भीमराव आंबेडकर पीठ के अध्यक्ष रहे। हि.प्र. में दीनदयाल उपाध्याय महाविद्यालय की स्थापना की। लगभग दो दर्जन से अधिक देशों की यात्रा, पंद्रह से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित। संप्रति भारत-तिब्बत सहयोग मंंच के अखिल भारतीय कार्यकारी राष्ट्रीय संरक्षक और दिल्ली में 'हिंदुस्थान समाचार' के निदेशक।
१. उत्तरी अमेरिका और इंडियन से क्या अभिप्राय है : उत्तरी अमेरिका में रहने वाले इंडियन कौन हैं और उन्हें इंडियन क्यों कहा जाता है? इस प्रश्न का उत्तर जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि उत्तरी अमेरिका से हमारा अभिप्राय क्या है। अमेरिका महाद्वीप को भूगोल के लिहाज से तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है—उत्तरी, मध्य और दक्षिणी अमेरिका। उत्तरी अमेरिका में मोटे तौर पर यूनाइटेड स्टेट्स आॅफ अमेरिका, यानी यू.एस.ए. और कनाडा शुमार हैं। अमेरिकी महाद्वीप में कोलंबस के आने से पहले जो लोग रहते थे, उन्हें इंडियन कहा जाता है। उत्तरी अमेरिका के ये इंडियन अनेक समुदायों में बँटे हुए हैं, जिन्हें अंग्रेजी में अनेक ट्राइब्स भी कहा जाता है। लेकिन महत्त्वपूर्ण प्रश्न पैदा होता है कि यूरोपीय लोगों के आने से पहले उत्तरी अमेरिका में रहने वाले लोगों को इंडियन क्यों कहा जाता था या फिर ये इंडियन कहाँ से आए थे? उपनिवेशवादियों का उत्तर तो बहुत सरल और सपाट है। उनके अनुसार इटली का कोलंबस भारत पहुँचने के लिए अपने घर से निकला था। सागर में यात्रा करते समय भी वह यही समझ रहा था कि उसका जहाज भारत की ओर ही जा रहा है। जब वह १४९२ में अमेरिका पहुँच गया, तब भी वह इसी भ्रम में था कि वह इंडिया पहुँच गया है। वहाँ जो लोग उसे मिले, वे इस हिसाब से इंडियन थे। इस प्रकार यूरोप के लोगों ने भ्रम में उत्तरी अमेरिका के मूल लोगों को इंडियन कहना शुरू कर दिया था और उसके बाद इन लोगों को विश्व भर में इंडियन ही कहा जाने लगा। यह मामला सन् १५०० का है।
२. उत्तरी अमेरिका के इंडियन कौन हैं? : अब तक उत्तरी अमेरिका के अनेक हिस्सों पर अपने उपनिवेश स्थापित करने वाले यूरोपीय सत्ताधीशों को यह जानने की जरूरत नहीं थी कि उनके आने से पहले से ही यहाँ रह रहे लोग कौन थे और कहाँ से आए थे, क्योंकि उन पर पूरी तरह काबू पा लिया गया था और उन्हें विभिन्न राज्यों में अप्रासंगिक बना दिया गया था। लेकिन विश्वविद्यालयों में कुछ लोगों को यह जिज्ञासा होनी स्वभाविक ही थी कि इन इंडियन के मूल को खोजा जाए। जिज्ञासा मानव का मूल स्वभाव है। यह कभी समाप्त नहीं होती। जिज्ञासा ही मानव प्रगति का मूलाधार है। खोजबीन करने पर पता चला कि लगभग पंद्रह हजार साल पहले ये लोग अलग- अलग समय में एशिया से चलकर साइबेरिया से होते हुए उत्तरी अमेरिका पहुँचे थे। यानी ये ‘इंडियन’ असल में एशियाई हैं। