बुंदेलखंडी जनजातियाँ व उनके लोकोत्सव

बुंदेलखंडी जनजातियाँ व उनके लोकोत्सव

मारा देश विभिन्न धर्मों-समुदायों, भाषा-बोली, प्राकृतिक रचनाओं का अद्भुत संगम है और अनेकताओं में एकता को समाहित किए है। आज हमारा देश प्रत्येक क्षेत्र में विकास कर रहा है। संसार के साथ कदम मिलाकर चलने का प्रयास कर रहा है। शिक्षा, रहन-सहन, व्यवहार, आवागमन के साधनों में प्रगति हुई है, किंतु आदिवासी जनजीवन में आज भी अत्यंत विषमताएँ हैं, जिनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। आवागमन के साधनों बैलगाड़ी से लेकर हवाई जहाज तक चल रहे हैं। एक समुदाय, जिसे हम आदिवासी या जनजाति कहते हैं, से प्रारंभ होकर संपूर्ण शिक्षित और विकसित परिवार भी देश में  हैं। कि इक्कीसवीं सदी में भीजनजातीय लोग कैसे रह रहे हैं और उनके अमोद-प्रमोद के साधन क्या हैं और पूर्व में क्या थे? ये कितने विस्मृत होते जा रहे हैं और कितने आज भी साथ हैं। मैं बुंदेलखंड का निवासी हूँ और जीवन का अधिक समय यहीं बिताया है, हालाँकि देश के अनेक क्षेत्रों में मैंने भ्रमण किया है और लोगों के रहन-सहन तथा संस्कृति को निकट से देखा और समझा भी है। किंतु सबसे अधिक बुंदेलखंड क्षेत्र में निवास करनेवाले आदिवासी जनजातियों के बारे में अध्ययन किया है।

वैसे तो आदिवासियों में अनेक जातियाँ, उपजातियाँ होती हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों के अनुसार पाई जाती हैं, जैसे आज अंगरिया, भील, भिलाल, वैगा, भरिया, भाइना, भट्टा, भंजिया, विजवार, विरहूल, वियार, भूमिया, धनवार, दामोर, गौंड, गड़वा, गरलिया, हलवा, कमार, कोरकू, कमोर, कनवर, कोर, वोपची, खैरवार, खारिया, कींड़, खोंड़ कोल, कोलम, कोरवा, कोर मझवार, मुंडा, माँझी, नोसिया, निहाल, नट, नवदीगर, धनका, धनगढ़, परधान, पारधी, परजा, पनिका, पाओ, सबूनरा, सावार, सहरिया सेहरिया सोर, सोंर रावत।

वर्तमान में जिन जनजातियों का यहाँ निवास है, वे हैं सौंर तथा रावत। ये लोग वन, जंगल और पहाड़ों के नजदीक बस्तियाँ बनाकर रहते हैं। इनके रहने के मकान घास, लकड़ी अथवा कवेलू के बने होते हैं। और ये लोग जंगली पशुओं का शिकार करते हैं तथा जंगली फूल, फल, कंद आदि का सेवन करते हैं। जंगलों से सूखी जलाऊ लकड़ियाँ लाकर गाँव-बस्ती में बेचकर आटा, दाल, सब्जी, नमक, मिर्च, तेल और आवश्यक वस्तुओं को खरीदते हैं। कुछ लोग गाँव-बस्ती में अब मेहनत-मजदूरी भी करने लगे हैं। स्वभाव से ये लोग सीधे-सरल और ईमानदार होते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर तथा गरीब हैं। शिक्षा आज भी ये ग्रहण नहीं कर पाते हैं। इनमें थोड़ा-बहुत अक्षर ज्ञान तो आया है, किंतु अधिक शिक्षित नहीं पाए जाते हैं।

भाषा : जनजातियों की इस क्षेत्र में बोलचाल की भाषा अपभ्रंश, टूटी-फूटी हिंदी तथा बुंदेली है, जो सामान्य लोगों के बोलचाल से कुछ अलग है।

