संसद् के कार्य में व्यर्थ व्यवधान

मानसून सत्र में चले गतिरोध के कारण संसद् का पूरा समय बरबाद हो गया और एन.डी.ए. सरकार के कई महत्त्वपूर्ण विधेयक पारित नहीं हो सके। इनमें जी.एस.टी. सबसे अहम था। इस विधेयक के विषय में राज्य सरकारों से वर्षों से बातचीत चल रही थी। इसकी रूपरेखा यू.पी.ए. सरकार के समय ही निश्चित हो चुकी थी, फिर भी इस पर आम सहमति नहीं बन सकी। संसद् में भी चर्चा हुई, पर कुछ प्रगति न हो सकी। किसी-न-किसी राज्य को कुछ-न-कुछ नुकसान की आशंका बनी रही। कुछ अन्य राज्यों से बातचीत हुई। विधेयक में कुछ परिवर्तन भी हुए और आशा बँधी कि शायद परिवर्तित रूप में विधेयक पास हो जाए। लोकसभा में एन.डी.ए. का भारी बहुमत होने के उपरांत भी राज्यसभा में उसे बहुमत से पास कराना था, क्योंकि वह एक संवैधानिक बिल है। यही नहीं, उसे राज्यों की विधानसभाओं से भी स्वीकार कराना होता है। सरकार की मंशा थी कि पहली अप्रैल, २०१६ से यह लागू हो जाए, क्योंकि यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण और दूरगामी कदम होगा। आर्थिक सुधारों की जो गति अवरुद्ध हो गई थी, इससे उसका अंत होगा। इससे देश में निवेश को बढ़ावा मिलेगा। भारत स्वयं एक बडे़ बाजार के रूप में उभरेगा। व्यापार-धंधों को प्रोत्साहन मिलेगा। देश की उत्पादन क्षमता बढे़गी। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि जी.एस.टी. के लागू हो जाने के बाद देश की सकल राष्ट्रीय उत्पादन (जी.डी.पी.) में वार्षिक डेढ़ या दो प्रतिशत की बढ़ोतरी होने की संभावना है। यह ऐसा कदम होगा, जिससे भारत की आर्थिक प्रगति नौ-दस प्रतिशत की दर से हो सकती है। यदि जी.डी.पी. में एक प्रतिशत बढ़ोतरी होती है तो उसका मतलब है कि करीब एक लाख करोड़ रुपए सरकारी खजाने में और अधिक आएँगे। इस धन का उपयोग गरीबी उन्मूलन की योजनाओं में हो सकता है। इस समय जो अनेकों टैक्स राज्य और केंद्र सरकारें लगाती हैं, जैसे सेल्सटैक्स आदि, वे समाप्त होंगे। उनके स्थान पर एक ही टैक्स जी.एस.टी. लगता। कर प्रणाली में एकरूपता आएगी और यह व्यवस्था सभी के लिए सुविधाजनक होगी। मुद्रास्फीति अभी कम हो रही है, उसके और कम होने की संभावना होती। भारत में उद्योग और व्यापारियों के संगठनों ने भी जी.एस.टी. तुरंत लागू करने की माँग की है। विश्व के १८० से अधिक देशों में यह व्यवस्था लागू है। फिर कांग्रेस अपनी जिद्द पर क्यों अड़ी रही और संसद् के काम-काज में हर तरह की रुकावट डाली। एन.डी.ए. का कहना है कि सोनिया गांधी और राहुल की यह स्टै्रटेजी भारत की आर्थिक उन्नति को नुकसान पहुँचानेवाली तथा संसद् के कार्य में अड़ंगा लगाने की है, ताकि नरेंद्र मोदी की सरकार की आर्थिक नीतियों को सफलता न मिले। सोनिया और राहुल गांधी अपनी पार्टी की करारी हार को अभी तक पचा नहीं सके हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि नेहरू-गांधी परिवार की जगह एक साधारण व्यक्ति ने ले ली, जिसको इस परिवार के एक अनुयायी ने बड़ी हिकारत से ‘चाय बेचनेवाला’ कहा था। समस्या यह है कि सोनिया और राहुल के लिए लोकतंत्र की परिभाषा नेहरू-गांधी परिवार की ही पर्यायवाची है। उसके बाहर उनकी दृष्टि जाती ही नहीं है। जिन लोगों ने कभी कोई काम ही नहीं किया हो, मेहनत की गाढ़ी कमाई से कभी कोई वास्ता न रहा हो, जिनके लिए ‘गरीबी’ केवल एक शब्द मात्र हो, जिसका दुःख-दर्द एक नारा मात्र अथवा फोटो खिंचवाने का ही एक अवसर हो, उनके लिए एक लाख करोड़ रुपए सरकारी तिजोरी में आएँगे और उनको गरीबों के लिए स्वास्थ्य या शिक्षा सुविधाओं के लिए व्यय किया जा सकता है, समझ के बाहर है।