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ‘सप्त दीप नव खंड’ की चर्चा आती है तो उन सप्त द्वीपों में से एक द्वीप जंबू द्वीप है, जिसे यूरोप के लोग एशिया कहते थे/हैं। उत्तरी अमेरिका के मूल निवासी इंडियन एशिया/जंबू द्वीप से आए थे, यह लगभग निश्चित हो गया। यह भी निश्चित हो गया कि ये लोग एशिया के चीन खंड से नहीं आए थे। अब इन ‘इंडियन’ लोगों की भाषाओं और संस्कृति के बारे में खोजबीन शुरू हुई तो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए। इनकी संस्कृति के अधिकांश जीवन-मूल्य जंबू द्वीप के जीवन-मूल्यों से मिलते ही नहीं थे, बल्कि जंबू द्वीप और इन इंडियन के जीवन-मूल्य एक ही थे। मुख्य बात थी धरती के प्रति दृष्टिकोण को लेकर। कोई भी समुदाय धरती से अपना संबंध किस रूप में जोड़ता है, यह उस समुदाय के जीवन-मूल्यों और संस्कृति को समझने में सबसे ज्यादा भूमिका अदा करता है। धरती से संबंध के दृष्टिकोण से ही प्रकृति से संबंध आता है। धरती और प्रकृति से संबंध के प्रति समुदाय की अवधारणा उसके जीवन-मूल्यों की नींव है। उत्तरी अमेरिका के इंडियन धरती को माँ मानते हैं। वे अभी भी अपने निवास क्षेत्रों में Mother Earth के बोर्ड लटकाते हैं। भारत में वेद ‘पृथ्वी माँ है और मैं इसका पुत्र हूँ’ से ही अपना गान शुरू करता है।
भारत में स्वास्तिक का चिह्न शुभ माना जाता है। यह ज्ञान का प्रतीक है। गणेशजी से जुड़ा हुआ है। उत्तरी अमेरिका के इंडियन की संस्कृति स्वास्तिक के बिना अधूरी है। उनके घरों में यह चिह्न देखने के लिए आम मिल जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में जब जर्मनी ने अपने टैंकों पर स्वास्तिक चिह्न लगाकर इसका दुरुपयोग किया और हजारों यहूदियों को निर्दयता से मार डाला, तो स्वाभाविक ही यहूदियों ने इस प्रतीक का विरोध करना शुरू कर दिया। सभी जानते हैं कि यू.एस.ए. की अर्थ व्यवस्था पर काफी हद तक यहूदियों का ही नियंत्रण है। इसलिए वहाँ के यहूदी इस शुभ प्रतीक का विरोध करते हैं। लेकिन इंडियन में स्वास्तिक के प्रति इतनी श्रद्धा है कि वे इस विरोध के बावजूद स्वास्तिक चिह्न का सार्वजनिक तौर पर प्रयोग ही नहीं करते, बल्कि उसके पक्ष में संघर्ष भी करते हैं। अकादमिक क्षेत्रों में मैक्सिको की माया संस्कृति को तो जंबू द्वीप या भारत की संस्कृति की छाया तक माना जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा कि उपनिवेशवादी ताकतों के आने से पहले के उत्तरी अमेरिका निवासियों को इंडियन, कोलंबस के आगमन की स्मृति में नहीं कहा जाता, बल्कि इनका मूल जंबू द्वीप/एशिया से जुड़ा हुआ होने के कारण यह नाम उनकी पहचान के रूप में प्रचलित है। जंबू द्वीप/एशिया की संस्कृति से इनके गहरे रिश्ते हैं।
३. उत्तरी अमेरिका के इंडियन का नरसंहार : यूरोप और अमेरिका के इतिहासकारों का तो मानना है कि जब यूरोप के लोग १५०० में उत्तरी अमेरिका पहुँचने शुरू हुए तो उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों को भ्रम में या अन्य कारणों से इंडियन कहना शुरू कर दिया। लेकिन अमेरिका में यूरोप की उपनिवेश बस्तियाँ कोलंबस के आगमन के तुरंत बाद ही बननी शुरू नहीं हुई थीं। इसकी असली शुरुआत तो तब हुई, जब कप्तान क्रिस्टोफर न्यूपोर्ट के तीन जहाजों ने अटलांटिक महासागर में भटकते हुए किसी दिन चीसापीक खाड़ी के मुहाने पर लंगर डाला। यह वर्ष १६०७ के अप्रैल मास के एक दिन की अलस्सुबह थी। इन जहाजों में एक युवक जार्ज पर्सी भी था। जार्ज पर्सी ने वहाँ के इंडियन का वर्णन करते हुए लिखा है कि “इंडियन ने नए आने वालों को खाने के लिए मक्के की रोटी और तंबाकू सुलगा कर दी, जिसे वे लोग मिट्टी की चिलम में भरकर ताँबे की निकाली से पिया करते थे।” १६०७ के बाद तो यूरोप के विभिन्न देशों से उत्तरी