धर्म : ये लोग हिंदू धर्म के अनुयायी हैं, मूर्ति पूजक हैं, किंतु सामान्य हिंदुओं की अपेक्षा इनके इष्टदेव कुछ अलग हैं। जैसे देवी माँ इन की इष्टदेवी हैं। ये लोग भूत-प्रेतों को भी पूजते हैं, जिनमें मुख्य रूप से गौंड़बाबा, करुआ बाबा, घटोइया बाबा और मसान हैं। इनकी पूजा में पशु-पक्षी की बलि देने तथा शराब चढ़ाने का भी रिवाज चला आ रहा है। शादी-विवाहों में भी यही होता है। इसी के अनुरूप इनके व्यवहार, उत्सव, नृत्य-गीत भी होते हैं।

नृत्य और गीत त्योहारों के मनाने के तौर-तरीके सब पारंपरिक पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे हैं। इनका कोई लिखित लिपिबद्ध साहित्य नहीं पाया जाता है। सभी मौखिक और अलिखित है। इस समुदाय के लोग शरद ऋतु में जब शाम को फुरसत के समय अलाव जलाकर बाहर बैठते हैं तो आग तापते हैं। गरमी के मौसम में भी बाहर खुली हवा में इकट्ठा बैठते हैं, तब कहानियाँ भी सुनाते हैं। इनके किस्सा-कहानियाँ राजा-रानी, भूत-प्रेत, जंगल, पहाड़, नदी, तालाबों तथा जंगली जानवर शेर, चीता, यियार, लोमड़ी-गोहा से संबंधित होती हैं। यही इनके मनोरंजन के साधन हैं। कभी-कभी ये लोग देवीजी के भजन, लोकगीत और फागुन गीत भी गाते हैं। जो मौसम और त्योहारों के अनुरूप होते हैं।

उत्सव और त्योहार : इन लोगों के विवाहोत्सव, देवी-देवताओं, भूत-प्रेतों की पूजा के उत्सव हैं। ये त्योहार तो हिंदू रीति-रिवाज के अनुसार होते हैं, जैसे नवदुर्गा, दशहरा, दीपावली, फाग और रक्षाबंधन है। इन उत्सव और त्योहारों पर इनके गीत अलग-अलग तरह के होते हैं, जिनका विवरण आगे दिया जा रहा है। सभी उत्सव-त्योहारों के साथ इनके नृत्यों की शृंखला का अवलोकन करते हैं। जो मुख्य रूप से रावला, स्वाँग, मोनिया नृत्य तथा जुगिया नृत्य प्रचलित हैं।

लोक नृत्य : मन में जब उमंग हो तो मन मयूर नाचने लगता है। नई देवी उपासना का पर्व जनजातीय बडे़ उत्साह से मनाते हैं। देवीजी का व्रत रखते हैं और प्रातः नहा-धोकर महिलाएँ तथा पुरुष जल चढ़ाते हैं एवं शाम को महिलाएँ एकत्र होकर देवीजी के गीत गाती हैं और नृत्य करती हैं। एक देवी गीत प्रस्तुत है—

नथुनिया लटक रही गोरे गाल पै हो माँ!
ठंडों सो पानी गरम कर लाए
सपरौ खोरो फिर चली जाव
दूधा के लडुवा ताती जलेबी
जैवो फिर चली लाव हो माँ!
सोने के लोटा गंगाजल पानी
पी लो फिर चलीं जावो हो माँ!
पीरी अँगोछी पीतम रंग सारी
पैरो फिर चली जाव हो माँ!
नथुनिया लटक रही गोरे गाल पै हो माँ!

देवी गीत में माताजी के शृंगार का वर्णन करते हुए उनसे प्रार्थना करती है कि आप के स्नान हेतु पानी गरम करके लाए हैं। आप सपरें-खोरें मतलब स्नान कर लें और दूध के लड्डू तथा गरम जलेबी प्रसाद हेतु तैयार हैं। प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात् स्वर्ण कलश में गंगा जल है, ग्रहण कर लें, तत्पश्चात् पीले रंग के वस्त्र तैयार हैं, इन्हें धारण करके ही आप प्रस्थान करें माँ।

भोग-प्रसाद, सेवा-पूजा के उपरांत भक्तगण गीत के माध्यम से विनय करते हैं—

सुमर-सुमर मोई तौरौ जस गाऊँ,
चरण छोड़ कहाँ जाऊँ हो माँ!
दुखन की मारी गोरी ठांडी,
विरछ तरें अँसुवा रही बहाय हो माँ!