राहुल गांधी में लंबी छुट्टी और विचार-मंथन के बाद भी कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता। उन्हें तो किसी भी प्रकार से मोदी सरकार की नीतियों की अनुपालन प्रक्रिया में बाधा डालनी है, नरेंद्र मोदी सरकार को बदनाम करना है। और कुछ तो नहीं, पर दो चीजें उनके हाथ लगीं। पहला मध्य प्रदेश में ‘व्यापम’ मामला, जिसके लिए उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को दोषी करार दिया और दूसरा, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की आई.पी.एल. के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी से निकटता। ललित मोदी विलायत चले गए तथा पुलिस जाँच के लिए भारत आने में आनाकानी करने लगे। उनको भारत वापस लाने की कानूनी प्रक्रिया चल रही है। इसके अतिरिक्त एक मामला विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से संबंधित बताया गया है कि उन्होंने ब्रिटिश उच्चायुक्त से फोन पर कहा कि भारत सरकार को कोई एतराज नहीं होगा, यदि ब्रिटिश सरकार ललित मोदी को पुर्तगाल जाने की इजाजत दे दे, क्योंकि ललित मोदी की पत्नी कैंसर से पीडि़त हैं और उनका ऑपरेशन वहाँ के एक अस्पताल में होना है। ललित मोदी मुद्दे को मीडिया ने ‘ललित मोदी गेट’ की संज्ञा दी है। अतएव कांग्रेस और सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी ने माँग की कि ये तीनों तुरंत अपने पदों से इस्तीफा दें, तभी संसद् चलेगी। इन मामलों के अनेक पहलुओं पर मीडिया में बहुत चर्चा हुई है। अतएव उसके तथ्यों के अधिक विश्लेषण में जाना व्यर्थ है। उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों, चाहे वे राजनेता हैं अथवा अन्य, उनके विरुद्ध लगाए गए आरोपों को हम गंभीरता से लेते हैं। हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि ऐसे मामलों में लीपा-पोती में हमारा विश्वास नहीं है। किंतु इन मामलों में संसद् को ठप कर देना कहाँ तक उचित है, यह विचारणीय है। संसद् में सदस्यों के व्यवहार और पीठाध्यक्ष के आदेशों की अवहेलना करना, जिनसे संसद् की गरिमा को ठेस लगती है, यह भी ध्यान में रखने का विषय है। राहुल गांधी ने संसद् के बाहर और भीतर दोहराया कि जब तक म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे तथा केंद्र में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज अपने पदों से इस्तीफा नहीं देंगे, तब तक वे और कांग्रेस दोनों सदनों में कोई काररवाई नहीं होने देंगे। यह उनका हठ ही है। तब के राहुल गांधी, जब उन्होंने अपने प्रधानमंत्री और कैबिनेट द्वारा जारी किए गए अध्यादेश को सरेआम फाड़ दिया था और आज के राहुल गांधी में कोई फर्क नजर नहीं आता है। वैसी ही राजनीतिक अपरिपक्वता आज भी दृष्टिगोचर होती है। यह दूसरी बात है कि जिन लालू यादव को बचाने के लिए उनकी सरकार ने वह अध्यादेश निकाला था और जो उन्होंने सरेआम फाड़ा था, बिहार की विधानसभा के चुनाव के लिए आज उन्हीं से गठबंधन किया है। राहुल का बार-बार कहना था कि संसद् में कोई बहस नहीं होगी जब तक सुषमा स्वराज इस्तीफा नहीं देतीं। यद्यपि सुषमा स्वराज ने अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया, फिर भी उन्होंने बहस में भाग लिया।