अमेरिका में आने वालों का ताँता लग गया। लेकिन अधिकांश लोग आज के इंग्लैंड से ही आए। परंतु उस समय यूरोपीय लोगों को इन इंडियन के बारे में ज्यादा खोजबीन करने की जरूरत नहीं थी। उस समय उनके सामने इंडियन को पराजित कर, उन्हें नियंत्रण में करने, गुलाम बनाने, उनकी जमीन पर कब्जा करने, उन्हें उनके आवास स्थानों से निकालने की समस्या थी। जिसमें उन्होंने जल्दी ही सफलता हासिल कर ली। उसके बाद इंडियन को उनकी विरासत से तोड़कर, उन्हें मतांतरित करने व उनकी मूल आस्थाओं, भाषाओं को नष्ट करने का दौर शुरू हुआ।
अब तक यूरोप के प्रवासियों ने उत्तरी अमेरिका के विशाल भू-भाग पर कब्जा कर लिया था और इंडियन को उन्हीं के घर में बेगाना घोषित कर दिया था। इस प्रकार उपनिवेशवादी इंडियन की ओर से निश्चिंत होकर बैठ गए थे, क्योंकि अब इंडियन संख्या बल में यूरोपीय लोगों से पिछड़ गए थे और उनके आधुनिक हथियारों का मुकाबला करने में अक्षम ही थे। १४९२ में जब कोलंबस आया था, तब उत्तरी अमेरिका में रहने वाले इंडियन की जनसंख्या पचास लाख से लेकर डेढ़ करोड़ के बीच कही जाती है। सन् १८०० के खत्म होते-होते यह जनसंख्या २,३८,००० के बीच सिमट गई। लेकिन “It has been almost fifty year since American scholar Henry Dobyns shocked the academic community with the proposition that the indigenous population of North America at contact with Europeans might have been 90 millions.” उपनिवेशवादियों ने अधिकांश इंडियन को अलग-अलग तरीकों से मार दिया और उनकी बस्तियों को नष्ट कर दिया। बैरी सी कैंट के अनुसार, “The history of Europeans and Indian confrontation is one of conflict between a highly evolved culture civilisation and an agglomeration of Stone Age societies. By and large, the Europeans used the Indians so long as it was economically advantageous; then they eventually dispersed or destroyed them.” कनाडा में तो गोरे लोगों ने इंडियन को मारने के नए-नए यूरोपीय तरीके ईजाद किए और उनका इस्तेमाल किया। इंडियन बच्चों को शिक्षित करने के लिए उनके लिए आवासीय स्कूल खोले गए। ये स्कूल सरकार द्वारा और चर्च द्वारा इंडियन बच्चों के लिए चलाए जाते थे। लेकिन इनमें अपने बच्चों को भेजना इंडियन के लिए वैकल्पिक नहीं था, बल्कि अनिवार्य था। यहाँ आ जाने के बाद इन बच्चों का क्या हश्र होता था? वहाँ उन्हें हजारों की संख्या में मारकर दबा दिया गया था। आज इक्कीसवीं शताब्दी में अभी तक भी खुदाई में वे सामूहिक कब्रिस्तान मिल रहे हैं, जहाँ उन बच्चों की हड्डियाँ भरी पड़ी हैं। कनाडा के आज के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो यह कहकर छुटकारा पाने की कोशिश कर रहे हैं कि “it was a painful reminder of a shameful chapter of our country's history”. लेकिन क्या उपनिवेशवादियों का व्यवहार इंडियन के प्रति अब भी बदला है या फिर यह शाब्दिक आडंबर मात्र ही है? यह सबसे बड़ा प्रश्न है। इसका उत्तर प्रो. जेम्स डासचुक देते हैं—“The gap between the health, living conditions and other social detriments of health life of First Nations (Indians) people and the mainstream canadians continues as it has since the end of the nineteenth century.”