देवी माँ अपने भक्त से पूछती हैं कि—

कै तोरी सास-ननद दुःख दीन्हो,
कै मायके तोरे दूर हो माँ!
न मोरी सास-ननद दुःख दीन्हों
न मोरे मायके दूर हो माँ!
घरई के सइयाँ बाँझ कहत हैं
जे दुःख सहे न जाय हो माँ!
सुमर-सुमर माई तोरो जस गाऊँ
चरण छोड़ कहाँ जाऊँ हो माँ!
अंधन को तो नैन दये हैं
कोढि़न को दई काया हो माँ
निर्धन को माया दई तुमने
बाँझन भरा दई गोद हो माँ

देवी माता को स्मरण कर चरण वंदन करके एक स्त्री पेड़ के नीचे खड़ी दुःखी होकर आँसू बहा रही है। देवी माता जानना चाहती हैं कि तुम्हारी सास, ननद ने दुःख दिया है अथवा तुम्हारे माता-पिता ने या मायका दूर है, इस कारण से तुम दुःखी होकर रोदन कर रही हो, इस पर भक्त स्त्री कहती है कि मेरी सास-ननद ने कोई दुःख नहीं दिया और न ही मेरा मायका दूर है। बल्कि मेरा पति मुझे बाँझ कहता है, इसलिए माता मुझे संतान दे दो, क्योंकि मैं बाँझ अर्थात् निःसंतान हूँ।

हे मातेश्वरी, आपको कुछ भी अदेय नहीं है। आप अंधे व्यक्तियों को ज्योति देती और कोढ़ी की काया को सुंदर बना देती हैं। निःसंतान को संतान देती हैं। देवी माता प्रसन्न होकर स्त्री की मनोकामना पूर्ण कर देती हैं।

इसी आस्था के साथ देवी भक्ति-पूजा-भजन करते हैं। देवी शक्ति की पूजा करते हैं। भूत-प्रेत योनियों में विश्वास करते हैं। जिसमें गौंड बाबा, करुवा बाबा तथा घटौइया, मसान को पूजते हैं। त्योहारों पर नाच-गान, खाना-पीना होता है। गौंड बाबा का चबूतरा बनाकर, उनकी स्थापना कर पूजा-भजन और नृत्यों के आयोजन किए जाते हैं। इसी प्रकार करुवा बाबा के स्थान स्थापित किए जाते हैं। किंतु घटौइया बाबा तो नदी-नालों के घाटों पर ही चबूतरा बनाकर पूजे जाते हैं। जिस नदी-नाले के घाट पर घटौइया विराजमान होते हैं, उस रास्ते से शादीशुदा कोई भी बेटी-बहू निकलती है तो वहाँ रुककर पूड़ी, पापड़िया, मीठा, बतासा, नारियल आदि जरूर चढ़ाती हैं। जो लोग ऐसा नहीं करते हैं, तो उनकी ऐसी मान्यता रहती है कि उस बहू-बेटी पर घटौइया प्रेत सवारी कर लेता है और उसे परेशान करने लगता है। जिसके निवारण के लिए उन्हीं की बिरादरी में तांत्रिक होते हैं। वे भूत भगाने, घटौइया को भक्त का साथ छोड़ने के लिए मनाते हैं, जिसके लिए पशु-पक्षी की बलि चढ़ाई जाती है, शराब भी चढ़ाते हैं। फिर लोग इस पशु-पक्षी के मांस को पकाते-खाते, उत्सव मनाते और गीत गाते हुए नृत्य करते हैं।

मसान : इन आदिवासियों में अल्प आयु में जिन बालकों का असामयिक निधन हो जाता है। कहते हैं कि उनकी आत्मा प्रेत योनि में भटकती रहती है। ऐसी प्रेत योनि को मसान के रूप में पूजते हैं। जब मसान बाबा किसी पर रुष्ट हो जाते हैं तो तांत्रिक पूजा कर इन्हें मनाते हैं। तब पीड़ित को मुक्ति मिलती है।