म.प्र. और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे की माँग राज्य सरकारों के विषय से संबंधित हैं। इनकी चर्चा राज्यों की विधानसभाओं में होनी चाहिए, संसद् में नहीं। यदि २६ राज्यों के मामलों को संसद् में उठाए जाएँगे तो संसद् इसी में लगी रहेगी। एक और विचित्र बात है कि एक तरफ राज्यों की अस्मिता और उनके अधिकारों की दुहाई दी जाती है और दूसरी ओर स्वयं उनके अधिकारों में हस्तक्षेप करने में पहल करते हैं। मुख्यमंत्रियों से इस्तीफा देने की माँग करना राज्य की विधानसभाओं का काम है, उनका अधिकार है। व्यापम का प्रकरण अत्यंत गंभीर है, किंतु वह अब अदालत के पास है। म.प्र. उच्च न्यायालय के आदेश से उसकी जाँच हो रही है। अब सर्वोच्च न्यायलय ने जाँच का काम सी.बी.आई. को सौंपा है। जाँच-कार्य तेजी से हो रहा है। मुख्यमंत्री का कहना है कि सबसे पहले उन्होंने ही ‘व्यापम’ मामले का पर्दाफाश किया और पुलिस से जाँच शुरू करवाई। यह कहाँ तक सही है, यह धीरे-धीरे साबित होगा। यह प्रकरण अब और गंभीर हो गया है, क्योंकि कई व्यक्तियों की मृत्यु का मामला जुड़ गया है। अतएव इसके राजनीतीकारण से बचना चाहिए। हम यह अवश्य कहना चाहेंगे कि यह मामला मात्र दस साल पुराना नहीं है। जब से व्यापम की व्यवस्था शुरू की गई, उसी समय से इसमें घुन लग गया, व्यवस्था का शोषण होने लगा। वह भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया। जाँच और अदालत ही बता सकेगी कि कितने मंत्री, कौन-कौन मुख्यमंत्री, कितने अधिकारी और किस प्रकार बिचौलिये कब से इस धोखाधड़ी व भ्रष्टचार में लिप्त रहे हैं।

केवल मध्य प्रदेश में ही नहीं, अन्य राज्यों में भी भरती की प्रणालियों और व्यवस्था का दुरुपयोग हो रहा है। बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि के जनसेवा आयोग पर प्रश्नचिह्न लगे हैं। अभी हाल में दिल्ली की न्यायिक सेवा की भरतियों की शिकायत हुई है। यह सब समाचार-पत्रों में आता रहा है। शिक्षण संस्थाओं पर भी ऐसे ही कलंक लगे हैं। अभ्यर्थियों के चयन के लिए उत्तरदायी संस्थाओं के अधिकारियों का दोष है। सी.बी.आई. ने जाँच के दौरान यह पाया कि ‘व्यापम’ से बड़ा घोटाला डेंटल के अभ्यर्थियों की चयन व्यवस्था में है। उसने सर्वोच्च न्यायालय को यह सूचना दी है और सर्वोच न्यायालय ने राज्य सरकार से पूछा है कि क्या वे इस मामले को भी सी.बी.आई. को देना चाहेंगे। हम समझते हैं कि व्यापम के खुलासे के बाद जिस प्रकार का वातावरण बना है, मध्य प्रदेश राज्य सरकार के हित में ही होगा कि वह इस डेंटल के चयन प्रणाली और घोटालों की जाँच भी सी.बी.आई. को सौप दे। किंतु इस विषय में संसद् के कामकाज को रोकने और मुख्यमंत्री का इस्तीफा तुरंत देने की माँग का कोई औचित्य नहीं है। मुख्यमंत्री के इस्तीफे का सवाल तभी उठाया जा सकता है, जब व्यापम के द्वारा मुख्यमंत्री ने कोई फायदा उठाया हो अथवा दोषियों को बचाने की जान-बूझकर कोशिश की हो।

यह सर्वविदित है कि काफी समय से वसुंधरा राजे और ललित मोदी की मित्रता है और उनके पहले के कार्यकाल में भी यह चर्चा का विषय रहा, किंतु यह कोई आलोचना और इस्तीफा माँगने का विषय नहीं है। रजवाड़ों और उद्योपतियों के आपसी संबंध काफी अरसे से रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उन्हें कोई अनुचित फायदा पहुँचाया? अब जो दोषारोपण किया है कि उनके पुत्र और वसुंधरा राजे ने धौलपुर पैलेस पर अनधिकार कब्जा किया है, उनके पुत्र दुष्यंत सिंह, जो लोकसभा के सदस्य भी हैं, ने उसका स्पष्टीकरण दिया है और कागजात पेश किए हैं कि वही उसके असली मालिक हैं। यह मामला भी अदालत ही तय कर सकती है।

इन सब बातों की सच्चाई और झूठ का फैसला एक-दूसरे पर दोषारोपण से नहीं होगा। यदि शिकायत करने वालों का पक्ष सही है और उनके पास मजबूत सबूत हैं तो इसका निर्णय भी अदालत ही कर सकती है। उसके बाद ही मुख्यमंत्री के इस्तीफे का सवाल उठ सकता॒है।

