा हाथ कर दुग्धाभिषेक किया। मेरे आगे एक महिला दुग्धस्नान करा रही है, पुजारियों द्वारा जोर-जोर से मंत्रोच्चार हो रहा है। महिला आगे नहीं खिसक नहीं है। ‘बड़ी भीड़ है, मैं...अभिषेक नहीं कर पाऊँगा?’ मैं आगे की ओर झुका हुआ पूरी कोशिश करता हुआ इन्हीं विचारों में खोया था। दुग्ध की थैली मैंने दाँत से फाड़ भी ली थी कि अचानक वह महिला थोड़ा आगे बढ़ी, कि कोई सपोर्ट न होने के कारण मैं धड़ाम से शिवलिंग पर गिरा, शिवलिंग का पूरा-का-पूरा आलिंगन हो गया। इस अचानक घटना से पुजारी भी दो कदम पीछे हट गए। मैं भी सकपकाकर उठ बैठा। सब बोले, चोट तो नहीं लगी। जीतभाई आगे निकल आए थे। मैंने उन्हें बताया कि भाई, गजब हो गया, दूध क्या, मैं तो पूरा ही शिवलिंग पर चढ़ गया—कहाँ तो स्पर्श करने का मौका भी नहीं मिल पा रहा था! तो ऐसी लीला है भोलेशंकर की! घट-घटवासी भोलेबाबा बडे़ दयालु हैं, सबकी सुनते हैं, औघड़दानी जो ठहरे!

आज प्रातः ९:४० पर हमें जूनागढ़ के लिए गाड़ी पकड़नी है, सो अपना सामान बाँध नौ बजे ऑटो पकड़ स्टेशन के लिए निकल पडे़। स्टेशन पर टिकट खिड़की खाली थी, सो टिकट लेकर सोमनाथ-जबलपुर एक्सप्रेस में बैठ गए। जब तक गाड़ी जूनागढ़ पहुँचे, हम आपको वहाँ के माहात्म्य के बारे में बताए देते हैं। जूनागढ़ का पुराना नाम ‘सोरठ प्रदेश’ है। यह गिरिनार तथा दातार की तराई में फैला है। युगों से यह साधु-संतों तथा तीर्थयात्रियों का प्रिय स्थल रहा है। ‘स्कंद पुराण’ में भी गिरनार का उल्लेख आया है। भगवान् कृष्ण को एक नाम ‘रणछोड़’ यहीं पर मिला। कान्हा के बडे़ भ्राता बलदाऊ की यह ससुराल है। भगवान् कृष्ण के महान् भक्त नृसिंह महेता का जन्मस्थान भी है। सिंहों के लिए प्रसिद्ध गिरिवन यहीं पर है। जूनागढ़ सिद्ध क्षेत्र है। इसके बारे में एक कहावत प्रचलित है—

