बीवी की छुट्टियाँ

बीवी की छुट्टियाँ

आर.के. नारायण का पूरा नाम रासीपुरम कृष्णस्वामी अय्यर नारायण स्वामी था। उनका जन्म १० अक्तूबर, १९०६ को हुआ। वे अंगे्रजी साहित्य के सबसे महान् उपन्यासकारों में गिने जाते हैं। उन्होंने दक्षिण भारत के काल्पनिक शहर ‘मालगुडी’ को आधार बनाकर अपनी रचनाएँ कीं। आर.के. नारायण मैसूर के यादव गिरी में करीब दो दशक तक रहे। कहते हैं कि मैसूर स्थित घर में ही आर.के. नारायण ने ‘बेरूप’ उपन्यास लिखा था। पच्चीस से अधिक उपन्यास व कहानी-संग्रह अंगे्रजी में प्रकाशित, तत्पश्चात् अनेक भारतीय व विदेशी भाषाओं में प्रकाशित होकर बहुप्रशंसित हुए। नारायणजी की पुण्य तिथि (१३ मई) पर उनकी एक चर्चित कहानी यहाँ दे रहे हैं।

न्नन अपनी झोंपड़ी के दरवाजे पर बैठा गाँव के लोगों की आवाजाही देख रहा था। तभी तेल बेचनेवाला सामी अपने बैलों को हाँकते हुए आया और वहाँ से गुजरते हुए कहने लगा, ‘‘आज तुम्हारे लिए फुरसत का दिन है, है न? तो फिर दोपहर को तुम मंटपम में क्यों नहीं आ जाते?’’

इसके बाद और भी कुछ लोग वहाँ से गुजरे, लेकिन कन्नन ने शायद ही किसी की तरफ ध्यान दिया हो। तेल बेचनेवाले के शब्दों से वह सपनों में खो गया था। मंटपम खंभों पर खड़ा हुआ एक पुराना ढाँचा था, जिसमें जगह-जगह दरारें पड़ गई थीं और जिसकी चिनाई झड़-झड़कर तालाब में गिरती रहती थी। कन्नन और उसके दोस्तों के लिए वह जगह क्लब हाउस की तरह थी। वे सब अकसर दोपहर में वहाँ जुटते और पूरे जोशो-खरोश के साथ पाँसे खेला करते थे। कन्नन को वह जगह तो पसंद थी ही, वहाँ की मिट्टी की गंध भी खासतौर पर उसे अच्छी लगती थी। मंटपम की बड़ी-बड़ी दरारों से झाँकते आसमान और दूर दिखती पहाड़ियों का नजारा उसे खूब आकर्षित करता था। यह सब सोचते ही वह मन-ही-मन कोई धुन गुनगुनाने लगा।

वह जानता था कि अकसर दरवाजे पर बैठे देख लोग उसे आलसी कहते थे। लेकिन उसे इसकी फिक्र नहीं थी। उसे काम पर नहीं जाना था, क्योंकि जाने के लिए कहनेवाला घर में कोई था ही नहीं। बीवी अब भी बाहर थी। बीवी को बैलगाड़ी में बिठाकर उसने जब कुछ दिनों के लिए मायके भेजा तो बड़ा खुश हुआ था। उसे उम्मीद थी कि उसके माँ-बाप उसको अभी कम-से-कम दस दिन और रोकेंगे। हालाँकि इसका मतलब यह भी था कि उसे अपने छोटे से बच्चे से भी इतने दिन के लिए दूर रहना पड़ेगा। लेकिन उसने मान लिया था कि बीवी को खुद से दूर भेजने के लिए इतनी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। उसने मन-ही-मन सवाल किया, ‘‘वह अगर यहाँ होती तो क्या मुझे इस तरह आराम करने देती?’’ वैसे, उसे नारियल के पेड़ों पर चढ़ना पड़ता था। उस पर मँडराते कीड़े-मकोड़े हटाकर नारियल तोड़ने होते थे। इन पेड़ों के लालची मालिकों से मोल-भाव भी करना पड़ता था, तब कहीं जाकर दिन भर में एक रुपए की कमाई हो पाती थी।

