उत्तर प्रदेश में हिंदी के पच्चीस वर्ष

उत्तर प्रदेश में हिंदी के पच्चीस वर्ष

स्वतंत्रता की इस रजत जयंती के अवसर पर उत्तर प्रदेश ने इस अवधि में हिंदी के लिए जो कुछ किया और जो काम करना शेष है, उसका लेखा-जोखा लेना मनोरंजक ही नहीं, दुखदायी भी है। उत्तर प्रदेश भारत का हृदय-प्रदेश है। यह हिंदी का गढ़ है। अतएव यहाँ जो होता है, उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव सारे देश में पड़ता है। संसद् में सबसे अधिक सदस्य इसी राज्य के हैं। अभी तक उत्तर प्रदेश ने एक राष्ट्रपति भारत को दिया है तथा अभी तक तीनों प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश ही ने दिए हैं। इसका सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व देश के लिए महत्त्वपूर्ण है। बदरीनाथ, काशी, प्रयाग, मथुरा, अयोध्या, नैमिषारण्य, चित्रकूट आदि प्राचीन धार्मिक केंद्र यहीं हैं। यहीं भगवान् कृष्ण, भगवान् राम और भगवान् बुद्ध हुए। बुद्ध ने यहाँ अपना धार्मिक प्रवर्तन किया, यहीं उनका निर्वाण हुआ। हस्तिनापुर कौशांबी, कान्यकुब्ज, मथुरा, आगरा, लखनऊ, जौनपुर, फतेहपुर सीकरी; प्राचीन राजधानियाँ यहीं हैं। गंगाजी और जमुनाजी यहाँ से निकलती हैं। नैमिषारण्य में पुराणों का निर्माण हुआ। सम्राट् हर्ष और अकबर यहीं हुए। समुद्रगुप्त ने अपना राजसूय यज्ञ यहीं (प्रतिवान प्रयाग झूँसी) किया। सूर, तुलसी, कबीर ऐसे संतकवि और प्रथम राष्ट्रकवि भूषण यहीं हुए। देश की संस्कृत और साहित्य के क्षेत्रों में उत्तर प्रदेश का योगदान बहुमुखी है। इसका संगीत, इसका कत्थक नृत्य सारे देश में समादृत है। शतियों तक ब्रजभाषा गुजरात आदि पंजाब से बंगाल की सीमा तक उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा रही और जो हिंदी हमारे संविधान में राजभाषा के रूप में स्वीकार की गई, वह भी उत्तर प्रदेश ही की उपज है। आधुनिक युग में उत्तर प्रदेश ने महामना मालवीय, पं. मोतीलाल नेहरू, पं. जवाहर लाल नेहरू, सर तेजबहादुर सपू्र, पंडित सुंदरलाल, डॉ. भगवानदास, श्री श्रीप्रकाश, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, पं. गोविंद वल्लभ पंत, श्री लालबहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री कैलाशनाथ काटूज जैसे नेता दिए। सारांश यह कि यदि देखा जाए तो परम प्राचीनकाल से आज तक उत्तर प्रदेश अपनी भौगोलिक स्थिति और ऐतिहासिक महत्त्व के कारण सारे देश को अनुप्राणित करता रहा है। अतएव जो कुछ यहाँ होता है, उसका प्रभाव सारे देश पर पड़ता है। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए यहाँ जो कुछ किया जाता है या किया जाएगा, इसका प्रभाव सारे देश पर पड़ेगा। यदि स्वतंत्रता के बाद उत्तर प्रदेश आग्रहपूर्वक अपने यहाँ हिंदी को पूर्णरूप से राजभाषा के रूप में चला लेता तो शायद देश में आज हिंदी की स्थिति कुछ और ही होती। कई वर्ष पूर्व मुझसे मद्रास में वहाँ के एक नेता ने कहा था कि जब आप हिंदीभाषी उत्तर प्रदेश के लोग राजकाज में अपनी भाषा को नहीं चला पाते, तब हम अहिंदी भाषा-भाषियों से क्यों अपेक्षा करते हैं कि हम उसमें अंतरभारतीय कार्य हिंदी में करने लगेंगे। मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं था। इस प्रकार उत्तर प्रदेश के कामकाज, व्यापार और शिक्षा में हिंदी का उपयोग सारे देश की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। हमें खेद है कि हमने इन २५ वर्षों में अपने राज्य में हिंदी का प्रचार नहीं किया, जैसा हम कर सकते थे और जिसकी हमसे अपेक्षा की जाती थी।

