दुबली-पतली छरहरी काया और काला रंग होंठों पर निश्चल गुलाबी मुसकान लिए रेमसिंग हँस रहा था। उसकी हँसी जंगल में छिपे झरने सी एकांत में इतरा-इतराकर मस्ती के गीत गा रही थी। उसकी हँसी दूधिया भुट्टे के झबरीले बालों से झलक रही थी। उसकी हँसी पके करेले के लाल दानों सी दहक रही थी। उसकी वह हँसी कपास के फूल सी फूट पड़ी थी। उसकी हँसी में वह सब रस घुला था, जो हाय-तोबा मचाते, दिन-रात भागते-दौड़ते नाम, पद, पैसे के लिए हाय-हाय करते लोगों के पास भी नहीं होता। उसकी हँसी चूल्हे की राख में सोते कुत्ते के सुख-सी गरमाहट दे रही थी। उसकी हँसी संतुष्टि और संतोष के सारे पैमानों को पूरा कर रही थी। बरबस ही उसकी उस हँसी पर मेरी आँखें गड़ गई। अभी नए किराए के घर में हमारी शिफ्टिंग चल रही थी, गाँव से भाई हमारे बरतन-भांडे ले आया। हमारी पिकअप को देख बिन बुलाए ही वह हमारी मदद के लिए आ खड़ा हो गया। बकरी के बच्चे-सा कुलाँचें मार-मार वह भारी-से-भारी सामान उठा-उठाकर ले जाता।
पड़ोस के प्लाॅट पर भवन-निर्माण कार्य चल रहा था। रेत, ईंट, गिट्टी, बल्लियाँ, तरापे, सीमेंट, बालू, रेत सभी मिल-जुलकर उस भवन को आकार दे रहे थे। जड़ वस्तुएँ भी मेल-मिलाप, एकता और संघटन की शक्ति को जानती हैं। वह हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई और अलग-अलग धर्मों-संप्रदायों जैसी नहीं हैं। अगर इन जड़ चीजों में भी मनुष्यों के धर्म-संप्रदाय वाले भाव आने लगे तो हो चुका निर्माण। चाहे भवन निर्माण हो या राष्ट्र निर्माण, नींव अच्छी होनी चाहिए। नींव तो आदमजात की भी अच्छी होनी चाहिए, नहीं तो जीवन में जरा सा उतार-चढ़ाव क्या आया, साहब मरने के लिए कोना और रस्सी ही ढूँढ़ते हैं। जिस भवन का निर्माण रहने के लिए कराया था, वहाँ साहब बकरे जैसी आँखें फाड़, जुबान निकाल पंखे पर लटके मिलते हैं। आज हमारे देश में ही नहीं, विश्व में आत्महत्याएँ करने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में तीन-चार बातें ही चलती रहती हैं। फलाँ व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली, फलाँ बाबा ने दिए प्रवचन, सिखाई जीवन-जीने की कला। फला नेता ने राष्ट्र-निर्माण और देशहित में कार्य किया।
निम्न वर्ग का दिहाड़ी-मजदूरी वाला व्यक्ति तो केवल रोटी और गरीबी रेखा का राशन कार्ड पाने के लिए संघर्ष कर रहा है। लेकिन उसकी गरीबी तो रेखा जैसी आज भी जवान है। मध्यवर्ग रोटी के लिए भी संघर्ष कर रहा है और दिखावटी लाइफ-स्टाइल के लिए भी संघर्षरत है। बचा उच्च वर्ग, उसे भारत से क्या मतलब, वह तो इंडिया में रहता है। उस इंडिया में गरीबी नहीं है। गरीबी तो भारत में है। इंडिया में रहने वालों को सरकारी-दरबारी लोग हाथ जोड़ सलाम करते हैं। मंत्री-संतरी उसके छोरा-छोरी की ब्याह-शादी में ठुमका लगाते हैं। रेमसिंग हँसे या रोए, उससे इन इंडिया वालों को क्या लेना-देना? लेकिन एक बात तो तय है, रेमसिंग जैसी हँसी तो इन इंडिया वालों के पास भी नहीं है।