बहरहाल, अभी वह बीवी के न होने का मजा ले रहा था। पूरे दिन घर में ही पड़ा रहता था। हालाँकि इससे एक दिक्कत यह हो गई थी कि अब उसके पास रोज के खर्च के लिए चवन्नी भी नहीं बची थी और आज जब तक वह पेड़ पर नहीं चढ़ता, पैसा मिलेगा भी नहीं। उसने एक अँगड़ाई ली और सोचने लगा कि अगर अभी वह पेड़ पर चढ़ा तो कैसा लगेगा। बेशक, घर के पिछवाड़े में मौजूद दस पेड़ निगाह डालने लायक हो चुके थे। यानी काम उसका इंतजार ही कर रहा था, बस वहाँ जाने की देर थी। लेकिन जाता कैसे? इतने दिनों से निठल्ले बैठे-बैठे हाथ-पाँव अकड़ से गए थे। काम पर जाने को तैयार ही नहीं थे, बल्कि वे तो मंटपम जाने की तैयारी में थे। लेकिन वहाँ भी खाली हाथ जाने का क्या मतलब? अगर उसके पास चार आने भी होते तो शायद वह शाम तक मंटपम से एक रुपए लेकर लौट सकता था। लेकिन यह औरत न! बीवी का खयाल आते ही उसका मूड उखड़ गया। कभी नहीं समझ सकी कि उसके हाथ में भी कम-से-कम एक आना होना चाहिए। कम-से-कम इतना हक तो उसे है। चार आने पर भी अपना हक जताए बिना वह सालोसाल से हाड़तोड़ मेहनत किए जा रहा था।...अब तो उसने इस बारे में सोचना ही बंद कर दिया था, क्योंकि इसके बारे में सोचते ही वह जोड़-घटाव, गुणा-भाग के जटिल काम में उलझ जाता और हाथ कुछ नहीं आता था। हाँ, चौपड़ पर पाँसे खेलते वक्त उसके लिए यही सब एकदम आसान होता था।

तभी एक आइडिया उसके दिमाग में कौंधा और वह दरवाजे से उठकर घर के भीतर की ओर लपका। कोने में एक बड़ा संदूक रखा हुआ था। सालों पहले इस पर काला रंग पोता गया था। घर की सभी चीजों में इस संदूक की अहमियत सबसे ज्यादा थी। पत्नी का था, जिस पर पुराने जमाने का बड़ा सा ताला लटक रहा था। वह उसके सामने जा बैठा और ताले पर निगाह जमा दी। उम्मीद नहीं थी, फिर भी एक कोशिश की। ताले को जोर की ठोकर मारी, और उसके अचरज की सीमा न रही, जब एक ही ठोकर से ताला खुल गया।

‘‘भगवान् ने आज मुझ पर बड़ी दया की है।’’ उसने खुद से कहा और संदूक का ढक्कन खोल दिया। उसमें रखी पत्नी की चीजों को देखने लगा। कुछ ब्लाउज थे और दो-तीन साड़ियाँ। एक तो उसने उसे शादी के वक्त खुद ही उपहार में दी थी। यह देख उसे अचरज हुआ कि वह साड़ी उसने अब तक सँभालकर रखी हुई है, जबकि यह...यह...वह फिर आँकड़ों में उलझ गया था। शायद कीमत याद कर रहा था। याद नहीं आई तो दूसरी वजह सोच ली, ‘‘मेरे खयाल से वह बड़ी लोभी है, इसलिए इसे सँभालकर रखा होगा!’’ और सोचकर हँस दिया। वह बीवी के बारे में इस बदनतीजे पर पहुँचकर खुश था। पर अभी उसे लकड़ी के छोटे से बक्से को ढूँढ़ना था, जिसमें उसकी बीवी नकदी रखती थी। उसने सभी कपड़े किनारे रख दिए और उसे तलाशने लगा। वह मिला तो जरूर, लेकिन खाली। बस, खुशकिस्मत के लिए ताँबे का टुकड़ा पड़ा हुआ था। ‘‘आखिर पूरी नकदी कहाँ गई?’’ उसने गुस्से में सवाल किया। वह सोच रहा था, ‘यकीनन वह एक-एक आना भाई या किसी और के लिए अपने साथ ले गई है। तो क्या मैं यहाँ गुलामों की तरह मेहनत करके उसके भाई के लिए एक-एक आना जमा कर रहा हूँ?...अगली बार मैं देखता हूँ उसके भाई को, गरदन न मरोड़ दी तो देखना।’ उसने इतना कहकर खुद को दिलासा दी।