ललित मोदी राजस्थान क्रिकेट एसोसिशयन के अध्यक्ष रहे हैं। देश में क्रिकेट, जो कभी जेंटलमेंस गेम कहा जाता था, अब भ्रष्टाचारियों का शरणस्थल बन गया है। उच्चतम न्यायालय एक पूर्व न्यायाधीश से जो जाँच करवाई थी, उसने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है। आई.पी.एल. तो एक माध्यम बन गया है भ्रष्टाचार का। इससे सभी दलों के राजनेता जुड़ गए हैं, चाहे अखिल भारतीय स्तर पर, चाहे राज्यों के स्तर पर। राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों को क्रिकेट के खेल से विशेष प्रेम हो गया है। कांग्रेस भी इससे बची नहीं है। टी.वी. चैनल पर क्रिकेट का नाम आते ही राजीव शुक्ला (राज्यसभा सांसद) सदैव उसी प्रकार नजर आते हैं, जैसे वे कांग्रेस के धरने या किसी प्रकार के प्रदर्शन में राहुल गांधी और सोनिया गांधी के आसपास या पीछे खड़े दिखाई पड़ते हैं। दुःख इस बात का है कि क्रिकेट का खेल दूषित हो रहा है। इसलिए माँग उठ रही है कि राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों को खेल संगठनों से अलग रखा जाए। खेलों के प्रोत्साहन की आड़ में एक क्रिकेट माफिया देश में जन्म ले रहा है।

वैसे हमारा मानना है कि बिजनेस और राजनीति को अलग रखना चाहिए। इन दो शक्तियों का मिलना हानिकर है। कैसे राजनीति का अपराधरीकरण हो रहा है, अपराधों का जातीयकरण, राजनीति और अपराधों का कैसे व्यापारीकरण हो रहा है, इस संबंध में एक रिपोर्ट एन.एन. वोहरा कमेटी ने दी थी। उसका संक्षिप्त संस्करण आज उपलब्ध है। संपूर्ण रिपोर्ट विवाद का प्रसंग बन गई थी। उसका क्या हुआ, यह पता नहीं है। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ही यह समिति गठित की थी, पर इस संबंध में कोई काररवाई नहीं हुई। तरह-तरह के माफिया पैदा हो रहे हैं। वह रिपोर्ट भी सचमुच खामोशी के बस्ते में चली गई है। तब से हालात और अधिक बिगडे़ हैं। खैर, यह अलग विषय है, पर हम इस मत के विश्वासी हैं कि विवादों के घेरे से बचने के लिए सत्ताधारियों को धन्नासेठों से दूरी बनाकर रहना ही उचित है, उनके हित में है।

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के इस्तीफे की माँग और हठ विचित्र सी मालूम पड़ती है। उनका लंबा राजनैतिक जीवन रहा है। चंडीगढ़ के चीफ कमिश्नर के पद पर नियुक्ति होने के कारण हमें ज्ञात है कि हरियाणा में जनता पार्टी की सरकार बनने पर वे बहुत कम उम्र में मंत्री बनी थीं। एक जानकार, कर्मठ, ईमानदार और संवेदनशील मंत्री के रूप में बहुत जल्दी ही उनकी ख्याति फैल गई। उस समय राज्यसभा में आने के बाद उनको एक सांसद के रूप में देखने का हमें अवसर मिला। एनडीए की सरकार में मंत्री बनने पर भी कभी किसी को उनके विरुद्ध उँगली उठाने का मौका नहीं मिला। अतएव एक बहुत छोटी सी बात को लेकर उनके विरुद्ध संसद् के बाहर और अंदर जो अभियान छेड़ा गया, उसका औचित्व समझ से बाहर है। कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस केवल मौके की तलाश में थी, अभियान व्यक्तिगत कारणों से प्रेरित है। उन्होंने वेल्लारी लोकसभा के चुनाव में टक्कर दी। कहानी सर्वविदित है। उसी प्रकार सोनिया के प्रधानमंत्री बनने का उन्होंने विरोध किया था। सुषमा स्वराज स्पष्ट कर चुकी हैं कि उन्होंने किसी सिफारिश के लिए फोन नहीं किया। ब्रिटिश हाई कमिश्नर के फोन पर पूछने पर उन्होंने केवल यह कहा कि यह मानवीय मामला है, कैंसर से पीडि़त पत्नी का ऑपरेशन होनेवाला है, निर्णय ब्रिटिश सरकार को ही करना है, यदि वह ललित मोदी को पुर्तगाल जाने की इजाजत देती है तो उसके कारण भारत-ब्रिटिश संबंध प्रभावित नहीं होंगे। इस मामले को फिजूल तूल दिया गया। तिल का ताड़ बना दिया गया।