भवन-निर्माण की सामग्री से चार बल्लियाँ, तरापे, नारियल-रस्सी, तार, टिन की चादरें लेकर दस-बाय-दस की एक अस्थायी रावटी (झोंपड़ी) तैयार कर ली थी। आधे में सीमेंट-सरिया और आधे में चौकीदार के रूप में रेमसिंग ने अपनी गृहस्थी जमा ली। दिनभर हाड़-तोड़ मेहनत। माथे का पसीना एड़ी तक और एड़ी का दम माथे तक, रेमसिंग का पूरा जिस्म बिना जिम जाए ही साँचे में ढल रहा था। उसके साथ उसकी नई लाड़ी भी तगारी उठाती। सीमेंट की छारी से धूल-धूसरित हुआ उसका गौरवर्ण। तेल, साबुन, शैंपू के अभाव में सन से सुनहरी होती उसकी काली लटें। दोनों को देखकर ऐसा लगता, जैसे महादेव-गौरा कैलाश छोड़ धरती पर विचरण करने आए हों।
आज जब पति-पत्नी के रिश्ते लड़ाई-झगड़े, विवाहोतर, नाजायज संबंध, तलाक, हत्या, कत्ल शक-संदेह जैसे भँवर में फँसकर टूट रहे हैं, वही रेमसिंग और नूरली के प्रेम की प्रगाढ़ता, दांपत्य की हाँड़ी में दही-सी जम रही थी। दिनभर दोनों काम करते। रेमसिंग सीमेंट, रेत, गिट्टी से माल बनाता, नूरली तगारी लेकर आती, रेमसिंग फावड़े से तगारी में माल डालता। कभी इशारे, से कभी मुसकराकर, कभी छूकर, वह उसके प्रेम का प्रदर्शन करता रहता। उस समय उसकी चमकीली आँखों में प्रेम का पानी ओस की बूँदों-सा चमक उठता और होंठों पर गुलाब की पँखुड़ियों-सी हँसी झरने लगती। उसकी उस प्रणय लीला को देख, बिहारी, घनानंद, पद्माकर जैसे रीतिकालीन कवियों की सारी कविताएँ कानों की खिड़कियों में दौड़ने लगती। “कहत-नटत, रीझत-खिजत, मिलत-खिलत, लजियात। भरे भौन में करत हैं नैननु सो बात।” रेमसिंग अपनी प्रिया नूरली को देख हँसता और नूरली लजाकर तगारी ले भागती। दोनों एक-दूसरे की आँखों से ओझल नहीं होते। प्रेम में अपने प्रिय के सामीप्य की चाह होती है और दूरी खलती है, जुदाई का नाम सुनकर पीड़ा होती है।
आधुनिकता की दौड़ में हम इतना तेज भाग रहे हैं कि हमारे हृदय का प्रेम सरोवर सूख रहा है। मानस के स्राेतों से संवेदनाओं का पानी बूँद-बूँद करके ही टपकता है। उसमें अब पहले जैसा बहाव नहीं है। अब तो पर्सनल लाइफ का बाँध हर कोई बाँध लेता है। दिल-दिमाग में विचारों का पानी डबरा रहा है, इसलिए समाज में सड़ाँध फैल रही है। लोग-बाग नाक-मुँह सिकोड़-सिकोड़कर चलते हैं। असंवेदनशीलता की बीमारी सबको लगने लगी है। किसी-ने-किसी से जरा-सा हँसी-मजाक क्या कर लिया, उसके एक-एक शब्द की व्याख्या कई अर्थों में की जाती है। सब लड़ाई के मूड में ही बैठे रहते हैं। कब कोई तुम्हारी सरल-सहज बोली-बातों को दिल पर ले ले, यह पता ही नहीं चलता। सरल-सहज होने के अपने लाभ भी हैं और हानि भी अब तुम्हारे हृदय की पीड़ा तथा व्यवहार का सीधा व भोलापन कोई नहीं देखेगा। वह तो वही देखेगा, जो उसका नजरिया है। इसलिए हमें दूसरों के नजरियों से बचना है। हमें तो खुद के विचारों की डोर पकड़ लोक-समाज के आकाश में अपने नजरियों की पतंग उड़ानी है। दूसरे के नजरिए को तो पतंग में लगी पूँछ-सा लगाकर केवल अपनी उड़ान में संतुलन ही बनाना है।