आगे कुछ और सोच ही रहा था कि उसकी नजर सिगरेट के लाल रंग के टीन के डिब्बे पर पड़ गई। उसे हिलाकर देखा। अंदर सिक्के बज रहे थे। उस डिब्बे को देखते ही वह स्नेह से भर गया। यह डिब्बा उसके बेटे का था। एक दिन वह इसे पर्यटक बँगले के पीछेवाले कचरे के ढेर से उठा लाया था। इसे सीने से चिपकाकर दौड़ा-दौड़ा आया था। इसके बाद तो वह पूरा-पूरा दिन गली में इसी डिब्बे से खेलता रहता। कभी इसमें धूल-मिट्टी भरता तो कभी खाली करता। यह देख एक दिन कन्नन से उसे सुझाव दिया कि वह इस डिब्बे को पैसे जमा करने के काम में ले सकता है। बच्चे ने पहले तो इसका जोरदार विरोध किया, लेकिन जब कन्नन ने उसे प्यार से समझाया तो खुशी-खुशी राजी हो गया। बल्कि इसके बाद तो उसने योजनाएँ बनानी शुरू कर दीं। कहने लगा, ‘जब इसमें खूब पैसे जमा हो जाएँगे तो उस बड़े मकानवाले लड़के की तरह मैं भी मोटरकार खरीदूँगा। एक हरी पेंसिल और मुँह से बजानेवाला हारमोनियम भी।’ बच्चे की योजनाएँ सुनकर कन्नन ठहाका मारकर हँस पड़ा था। वह डिब्बे को लोहार के पास ले गया। डिब्बे के मुँह पर ढक्कन लगवाया और उसमें सिक्के डालने के लिए एक छोटा सा कट लगवा दिया। इसके बाद तो यह डिब्बा ही उस छोटे से बच्चे का खजाना हो गया था। वह जब-तब इसे पिता के सामने कर देता, ताकि वह इसमें सिक्का डालें। फिर बीच-बीच में कभी-कभार उत्सुकता से पूछ भी बैठता, ‘पिताजी, क्या यह भर गया है? मैं इसे कब खोल सकता हूँ।’ वह हमेशा यह डिब्बा माँ के संदूक में साड़ियों के बीच सँभालकर रखता और तब तक नहीं सोता था, जब तक यह न देख ले कि संदूक का ताला ठीक से बंद हुआ है या नहीं। उसे देख कन्नन अकसर कहा करता था, ‘देखो, कितनी सावधानी बरतनेवाला बच्चा है। जरूर आगे चलकर कुछ बड़ा करेगा। इसे हम शहर के स्कूल जरूर भेजेंगे।’

लेकिन अभी तो कन्नन उस डिब्बे को हिलाकर देख रहा था। वह उसे कुछ उजाले में ले गया। सिक्के डालनेवाले कट से अंदर देखकर अंदाज करने की कोशिश की कि आखिर इसमें कितने पैसे होंगे। कुछ अनमना सा भी हुआ, यह सोचकर कि बीवी को उसके इस घटिया खयाल के बारे में पता चल गया तो वह उसका शिकार ही कर डालेगी। लेकिन उसने अगले ही पल इस खयाल को दिमाग से झटक दिया। डिब्बे को उल्टा कर जोर-जोर से झटके देने लगा। इतनी तेज कि आवाज सुनकर कोई बहरा ही हो जाए। लेकिन एक भी सिक्का बाहर नहीं गिरा। लोहार ने बहुत जबरदस्त काम किया था। ढक्कन पर जो कट लगाया था, वह बिल्कुल उतना ही चौड़ा था, जितनी सिक्के की मोटाई होती है। इससे सिक्का अंदर तो डाला जा सकता था, लेकिन दुनिया की कोई ताकत एक भी सिक्के को बाहर नहीं निकाल सकती थी। परेशान हो गया तो कन्नन कुछ देर के लिए रुका।

अपने आप से सवाल किया, ‘क्या मैं अपने बच्चे के पैसे निकालकर सही कर रहा हूँ? क्यों नहीं?’ भीतर से किसी दूसरी आवाज ने उसे भरमाया, ‘पिता और बेटा एक ही तो हैं। और फिर, तुम ये पैसे दो-तीन गुना करने के लिए ले जा रहे हो। जैसे ही ये बढ़ जाएँगे, इन्हें वापस लाकर फिर इसी डिब्बे में रख दोगे। इस तरह तो तुम इस डिब्बे को खोलकर अपने बेटे का फायदा ही करनेवाले हो।’ इस विचार ने उसे राहत दी थी। अब वह किसी ऐसी चीज की तलाश में लग गया जिससे डिब्बे का सिक्के डालनेवाला कट चौड़ा किया जा सके। कबाड़ पड़े सामान में काफी-कुछ तलाशा। तार, बोतल की कॉर्क, बैल के पैर की बेकार नाल—और भी न जाने क्या-क्या। लेकिन नुकीली धारवाला एक भी औजार नहीं मिला। ‘उस चाकू का क्या हुआ?’ वह एक बार फिर बीवी के बारे में सोचकर झुँझलाया, ‘औरत की आदत ही है हर चीज छिपाकर रखने की। या क्या पता, वह उसे भी अपने साथ ले गई हो, भाई के लिए।’ थक-हारकर उसने बॉक्स को फर्श पर पटकना शुरू कर दिया। लेकिन इससे उस डिब्बे की शक्लो-सूरत ही बिगड़ी, सिक्के बाहर नहीं निकले। उसने घर के चारों तरफ नजर दौड़ाई।

