अग्निभक्त

अग्निभक्त

पुंडलिक नायक : कोंकणी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में से एक श्री पुंडलिक नायक का जन्म गोवा के वळवय गाँव में हुआ। कुछ समय तक ‌शिक्षक रहने के बाद पणजी आकाशवाणी में सहसंपादक और सहायक संपादक भी रहे। फिर नौकरी छोड़ पूरा समय लेखन को समर्पित कर दिया। वर्ष १९८५ में हुए गोवा के राज्यभाषा आंदोलन का नेतृत्व किया। उनकी ‘चौरंग’ एकांकिका को १९८४ में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, गोमंत शारदा और कई राष्ट्रीय और राज्य पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं। इनकी कुल ८५ किताबें प्रकाशित हैं। यहाँ उनकी एक चर्चित कहानी ‘‌अग्निभक्त’ का हिंदी रूपांतर प्रस्तुत कर रहे हैं।

सूरज का उदय जिस पहाड़ी की आड़ से होता है, वहीं से वह भी उभरा। सबसे पहले उसे बूढ़े व्यंकटू ने देखा। व्यंकटू को लगा, मानो एक और सूरज उदित हो रहा है। इधर-उधर देखकर उसने सबको आवाज लगाई। उसकी आवाज बस्ती के सभी घरों में गूँज उठी।

वैशाख की दोपहर की चिलचिलाती धूप। आसपास के पेड़-पौधे कहीं अपनी हरियाली सूख न जाए, इसकी खबरदारी लिये खड़े थे। सूखी पत्तियाँ तले हुए पापड़ की तरह कड़क लग रही थीं। बस्ती के खपरैल के घर काले सूखे गोबर के ढेर की भाँति दिखाई दे रहे थे।

पहाड़ी से उतरकर वह सीधा बस्ती में आया। तभी व्यंकटू ने उसे करीब से देखा। पूरी बस्ती में अकेला वही एक गोरा इनसान था। व्यंकटू को लगा, सचमुच में गोरापन इसके चेहरे पर कितना निखर रहा है! धूल से भरे नंगे पैर तथा माथे के काले बाल। मस्तक पर गंध का तिलक, कमर पर सुनहरा पीतांबर कसा हुआ, छोटे कदवाला वह नौजवान अंगारे की तरह दिखाई दे रहा था। बेंतों की छडि़यों से टेढ़ा-मेढ़ा बुना तरंग उसने अपने दाहिने कंधे पर रखा था। उसके चलने से तरंग के केसरिया रंग के गोटे हिल रहे थे।

“हमारा अग्निभक्त आ गया।” कहते हुए व्यंकटू उसके पैर पड़ गया।

“व्यंकटू दादा, बड़े छोटों के पैर नहीं छूते।” व्यंकटू के माथे को स्पर्श करते हुए उसने कहा। उसका गला सूख गया था तथा गले में खराश थी। कंधे पर से तरंग उतारकर उसने पेड़ के नीचे खड़ा किया।

“तू अब छोटा कहाँ रह गया है? हमारे लिए अग्निभक्त का मतलब साक्षात् भगवान् का अवतार है। अब हमारी बस्ती को किसी से डर नहीं रहा। तुम्हारे रूप में साक्षात् अग्निदेवता का आशीर्वाद हमारे बाल-बच्‍चों पर रहेगा। अच्छा, यह तो बताओ, देवी की जात्रा (मेला) कैसी रही?”

वह यात्रा की सारी बातें बताएगा, इस उत्सुकता से व्यंकटू वहीं पेड़ के नीचे बैठ गया। व्यंकटू की आवाज सुनकर बस्ती में मौजूद सभी जन पेड़ के नीचे इकट्ठे हो गए। बुखार की वजह से पाँव की शक्ति खो चुकी गाड़ी भी लँगड़ाते-लँगड़ाते वहाँ आ गई। हमेशा बीमार रहनेवाला कृश बाळा टिड्डे की तरह उड़ते-उड़ते आया और आते ही खाँसने लगा। दस-बारह साल के चार-पाँच बच्‍चे कुत्ते के पिल्लों की तरह दौड़ते हुए आए। अंत में कस्तुर मौसी चूल्हा जलाकर अपनी झोंपड़ी से बाहर निकली।

उसने सबकी ओर देखा। बस? मेरे स्वागत के लिए इतने ही लोग! क्षण भर उसका मुँह मुरझाया, परंतु सबके चेहरे की उत्सुकता देखकर उसका चेहरा तुरंत खिल भी उठा।

दोपहर का समय। बस्ती के जवान तथा स्‍त्री-पुरुष, जो काम के लिए सुबह निकल पड़े थे, शाम को वापस लौटनेवाले थे। बस्ती में अब बूढ़े, बीमार, अपाहिज तथा बच्‍चे ही रह गए थे।