४. इंडियन नाम बदलने का प्रयास और उसका उद्देश्य : नई खोजबीन से यह सामने आता गया कि उत्तरी अमेरिका के इंडियन धोखे या भ्रम के कारण इंडियन नहीं कहे जाते थे, बल्कि एशिया के मूल निवासी होने के कारण ही उन्हें इंडियन की संज्ञा प्राप्त हुई है। उत्तरी अमेरिका के इंडियन और जंबू द्वीप/एशिया के लोगों की सांस्कृतिक साँझ के बारे में खोजबीन होने लगी और दोनों में अनेक समानताएँ दिखाई देने लगीं। उनका ‘इंडिया दैट इज भारत’ के भारतीयों से मेल-जोल ही नहीं बढ़ने लगा, भाषाई समानताएँ भी तलाशी जाने लगीं तो उपनिवेशवादी शासकों और विद्वानों को ‘इंडियन’ शब्द को लेकर चिंता होने लगी। जंबू द्वीप/भारतीय संस्कृति और उत्तरी अमेरिका की इंडियन संस्कृति के सूत्र यदि आपस में मिलने लगे तो दोनों में एक नई साँझ विकसित हो सकती है। भविष्य की रणनीति को देखते हुए उन्हें लगने लगा कि इस शब्द से छुटकारा भी पाया जाए और इतना ही नहीं, इसे अपमानजनक भी बताया जाए, ताकि इंडियन स्वयं ही इस शब्द से छुटकारा पाने की कोशिश करें। लेकिन इंडियन के स्थान पर किस शब्द का प्रयोग किया जाए? यह प्रश्न इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो गया, क्योंकि उत्तरी अमेरिका में आज के भारत/इंडिया से भी लाखों की संख्या में लोग जाकर बस गए। इन्हें भी इंडियन ही कहा जाता है। ये दोनों इंडियन मिलकर उत्तरी अमेरिका में अपनी नई साझी सांस्कृतिक पहचान बना सकते हैं। इसलिए शुरू में यू.एस.ए. ने वहाँ के मूल निवासियों के लिए American Indian और आज के भारत से गए लोगों के लिए ईस्ट इंडियन शब्द प्रचलित करने का प्रयास किया। ईस्ट इंडियन में वे भारतीय भी शामिल थे, जो भारत से कीनिया, सूरीनाम इत्यादि देशों में गए थे और वहाँ से उत्तरी अमेरिका आकर बसे थे। लेकिन बाद में शायद सोचा होगा कि किसी ढंग से अमेरिका के मूल लोगों की पहचान के नाम से किसी भी तरह इंडियन शब्द को हटाया जाना चाहिए। तब वहाँ के मूल इंडियन के लिए native Americans शब्द को प्रचलित करने का प्रयास शुरू हुआ। इसके लिए aboriginals, indigenous कई शब्दों का प्रयोग भी शुरू किया गया।
सबसे पहले इन सभी शब्दों के अर्थ को समझना जरूरी है। aboriginal शब्द का क्या अर्थ है? कैंब्रिज शब्दकोश के अनुसार aboriginal का अर्थ member of a race of people, who were the first people to live in a country, before any colonists arrived है। अन्य शब्दकोशों में aboriginal के अनेक अर्थ हैं, लेकिन मोटे तौर पर सभी का एक ही भाव है, किसी देश या क्षेत्र में उपनिवेशवादी यूरोपीय लोगों के आने से पहले जो लोग रहते थे, जिनकी अपनी अलग भाषा और संस्कृति थी। indigenous शब्द का क्या अर्थ है? शब्दकोश के अनुसार indigenous का अर्थ, people inhabiting or existing in a land from the earliest times or from before the arrival of the colonists है। native Americans का अर्थ तो स्पष्ट ही है। अमेरिका महाद्वीप में यूरोपीय उपनिवेशवादियों के आने से पहले जो लोग रहते थे, वे Native American कहे जाते हैं। इसी प्रकार शब्दकोश में Native का अर्थ an original or indigenous inhabitant है। कुल मिलाकर aboriginals, native Americans, indigenous का अर्थ समान ही है। वैसे इन सभी को प्रगति की दौड में पिछड़े लोग भी कहा जाता है। यानी तथाकथित प्रगति की दौड में कुछ लोग आगे बढ़ गए, जो पीछे छूट गए, उनके लिए ये नए-नए शब्द ईजाद किए गए। इसलिए उत्तरी अमेरिका के परिप्रेक्ष्य में के सभी शब्द समानार्थी ही हैं।