सोरठ देश सुहावनो सुंदर गढ़ गिरनार।
वीर, शेर, पर्वत, गुफा योगी तपे निहार॥

दो घंटे की यात्रा में ही हम जूनागढ़ आ पहुँचे। स्टेशन पर लॉकर में सामान रख दिया गया, चूँकि दिनभर घूम-फिरकर शाम को गाड़ी पकड़नी है तो सबसे पहले अहमदाबाद जाने के लिए रात्रि ८:४५ बजे का आरक्षण कराया, फिर स्टेशन के बाहर आकर चाय-नाश्ता किया। यहीं से शाम तक के लिए एक बड़ा ऑटो कर लिया गया। रेलवे स्टेशन के ठीक सामने वास्तु-शिल्प का बेजोड़ नमूना ‘सरदार पटेल द्वार’ सीना ताने खड़ा है। जूनागढ़ का सक्कारबाग चिडि़याघर देखते हुए हम उस पावन स्थल पर आ पहुँचे हैं, जहाँ कृष्णभक्तों के सिरमौर नृसिंह महेता का जन्म हुआ, यानी ‘नृरसिंह महेता चौरा’। नरसी अकेले ऐसे भक्त हैं, जिन्हें भगवान् कृष्ण ने बावन बार दर्शन दिए, उनकी मुसीबत में संकटमोचक बने। यह स्थान बस्ती के अंदर जगमाल चौराहे के पास है। प्रवेश-द्वार के बाईं ओर नरसीजी का पुराना निवास-स्थान है। इसमें भक्तराज नरसी तथा भगवान् दामोदर की मूर्तियाँ विराजमान हैं। दोपहर में यह मंदिर बंद मिला, पर मंदिर के चबूतरे पर हमारी हलचल सुनकर पुजारीजी आ गए, उन्होंने अंदर से ही हमें विस्तार से नरसी की कथा तथा इस स्थान का माहात्म्य बतलाया। उन्होंने ही नरसीजी के मूलचित्र का फोटो खींचकर दिया तथा भोग लगा प्रसाद भी। पुजारीजी इस बात से बडे़ दुःखी थे कि भक्तजन भी यहाँ बहुत कम आते हैं। यहाँ हम काफी देर रुके। सच में, यहाँ बैठकर बड़ा सुकून मिला। यह सुनकर ही मन में रोमांच हो आया कि भगवान् कृष्ण बावन बार इस पवित्र स्थल पर नाना रूप धर अपने भक्त नरसी के काम संपन्न करने आए। कितना पावन और अद्भुत है यह स्थान! इसके बाईं ओर वह स्थान है, जहाँ नरसीजी अपने कीर्तनियों के साथ हरि-कीर्तन करते हुए सबकुछ भूल जाते थे। यहाँ आजकल निर्माण कार्य चल रहा है। नरसी-निवास के ऊपर नरसीजी का जीवन-चरित्र चित्रों तथा रेखांकनों के द्वारा दरशाया गया है। श्रीनृसिंह महेता चौरा टस्ट इसकी देखरेख कर रहा है। यहाँ पर दर्शन कर मन गद्गद हो गया।

बडे़ हर्षित मन से हम यहाँ से निकले और चलकर सीधे दामोदर तीर्थ पर आ पहुँचे। रवि चाचा को दस्त की शिकायत हो गई है, सो वे ऑटोवाले को लेकर दवाई लेने चले गए। यहाँ स्थित दामोदर कुंड में नरसीजी नित्य स्नान करने आया करते थे। इस पावन तीर्थ के बारे में एक कथा आती है कि एक बार ब्रह्माजी को यज्ञ करने की इच्छा हुई, सो उन्होंने इस रेवताचल क्षेत्र में यज्ञ करने के लिए ऋषि-मुनि तथा देवताओं को आमंत्रित किया। सब लोग आए भी, तो सायंकाल में उन सबने अपने-अपने तीर्थ में स्नान करने की इच्छा व्यक्त की। उसी समय ब्रह्माजी ने सब नद-तीर्थों का आह्वान किया। उनके पुकारते ही सब तीर्थदेव उपस्थित हो गए तो ब्रह्माजी ने अपने कमंडलु से गंगाजी को भी प्रकट किया। इस तरह उस दिन इस यज्ञ-स्थल पर गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, कावेरी, क्षिप्रा, चर्मवती, गंडकी, तापी, सरयू, गोदावरी इत्यादि पवित्र तीर्थ तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्र आदि सब देव इस पवित्र क्षेत्र में वास करने लगे। यह देखकर सभी ऋषि-मुनि बडे़ प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी का वह यज्ञ पूरे विधि-विधान से संपन्न हुआ। यज्ञ समाप्ति पर सब देवता अपने-अपने धाम को लौटने लगे, उसी समय ब्रह्माजी ने भगवान् विष्णु से हमेशा के लिए इस तीर्थ में बस जाने की विनती की। दयालु प्रभु मान गए, अतः तभी से विष्णुजी यहाँ ‘भगवान दामोदर’ के रूप में विराजमान हैं। उन्हीं के नाम पर इस तीर्थ का नाम ‘दामोदर तीर्थ’ पड़ा। इसी को ‘ब्रह्मकुंड’ या ‘ब्रह्मतीर्थ’ भी कहा जाता है। इस कुंड के किनारे पर ही प्राचीन राधादामोदर मंदिर स्थित है। प्रारंभ में इसका निर्माण भगवान् कृष्ण के वंशज वज्रनाभ ने कराया था, बाद में यानी ४६२ ई. में इसका जीर्णोद्धार राजा स्कंदगुप्त द्वारा कराया गया। हम यहाँ दोपहर में पहुँचे हैं, तो चौरासी खंभोंवाला यह मंदिर बंद है, सायं चार बजे खुलेगा। इसके चौरासी खंभे चौरासी योनियों को इंगित करते हैं। यहाँ दामोदर भगवान् के साथ राधाजी, प्रद्युम्न (श्रीकृष्ण के पुत्र), लक्ष्मीजी, इसी परिसर में बलदाऊ, रेवती, यानी एक स्थान पर दुर्लभ सात स्वरूपों के दर्शन होना बडे़ सौभाग्य की बात है।