किंतु यह बात नहीं है कि इस अवधि में कुछ काम हुआ ही नहीं। श्री गोविंद वल्लभ पंत की सरकार ने तत्कालीन चीफ सेके्रटरी श्री भोलानाथ झा के परामर्श से सरकारी कार्यालयों को हिंदी में अधिकाधिक कार्य करने के आदेश दिए थे। बाद में विधानसभा ने एक अधिनियम बनाकर देवनागरी में लिखित हिंदी को राज्य की राजभाषा बना दिया और इसके लागू करने के लिए सरकार ने अनेक आदेश जारी किए। यदि इन आदेशों का पालन होता तो आज से पंद्रह-सोलह वर्ष पूर्व ही राज्य का सारा काम हिंदी में होने लगता। किंतु इन आदेशों का जैसा चाहिए, वैसा पालन नहीं हुआ। श्री चंद्रभानु गुप्त और चौधरी चरण सिंह ने मुख्यमंत्री होने पर हिंदी के उपयोग के लिए अधिकारियों को विशेष आदेश दिए, किंतु उनका पालन भी नहीं हो पाया। इधर जब से वर्तमान मुख्यमंत्री श्री कमलापति त्रिपाठी ने कार्यभार सँभाला है, तबसे हिंदी के उपयोग में विशेष गति आई है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने राजकाज में हिंदी का उपयोग अधिकाधिक करने के प्रयत्न के अतिरिक्त निम्नलिखित कार्य किए—

१. विपतावस्था में पड़े हिंदी साहित्यकारों को मासिक वृत्ति और बीमारी आदि के लिए विशेष सहायता की व्यवस्था। यह कार्य स्व. डॉ. संपूर्णानंदजी ने किया।

२. हिंदी में ऐसे उच्च साहित्य के प्रकाशन के लिए, जिसे सामान्य प्रकाशक निकालना लाभकर नहीं समझते। हिंदी समिति की स्थापना, जिसने अब तक प्रायः दो सौ उच्चकोटि के प्रकाशन किए हैं और जिनका मूल्य उनके आकार को देखते हुए बाजार के मूल्यों से कम है। इससे हिंदी में अनेक विषयों पर उच्चकोटि की पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन हुआ।

३. प्रत्येक वर्ष के हिंदी प्रकाशनों के लिए नकद पुरस्कार देने की योजना प्रत्येक वर्ष औसत से चालीस हजार रुपए हिंदी लेखकों को पुरस्कार में दिए जाते हैं।

४. उन महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के प्रकाशन के लिए अनुदान की व्यवस्था, जिन्हें सामान्य प्रकाशक अनुपयोगी समझकर समय पर प्रकाशित करने को तैयार नहीं होते।

५. हिंदी के एक वरिष्ठ साहित्यकार को प्रति दूसरे वर्ष दस हजार रुपए का पुरस्कार उसके संपूर्ण कृतित्व और हिंदी-सेवा के लिए देने की व्यवस्था।

६. शिक्षा प्रसार विभाग द्वारा ग्रामीण पुस्तकालयों के लिए हिंदी पुस्तकों की खरीद। पहले एक लाख रुपए से ऊपर की पुस्तकें खरीदी जाती थीं, किंतु अब प्रायः चालीस हजार की ही पुस्तकें ली जाती हैं।

७. पुस्तकालयों को अनुदान—उत्तर प्रदेश सरकार प्रायः ३०० पुस्तकालयों को अनुदान देती है। इनमें २०० पुस्तकालय पूर्णतः या मुख्यतः हिंदी के पुस्कालय हैं।

८. हिंदुस्तानी एकेडमी आदि संस्थाओं को अनुदान।

९. इस वर्ष सरकार ने इस नई योजना का श्रीगणेश किया है, जिसके अनुसार इस वर्ष दस लाख रुपए की उत्कृष्ट हिंदी पुस्तकें खरीदी जाएँगी।