गोरे उपनिवेशवादियों ने सबसे पहले इंडियन के लिए native Americans शब्द को चलाकर देखा। लेकिन इस शब्द के प्रचलन में सबसे बड़ी बाधा यही थी कि क्या उत्तरी अमेरिका में रह रहे उपनिवेशवादी यूरोपीय समुदाय के लोग, जो अब तक हर लिहाज से स्वयं को ‘अमेरिकी’ कहलाने लगे थे, इन इंडियन को सचमुच अपने बराबर के अमेरिकी मानने लगे थे? सांविधानिक दस्तावेजों में चाहे इसका जिक्र बार-बार किया जाता रहा और अब भी किया जा रहा है, लेकिन धरातल पर इंडियन उत्तरी अमेरिका में दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रह गए। यूरोपियों की स्थिति मालिक की हो गई थी। पंजाबी में मुहावरा है, “अग्ग लैण आई, घर दी मालिकन बन बैठी”। इस मुहावरा से अमेरिका में उपनिवेशवादी और इंडियन की स्थिति को बेहतर समझा जा सकता है। इसलिए इंडियन के लिए ‘नेटिव अमेरिकी’ ज्यादा देर चल नहीं सका। दरअसल यह शब्द ‘इंडियन’ का अपमान करने जैसा था। उसके बाद aboriginal शब्द का सहारा लिया गया। लेकिन यह शब्द भी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाया।
तब अंग्रेजी भाषा के शब्दकोश से एक दूसरा शब्द निकाला गया। यह शब्द indigenous था। इस शब्द का अर्थ ‘इंडियन’ को सही ढंग से पारिभाषित तो करता है, लेकिन इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरी अमेरिका में इंडियन को उन्हीं उपनिवेशवादी लोगों ने गुलाम बनाया, जो अब उनके शासक बन बैठे हैं। स्कूल में ही ‘इंडियन’ बच्चा सोचना शुरू कर देता है कि साथ बैठे गोरे बच्चे के पूर्वजों ने ही उन्हें गुलाम बनाया था। जब वही बच्चा बड़ा होकर काॅलेज पहुँचता है तो उसे अनुभव होने लगता है कि पूर्वजों के समय से चला आ रहा मामला खत्म नहीं हुआ, लेकिन अभी तक उसके साथ भेदभाव हो रहा है, जिसका वह प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा होता है। तब उसका ध्यान कोलंबस की ओर मुड़ता है, जिसने ‘इंडियन’ को गुलाम बनाने की शुरुआत की थी। परिणाम यह होता है कि जब पूरा उत्तरी अमेरिका ‘कोलंबस आगमन दिवस’ को राष्ट्र दिवस के तौर पर मनाने में मशगूल होता है तो इंडियन युवक कोलंबस की मूर्तियों को तोड़ना शुरू कर रहे होते हैं। इससे उत्तरी अमेरिका का उपनिवेशवादी समाज स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है। इसलिए यह जरूरी हो गया कि किसी तरह से इंडियन शब्द ही हटा दिया जाए और गोरे इस अमानवीय कलंक से भी मुक्त हो जाएँ। साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। लेकिन यह कैसे हो सकता था? इसका एक ही रास्ता था कि indigenous शब्द का साधारणीकरण कर लिया जाए। इसे अमेरिका के संदर्भ से निकालकर विश्व इतिहास के समग्र अध्ययन में कहीं-न-कहीं एडजस्ट कर लिया जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ में Indigenous Populations पर एक वर्किंग ग्रुप का गठन किया गया। ९ अगस्त, १९८२ को इस ग्रुप की एक महत्त्वपूर्ण बैठक बुलाई गई। इस बैठक में सबसे पहले तो इस बात को स्थापित किया गया कि दुनिया के हर देश में Indigenous लोग बसते हैं। उसके बाद चिंता प्रकट की गई कि इनकी हालत बहुत दयनीय है। जब एक बार पता चल गया कि हर देश में Indigenous लोगों की हालत दयनीय है, तो उसको सुधारना भी जरूरी था। अंत में संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा ने यह हालत सुधारने का बोझ अपने ऊपर ले लिया। यह कुछ-कुछ whitemen’s burden वाला मामला ही था। साधारण सभा ने यह हालत सुधारने का रास्ता भी निकाल लिया। रास्ता था कि ९ अगस्त को हर देश में ‘अंतरराष्ट्रीय Indigenous People दिवस’ मनाया जाए। स्वाभाविक ही यह प्रश्न भी उठा होगा कि इस मामले को लेकर ९ अगस्त की ऐतिहासिक महत्ता क्या है? इसका उत्तर तो तैयार ही था कि बारह साल पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्संबंधी वर्किंग ग्रुप की बैठक इसी दिन हुई थी। वैसे केवल रिकाॅर्ड के लिए क्रिस्टोफर कोलंबस Bahamas island में १२ अक्तूबर, १४९२ को पहुँचा था, जिसे स्थानीय इंडियन Guanahani कहते थे। कायदे से यदि अमेरिका के उपनिवेशवादियों को सचमुच प्रायश्चित्त करना था तो यह दिन १२ अक्तूबर को मनाया जा सकता था।