“हमारा अग्निभक्त हमारे लिए क्या लेकर आया है?” उसके माथे पर दुलार से हाथ फेरते हुए मौसी ने पूछा।

उसका मन उत्साह से भर उठा। सभी उसे ‘अग्निभक्त’ कहकर बुला रहे थे। उसे लगा, सचमुच में वह अग्निभक्त है। इसके अलावा उसका दूसरा कोई नाम ही नहीं है। कागज की पुडि़या में बाँधकर लाए हुए अग्निदेवता के प्रसाद का सभी ने सेवन किया।

“कस्तुर मौसी, तुम्हारा पोता कहाँ है?” मौसी के लाड़ले पोते के लिए वह यात्रा से खिलौना लेकर आया था।

मौसी ने मन-ही-मन उसको सराहा। छोटा खिलौने के साथ खूब खेलेगा। “खिलौना खरीदने के लिए तुम्हें कहाँ समय मिला?” खिलौने को जमीन पर रखते हुए मौसी ने पूछा। वह खिलौना एक छोटी सी गुड़िया थी, जो जमीन पर रखते ही कुछ समय तक थरथराती रही।

“पोता सो गया है। अभी उसकी आँख लगी है। उसे सुलाकर, चूल्हे पर बरतन में चावल के लिए पानी रखकर आई हूँ। बेटा और बहू काम के लिए सुबह ही निकल पड़े। आज घर में मैं, मेरा पोता एवं यह खिलौना। मैं भी क्या पागल अपनी राम कहानी सुना रही हूँ? तू बता, तुम्हारी यात्रा कैसी थी?” मौसी वहीं बैठ गई। “बच्‍चो, चूल्हा जलाकर आई हूँ, थोड़ी देर बाद मुझे याद दिलाना। आग लगे मेरी याददाश्त को! अच्छा अग्निभक्त, अब तुम अपनी जात्रा के बारे में बता दो।”

“कस्तुर मौसी, जात्रा मेरी नहीं, जात्रा थी श्री अग्निदेव की। थुमेकाल (हे ईश्वर! गलती हो गई, माफ करना)! अग्निदेवता माने जाग्रत् देवता!” अग्निभक्त के मुँह से अब जात्रा का वर्णन सुनने को मिलेगा, यह सोचते हुए सभी अचरज से मुँह खोलकर उसे देखने लगे। पूरी बस्ती में सिर्फ वही अकेला अग्निभक्त था। गाँव में वैसे बहुत अग्निभक्त थे, परंतु बस्ती में वही पहला अग्निभक्त था। जात्रा में आने का बुलावा साक्षात् अग्निदेवता ने उसे सपने में आकर दिया था। अपने जीवन में हर कोई अग्निदेवता के दृष्टांत का सपना देखता है।

जात्रा के दो दिन पूर्व उसने व्रत रखा। जात्रा के दिन कंधे पर तरंग उठाकर वह चल पड़ा। इससे पहले भी उसने जात्रा देखी थी, परंतु अब वह इस जात्रा का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गया था। ईश्वर के कई भक्त! उन भक्तों में अब वह भी जुड़ गया। लोगों की भीड़ बहुत थी। उसे पिछले साल की याद आ गई। किस तरह वह भीड़ में घुसने की कोशिश कर रहा था? इस साल लोग आगे जाने के लिए उसके लिए राह बना रहे थे।

दोपहर में आरंभ हो गई जात्रा की मुख्य विधि मध्यरात्रि को आरंभ हो गई। मंदिर के ठीक सामने खुले मैदान में अग्निकुंड जल रहा था। सूखी लकडि़़यों के गट्ठर एक के बाद एक अग्निकुंड में पड़ने लगे। वैशाख की दोपहर की तरह अग्निकुंड जल उठा। मंदिर का परिसर चारों ओर से प्रकाशमान हो उठा।

गर्भागार में स्थित सहस्रों घोड़ों के रथ पर सवार श्री अग्निदेवता की मूर्ति आग की तरह चमकने लगी। ढोल-ताशे बज उठे। अग्निकुंड की लकडि़यों के जलकर अंगारे हो जाने तक ढोल-ताशे बजते रहे। आग की तपिश के कारण दूर खड़े लोग अब अग्निकुंड के चारों ओर इकट्ठा होने लगे। मंदिर के तालाब में स्नान करके मस्तक पर चंदन का तिलक लगाकर एक के बाद एक अग्निभक्त आ गए। जात्रा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंतिम कार्य आरंभ हो गया। अग्निभक्त बड़ी संख्या में अग्निकुंड में उतरे। अग्निकुंड के अंगारों को अपने पैरों तले रौंदते हुए परंपरानुसार पुजारी के हाथ से तीर्थप्रसाद लेने के लिए मंदिर की ओर दौड़े। दर्शक साँस रोके यह दिव्य दृश्य देख रहे थे। भक्तों के झुंड-का-झुंड अग्निकुंड को पार करने लगा। जात्रा का वर्णन समाप्त हो गया। अग्निभक्त का गला सूख गया। माथे पर पसीना आ गया। उसे प्यास लगी।

