अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी की क्षमता हिंदी में एक अंतरराष्ट्रीय भाषा होने की पूर्ण क्षमता है। इस क्षमता की पहचान अगर नहीं की जाएगी तो हिंदी तकनीकी प्रगति की दौड़ में काफी पीछे रह जाएगी। अपने देश में लोग हिंदी के बारे में कितने ही उदासीन हों, किंतु जो विद्वान् भाषा के प्रवाह की गति को पहचानते हैं और जो भाषाविज्ञान के सामाजिक पक्ष के पंडित हैं, वे अच्छी तरह समझने लगे हैं कि बीसवीं शताब्दी का अंत होते-होते विश्व में कुछ दस भाषाएँ अंतरराष्ट्रीय महत्त्व की रह जाएँगी, जिनमें आपसी आदान-प्रदान सहज और स्वयंचालित बनाने के लिए यांत्रिकी सुविधाएँ सुलभ हो सकेंगी; उनमें हिंदी का प्रमुख स्थान होगा। इस निष्कर्ष पर जो पहुँचे हैं, वे सपनों के पीछे दौड़नेवाले प्रेमी नहीं हैं, वे वस्तुपरक दृष्टि से भाषा की क्षमता पहचाननेवाले भाषाशास्त्री हैं।
हिंदी भाषा-भाषी समुदाय विशाल है; किंतु उसे अपनी विशालता का ही अनुमान नहीं होता। हनुमान की तरह उसे स्मरण कराना पड़ता है कि तुम्हारे भीतर असीम शक्ति है। हिंदी के अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने की जिन आधारभूत परिस्थितियों का परीक्षण किया गया है, उनके बारे में संक्षेप में अपने ही लोगों को बतलाना आवश्यक हो गया है। हिंदीभाषी जन की सबसे बड़ी दुर्बलता यही है कि वह स्वाधीन होने के बाद भी धीरे-धीरे आत्मविश्वास खो बैठा है। उसे अपनी संस्कृति और अपनी भाषा के बारे में कुछ संकोच होने लगा है। वह सोचने लगा है कि कहीं क्षेत्रीय तो नहीं है, किसी की रग तो नहीं दुखा रही है, किसी का अधिकार तो नहीं छीन रही है, या फिर कहीं हिंदी प्रभुओं की भाषा बनने की प्रतिस्पर्धा तो नहीं कर रही है?
यह भूल गया है कि हिंदी और स्वाधीनता दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। हिंदी मुक्ति के लिए संघर्ष की भाषा रही है—और मुक्ति केवल अपने देश के लिए नहीं, उन समस्त देशों के लिए है जो उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और प्रभाववाद में जकड़े जा रहे हैं या जकड़े हुए हैं। यह स्मरणीय है कि अपने देश में अपनी भाषा रहनी चाहिए—यह आवाज उठाने की प्रेरणा सबसे पहले जिनके मन में उठी, वे हिंदीभाषी क्षेत्र के नहीं थे। यह बार-बार दुहराया गया सत्य है कि स्वामी दयानंद, राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्तर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, श्रद्धाराम फिल्लौरी, महात्मा गांधी—इनमें से किसी की भी मातृभाषा हिंदी नहीं थी; पर इन्हीं लोगों ने इस आवश्यकता का अनुभव किया कि इस विशाल देश के जन समुदाय के बीच एक संवाद स्थापित करने की आवश्यकता है और यह संवाद ऐसी भाषा से ही स्थापित हो सकता है जो संतों, फकीरों, यात्रियों, देश के एक छोर से दूसरे छोर तक जानेवाले व्यापारियों, दूर-दूर तक मुहिम पर जानेवाले सिपाहियों के आपसी व्यवहार की भाषा सदियों से रही हो। वे यह पहचानते थे कि यह भाषा किसी-न-किसी रूप में हिंदी थी। यह संगीत और कला पर भी छाई रही और बाजार पर भी छाई रही। उसके शब्दों में बँधे भक्तिपद आज भी देश-विदेश, सर्वत्र लोगों को शांति प्रदान कर रहे हैं।