इससे अमेरिकी उपनिवेशवादियों को दो लाभ हुए। सबसे पहला तो यह कि किसी देश में Indigenous जनसंख्या का होना कोई अनहोनी बात नहीं है। जिस प्रकार नाॅर्थ अमेरिका में Indigenous लोग हैं, उसी प्रकार दुनिया के हर देश में Indigenous लोग हैं। यही कारण है कि दुनिया के सारे देश Indigenous People दिवस मनाते हैं। उपनिवेशवादियों ने प्रचारित किया कि Indigenous People मानवीय विकास यात्रा का एक स्वाभाविक पड़ाव हैं। इसमें अपमानजनक कुछ नहीं है। इंडियन को यह समझाया गया कि विश्व की मुख्य धारा में जुड़ने के लिए उत्तरी अमेरिका के Indian को स्वयं को Indigenous कहना चाहिए। यह गोरे उपनिवेशवादियों का अपने ऊपर लगे कलंक को मिटाने का दूसरा असफल प्रयास था। लेकिन इसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिली। कनाडा में रेगिना विश्वविद्यालय में kinesiology और स्वास्थ्य अध्ययन विभाग के प्रो. जेम्स डासचुक ने इंडियन को लेकर एक पुस्तक लिखी थी, जिसका नाम ‘Clearing the plains : Disease, politics of starvation, and the loss of aboriginal life’ था। २०१९ में पुस्तक का नया संस्करण छपा। इस बार प्रकाशक ने नाम में थोड़ा परिवर्तन कर दिया। उसमें aboriginal के स्थान पर indigenous कर दिया गया। प्रकाशक ने अपना स्पष्टीकरण देते हुए लिखा—“The change to the book’s subtitle, replacing the word aboriginal with indigenous, for instance, is to reflect the current preferred terminology where the publisher deemed it possible.”
परंतु कुछ समूहों द्वारा नाम बदलने के इन तमाम प्रयासों के बावजूद, जिन लोगों के बारे में हम चर्चा कर रहे हैं, वे स्वयं अपने आप को क्या कहते हैं? यह प्रश्न प्राथमिकता रखता है। इसका उत्तर इन मूल निवासियों पर, कोलंबस के आने से पूर्व और उसके बाद की स्थिति पर १४९१ और १४९३ नाम की दो पुस्तकें लिखने वाले चार्ल्स सी मैन ने दिया है। वे लिखते हैं—“Through out this book, I use the word ‘Indian’ to refer to the first inhabitants of the Americas. No question about this, Indian is a confusing and historically inappropriate name. Probably the most accurate descriptor for the original inhabitants of the Americas is Americans. Actually using it, though, would be risking worse confusion. In this book I try o refer to people by the names they call themselves. The overwhelming majority of the indigenous peoples whom I have met in both north and South America describe themselves as Indians.” लेकिन मूल प्रश्न यही था कि जब इंडियन एशिया के ही निवासी थे तो वे अपनी पहचान का सांस्कृतिक शब्द Indian क्यों त्यागें? यह प्रश्न भी किया जाता है कि जब ये लोग मूल रूप से जंबू द्वीप/एशिया के रहने वाले हैं तो नाम इंडियन ही क्यों? इसका उद्देश्य एक ही है कि यह घटना पंद्रह-बीस हजार साल पुरानी है। उन दिनों सांस्कृतिक लिहाज से यह वृहत्तर भारत ही था।