दीवार पर गड़ी कील में भगवान् की तसवीर लटकी हुई थी। उसने लपककर वह तसवीर उतारी और नीचे रख दी। इसके बाद कील उखाड़ ली। इसी बीच, भगवान् की तसवीर पर नजर पड़ी तो कुछ असहज हो गया। आँखें उनके पैरों की ओर झुका लीं और फिर अपने काम में लग गया। पत्थर का एक टुकड़ा ले आया और डिब्बे के मुँह पर कील रखकर दूसरे हाथ से उससे ठोकर मारने लगा। लेकिन कील फिसल गई और पत्थर उसके अँगूठे पर जा लगा। नीला पड़ गया। दर्द से कराह उठा। गुस्सा भी आया और डिब्बे को दूर फेंक दिया। फिर कोने में पड़े उस डिब्बे की तरफ देखकर घृणा से कहा, ‘‘कुत्ते कहीं के!’’

कुछ देर वह अपना अँगूठा सहलाते हुए बैठा रहा, फिर उस टीन के लाल डिब्बे की तरफ देखकर बोला, ‘‘अब मैं देखता हूँ तुझे।’’ वह रसोई में गया और दोनों हाथों से पत्थर की सिल उठा लाया। उसे उसने ऊँचा उठाया और डिब्बे पर दे मारा। यह चोट काफी थी। डिब्बा चपटा होकर इधर-उधर से फट भी गया था। यह देखते ही कन्नन भूखे की तरह उस पर झपट पड़ा। अंगुलियाँ डालकर सिक्के निकाले और उन्हें गिनने लगा। छह आना और तीन पैसे थे। उसने उन्हें उठाकर कमर में धोती के छोर से बाँधा, घर में ताला लगाया और बाहर चला गया।

मंटपम पर आज किस्मत उसका साथ नहीं दे रही थी। साथ क्या, आस-पास भी नहीं फटकी थी। थोड़े ही समय में वह पूरे पैसे हार गया। लेकिन मन नहीं माना तो उधार लेकर खेलने लगा। वह पैसे भी हार गया। तभी किसी ने सुझाव दिया, ‘‘अब उठ जा, किसी दूसरे मालदार आसामी को खेलने दे।’’

अनमने ढंग से कन्नन उठा और घर की ओर चल दिया। दिन का सूरज अब भी तप रहा था।

जैसे ही वह अपनी गली में पहुँचा, उसने देखा, बीवी सामने से चली आ रही है। उसके एक हाथ में गठरी है तो दूसरे से बच्चे को पकड़ रखा है। कन्नन जहाँ था, वहीं जड़ हो गया।

‘‘क्या मैं कोई सपना देख रहा हूँ?’’ वह बुदबुदाया।

तभी बीवी उसके एकदम पास आ पहुँची। बोली, ‘‘एक बस इस तरफ आ रही थी। मैं भी उससे घर लौट आई।’’ इतना कहकर वह घर के दरवाजे की तरफ चल पड़ी। पीछे-पीछे कन्नन। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। घर में संदूक खुला पड़ा था। उसका सामान यहाँ-वहाँ बिखरा था। चपटा-टूटा लाल डिब्बा और भगवान् की तसवीर जमीन पर पड़ी थी। जैसे ही वह अंदर जाएगी, वह सब नजर आ जाएगा। यह सब सोच रहा कन्नन बिल्कुल नाउम्मीद हो रहा था। उसने आगे बढ़कर किसी मशीन की तरह दरवाजा खोला।

‘‘तुम इतने परेशान क्यों दिख रहे हो?’’ अंदर घुसते हुए उसकी बीवी ने पूछा। उसका बेटा हाथ में कुछ सिक्के लिये हुए था। उसने बताया, ‘‘ये पैसे मामा ने दिए हैं। इन्हें बॉक्स में रख दीजिए।’’ इतना कहते हुए उसने जैसे ही हाथ थामा, दर्द के मारे कन्नन की चीख निकल गई। ‘‘अरे, ये आपने क्या कर लिया, पिताजी?’’ बच्चे ने पूछा।

‘‘कुछ नहीं। मेरे हाथ से ही पत्थर से अँगूठा दब गया।’’ इतना कहकर वह माँ और बेटे के पीछे घर के अंदर घुस गया—आनेवाले तूफान का सामना करने की तैयारी करते हुए।

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