स्वाधीनता के पहले दौर में अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों का काफी असर था; पर बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में स्वाधीनता की जो लहर उठी, उसमें यह अनुभव किया गया है कि जब तक यह जन-संघर्ष नहीं होगा, तब तक संघर्ष की बात केवल वाग्जाल बनकर रह जाएगी। चंपारण के आंदोलन के बाद पहली बार दूर अफ्रीका के वर्णभेद के खिलाफ सत्याग्रह की लड़ाई की दीक्षा लेकर गांधीजी जब साधारण जन से जुड़े तब उन्होंने समझा कि अंग्रेजी से काम नहीं चलेगा। देश की स्वाधीनता के लिए जो आवाज लगाई जाएगी, वह देश की भाषा में होगी। यह आवाज हर जलसे में इस रूप में लगाई जाती थी—
सब मिल बोलो एक आवाज,
अपने देश में अपना राज।
यह आवाज स्वदेशी की मंत्र बन गई और चरखे के साथ-साथ सारे देश में प्रचारित हो गई। भारत के अपने स्वाधीनता-संघर्ष के साथ-साथ अफ्रीका के मुक्ति आंदोलन में भी हिंदी सहायक हुई। भारतीय मूल के हिंदी भाषियों ने पूर्वी अफ्रीका, फीजी तथा मॉरीशस में दासता, वर्णभेद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध सिर उठाया। उसके सिर में सिर्फ एक चौपाई का टुकड़ा गूँज रहा था—‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’। उन्होंने ही हिंदी को भाषा बनाया और राजा के अधिकार को चुनौती दी। इस प्रकार हिंदी की पूजा, आधुनिक विश्व की जो सबसे महत्त्वपूर्ण चेतना थी—उपनिवेशवाद से मुक्ति और सामान्य जन की गरिमा की प्रतिष्ठा—उस चेतना की प्रमुख वाहिका बनी। इसका पहले का इतिहास भी विश्वबंधुता और सम्यक् जीवन की मूल्यवत्ता को पहचानने का इतिहास रहा। भक्ति आंदोलन में हिंदी की भूमिका एक संयोजक की भूमिका थी। उसने पूरे देश के भक्ति आंदोलन को एक-दूसरे से संयोजित करने का व्रत लिया था। हिंदी के संयोजक होने के कारण ही समस्त भारत के भक्ति आंदोलन का स्वर एक था। जाति-पाँति, धन-धर्म-कुल की बड़ाई बौनी हो गई थी; भक्ति इन सबको फूँक करके असीम आकाश को प्रकाशित करनेवाली लौ बनी। इस प्रकार से इस हिंदी ने जिस शक्ति की पहचान कराई उस शक्ति की विशिष्टता यही थी कि वह साधारण व्यक्ति की, विपन्न व्यक्ति की प्रसुप्त चेतना में विशालता के बीज बो रही थी। पूरा भक्ति आंदोलन जन-साधारण की शक्ति की खोज है। उस आंदोलन ने दिल्ली की सत्ता को, सामंतों की सत्ता को एक बड़ी सत्ता के आगे नगण्य बना दिया। उस बड़ी सत्ता का या तो कोई रूप नहीं था या उसका रूप एक गँवार चरवाहे का था या उसका रूप एक निर्वासित, एक जागरूक धनुर्धर का था। स्वाधीनता आंदोलन की यही जमीन थी, जो एक व्यापक देश और व्यापक जीवन की आकांक्षा से पुलकित थी। यह जमीन ऊँचाइयों को महत्त्व नहीं देती थी, नीचे की ओर बहनेवाली उस तेज और गहरी धार को महत्त्व देती थी, जो अपने साथ असंख्य छोटी-छोटी धाराओं को लेती हुई निरंतर चलती रहती थी।