५. इंडियन के लिए नगरों के बाहर बस्तियाँ : गोरे उपनिवेशवादियों को लगता था कि एशिया/जंबू द्वीप मूल के ये इंडियन गोरे समाज में रहने के लिए ‘मिसफिट’ हैं। अत: इनको गोरे लोगों की बस्तियों से दूर उजाड़ में शिफ्ट कर दिया जाए। इसलिए इंडियन के रहने के लिए गोरों की बस्तियों से दूर स्थान निश्चित किए गए, जिन्हें ‘रिजर्वेशन’ का नाम दिया गया। इंडियन को जगह-जगह से लाकर इन रिजर्वेशन में पटक दिया गया। इन रिजर्वेशन में शुरू में तो जीवन की मूल सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं थीं। आज भी उनकी हालत तुलनात्मक दृष्टि से बेहतर नहीं कही जा सकती। इन रिजर्वेशन को यू.एस.ए. के विशाल क्षेत्रफल में छितरा दिया गया है, ताकि ये संगठित होकर अपने लिए अलग देश की माँग न कर सकें। यू.एस.ए. में संघीय सरकार से स्वीकृत इस प्रकार की ३२६ रिजर्वेशन हैं। इसी प्रकार कनाडा में भी रिजर्वेशन बने हुए हैं। यू.एस.ए. सरकार इनको अनुपयोगी मानकर समाज पर भार समझती है। उसका मानना है कि दया भावना से वशीभूत वह इनको मानवीय आधार पर पाल रही है।
६. इंडियन का पुनर्जागरण : लेकिन पिछले कुछ दशकों से इंडियन में जागृति आ रही है। इसे इंडियन का ‘पुनर्जागरण काल’ कहा जा सकता है। अपनी पहचान को बचाए रखने का प्रयास। ९/११ के बाद यू.एस.ए. का गोरा समाज अपनी अमेरिकी पहचान की तलाश करने में जुट गया, वहीं इंडियन समाज अपनी पुरानी पहचान को बचाने के प्रयास में पहले से ही लगा हुआ था। इंडियन समुदाय के कुछ लोग भी अब तक विश्वविद्यालयों में पहुँच ही गए हैं। उन्होंने अपनी विशिष्ट संस्कृति, भाषाओं और जीवन-मूल्यों को बचाने की पहल वहीं से शुरू की। इतना ही नहीं, इस इंडियन संस्कृति, भाषाओं और जीवन-मूल्यों को लेकर गोरे समाज ने इंडियन के मन में जो हीन भाव भर दिया था, उससे इंडियन समुदाय ने स्वयं को मुक्त करना शुरू कर दिया। इंडियन समुदाय अपने जीवन-मूल्यों को लेकर गोरे समाज के मुकाबले गौरव भाव अनुभव करने लगा। उसने अपने-अपने समुदायों को और भी गहरी निष्ठा से मनाना शुरू कर दिया। उसने स्वयं को संगठित करना शुरू किया, खासकर विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे इंडियन छात्रों। पैनसिल्वानिया विश्वविद्यालय के विधि विभाग के इंडियन छात्र Brooke Parmalee के अनुसार, “the glorification of Christopher Columbus is disturbing, and the destructive effects of the colonial era he ushered in continue to harm Indigenous communities to this very day.It’s frustrating to put him as discovering America when he discovered land where Natives were here hundreds of years before he was,” she says. “And beyond that, he enslaved and devastated the Native population. Hundreds of thousands of Natives were enslaved and killed due to his discovery process.”
दरअसल उत्तरी अमेरिका का इतिहास अभी तक उन शिकारियों ने ही लिखा था, जिन्होंने यहाँ के इंडियन का शिकार किया था। अब जिनका शिकार हुआ था, उन्होंने स्वयं अपना इतिहास लिखना शुरू कर दिया है। अब तक का इतिहास एक पक्षीय इतिहास था। चार्ल्ज सी मैन ने ठीक ही कहा, “many indigenous cultures had no writing, and so much of the information about them comes from the chronicles of the first Europeans who saw them. Colonial accounts are distorted by cultural myopia, to be sure, but they are still eyewitness descriptions of the other ways of life.” लेकिन मुख्य प्रश्न तो वही था कि इन उपनिवेशवादियों ने दूसरे पक्ष की जीवन-शैली को किस प्रकार समझा? उसी प्रकार का वर्णन इस तथाकथित इतिहास में मिलता है। इंडियन