दाल की कटोरी

श्यामलाल दुविधाग्रस्त थे। बेटी के रिश्ते के बारे में कुछ निर्णय नहीं कर पा रहे थे। लड़केवालों का चौथा फोन आया था। लड़के के पिता ने उनका निर्णय जानने के लिए फोन किया था। अनिर्णय की स्थिति में उन्होंने मध्यस्थ को फोन मिलाया। फोन आने पर वे बोले, ‘‘भाईजी, लड़की के रिश्ते को लेकर थोड़ा परेशान॒हूँ।’’

‘‘क्यों? वह लड़का दिखाया तो था। क्या पसंद नहीं आया?’’

‘‘नहीं, नहीं। वह बात नहीं है। लड़का शिक्षित और सुंदर है। परिवारवाले भी सुसंस्कृत लगे। उन्हें भी लड़की पसंद है।’’

‘‘फिर क्या दिक्कत है? हाँ कह दीजिए।’’

‘‘सबकुछ ठीक होने पर भी एक दिक्कत आ रही है। मुझे उनकी आर्थिक स्थिति के बारे में ठीक से जानकारी नहीं हो पाई। कभी कोई ऊँच-नीच हो जाने पर लड़की को रोटी-कपड़े की परेशानी न हो।’’

मध्यस्थ ठठाकर हँसा, ‘‘श्यामलालजी, वे दिन के भोजन में दाल के साथ सब्जी और प्याज खाते हैं। रात्रि भोजन में दो सब्जियों के साथ प्याज भी होता है।’’

सुनकर श्यामलाल हैरत में पड़ गए, ‘‘क्या बात करते हैं आप। वे सौ रुपए किलो की दाल और महँगी सब्जी के साथ प्याज भी खाते हैं, वह भी रोजाना। विश्वास नहीं हो रहा।’’

मध्यस्थ पुनः हँसा, ‘‘विश्वास नहीं हो रहा तो किसी दिन दोपहर एक से डेढ़ बजे के बीच उनके घर चले जाइए। पूरा परिवार उस समय भोजन करता है, फिर तो आपको विश्वास हो जाएगा।’’

श्यामलाल ने अगले दिन ही ठीक समय पर लड़केवालों के घर की घंटी बजा दी। लड़के के पिता ने द्वार खोला। श्यामलाल को देखकर उल्लसित स्वर में बोले, ‘‘आइए, आइए, आप ठीक समय पर आए। हम खाना खाने के लिए बैठे ही थे। अब आपको खाना खाए बगैर नहीं जाने दूँगा।’’

डाइनिंग टेबल पर एक डोंगे में देसी घी का तड़का लगी गाढ़ी दाल और दूसरे में भाप छोड़ती सब्जी भरी थी। एक ट्रे में सलाद के साथ कतरा हुआ प्याज भी रखा था। चपातियों के साथ पापड़ व अचार भी था।

श्यामलाल को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वे स्वयं सरकारी विभाग में ऑफिस सुपरिटेंडेंट हैं। अच्छी-खासी सैलरी है, लेकिन वे भी सप्ताह में एक-दो बार से ज्यादा दाल खाने की हिम्मत नहीं कर पाते। और ये लोग रोजाना दाल खाते हैं।

पिता भोजन आग्रह को किसी तरह विनम्र इनकार करते हुए बोले, ‘‘क्षमा कीजिए, मैं घर से भोजन करके आया हूँ।’’

‘‘अच्छा, तो हमारा साथ देने के लिए एक कटोरी दाल तो चख ही सकते हैं। चखकर बताइए कि मेरी पत्नी को दाल बनाने आता भी है या नहीं।’’

दाल के डोंगे को ललचाई नजरों से देखते हुए श्यामलाल ने कटोरी थाम ली। संयमशील होने का परिचय देते हुए, चम्मच से थोड़ी सी दाल मुँह में डाली। बुरी तरह चौंके। दुर्लभ दाल में महँगे लहसुन का देसी घी का तड़का। हे भगवान्, ये तो अमीर निकले। रिश्ता करने की एकमात्र बाधा दाल की कटोरी ने दूर कर दी थी।

दाल समाप्त कर तृप्त मन से बोले, ‘‘मैं तो यह कहने आया था कि मुझे यह रिश्ता मंजूर है। आप शादी की तैयारियाँ कीजिए।’’

प्रस्थान के लिए तत्पर श्यामलाल से लड़के के पिता ने कहा, ‘‘बधाई हो, अब हम समधी बन गए। आपका मुँह मीठा कराए बगैर नहीं जाने दूँगा।’’

श्यामलाल मन-ही-मन झल्लाए। इस स्वादिष्ट दाल के सामने मिठाई की क्या औकात! विनम्र स्वर में बोले, ‘‘रिश्ता तय हो जाने के बाद तो बेटी की ससुराल का पानी भी नहीं पी सकता।’’

वे कैसे बताते कि उन्हें पानी पीकर लजीज दाल के स्वाद पर पानी थोड़े ही फेरना था। पानी तो अपने घर जाकर शाम को ही पीएँगे।

 

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