यह ब्रह्मकुंड इतना ख्यातिप्राप्त तथा चमत्कारी है कि दूर-दूर से लोग यहाँ पिंडदान तथा अस्थियाँ विसर्जित करने आते हैं। इस जल की विशेषता है कि इसमें अस्थियाँ पूरी तरह गल जाती हैं, जबकि गंगाजी में अस्थियाँ काई रूप हो जाती हैं। इस बात से इस तीर्थ का महत्त्व और बढ़ जाता है कि भगवान् कृष्ण ने अंतिम बार दर्शन देते हुए अपने भक्त नरसी को यहाँ माला पहनाई थी। आजकल इस कुंड के जीर्णोद्धार का कार्य प्रगति पर है। हमने सीढ़ियों से नीचे उतरकर पतली सी धार से जल लेकर शिरोधार्य किया। इस मंदिर में एक महिला सेवादार ने बडे़ अपनेपन से हमें यहाँ की बहुत सी जानकारी दी। बातों से पता चला कि वे एक डॉक्टर की अच्छी-भली नौकरी छोड़कर भगवान् की सेवा कर रही हैं। यहीं पर महाप्रभु की बैठक भी है। दामोदर कुंड के पीछे, यानी ऊपर की ओर रेवतीकुंड है। यहीं के रेवतक महाराज की पुत्री रेवती से श्रीकृष्ण के बडे़ भाई बलदाऊ का विवाह हुआ था, अतः यह दाऊ का ससुराल भी है। जब बलराम अपनी पत्नी रेवती के साथ गिरनार यात्रा पर आए थे, तब गर्ग ऋषि के कहने पर रेवतीकुंड का जीर्णोद्धार रेवती के हाथों करवाया और यहाँ सत्ताईस नक्षत्रों की स्थापना की, तब से यह कुंड बड़ा प्रसिद्ध है। सौभाग्यवती स्त्रियाँ इसमें श्रद्धापूर्वक स्नान करती हैं और बैकुंठ की अधिकारी बनती हैं। इसी के ठीक सामने मुचुकुंदेश्वर महादेव मंदिर तथा मुचुकुंद गुफा है। भगवान् श्रीकृष्ण ने कालयवन को यहाँ लाकर गुफा में सोए राजा मुचुकुंद के द्वारा भस्म करवाया था। जिस राक्षस के कारण उन्हें मथुरा से रण (युद्ध स्थल) छोड़कर भागना पड़ा, इससे उनका एक नाम ‘रणछोड़’ ही पड़ गया। गुजरात में वे इस नाम से ज्यादा जाने जाते हैं। इस घटना के बाद श्रीकृष्ण ने यहाँ महादेव की स्थापना की, जिससे यह ‘मुचुकुंदेश्वर महादेव’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। हम सब लोग एक-एक कर गुफा में घुसे और फिर उल्टे होकर बाहर निकले। यहाँ पुजारी वृद्धा माँ ने हमें प्यार से बैठाकर राजस्थानी-गुजराती मृदु भाषा में बडे़ भाव-विभोर होकर राजा मुचुकुंद की कथा सुनाई, फिर प्रसाद दिया। हम सबने उनके चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। हम लोग यहाँ पर काफी देर रुके, फिर आगे चल पडे़।