रेमसिंग ने सादगी और संतुलन की नींव पर अपनी गृहस्थी जमा ली। हम दोनों की गृहस्थी साथ में ही शायद शुरू हुई। मैं दौड़कर गैस चूल्हा ले आया। उसने तीन ईंटों को जमाकर चूल्हा बना लिया। मैं चाय के लिए दूध लेने गया। उसने ‘पठानी चाय’ जिसे आज के जमाने वाले ग्रीन-टी कहते हैं, बनाई और गिट्टी के ढेर पर बैठकर बड़े शान से पीने लगा। मेरा मन हुआ उससे झगड़ा करूँ, लेकिन किस बात को लेकर झगड़ता। झगड़े का कोई मूल-माथा, कोई कारण तो मिले। वह मुझे देखकर मुसकरा देता। उसकी वह निरीह हँसी मुझे अपनी सी लगती और इस अपनेपन के गमछे को मैं झट से अपने गले में डाल लेता। कितना अच्छा लगता है, जब हम किसी दूसरे की हँसी को अपने होंठों के बगीचे में सजाते हैं। कितना अच्छा लगता है, दूसरे के सुख-दुःख को अपना बनाना। किसी के दु:ख को सुनकर अपनी आँखों से आँसू बहाना और किसी की खुशी को अपनी खुशियाँ बनाना। जब भी रेमसिंग हँसता, मुझे अपना सा लगता है। उसकी हँसी मुझे अपनी सी ही लगती। लेकिन मेरे नसीब में रेमसिंग जैसी हँसी कहाँ थी।
गाँव से आए मुझे साल भर हो गया था। लेकिन इस साल भर में मैं कितनी बार खुलकर हँसा, यह मुझे भी पता नहीं। तहसील पाटी (बड़वानी) के छोटे से कॉलेज में, मेरे साथी और मेरी हँसी के ठहाके सतपुड़ा की गंजी पहाड़ियों के सर से टकरा-टकराकर मांदल (आदिवासी ढोल) की थाप से बजते। सबसे हँसना-बोलना और कार्यस्थल पर मिल-जुलकर काम करना, कर्मचारी को और क्या चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता। सीनियरिटी के सींग लगाकर हर कोई मरखने बैल सा घूमता है। सहकर्मी देखा और हुमड़ी मार देता है। पद की गाड़ी का बोझ लिए घूमते इन बैलों ने हमेशा षड्यंत्रों का गोबर ही किया है। चापलूसी का चारा चरते-चरते ये लोग कब इनसानों से बैल बन गए, पता ही नहीं चला। इन्होंने सबसे हँसना-बोलना छोड़ा और अंगारे पर जमी राख सी गंभीरता ओढ़ ली। भीतर दुर्भावनाओं की अंगार और बाहर निर्मोहिता की राख। ऐसे इनसानमय अधिकारी लकीर के फकीर होते हैं। यह नियम और सिद्धांत के सख्ती से पालन करने, करवाने पर विश्वास रखने का नाटक करते रहते हैं। नियम सिद्धांतों का भय दिखा-दिखाकर ये लोग सहकर्मियों पर तानाशाहों सी हुकूमत करते और अपनी ही आत्ममुग्धता में जीते। इन्हें कर्मचारियों के मानवीय पक्ष से कोई रिश्ता-नाता नहीं। यह तो मशीनों के जैसे काम करते, जिसमें भाव-संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं होता और आदमी की कोई कीमत नहीं।