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में इस आध्यात्मिक विशालता को एक नया मानवीय आयाम दिया गया, जिसमें छोटे स्वार्थों की आहुति एक बड़े अर्थ के लिए देने की बात शुरू हुई। यह उल्लेखनीय है कि बिना किसी बाहरी प्रेरणा के एशिया की गरिमा की आवाज सबसे पहले सन् १९०१ में ही स्व. श्री राधाकृष्ण मित्र ने अपनी ‘एशिया’ कविता में बुलंद की। प्रवासी भारतीयों के दुःख-दर्द की बात हिंदी में ही उठाई गई है। भवानीदयाल, बनारसीदास चतुर्वेदी, तोताराम सनाढ्य और विष्णुदयाल ने प्रवासी भारतीयों के शोषण की ओर जिस भाषा में ध्यान दिलाया, वह हिंदी थी। इस प्रकार बिना किसी राजनीतिक संरक्षण के, बिना किसी सत्ता के आश्रय के सहजभाव से हिंदी की अंतरराष्ट्रीय दृष्टि का उन्मेष किया। इस उन्मेष में न कोई दुराव था, न कोई कपट था और न ही इसमें एक उद्धारकर्ता मसीहा का मसीहाई भाव ही था। इसमें केवल सेवा और समर्पण का भाव था। जिस विश्व-मानव की बात दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका से गुजरकर पश्चिम की मदोन्मत शक्तियों ने एक अपरिहार्य आवश्यकता के रूप में ली है, वह बात हिंदी में बहुत पहले दुःख की वास्तविकता से, करुणा की अनुभूति से उद्भासित हो चुकी थी। हिंदी के अंदर अंतरराष्ट्रीय भूमिका के लिए यह एक सशक्त आधार है। यह आधार अपने इतिहास से प्राप्त आधार, इसीलिए सुदृढ़ है। यह आरोपित या उधार लिया हुआ नहीं है। अधिकतर लोग समझते हैं कि संख्या का तर्क हिंदी को राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय महत्त्व दिलाने में एक प्रमुख कारण है; पर वे भूल जाते हैं कि संख्या का बल एक छोटा बल है; साहित्य की समृद्धता का आधार भी एक छोटा आधार है।
व्यापक स्तर पर ग्राह्य भाषा के रूप में उसकी मान्यता और शक्ति उसकी संख्या से नहीं आई है और न केवल उसके साहित्य के महत्त्व से आई है, वह शक्ति तीन कारणों से विकसित हुई। पहला कारण तो यही है कि वह सदियों से अंतःप्रांतीय व्यवहार की भाषा थी। इसी भाषा का व्यवहार जहाँ तीर्थों व व्यापारिक केंद्रों में होता था वहीं रमता जोगियों के सत्संग में भी होता था। यह भाषा बहता नीर थी। दूसरा कारण हिंदी की वह विरासत थी, जो उसने अप्रत्यक्ष रूप में संस्कृत से और प्रत्यक्ष रूप से मध्यदेशीय प्राकृत से ली; न संस्कृत का कोई प्रदेश था, न मध्य प्राकृत का। ये समस्त प्रदेशों को जोड़नेवाली भाषाएँ थीं। हिंदी भी इसी प्रकार की संस्कृत की तरह कें द्रोंमुख शक्ति की स्थापना करनेवाली भाषा रही। हिंदी भाषा का देश पूरा हिंदुस्तान है, कोई एक प्रांत या राज्य नहीं। हिंदी की शक्ति का तीसरा कारण है उसका जनभाषाओं से गहरा संबंध। हिंदी क्षेत्र में लगभग अठारह जनभाषाएँ हैं और इस क्षेत्र के व्यक्ति एक विचित्र प्रकार के द्विभाषा-भाषी हैं। ये बहुत निजी पारिवारिक परिवेश में एक भाषा बोलते हैं और एक व्यापक परिवेश में दूसरी भाषा। इस प्रकार दोनों को साधते चलते हैं; क्योंकि दोनों के प्रयोजन महत्त्वपूर्ण हैं—एक सीमित क्षेत्र की आत्मीयता और एक बड़े क्षेत्र के होने का भाव। हिंदीभाषी जन इसमें से किसी का मोह छोड़ नहीं सकता; इसीलिए वह निरंतर संतुलन बनाए रहता है। वह जनपद जीवन का संस्पर्श देता है। साथ ही पूरे देश की भावना को महत्त्व देता है—जनपद की भाषा से। यह आकस्मिक संयोग मात्र नहीं है कि हिंदी में तद्भव और तत्सम शब्दों का संतुलन है। वह हिंदी में निरंतर सामान्य जीवन से लेने तथा उन्हें जीवन में ढालने की क्षमता देता है और उसके साहित्य में छोटे-छोटे ग्रामांचल की पीड़ा को अंकित करने की तीव्र आकांक्षा भरता है।