ये योजनाएँ बहुत उपयोगी हैं, किंतु कुछ त्रुटियाँ भी हैं। पहली बात तो यह है कि अंतिम योजना को छोड़कर (जो इसी वर्ष आरंभ हुई है) इन योजनाओं के लिए इस राज्य के सरकार और साहित्यिक गतिविधि को देखते हुए बहुत कम धनराशि दी जाती है। उदाहरण के लिए १९३८-३९ ई. में जब उत्तर प्रदेश का बजट २५-३० करोड़ का था, तब शिक्षा प्रसार विभाग द्वारा एक लाख बीस हजार की पुस्तकें खरीदी जाती रहीं, किंतु जब राज्य का बजट ५०० करोड़ है, तब यह राशि अनुपात से बढ़ने के बजाय घटाकर चालीस हजार कर दी गई है। यदि अंतिम योजना को छोड़ दिया जाए (जो इस वर्ष आरंभ की है और जिसके जारी रहने का निश्चय नहीं है) तो जिस सरकार का बजट ५०० करोड़ के लगभग है और हिंदी की इन योजनाओं पर सब मिलाकर ४-५ लाख से अधिक व्यय नहीं करती। यह राशि उस विशाल राज्य के लिए (जो हिंदी का केंद्र है) अल्प है और उसकी आवश्यकता के लिए बहुत कम है। पुस्तकों के प्रकाशन (उपर्युक्त सं. ४) के लिए केवल बारह-तेरह हजार रुपए ही दिए जाते हैं, जिनसे आठ-दस पुस्तकों की लागत का बहुत-थोड़ा अंश दिया जाता है। प्रत्येक वर्ष पचास-साठ पुस्तकों के लिए अनुदान माँगा जाता है। रुपए की कमी के कारण बहुत महत्त्वपूर्ण पूस्तकों का अनुदान नहीं मिल पाता और वे प्रकाशित नहीं हो पातीं। यहाँ के प्रकाशनों को देखते हुए पुरस्कारों की संख्या भी कम है। इस प्रकार विपन्न और वृद्ध साहित्यकारों को ५० रुपए मासिक से १५० मासिक तक वृत्ति दी जाती है। मध्य प्रदेश सरकार ५०० मासिक तक की वृत्ति देती है। आजकल की भीषण महँगाई के युग में ५०/६० या १०० रुपए मासिक किसी साहित्यकार के जीवनयापन के लिए अपर्याप्त हैं। यही कारण है कि इन सरकारी योजनाओं से हिंदी का जो हित होना चाहिए, वह नहीं हो पाता। यदि सरकार वास्तव में चाहती है कि उसकी सहायता से हिंदी का सचमुच संवर्धन हो और उसके अनुदानों से हिंदी साहित्यकारों को वास्तव में कार्य करने का प्रोत्साहन मिले तो उसे इन अनुदानों की राशि बढ़ानी चाहिए। ५०० करोड़ के बजट वाली सरकार के लिए राज्य की राजभाषा और मातृभाषा के लिए ५० लाख वार्षिक खर्च कर देना कोई बड़ी बात न होगी।

हिंदी समिति के संबंध में हम कम जानते हैं, क्योंकि वह सूचना विभाग का अंग है और उसमें अधिकांश व्यय कर्मचारियों के वेतन पर होता है। यदि वह स्वायत्तशासी संस्था होती तो उसमें सरकारी कर्मचारी  न होते और उसके व्यय का इतना अनुपात कार्यालय पर व्यय न होता। उस पर जो व्यय होता है, उसका एक अंश ही हिंदी के संवर्द्धन पर व्यय होता है।

राजकाज में हिंदी के उपयोग की गति बहुत धीमी रही। उसके ही कारण थे—एक तो मंत्रियों की उदासीनता और संकल्प की कमी और दूसरा, उच्च अधिकारियों का अंग्रेजी के प्रति मोह और अंग्रेजी में काम करने का अभ्यास। हमने देखा है कि जब कोई मंत्री अपने विभाग में हिंदी चलाने का आग्रह करता है, तब उसमें हिंदी चलने लगती है। उदाहरण के लिए जब श्री कमलापति त्रिपाठी शिक्षा मंत्री थे, तब सचिवालय तथा निदेशालय में हिंदी चलने लगी थी, किंतु उनके वहाँ से जाने के बाद उसका उपयोग कम हो गया। इसी प्रकार संविद सरकार में श्री रामस्वरूप वर्मा जब वित्त मंत्री हुए तो उन्होंने वित्त विभाग में आग्रहपूर्वक कड़ाई से हिंदी चलवाई। यह बात नहीं कि अधिकांश मंत्री हिंदी प्रेमी नहीं हैं। वे हिंदी प्रेमी हैं और चाहते भी हैं कि सब काम हिंदी में हो, किंतु संकल्प की दृढता के अभाव में वे हिंदी को पूरी तरह से चला नहीं पाते। इस समय मुख्यमंत्री हिंदी के उपयोग पर जोर देते हैं। इसलिए सरकार में बहुत काम हिंदी में होने लगा है। यदि त्रिपाठीजी कुछ वर्ष इस पद पर बने रहे तो सचिवालय तथा विभागाध्यक्षों के कार्यालयों में लोगों को हिंदी काम करने के अभ्यास की पुष्टि हो जाएगी और तब उन्हें फिर से अंग्रेजी में काम करना कठिन हो जाएगा।