रिश्तों की कीमत और आदमी का मान-सम्मान रेमसिंग की नूरली भी करना जानती थीं। रेमसिंग से बातचीत से पता चला कि वह मेरे ही पैतृक गाँव के पास का रहने वाला है। उस दिन से नूरली और मेरा रिश्ता जेठ और बहू का हो गया। मुझे गेट या गली में आते-जाते देख नूरली हाथ भर का घूँघट निकाल मुझे सम्मान देती। मुझे अगर पता रहता कि मेरे सम्मान में घूँघट निकल रहा है, तो मैं नूरली को कभी भी घूँघट निकालने नहीं देता। नारी का चेहरा तो हमेशा आस्था का सूरज और श्रद्धा का चाँद जैसा रहा है। प्रेमी और रसिक भाव तो किसी एक चेहरे के लिए होना चाहिए और एक के प्रति प्रेम सही भी है, लेकिन जमाने भर की स्त्रियों के चेहरे को आस्था और श्रद्धा से देखना चाहिए। पुरुष-स्त्री के मान-सम्मान की रक्षा करें और स्त्रियाँ धरती-सा हृदय लिए, दया, माया, ममता, प्रेम, स्नेह और अथाह वात्सल्य की निधि लेकर जिरोती (निमाड़ अंचल म.प्र. का सौभाग्य सूचक भित्ति चित्र) सा सौभाग्य बन पुरुष की हृदय भित्ति पर त्योहारों की खुशहाली सी सजती रहे। पुरुष व स्त्री का रिश्ता हमेशा ही मर्यादा पूर्ण रहना चाहिए। पुरुष और स्त्रियों को मर्यादा के धागे में बाँधने का यह कार्य भारतीय समाज में पहले से ही चला आ रहा है। अतीत में कई ऐसे प्रसंग आए हैं, जिसमें नारी की रक्षा के लिए पुरुषों ने अपने खून का कतरा-कतरा नारी के मान-सम्मान और रक्षा के लिए बहा दिया। पत्नी, प्रिया को छोड़कर संसार भर की स्त्रियों को माँ-बहन समझा गया है। ऐसे पुरुषों के हृदय में भगवान् का वास हो जाता है। यह सच बात तो तुलसी यों ही नहीं कह गए—‘जननी सम जानहिं पर नारी। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारी।’
नूरली को जब भी देखता, तब-तब यह पाता कि उसमें आदर्श गृहणी के वे सारे गुण भरे हैं। उसका सौंदर्य बागड़ पर लग गए गिलकी के फूल की ताजगी-सा खिल रहा है। वह अपने चौके-चूल्हे का एक भी काम रेमसिंग से नहीं करवाती। सुबह से ही वह ज्वार-मक्के की रोटी बना लेती। रोटी सिंकने की महक को सूँघ मैं मस्त हो जाता हूँ। तब मेरे लिए यह लोक कहावत सटीक बैठती—‘हलवाई का कुत्ता गंध में ही मस्त रहता है।’ चाहे नलके से पानी लाना हो या शाम के वक्त रेमसिंग के दिनभर फावड़ा चलाने से दुखते कंधों को दबाना हो, नूरली एकाग्रचित्त होकर अपना काम करती है। नूरली की उम्र की लड़कियाँ और वह भी नई दुलहनें, कितना सजती-सँवरती हैं, लेकिन नूरली तो नूरली है। उसके तो नाम में ही नूर छुपा हुआ है। सच में नूरली का चेहरा सादगी के सौंदर्य से दमकता था। नूरली बिन साजो-शृंगार के ही खूबसूरत लगती, तभी तो ठेकेदार उसे खा जाने वाली नजरों से देखता है और किसी-न-किसी बहाने वह नूरली से ही सामान मँगाता। रेमसिंग ठेकेदार की उस बुरी नियत को जान गया था, इसीलिए ठेकेदार के नूरली पुकारने से पहले ही रेमसिंग ठेकेदार के सामने चला जाता और बिजली की भाँति ठेकेदार के बताए काम को पूरा कर देता। अपनी गंदी नजरों की हवस को पूरा होता न देख ठेकेदार पागल कुत्ते सा भौंकता। साले एक भी काम सही ढंग से नहीं करते और अपने मुँह से गुटखा थूकते हुए कुरसी पर बैठ जाता।