दूसरी ओर हिंदी की बोलियों के लोक-साहित्य तथा लोक-गायकों के साहित्य में सबसे अधिक मुखरता राष्ट्रीय चेतना की है। अवधी, भोजपुरी, बुंदेली, गढ़वाली, छत्तीसगढ़ी, कौरवी, राजस्थानी—किसी भी क्षेत्र को लीजिए, प्रत्येक में राष्ट्र की एक मूर्त कल्पना है, उसके लिए न्योछावर होने का अपूर्व उत्साह है इस आदान-प्रदान के कारण। इस लोक और शास्त्र के बीच, लघु और विशाल के बीच, ग्राम और महानगर के बीच आदान-प्रदान कराते रहने के कारण ही हिंदी एक जीवंत भाषा के रूप में विकसित होती रही है। उसने निरंतर कृत्रिम रूप से जड़ाऊ भाषा रूपों का तिरस्कार किया है, ‘भदेस की भनिति’ का आश्रय लेकर निरंतर नई ऊर्जा पाई है। आज के जमाने में किंग्स इंग्लिश और क्वींस इंग्लिश की बात उपहासास्पद हो गई है। जब सत्ता का नियमन इने-गिने सामंतों, सरदारों या मैंडरिनों (अफसरशाहों) के हाथों में नहीं रह गया है, सत्ता का स्रोत अनाम और असंख्य जनता हो गई है, तब सामाजिक मान्यता का आधार बदल गया है और इस बदली हुई परिस्थिति में हिंदी भाषा का एक रूप अपने आप प्रतिष्ठापित हो गया है। विगत पचीस वर्षों में जितनी द्रुतगति से इसमें परिवर्तन हुए हैं उतना परिवर्तन आधुनिक विश्व की कम भाषाओं में हुआ है। परिवर्तन की यह तेजी ही हिंदी की सजगता और ऊर्जस्विता का प्रमाण है। यह तेजी ही उसे अंतरराष्ट्रीयता प्रदान करने का एक पुष्ट आधार है।
अब तक मैंने जिन आधारों की बात की है, वे मुख्य रूप से सामाजिक तथा सांस्कृतिक आधार हैं। अब हिंदी भाषा की संरचना की विशेषताओं की बात करना चाहूँगा, जो हिंदी को इस तकनीकी युग में व्यापक रूप में ग्राह्य बनाने में प्रयोजक बन सकती हैं। इस भाषा की संरचना की तीन विशेषताएँ ऐसी हैं, जो इस दृष्टि से बहुत महत्त्व रखती हैं। पहली विशेषता यह है कि हिंदी विश्लेषात्मक और संश्लेषात्मक दोनों है। न चीनी भाषा की तरह एकदम विश्लेषात्मक है और न ग्रीक व संस्कृत की तरह बहुत संश्लेषात्मक। इसमें दोनों के बीच एक संतुलन है; इसीलिए अर्थ की अस्पष्टता और संदिग्धता की गुंजाइश कम है। यांत्रिक अनुवाद की सुविधा की दृष्टि से यह गुण बहुत उपयोगी है। इसकी संरचना की दूसरी विशेषता है इसकी शब्द रचना की क्षमता। इसमें यह अंग्रेजी से किसी माने में कम नहीं है। इसमें विभिन्न भाषाओं से उधार लिये शब्दों को, यहाँ तक कि प्रत्ययों को (दार-इयत्-इक जैसे) भी अपनी प्रकृति में ढाल देने की क्षमता है। इसके कारण सूक्ष्म अर्थच्छटाओं को व्यक्त करने की, पारदर्शी ढंग से व्यक्त करने की क्षमता का विकास हिंदी में हुआ है। हिंदी को संस्कृत का एक अक्षय स्रोत प्राप्त है; पर वही एक स्रोत नहीं है, उसी स्रोत से उद्भूत लाखों की संख्या में तद्भव शब्द भी उसके पास हैं। ये अनेक रूपांतरों के बावजूद किसी-न-किसी रूप में हिंदी में मानकीकृत हो गए हैं और इनमें ऐतिहासिक यात्रा के कारण नए अर्थ के वहन की क्षमता आ गई है।