अधिक-से-अधिक यह कहा जा सकता है कि सुषमा स्वराज ने विदेश मंत्री की हैसियत से उस समय पूरी परिस्थिति का आकलन न कर भावनाओं से आलोडि़त होकर अपनी प्रतिक्रिया तुरंत व्यक्त कर दी। हो सकता है, यदि राहुल गांधी के वाक् प्रहार और नोक-झोंक प्रारंभ न हुए होते तो वे स्वयं यह बात सदन के सामने स्वीकार कर लेतीं। यह जरूरी नहीं कि मंत्री हर बात अपने मंत्रालय के सचिव को बताए ही। यदि कोई मौका आता तो पूरा प्रसंग बताने में कोई झिझक होने का सवाल ही नहीं। यह ऐसा बड़ा मामला नहीं था कि यह पूछा जाए कि आपने प्रधानमंत्री को क्यों नहीं बताया। उन्होंने कोई भयंकर भूल नहीं की, इसी कारण सुषमा स्वराज के समर्थन में प्रधानमंत्री और सब वरिष्ठ मंत्री दृढता से खड़े हैं। आखिर कैबिनेट का उत्तरदायित्व साझा व संयुक्त होता है। फिर और भी ओछे स्तर के व्यक्तिगत आरोप लगाए कि इस मामले में आपने, आपकी बेटी और पति ने ललित मोदी से कितना धन लिया है। स्वराज कौशल ललित मोदी के पिता के पुराने वकील रहे हैं। सुषमा को कहना पड़ा कि उनकी बेटी पिता के साथ काम करती है, स्वयं वकील है और इस विषय में पैसे के लेन-देन का कोई प्रश्न ही नहीं। पूरे कुटुंब को इस प्रकार विवाद में समेटना अशोभनीय है। कोई सबूत न होने के बावजूद राहुल गांधी ने चोरी करने और जेल जाने की बात कही। ऐसे व्यक्तिगत आक्षेपों की बौछार से बचाव में सुषमा स्वराज को आक्रामक रुख अपनाना पड़ा। सुषमा ने नेहरू-गांधी परिवार का भानुमती का पूरा पिटारा खोल दिया। गांधी परिवार को तिलमिलाने के अलावा कोई उपाय नहीं रहा। बोफोर्स में कुटरोची को बचाने की कवायद के विवेचन में न जाना ही गांधी परिवार के लिए बेहतर है। एंडरसन प्रकरण के बारे में इसी स्तंभ में खुलासा हुआ। ये मामले तो समय-समय पर उठेंगे ही, क्योंकि इतिहास के तथ्यों को बहुकाल के लिए तिकड़मों द्वारा न झुठलाया जा सकता है, न छिपाया जा सकता है। यदि ऐसी बचकानी शुरुआत राहुल गांधी न करते तो इतनी कटुता का वातावरण संसद् में शायद नहीं बनता। उनकी ‘चीटशीट’, जिस पर नागरी में नहीं, रोमन भाषा में उनके हिंदी में बोलने के बिंदु लिखे थे, सोशल मीडिया के लिए मजाक का विषय बन गई। गरीबों, किसानों, अनुसूचित जातियों और जनजाति के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन करनेवाले राहुल को हिंदी में बोलने के लिए रोमन लिपि का सहारा लेना पड़ता है। यदि राहुल गांधी कीचड़ में पत्थर फेंकेंगे तो छीटों से खुद बच नहीं सकते। बबूल के बीज बोकर आम की आशा नहीं की जा सकती। संसद् को रोकने और बाहर प्रदर्शन करने में कुछ दलों ने यूपीए का साथ दिया, इस उम्मीद में कि प्रतीकात्मक विरोध के बाद संसद् अपना कार्य करे और दूसरे सदस्य अपनी समस्याएँ इस विषय में रख सकें। उस अवसर पर संसद् सदस्य, विशेषतया नए चुने सदस्य अपनी बात रखने से वंचित रहे। यूपीए के सदस्यों में बेचैनी रही, पर राहुल के हठ के सम्मुख वे मजबूर थे। बात का बतंगड़ बनाकर संसद् के कार्य में व्यवधान डालना देश की जनता को असहनीय होगा। इसी कारण सांसदों की विश्वसनीयता और सर्वसाधारण में उनके प्रति सम्मान की भावना में निरंतर गिरावट आ रही॒ है।