समाज में कुरसी पर बैठे लोगों की ही तो नीयत खराब है। जिसको पद, पैसा और कुरसी की ताकत मिली, वह ठेकेदार बना फिरता है। नूरली जैसी आम जनता हर रोज ऐसे ठेकेदारों के लिए मांस के टुकड़े जैसी होती। छीना-झपटी, मार-काट, साजिश-षड्यंत्र, इनके श्वान संविधान में सबकुछ जायज है। मेरे लिए रेमसिंग उन तमाम मजदूरों का चेहरा था, जो हमारे आसपास भव्य इमारतों के निर्माण में, सड़क किनारे खोदे जाने वाली केबलों की नालियों में, भारी-भरकम सामानों को लादते, पसीने से तरबतर, मेहनतकशों के रूप में काम करते दिखाई देते हैं। मेरे लिए रेमसिंग की हँसी केवल रेमसिंग की हँसी नहीं थी, वह तो तमाम उन मजदूरों की हँसी थी, जो रेमसिंग जैसे हर हाल में खुश और मदमस्त रहते। रेमसिंग की हँसी संतोषी भाव और संतुष्टि के मंत्र को जानने वालों की हँसी थी। रेमसिंग की हँसी मजदूरों पर होते रहते उन सारे शोषण, अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध गांधीवादी आमरण अनशन की हँसी लगती।
कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता कि रेमसिंग की हँसी गीता का उपदेश देती, जीवन और संसार की असारता की व्याख्या करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्णा की हँसी हो, ऐसी लगती। जब ठेकेदार बेवजह के कारणों से रेमसिंग की धाड़की-मजदूरी काट लेता तो रेमसिंग कुछ नहीं कहता, वह बुद्ध सी आँखें बंद कर करुणा की हँसी हँस देता। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है, यह रेमसिंग रेमसिंग नहीं है, कोई और है। खुले आसमान में उघड़ा (निर्वस्त्र) पड़ा रहता। जो मिलता, वह खा लेता। किसी से शिकवा-शिकायत नहीं। ऐसा लगता है, जैसे दिगंबर महावीर ध्यानमुद्रा में बैठे हों और रेमसिंग जितेंद्रिय हो गया हो। कोई दु:ख नहीं है। कोई संताप नहीं है। अपने पर हुए किसी भी अत्याचार का कोई प्रतिकार नहीं। ऐसी स्थिति में रेमसिंग मुझे जीजस क्राइस्ट लगता। मुझे रेमसिंग कभी रेमसिंग नहीं लगा। सदा एक पूरी दुनिया लगा। जो हमारे आसपास ही रहते हैं। जिसे हम हमारी आँखों से नहीं देखते। उस दुनिया को देखने के लिए तो छाती में रेमसिंग जैसा दिल, होंठों पर हमेशा रेमसिंग जैसी हँसी रखनी होगी।
पड़ोस वाली तिरोले भाभी, रेमसिंग की झोंपड़ी के पास कचरा फेंकती है। उस कचरे में हिंदी वर्णमाला की फटी हुई किताब को रेमसिंग उठा लेता है और गिट्टी के ढेर पर बैठ वर्णमाला जोर-जोर से बाँचता है। अनार का, आम का, इमली का, ईख का उल्लू, ऊन, ऋषि, एड़ी ऐनक, ओखली, औरत, अंगूर और अ:अ:अ:। रेमसिंग को बाँचते हुए देख उसकी उच्चारित वर्णमाला के अक्षर मेरी आँखों से आँसू बन टपक रहे थे। रेमसिंग पढ़ रहा था। रेमसिंग हँस रहा था। शिक्षा ही रेमसिंग जैसों को हँसाएगी और उनको उनका हक दिलाएगी। रेमसिंग अभी भी हँस रहा था और जोर-जोर से बाँच रहा था-अ:,अ:,अ:।
माखनलाल चतुर्वेदी शासकीय
स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय, खंडवा (म.प्र.)
दूरभाष :९००९०९३३४९