अब हमारा ऑटो सीधे गिरनार पर्वत की तलहटी में आ पहुँचा है। इस पर्वत पर चढ़ने के लिए ९९९९ सीढ़ियाँ हैं। इसके आने-जाने में पाँच घंटे से कम नहीं लगते हैं। हमारे पाँच साथी १०१ सीढ़ियाँ चढ़े, पर मैं और जीतभाई काफी आगे तक गए। पहाड़ पर पेड़-पौधे भरपूर हैं। खूब अच्छी-खासी गरमी पड़ रही है। १५१ सीढ़ियाँ चढ़कर हम लोग भी यहाँ एक टैंटनुमा दुकान पर बैठ गए। यहाँ पर जोड़ों के दर्द का शर्तिया तेल बेचा जा रहा है। जीतभाई ने दोनों घुटनों पर तेल मलवाया और फिर सौ रुपए में तेल की एक शीशी खरीद ली। ऊपर से नीचे तक यहाँ तमाम दुकानदार अपनी दुकानें सजाए बैठे हैं। गिरनार पर्वत पर अंबा माता, दत्तात्रेय भगवान्, दिगंबर जैन आदि अनेकों मंदिर हैं।

यहाँ से निकल अब हमारा ऑटो भवनाथ महादेव मंदिर पर आ पहुँचा है। यह बड़ा ही भव्य मंदिर है, मंदिर के स्तंभों को चाँदी से मढ़ने का कार्य चल रहा है। हम सबने भगवान् महेश्वर को दंडवत् प्रणाम किया। इसके बाईं ओर मृगीकुंड है। कहा जाता है कि इसकी स्थापना भोज राजा ने कराई थी। शिवरात्रि पर यहाँ भारी मेला लगता है। यहाँ पर नागा साधु ही ज्यादा आते हैं। रात्रि में इन नागा संतों का जुलूस निकलता है, जिसे यहाँ के लोग ‘रवाड़ी निकालना’ कहते हैं। रात्रि में ही मृगीकुंड में स्नान तथा महादेव की महापूजा कर सब वापस लौट जाते हैं। हमने देखा कि इस कुंड को मजबूत लोहे के जाल से ढका हुआ है, यह शिवरात्रि में ही खोला जाता है। यहाँ दर्शन कर हमने स्वामी नारायण मंदिर देखा, तत्पश्चात् जूनागढ़ संग्रहालय देखने गए, जल्दी से टिकट लेकर दो-चार कमरे ही देख पाए कि इसके बंद होने का समय हो गया। हालाँकि यह बड़ा दर्शनीय संग्रहालय है। मजबूरन यहाँ से लौटना पड़ा। ऑटो भी छोड़ना था, परंतु उसको सौ रुपए अतिरिक्त देकर शहर के बाहर और जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के सामने स्थित भव्य स्वामी नारायण मंदिर में दर्शन किए। यहाँ की सजावट तथा भगवान् का शृंगार अद्भुत है। यह मंदिर विशाल प्रांगण में फैला है, तराशे गए सुंदर-सुंदर उद्यान हैं, यहाँ खूब फोटो खींचे गए, फिर यहीं मंदिर की दुकान से खरीदारी भी की और सीधे रेलवे स्टेशन लौट आए।