प्रधानमंत्री का लाल किले से उद्बोधन
१५ अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लालकिले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ का राजनैतिक पंडित विभिन्न दृष्टियों से विश्लेषण कर रहे हैं। गत वर्ष की तरह इस वर्ष का भाषण प्रधानमंत्री मोदी ने बिना किसी प्रकार के नोट्स आदि की मदद से दिया। करीब डेढ़ घंटे में प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान श्रोता और दर्शक टस-से-मस न हुए और ध्यान से सुनते रहे। प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू के लालकिले से सर्वाधिक लंबे भाषण से भी अधिक लंबा भाषण था मोदी का। अपने भाषण में इस वर्ष बहुत सी नई योजनाओं को नहीं जोड़ा। यद्यपि कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों की चर्चा की, जो शासन को अधिक जनोन्मुखी बनाएँगे एवं सर्वसाधारण के दैनिक जीवन को अधिक सुगम बनाने में सहायक होंगे। वास्तव में प्रधानमंत्री ने दो बातों का विशेष ध्यान रखा है। पहला यह कि वे देश के सामने अपने एक वर्ष की उपलब्धियों और जो कुछ कमियाँ रह गई हैं, उसका लेखा-जोखा तथा आकलन प्रस्तुत किया। दूसरे उन्होंने दृढता से इस बात को दोहराया कि उनकी सरकार गरीबों, किसानों और देश के नवयुवकों के कल्याण के लिए समर्पित है। प्रधानमंत्री ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि वे हर वर्ग और हर समस्या के प्रति संवेदनशील हैं। उनकी सरकार की छवि किस प्रकार बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है, वे समझते हैं। उनकी सरकार केवल कॉरपोरेट या समृद्ध वर्गों के लिए नहीं, वरन् सर्वसाधारण गरीब, किसान और युवकों के अच्छे भविष्य के प्रति समर्पित है और उनके हित में कार्य कर रही है। उन्होंने आर्थिक समरसता की दिशा में कार्यशील होने की बातें करते हुए ‘जनधन योजना’ और ‘अटल पेंशन योजना’ की चर्चा की, जो एक इशारा मात्र था कि यह सरकार गरीबों की चिंता करती है, उनके हितों का ध्यान रखती है। उन्होंने यह भी बताया कि सामाजिक न्याय की धारणा केवल गरीबी के नारे के अर्थशास्त्र के इर्द-गिर्द ही नहीं घूमती है। वह बड़ी अवधारणा है, जिसमें शामिल है—गरीब और वंचित वर्गों का आत्मसम्मान, उनकी अस्मिता और उनकी गरिमा।

उन्होंने मेहनतकशों और श्रम की गरिमा पर जोर दिया कि एल.पी.जी. गैस की सब्सिडी के अलावा कोयले की खदानों को नीलाम करने से तीन लाख करोड़ रुपए आएँगे। उसका पूरा-पूरा लाभ गरीब और वंचित वर्ग को ही मिलेगी। काले धन को निकालने का जो प्रयास सरकार कर रही है, उससे भी गरीब और वंचित वर्ग लाभान्वित होंगे। गाँवों की ओर सरकार का ध्यान है। १८,५०० गाँव, जहाँ अभी तक बिजली नहीं पहुँची है, अगले एक हजार दिनों में वहाँ बिजली पहुँचेगी। श्रम विषयक जो ४४ श्रम कानून हैं, उनका सरलीकरण कर जनता की सुविधा के लिए उनको चार कोडों में समाहित किया जाएगा। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना ५०,००० करोड़ रुपयों के प्रावधान से प्रारंभ होगी। कृषकों के बृहत् और बहुअंगीय हितों को देखते हुए कृषि मंत्रालय के नाम में ‘कृषक कल्याण’ जोड़ा जाएगा, ताकि मंत्रालय बड़े परिप्रेक्ष्य में व्यापकता के साथ किसानों के कल्याण की समस्याओं की भी देखरेख कर सके। भारत के पूर्वी क्षेत्रों और उत्तर भारत के राज्यों के दु्रत गति से कृषि विकास की आवश्यकता की ओर उन्होंने ध्यान दिलाया। प्रधानमंत्री की जन-धन योजना द्वारा १७ करोड़ बैंक के खाते खुलने से इस सुविधा से वंचित लोग भी इसमें शामिल हो गए हैं और इस प्रकार ‘फाइनेंशल इन्क्लूजन’ को बल मिला है। एल.पी.जी. सब्सिडी को सीधा खाते में देने के कारण करीब १५,००० करोड़ रुपए की बचत का लाभ गरीबों को मिलेगा।