विवाहोत्सव एवं लोकनृत्य : विवाहोत्सव प्रत्येक समुदाय में खुशी का समय, उत्सव मनाने व नाच-गान का अवसर माना जाता है। सर्वप्रथम हम यहाँ वर पक्ष के विवाहोत्सव का वर्णन करते हैं, जिसमें दूल्हा को ‘बना’ कहा जाता है और दुलहन को ‘बनी’ करते हैं। दूल्हे का शृंगार हल्दी, उबटन तथा स्नान कराकर नए वस्त्र धोती-कुरता पगड़ी एवं लाल कपडे़ का ‘वागौ’ (दूल्हे का परिधान) पहनाया जाता है। आँखों में काजल, हाथ में कंगन और बगल में कटार लटकाते हैं। घर में महिलाएँ मंगल गीत गाती हैं, जिसे ‘बना गीत’ कहा जाता है—

बना की बनरी हेरे बाठ, बना मोरो कब घर आवेजू
बना के आजुल चतुर सुजान, बना खों ऐसा सजदवो जू
जैसे सज गए लछमन राम भरत खों आगें करलवो जू
बना के बाबुल चतुर सुजान, बना खों ऐसा जसदवो जू
जैसे सज गए लछमन राम शत्रुघन आगें करलवो जू
हाथी घुडला सजे सवार तुरई रमतूला बाते जू
बना की बनरी हेरे बाठ, बना मोरो कब घर आवेजू

यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि वरपक्ष को राम और वधूपक्ष को सीताजी मानकर संबोधित किया जाता है।

दूल्हा सजकर, तैयार बारात सज-धजकर तैयार होकर तुरई रमतूला बजाती नगड़िया ढोलक के साथ दुलहिन के घर पहुँचती है।

जुगिया नृत्य : जब बारात वधूपक्ष के यहाँ पहुँच जाती है, तो उस समय वर के घर पर महिलाएँ जुगिया बाबा का नृत्य करती हैं। कुछ महिलाएँ मर्दों का भेष बना लेती हैं, मर्दों जैसे कपडे़ पहनकर अपने चेहरे पर नकली दाढ़ी-मूँछ लगा लेती हैं और हाथ में शस्त्र स्वरूप नकली बंदूक और धान कूटनेवाला मूसल लेकर मोहल्ला-गाँव में भ्रमण कर आपस में हँसी-ठिठोली करती, हँसी-मजाक करती है। इतना ही नहीं पुरुष भेषवाली महिलाएँ अन्य साथी महिलाओं के साथ मिलकर के गाती-नाचती हैं। इसे जुगिया नृत्य कहते हैं।

जुगिया नृत्य जहाँ एक हँसी-मजाक मनोरंजन है, वहीं इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि बारात में अधिकांश मर्द वधू पक्ष के यहाँ चले जाते हैं। वर पक्ष में घर में अकेली महिलाएँ रह जाती हैं तो जुगिया नृत्य में मर्द बनकर चोर-बदमाशों से रक्षा करती, रातभर नृत्य एवं जागरण होता है, जिससे घर एवं झोंपड़ी सूनी नहीं रहती है। महिलाएँ एक समूह में सचेत रहती हैं। उन्हें अकेलापन एवं असुरक्षा महसूस नहीं होती है। जुगिया नृत्य होता रहता है। इन आदिवासियों के जीवन में आज भी इतने सारे रीति-रिवाज, रस्में तथा परंपराएँ निभाई जाती हैं, जब शहरी लोग अपनी विरासत को कब का भूल चुके हैं, पर ये अपढ़ आदिवासी अपनी इस विरासत को अपनी अगली पीढ़ी को जरूर सौंपते हैं और आज भी इन सब रस्मों को जीवंत बनाए हुए हैं। हमारे लोकजीवन की विषमताएँ आज भी इन समुदायों के बीच प्रचलित हैं।

आनंद भवन, मेन रोड पृथ्वीपुर,
जिला-टीकमगढ़-४७२३३८ (म.प्र.)
दूरभाष : ०९४२४३४५३५५

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