स्टेशन के बाहर आधा घंटा बैठकर खुले में विश्राम किया, फिर आठ बजे स्टेशन रोड पर स्थित ‘गीता लॉज’ में भोजन करने गए। इस भोजनालय में सफाई, शुद्धता तथा सेवाभाव बेमिसाल है। थाली सौ रुपए की है, इसमें तीन सब्जी, दाल, चटनी, सलाद, छाछ, रोटी (मक्का, बाजरा, गेहूँ), जो इच्छा हो, खाओ; पापड़, अचार-क्या नहीं है भोजन में। ऐसा स्वादु शुद्ध भोजन हमें पूरी यात्रा में कहीं नहीं मिला। चारों ओर भगवान् श्रीनाथजी की शीशे में जड़ी तसवीरें लगी हैं, वातावरण बड़ा सुगंधित और आभामय है। यहाँ के बैरे बडे़ सेवाभावी हैं, बार-बार पूछकर, मनुहार करके खाना परोसते हैं, न कोई हड़बडी, न कोई शोर-शराबा, सब मशीन चालित से अपना-अपना काम बखूबी कर रहे हैं।

भोजन के बाद स्टेशन पर लॉकर से अपना सामान लिया। रात्रि के सवा आठ बज रहे हैं, ८:४५ पर अहमदाबाद के लिए हमारी गाड़ी है, पता चला कि सब टिकटें कन्फर्म हो गई हैं। ठीक समय पर गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर एक पर आ लगी और हम सब इसमें सवार हो गए। कुछ देर गपशप चली, नवीनभाई वाट्सअप पर व्यस्त हो गए हैं। रात्रि को सब लोग ठीक से सोए और प्रातः छह बजे ही गाड़ी ने हमें अहमदाबाद स्टेशन पर उतार दिया। आनंदजी और जीतभाई की नींद पूरी नहीं हो पाई, सो दोनों आकर वेटिंगरूम में फर्श पर ही सो गए। बाकी हम सब एक-एक कर शौचादि और स्नान से निवृत्त हो लिये। नवीनभाई मोबाइल चार्ज कर रहे हैं, चौधरी साहब चाय पीने निकल गए हैं। आखिर साढे़ आठ बजे जीतभाई को जगाया, वे भी नहा-धोकर तैयार हुए, बाद में आनंदजी को भी उठना पड़ा, वे भी स्नान कर तैयार हुए। सामान यहाँ के लॉकर में रखकर स्टेशन के बाहर चाय-नाश्ता किया, फिर यहीं से बस पकड़कर पहले साबरमती आश्रम देखने के लिए निकले। हमें पता नहीं था, बस ने हमें नदी के इस पार ही उतार दिया।

पैदल चलकर नदी पार की। रास्ते में पहले स्व. मुरारजी देसाई की समाधि पर प्रणाम किया, गांधी आश्रम देखा, साबरमती नदी के दर्शन किए, आश्रम के सामने स्थित खादी ग्रामोद्योग में खरीदारी की। फिर यहीं से ऑटो लेकर काँकरिया झील देखने निकल गए। चौधरी साहब और चाचाजी ने रेल की सवारी, रवि चाचा और नवीनभाई ने झील में मोटरवोट से सैर की। जीतभाई और मैंने झील का पैदल एक चक्कर लगाया। यह सब घूम-फिरकर पाँच बजे हम स्टेशन लौट आए। लॉकर से अपना सामान लेकर ठीक साढ़े छह बजे आश्रम एक्सप्रेस में सवार हुए और फिर दिल्ली की वापसी यात्रा शुरू हो गई। रुकते-चलते गाड़ी प्रातः साढ़े दस बजे पुरानी दिल्ली स्टेशन पर आ लगी। यहाँ से सब अपने-अपने घर निकल गए और मैं अपने कार्यालय। अभी कितना कुछ अनदेखा पड़ा है। सौराष्ट्र राज्य के तीर्थ बेमिसाल हैं। सच में, एक अनोखे अहसास, अद्भुत आनंद की अनुभूति हो रही है, जिसे शब्दों में व्यक्त कर पाना कठिन है।

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