प्रधानमंत्री ने कहा कि यह संतोष का विषय है कि प्रायः सब स्कूलों में राज्य सरकारों के सहयोग से शौचालय की सुविधा हो गई है। काले धन के पकड़े जाने के मामलों की संख्या सरकार के प्रयास के कारण जब से एन.डी.ए. सरकार बनी है, ८०० से बढ़कर १८०० हो गई है। उन्होंने बहुत जोर देकर यह बात कही कि हर प्रकार के दबाव के बावजूद काला धन रोकने और पता लगाने का जो सख्त कानून उनकी सरकार ने बनाया है, उसे इसी तरह रखा जाएगा, उसमें नरमी लाने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है। जो गलत काम करेगा, वह बुरे परिणाम भी भुगतेगा। प्रधानमंत्री ने विश्वास प्रकट किया कि २०२२ तक गरीबों को  एक मकान और जो मूलभूत जरूरतें होती हैं, उनको सरकार मुहैया करा सकेगी। हम मानते हैं कि यह योजना बड़ी क्रांतिकारी, सामाजिक समता और युवकों को अवसर प्रदान करने की दिशा में सही साबित होगी। उन्होंने कहा कि देश में १ लाख २५ हजार बैंक शाखाएँ हैं, उनमें से हर एक कम-से-कम एक दलित या आदिवासी और एक महिला को एंटरप्रेन्योर बनने, यानी कोई नया काम-धंधा प्रारंभ करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। प्रधान मंत्री ने अपने भाषण के दौरान करीब २९ बार भ्रष्टाचार शब्द का प्रयोग किया। यह बताने के लिए कि सरकार इस दैत्य को कुचलने के प्रति सचेत है, क्रियाशील है, और उन्हें पूर्ण विश्वास है कि वे इस समस्या का पूरी तरह निराकरण करेंगे। उन्होंने देशवासियों से उद्बोधन में टीम इंडिया का बार-बार उल्लेख किया। टीम इंडिया से उनका मतलब १२५ करोड़ देशवासियों से था। उसका तात्पर्य यही है कि सब देशवासी एक सामूहिक इकाई हैं और उनके सहकार, सहयोग और समर्थन से देश हर कठिनाई का मुकाबला कर सकता है, हर समस्या का हल निकाल सकता है। इसमें हर समुदाय, हर राजनैतिक दल, प्रत्येक राज्य, हर एक नागरिक शामिल है। यह उनकी देश की सजग नागरिकता की, राष्ट्रीय एकता की पुकार और अपील ही कही जा सकती है। प्रधानमंत्री ने पूर्व सैनिकों को आश्वासन दिया कि वे भारत के झंडे के नीचे खड़े होकर कह रहे हैं कि एक रैंक, एक सी पेंशन के प्रति वचनबद्ध हैं, पर कुछ तकनीकी पेचीदगियाँ हैं, जिनके हल निकाले जा रहे हैं। हम आशा करते हैं कि इस संवेदनशील विषय में शीघ्र ही सरकार संतोषजनक घोषणा करेगी।

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में एक वाक्य का प्रयोग किया—‘स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया’—इस संदर्भ में कि देश की युवा शक्ति, उसकी क्षमता और उसकी संभावनाओं को एकजुट करना है। देश के विकास में उपयोग करना है। पर हमारा मानना है कि केंद्र के मंत्रियों के लिए भी यह एक चुनौती है। सामूहिक रूप से संपूर्ण अधिकारी वर्ग के लिए और राज्य सरकारों के लिए भी संदेश है कि जो योजनाएँ हैं, इनका दूरगामी प्रभाव होगा और जिनकी घोषणा प्रधानमंत्री ने अपने पहले भाषण में की थी, जिससे देश में एक उत्साह और आशा का वातावरण बना, उनका अक्षरशः और पूरी आस्था से कार्यान्वयन हो। उदाहरण के लिए ‘संसद् आदर्श ग्राम योजना’, ‘स्वच्छ भारत’ और ‘स्वच्छ विद्यालय’, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’ आदि योजनाएँ सही रूप में, निश्चित उद्देश्यों के अनुसार केवल दिखाने और फोटो खिंचवाने के लिए नहीं, उनका अनुपालन हो, कार्यान्वयन हो। अधिकारी वर्ग, मंत्रियों, चुने प्रतिनिधियों सबको चुनौती के साथ प्रधानमंत्री की चेतावनी को समझना चाहिए। तभी हम लोकतंत्र में जनसाधारण का विश्वास प्राप्त कर सकेंगे और ६९वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाना सार्थक होगा। प्रधानमंत्री के ‘स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया’ के उद्बोधन में उपनिषदों की आत्मा और स्वामी विवेकानंद की वाणी मुखरित होती है और यह वाणी सतत और सदैव हर व्यवस्था में झंकृत होती रहनी चाहिए, गूँजनी चाहिए। यह प्रधानमंत्री के दृढ निश्चय और आत्मविश्वास का परिचायक है। वही देश के विकास, सबकी प्रगति का मार्ग है और ध्येय भी।