“कस्तुर मौसी, तुम चूल्हा जलाकर आई हो, याद है न?” लँगड़ी ने मौसी को याद दिलाया। “हाँ-हाँ, याद आया। अग्निभक्त, मैं तुम्हारे लिए पानी लेकर आती हूँ।” अपनी टेढ़ी कमर को सँभालते हुए हाथ में खिलौना थामे मौसी झोंपड़ी में चली गई।

“क्या अंगारों पर से चलते समय पैरों को कुछ भी नहीं होता?” एक लड़के ने सवाल किया।

अग्निभक्त कुछ कहे, इसके पहले ही व्यंकटू कहने लगा, “हैं, कैसे कुछ नहीं होता? बहुत से अग्निभक्तों के पैर जले हैं, परंतु सच्‍चे अग्निभक्त के लिए अंगारे फूलों के जूतों के समान होते हैं।” सुनकर सभी दंग रह गए। अग्निभक्त अंगारों पर से चलकर सुरक्षित अपने गाँव वापस लौटा था।

“अब तुम्हें आग से कोई खतरा नहीं?” बाला के सवाल का उत्तर व्यंकटू ने देते हुए कहा, “भगवान् की कृपादृष्टि उसके ऊपर है। अब उसे किसका डर?” व्यंकटू ने फिर कहा, “हमारे लिए अग्निदेवता पचास मील दूर हैं, अग्निभक्त ही हमारे लिए अग्निदेवता के समान हैं।” व्यंकटू ने अग्निभक्त को नमस्कार किया। सभी ने उसका अनुकरण किया। सभी को मन-ही-मन लगा, काश, अग्निदेवता हमारे भी सपने में आकर हमें जात्रा में आने के लिए बुलावा देते।

उसे प्यास लगी थी। वह उठ खड़ा हुआ। कस्तुर मौसी की झोंपड़ी की तरफ उसने देखा। मौसी ‘दौड़ो, बचाओ-बचाओ,’ चिल्लाते हुए झोंपड़ी से बाहर भाग निकली। हवा के तेज झोंके से जिस प्रकार सूखी पत्तियाँ उड़ जाती हैं, उसी प्रकार एक ही क्षण में सब झोंपड़ी के पास दौड़ पड़े। चूल्हे की आग ने गजब कर दिया था। कस्तुर मौसी चिल्ला रही थी। इधर-उधर मदद माँगते दौड़ रही थी। उसकी झोंपड़ी आग में जल उठी थी। धूप में सूखकर कड़क बनी नारियल की पत्तियों का छप्पर आग में धधक उठा। “हे भगवान्! जल जाने दो झोंपड़ी को। मेरे पोते को बचाइए। मैं बेटे और बहू से क्या कहूँगी?” कस्तुर मौसी आक्रोश कर रही थी।

सभी एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे। लँगड़ी अपने पैर पर से हाथ फेरने लगी। बाळा खाँसने लगा। बूढ़ा व्यंकटू थरथराने लगा। बच्‍चे डर के मारे सिटपिटाए स्तब्ध खड़े रहे। आग की ज्वाला तेज हो उठी। झोंपड़ी के चारों ओर आग का तांडव शुरू हो गया था। पोते की पहली चीख सुनते ही मौसी विह्वलता से चिल्ला उठी—“हे अग्निभक्त! मेरी मदद करना।”

उसके हाथ से खिलौना दूर जाकर गिरा और वहीं से थरथराने लगा।

लोग चिल्लाने लगे। सभी सुन्न रह गए। अग्निभक्त की प्यास तीव्र हो गई। उसकी साँस गले में अटक गई। उसका सिर चकराने लगा। उसे चक्कर-सा आ गया। उसकी आँखों के सामने अंधकार छाने लगा।

आँखों के सामने घना अंधकार और अंधकार में प्रकाश के अग्निकण। वह भरमाया-सा हो गया। वही जात्रा...वही अग्निकुंड...आकाश को छूती आग की लपटें वही...अब...वह इंतजार करने लगा कि आग कब बुझे और कब उसके अंगारे बनें...

तभी कस्तुर मौसी के पोते की अंतिम चीख वातावरण को चीरती निकल गई।

मूल : पुंडलिक नायक
अनुवाद  : मा प्रियोळकार

मई 2023

   IS ANK MEN

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