सबसे पहले उत्तर प्रदेश में किस संस्था का पूर्ण हिंदीकरण हुआ और अब तक बना हुआ है, वह है विधानमंडल। सौभाग्य से प्रथम स्पीकर राजर्षि पुरुर्षोत्तमदासजी टंडन थे। वे दृढ संकल्प के व्यक्ति थे और जब विधानसभा ने अपना सारा कार्य हिंदी में करने का निश्चय किया, तब राजर्षि ने निर्ममता से उसका पालन किया। वे इतने दिनों स्पीकर रहे, उन्होंने विधानमंडल में केवल हिंदी के उपयोग की परंपरा इतनी दृढ कर दी कि उनके उत्तराधिकारियों को उसे बनाए रखने में कोई कठिनाई नहीं हुई। इसमें विधायकों का अधूरा सहयोग मिला। जब कभी सरकारी असावधानी से कोई कागज अंग्रेजी में प्रस्तुत किया जाता तो अनेक विधायक आपत्ति उठाकर उसे पेश न होने देते। हमारी विधानसभा में हिंदी का संपूर्ण उपयोग होता है। इसलिए विभिन्न मंत्रालय को विवश होकर वह सब कागज हिंदी में तैयार करने पड़ते, जो विधानसभा में रखे जाते। यहाँ तक कि वित्त विभाग को बजट भी हिंदी में तैयार करना॒पड़ा।

दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह हुई कि सरकारी कार्यालयों में जो कागजात और रजिस्टर फारसी लिपि में लिखे जाते थे, वे अब सर्वत्र देवनागरी लिपि में लिखे जाने लगे हैं।

तीसरी बड़ी उपलब्धि यह हुई कि पुलिस थानों में जो रपट (रिपोर्ट) उर्दू या अंग्रेजी में लिखी जाती थी, वह अब हिंदी में लिखाई जाती है। थाने के कागज और रजिस्टर भी हिंदी में हो गए हैं।

पुलिस कांस्टेबलों के कंधे पर जो पीतल के बिल्ले पहले अंग्रेजी में थे, उनका हिंदीकरण हो गया है, पर पुलिस अधिकारियों के बिल्लों में अभी परिवर्तन नहीं हुआ।

जिलों के, सभी विभागों के कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग होने लगा है। किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसे विभाग, जो स्वास्थ्य सिंचाई, लोकनिर्माण आदि के अधिकारी अपनी अधिकांश लिखा-पढ़ी हिंदी में करते हैं। अभी भी कितने ही अर्द्धशासकीय पत्र अंग्रेजी में भेजे जाते हैं। सरकार ने कई बार आदेश निकाले कि तार हिंदी में भेजे जाएँ, किंतु इनका केवल अंशतः पालन होता है। पुलिस का वायरलेस और नहर विभाग का अपना तार विभाग प्रायः अंग्रेजी में ही संदेश भेजते हैं।

आरंभ में अधिकारियों ने हिंदी में काम करने में अरुचि दिखलाई। यद्यपि हिंदी में काम करने के आदेश चीफ सेक्रेटरी की शाखा में निकलने थे, तथापि उसका काम प्रायः अंग्रेजी में होता था। अन्य अधिकारी भी अंग्रेजी ही में टिप्पणी, आदेश और अर्द्धशासकीय पत्र लिखते। इनमें से कितने ही अधिकारी अच्छी हिंदी जानते थे, किंतु वे भी अंग्रेजी ही में काम करते थे। एक बड़ी कठिनाई हिंदी टाइपराइटरों की कमी बताई जाती थी। प्रायः १५ वर्ष पूर्व जब जिलों के पुनगर्ठन के लिए श्री दास को विशेषाधिकारी बनाया गया, तब उनके सामने भी यह प्रश्न आया। उन्होंने प्रत्येक जिले को कुछ नए टाइपराइटर देने की सिफारिश की। चाहिए तो यह था कि हिंदी संबंधी सरकारी आदेशों के पालनार्थ जिलों में नए टाइपराइटर हिंदी के दिए जाते, क्योंकि वे या तो उनमें थे ही नहीं या नाम मात्र को। किंतु श्री दास ने सिफारिश की कि कलेक्टरों पर छोड़ दिया जाए कि वे हिंदी के टाइपराइटर चाहते हैं या अंग्रेजी के। सरकार ने यह सिफारिश मान ली और यह जानकर आश्चर्य होता है कि हिंदीभाषी राज्य के उस समय पूरे जिलों में से एक भी कलेक्टर ने हिंदी के टाइपराइटर नहीं माँगे। यह एक घटना ही अधिकारियों के हिंदी के प्रति रुख को बतलाने के लिए पर्याप्त है। अतएव मंत्रियों की ‘नरम’ नीति और अधिकारियों के प्रत्यक्ष असहयोग के कारण हिंदी की जैसी प्रगति होनी चाहिए, वैसी इस राज्य के राजकाज में नहीं हुई।