दो सामयिक पुस्तकें
इमरजेंसी या आपातकाल को चालीस वर्ष बीत चुके हैं। उस समय ज्यादतियों और भय का जो वातावरण पैदा हो गया था, उसका स्मरण आज भी एक वितृष्णा पैदा करता है। एक न्यायिक निर्णय के कारण प्रधानमंत्री की कुरसी बचाने के लिए देश के लोकतंत्र पर ताला ठोंक दिया गया था। रातोरात बाह्य इमरजेंसी के होते हुए आंतरिक इमरजेंसी लादी गई। कुछ भुक्तभोगियों ने अपने अनुभवों को लिपिबद्ध कर आपातकाल की समाप्ति के बाद प्रकाशित करा दिया था। कुछ और लोगों ने भी इस विषय का विभिन्न पहलुओं से विश्लेषण किया। इन सब पुस्तकों को नई पीढ़ी के लोगों को पढ़ना आवश्यक है, ताकि वे जान सकें कि संविधान और लोकतंत्र कैसे हाइजैक किया गया। इसी वर्ष जानी-मानी पत्रकार कूमी कपूर की अंग्रेजी पुस्तक ‘द इमरजेंसी—ए पर्सनल हिस्टरी’ नाम से प्रकाशित (पेंगुइन) हुई है। वे भुक्तभोगी रहीं, क्योंकि उनके पति भी गिरफ्तार हुए थे। पुस्तक की विशेषता यह है कि यद्यपि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत कहानी के रूप में इमरजेंसी को प्रस्तुत किया है, किंतु वास्तव में उन्होंने इमरजेंसी की पृष्ठभूमि, कारणों, जयप्रकाश आंदोलन का विवेचन करते हुए इमरजेंसी के सब पहलुओं को रेखांकित किया है। भुक्तभोगी होते हुए भी बड़ी तटस्थता के साथ अपनी कलम चलाई है। कहीं अतिरंजना नहीं है, कहीं भी अपनी व्यक्तिगत दिक्कतों की चर्चा कर पाठक की सहानुभूति बटोरने का प्रयास भी नहीं किया है। कूमी कपूर की कठिनाइयों का आभास पाठकों को यह जानकर हो सकेगा कि वे सुब्रमण्यम स्वामी की पत्नी की बहन हैं। उस समय पूरे देश में क्या हो रहा था, उसका वर्णन और विवेचन सबूतों के साथ किया गया है। कूमी कपूर ने सरकारी तंत्र के प्रमुखों के कार्यकलापों और चरित्र का अच्छा खाका खींचा है। उनमें राजनेता हैं और सरकारी अधिकारी भी। पुस्तक का गुण है—संतुलन और तथ्यों का सच्चाई के साथ घटनाओं का वर्णन। पुस्तक में बहुत सी नई जानकारियाँ हैं। इमरजेंसी का विरोध करनेवालों में नानाजी देशमुख का बहुत मर्मस्पर्शी चित्रण है। पुस्तक को पूरा पढ़ने पर ही इमरजेंसी का खोखलापन और उसकी भयानकता, दोनों का अच्छा दिग्दर्शन हो पाता है। लेखिका बधाई की पात्र हैं।

एक और पुस्तक संजय सूरी की लिखी ‘१९८४—द एंटी सिख्स वॉयलेंस एंड आफ्टर’ देखने को मिली। उसमें श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के उपरांत जो आसुरी अत्याचार देश के बहादुर और निर्दोष सिक्ख समुदाय पर हुए, उसका कच्चा चिट्ठा है। उस समय लेखक इंडियन एक्सप्रेस का रिपोर्टर था। दिल्ली और पंजाब का आँखों देखा तथा पुलिस अधिकारियों, जिन्होंने सब घटनाएँ देखी थीं, उनके सेवानिवृत्त होने के बाद के साक्षात्कार एवं अन्य दस्तावेजों के आधार पर ३० वर्ष बाद यह पुस्तक लिखी है। यह हमारे इतिहास का काला अध्याय है। उसके संबंध में कुछ कहना व्यर्थ है। संजय सूरी की पुस्तक उसी दुःखद और हृदयविदारक प्रकरण को प्रस्तुत करती है—सत्यता और संतुलित ढंग से। इस करुण कहानी का अभी भी पटाक्षेप नहीं हुआ है। भुक्त-भोगियों को न्याय नहीं मिला है। संजय सूरी ने हलफनामा देकर रंगनाथ मिश्र और जी.टी. नानावती आयोगों के सम्मुख गवाही दी। आज संजय सूरी लंदन में पत्रकारिता के कार्य में संलग्न हैं। १९८४ में जो देखा, उसका दर्द उनके मन-दिल और मस्तिष्क में अभी भी जमा हुआ है। उसकी पीड़ा से उनके इस ग्रंथ का जन्म हुआ है। भारतीय राष्ट्र निर्माण के महत् कार्यों के संपादन के लिए इस ग्रंथ से हमसब शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। इतना कहना ही पर्याप्त होगा। कूमी कपूर और संजय सूरी दोनों के ग्रंथों का अनुवाद भी हिंदी तथा अन्य भाषाओं में होना चाहिए, ताकि अधिक-से-अधिक देशवासी आपातकाल और १९८४ के सत्य को जान॒सकें।

सितंबर मास में पूरे देश में ‘हिंदी पखवाड़ा’ मनाया जाता है। चाहे आप संपर्क भाषा कहें अथवा राजभाषा या राष्ट्रभाषा, हिंदी का अधिकाधिक उपयोग देश के लिए आवश्यक है। अतएव ‘साहित्य अमृत’ का  सितंबर अंक इसी विषय पर केंद्रित है। अपने सभी अन्य स्तंभों के साथ सितंबर का अंक भी अपने आप में एक लघु विशेषांक बन गया है।

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी)

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