यह अवश्य है कि हिंदी की शक्ति की पूरी पहचान हमारे देश में भाषा-योजना के आचार्यों ने नहीं की। उन्होंने ऊपर से तो जरूर कहा कि हम संस्कृत के शब्दों के तथा प्रत्ययों के आधार पर नए शब्द गढ़ेंगे, किंतु उन्होंने संस्कृत का आधार न लेकर, अंग्रेजी का आधार लिया। उन्होंने अंग्रेजी के अर्थों को संस्कृत में खोल दिया। अपने आस-पास के समाज में अर्थों की तलाश नहीं की। इन अर्थों को समझनेवाले मजदूरों, किसानों, मिस्त्रियों, शिल्पियों, व्यवसायियों के प्रयोग को मापने की कोशिश नहीं की। उन्होंने प्रयोग लादना चाहा, जीवित प्रयोगों की पैमाइश नहीं की। एक सीमित रूप में यह काम शुरू हो गया है और यह आशा की जाती है कि अंग्रेजी की साजिश के बावजूद जनतंत्र के दबाव के कारण आगे का जो भाषा-नियोजन होगा, वह सही ढर्रे पर होगा; शब्द रचना की पूरी क्षमता का भरपूर विनियोग होगा।
हिंदी की संरचना की तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी वर्णमाला है। इसी के साथ-साथ लिपि जुड़ी हुई है, जो इस वर्णमाला को लिखने का देवनागर ढंग अक्षर को महत्त्व देती है, एक ध्वनि को नहीं। अक्षर को महत्त्व देने से इकाइयों की संख्या कम हो जाती है। जब विद्युत्यांत्रिकी, सांख्यिकी, भाषाविज्ञान, संगणन-गणित और इंजीनियरिंग—ये सभी मिलकर एक टीम के रूप में काम करेंगे और पुनरावृत्तियों के आरोह-अवरोह क्रम की ठीक तरह से नाप-जोख लेंगे तो हिंदी की अक्षरप्रधान संरचना को यंत्र में ढालना काफी सुकर होगा, अधिक सुगम होगा—उन संरचनाओं की अपेक्षा जहाँ पर ध्वनि अनुभाव्य इकाई है। हम इस क्षेत्र में जापानी का उदाहरण दे सकते हैं। जापान ने अपनी प्रौद्योगिकी का विकास अंग्रेजी के माध्यम से नहीं किया और बहुत कम समय में उन्होंने जापानी भाषा में संगणक (कंप्यूटर)—और बहुत सूक्ष्म और कुशल संगणक—बना लिए हैं। कोई कारण नहीं कि हम भी वैसा पाँच-दस वर्षों में न कर सकें।
संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार कराने में सक्रिय तटस्थता की नीति भी सहायक होगी। एक ऐसे समूह को साथ ले चलने का संकल्प हमारी विदेश नीति में है, जो समूह किसी एक गुट का पिछलग्गू बनकर नहीं रहना चाहता; जो अपनी स्वाधीनता सुरक्षित रखना चाहता है, पर साथ-ही-साथ एक संहत शक्ति का उदय भी चाहता है। इस समय यह अधिक शक्तिशाली न लगे, पर ज्यों-ज्यों बड़ी शक्तियों का उन्माद बढ़ेगा त्यों-त्यों इन देशों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती जाएगी। शस्त्रबल उस विवेक के आगे, आत्मबल के आगे झुकने लगेगा। उस समय ऐसी राजनीति का नेतृत्व करनेवाले हिंदुस्तान की भाषा की उपेक्षा नहीं की जा सकेगी। आर्थिक शिकंजावाद भी अंततः शिकंजा कसनेवालों के लिए संकट बनेगा; तब उस शिकंजे की भाषा भी ढीली पड़ेगी। वह अफ्रीका-एशिया की उदार और विश्वबंधु-भाषाओं को अपने समकक्ष स्वीकार करेगी। शायद आगे आनेवाले बाजार का यथार्थ ही उसे विवश करेगा।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि हिंदी की अंतरराष्ट्रीय भूमिका एक स्वप्न नहीं है, नए विश्व मानव की एक माँग है और आनेवाले भविष्य की एक जाज्वल्यमान वास्तविकता है। परंतु यह वास्तविकता केवल गर्व करने और आत्म-संतुष्ट होने के लिए नहीं है। यह प्रतिष्ठा का बोध जगाने और उस प्रतिष्ठा के अनुकूल एक बड़ी चुनौती स्वीकार करने का आमंत्रण देती है। हिंदीभाषी जन स्वाती की प्रतीक्षा न करें, वे अपने तप के ताप से स्वयं को बादल के रूप में रूपांतरित करें। धरती को हिंदी के पावस की प्रतीक्षा है।