एक और क्षेत्र है, जिसमें हिंदी का उपयोग बहुत महत्त्वपूर्ण है। भारत सरकार का आदेश है कि यदि हिंदी में पत्र आएँ तो उनका उत्तर हिंदी में दिया जाए। किंतु सामान्यतः आज से चार-पाँच वर्ष पूर्व तक अधिकांश पत्र यहाँ से भारत सरकार को अंग्रेजी में भेजे जाते थे। इसमें आज कितना परिवर्तन हुआ है, उसका हमें ज्ञान नहीं। जब उत्तर प्रदेश ही भारत सरकार से अंग्रेजी में पत्र-व्यवहार करे तो भारत सरकार को अंग्रेजी में काम करने के लिए दोषी ठहराने का हमारा इरादा नहीं है।

किंतु इधर पाँच-छह वर्षों में जो नए अधिकारी सचिवालय तथा विभागों में आए हैं, वे पुराने नौकरशाहों से कुछ भिन्न हैं और अब उन्हें अंग्रेजी का इतना मोह नहीं है, जितने पुराने नौकरशाहों को था। किंतु फिर भी अंग्रेजी का सम्मान अभी भी नौकरशाही में है, जिसके लिए केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारें दोनों दोषी हैं। यदि मंत्रिगण हिंदी में काम करने का आग्रह करते रहे तो अब अधिकांश अधिकारी ऐसे हैं, जो हिंदी कार्य की प्रगति में अवरोध नहीं करेंगे।

आज २५ वर्ष में उत्तर प्रदेश ने अपने राजकाज में हिंदी का उपयोग बहुत कर दिया है। कुछ विभाग तो ऐसे हैं, जिनका प्रायः संपूर्ण काम हिंदी में होता है, जैसे पंचायतराज, सूचना विभाग, किंतु अभी भी कितने ही विभाग ऐसे हैं, जिनके भिन्न कार्यालयों का (और कुछ प्रधान कार्यालयों का भी) काम हिंदी में होता है, किंतु जिनके अधिकारी अपने प्रधान कार्यालयों में अब भी अंग्रेजी में काम करते और कराते हैं।

अवश्य ही राजकाज के हिंदीकरण में प्रगति हुई है, पिछले कुछ दिनों में उसकी गति भी बढ़ी है। किंतु इस २५ वर्ष की अवधि में उत्तर प्रदेश का पूर्ण हिंदीकरण का स्वप्न अभी भी पूर्ण नहीं हुआ। इसके लिए सरकार और जनता तथा शिक्षित वर्ग समानरूप में उत्तरदायी हैं। उत्तर प्रदेश में हिंदी का आंदोलन प्रायः समाप्त हो गया है। हिंदी के लोग अब यह समझकर कि राजभाषा हिंदी का चलाना सरकार का काम है, निष्क्रिय हो गए हैं। हिंदी संस्थाएँ अब हिंदी प्रचार में न लगकर दूसरे कामों में लग गई हैं। प्रजातंत्र को सफल बनाने के लिए तथा सरकार से काम लेने के लिए जागरूक व्यक्तियों और संस्थाओं की आवश्यकता होती है, जो सरकार को (जो अनेक समस्याओं से उलझी रहती है) बराबर प्रेरित करती रहे। उनका अभाव इस निष्क्रियता में भी एक बड़ा कारण है, जिससे इस राज्य के सरकारी कामकाज, शिक्षा और व्यवसाय में हिंदी की अपेक्षित प्रगति नहीं हुई। व्यावसायिक संस्थाओं पर विशेष बल देने की आवश्यकता है। वे अब भी अपना काम अंग्रेजी में करते हैं और सरकार को पत्र अंग्रेजी में भेजते हैं। सरकार को नियम बना देना चाहिए कि जो संस्था और टाइपराइटर कंपनियाँ, बड़े निजी संस्थान, अंग्रेजी समाचार-पत्र, ठेकेदार आदि अंग्रेजी में पत्र भेजें, उन पर ध्यान न दिया जाए और उन्हें रद्दी में फेंक दिया जाए।

प्रस्तुति : अरविंद चतुर्वेदी

हमारे संकलन