की जीवन-शैली को समझने की यह दृष्टि थी कि “केवल धनुष-बाण और गदा-कुल्हाड़ी से सज्जित, युद्धकला से कोरे, केवल मुठभेड़ में पारंगत, ये इंडियन अपने से अधिक कुशल, युद्ध संचालन कला में पारंगत, वे सैनिक शिक्षा से दक्ष शस्त्र सज्जित यूरोपीय लोगों के सामने खेत की मूली की तरह थे।” इसमें कोई शक ही नहीं कि यूरोपीय उपनिवेशवादी आधुनिक युद्ध कला के जानकार थे। लेकिन आखिर उनका इन इंडियन से क्या झगड़ा था। ये इस विशाल क्षेत्र में भी अपनी बस्तियाँ बसा सकते थे। लेकिन यूरोपीय उपनिवेशवादियों की जीवन-दृष्टि व जीवन-मूल्य इन इंडियन से अलग थे। इंडियन प्रकृति से तालमेल बनाकर चलने वाले लोग थे। प्रकृति से तारतम्य ही सुखद विकास का मूल है। यूरोपीय जीवन-मूल्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का है। प्रकृति को पराजित करने की लालसा। तभी उसकी दृष्टि में इंडियन की सबसे बड़ी कमजोरी थी कि “इसके अलावा इन लोगों ने कभी भी प्रकृति पर विजय प्राप्त करनी नहीं चाही। वे मुख्यत: शिकार व मछली मारकर ही निर्वाह करते थे।” यूरोपीय उपनिवेशवादी उस समय के इंडियन के बारे में क्या सोचते और समझते थे, शायद इसका अब तक कभी पता नहीं चला, क्योंकि उन्होंने कभी अपना पक्ष नहीं लिखा। लेकिन उसकी धुँधली छाया उस लोक-साहित्य और लोक-कथाओं में कहीं-न-कहीं मिल ही जाती है, जिसे इंडियन पीढ़ी-दर-पीढ़ी दोहराते और सुनाते रहते हैं।
लेकिन अकादमिक क्षेत्रों में एक दूसरी बहस भी तेजी से उभर रही है। कोलंबस के समय उत्तरी अमेरिका में बसे इंडियन क्या सचमुच पिछड़े हुए और बर्बर थे? अभी तक यूरोप और अमेरिका के इतिहास में इसी पर विश्वास करने के लिए कहा जा रहा है। सदियों की खोज और बहस के बाद अमेरिका और वहाँ बसने वाले इंडियन की एक नई तस्वीर सामने आ रही है। चार्ल्स सी मैन के अनुसार इंडियन के बारे में वह नई तस्वीर है कि वे “they were not nomadic, but built up and lived in some of the world’s biggest and most opulent cities. For from being dependent on big game hunting, most Indians lived on farms. Others subsisted on fish and shellfish.” इसका अर्थ यह हुआ कि इंडियन न तो असभ्य थे और न ही पिछड़े हुए। वे १५०० ई. से पहले ही एक विकसित सभ्यता और संस्कृति के धारक थे, लेकिन गोरे उपनिवेशवादियों ने विश्व भर में उनके बारे में झूठी धारणाएँ फैलाईं।
अब इंडियन के उठ खड़े होने से अमेरिका के इतिहास का वह दूसरा अध्याय खुल रहा है, जो अभी तक इंडियन की कब्रों में दबा पड़ा था, उनके श्मशान घाटों के वृक्षों पर छाया हुआ था। शिकार हुए लोगों में अपने इतिहास को लेकर जो जागृति आई है, उससे अमेरिका में गोरे उपनिवेशवादियों का नायक कोलंबस खतरे में पड़ गया है। इंडियन ने कोलंबस को लेकर जरूर ‘कोलंबस मुक्ति अभियान’ छेड़ दिया। यू.एस.ए. में कोलंबस के अमेरिका आगमन को राष्ट्रीय दिवस के तौर पर मनाया जाता है। वहाँ इसके लिए सार्वजनिक छुट्टी होती है। लेकिन इंडियन का कहना है कि कोलंबस का अमरीकी महाद्वीप में आना वहाँ के इंडियन के लिए गुलामी का दिन था। इसलिए यह सार्वजनिक छुट्टी रद्द होनी चाहिए और कोलंबस आगमन दिवस को राष्ट्रीय दिवस कहना बंद होना चाहिए। यू.एस.ए. सरकार इसके लिए सहमत नहीं हुई। तब इंडियन ने जगह-जगह पर लगे कोलंबस के बुतों का या तो मुँह काला करना शुरू कर दिया या फिर उनको तोड़ना शुरू कर दिया। कुछ विश्वविद्यालयों में इंडियन अध्ययन विभाग खुलने शुरू हुए।
(लेखक हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं।)
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