गोरी का गाँव

गोरी का गाँव

विवेकी राय: सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्व. विवेकी राय की कृतियों में प्रमुख हैं—‘बबूल’, ‘पुरुषपुराण’, ‘लोकऋण’, ‘श्वेत-पत्र’, ‘सोनामाटी’, ‘समर शेष है’, ‘मंगल-भवन’, ‘नमामि ग्रामम्’, ‘अमंगलहारी एवं देहरी के पार’ (उपन्यास); ‘फिर बैतलवा डाल पर’, ‘जुलूस रुका है’, ‘गँवई गंध गुलाब’, ‘मनबोध मास्टर की डायरी’, ‘वन-तुलसी की गंध’, ‘आम रास्ता नहीं है’, ‘जगत् तपोवन सो कियो’, ‘जीवन अज्ञात का गणित है’, ‘चली फगुनहट बौरे आम’ (ललित-निबंध); ‘जीवन परिधि’, ‘गूँगा जहाज’, ‘नई कोयल’, ‘कालातीत’, ‘बेटे की बिक्री’, ‘चित्रकूट के घाट पर’, ‘सर्कस’ (कहानी-संग्रह); छह कविता-संग्रह, तेरह समीक्षा ग्रंथ, दो व्यक्तित्व व कृतित्व पर आधारित ग्रंथ। कई कृतियों का अन्य भाषाओं में अनुवाद। ८५ से अधिक पी-एच.डी.। प्रेमचंद पुरस्कार, साहित्य भूषण तथा महात्मा गांधी सम्मान, नागरिक सम्मान, यश भारती, आचार्य शिवपूजन सहाय पुरस्कार, राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान, महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान सहित कई अन्य सम्मान।

दी के किनारे जहाँ बाँध बनाया गया है, रामदत्त की वह खूबसूरत औरत गोरी रोज सबेरे बरतन माँजने आ जाया करती है। जब उधर से गुजरता हूँ, उसे देख लेता हूँ। अब उससे ही नहीं, उसके बरतनों से भी परिचित हो गया हूँ। एक तसला, एक कड़ाही, दो थाली और एक कलछुल, बस यही।

आज मैंने सोचा कि यह गोरी भारतमाता है। इसका टीन का चतुर्दिक् से पिचका तसला आज की राजनीति के समान है। यह असली अंत्योदय पात्र है। इसकी लोहे की तरह लगने वाली मिट्टी की कड़ाही सरकारी कड़ाही है। भीतर तेल की चिकनाई और पेंदी में की एक तह कालिख दूर-दूर तक पानी में तैर रही है। दो थालियों में एक टीन की है और एक पीतल की। एक में काम के स्वार्थवादी खाते हैं और एक में नाम के समाजवादी। कलछुल विरोधी पार्टियों के छूँछे नारे परसने का काम करती है। और वह? वह भारतमाता?

आइए, उसका एक दिन का किस्सा बताऊँ। गाँव में एक मुकदमेबाज सज्जन हैं। सुविधा के लिए उनका नाम कचहरीसिंह समझ लिया जाए। एक दिन ब्राह्म-मुहूर्त में उठकर उन्होंने अपने दोनों हाथों को देखा और भगवान् का नाम लिया। नित्य-क्रिया से निवृत्त होकर इधर-उधर देखा। कोई नहीं है, रास्ता साफ है, यह देखकर बस्ता बगल में दबाकर निहुरे-निहुरे बाँध की ओर बढ़े।

गोरी बरतन माँज रही थी। बरतन पर बालू-माटी खरखरा रहा था। न जाने कैसे, जिसे हम नहीं देखना चाहते हैं, वही दिख जाता है।

उस पार उस दिन कचहरीसिंह मिले तो बड़बड़ा रहे थे, “जरा भी शऊर नहीं। बैठ गईं बरतन लेकर रास्ते पर! लोग साइत-सगुन पर घर से बाहर होते हैं। ट्रेन का यही वक्त है, घर से निकलने का यही वक्त है। रोज का यही धंधा है। मन करता है कि लौटकर तमाम बरतन उठाकर उधर फेंक दूँ—एक तो काले रंग की कड़ाही, दूसरे जूठी और तीसरे खाली पड़ी। हे भगवान्! न जाने आज क्या होगा? मुकदमे का काम ठहरा। इस ससुरी ने साइति बिगाड़ दिया। आज लौटकर आते हैं तो मजा चखाते हैं। देखें कि कैसे यहाँ सबेरे-सबेरे खाँची भर जूठी भँडेहर लेकर बैठती है? पता नहीं, इनके बाप की नदी है, कि यह घाट खरीदी हुई है, कि इनके दादा लोगों ने इस बाँध के पास बैठने का पट्टा लिखाया है।”

अब आप जरा कचहरीसिंह को देखिए। ‘सीस पगा न झगा तन में’ वाली बात चाहे पूरी तरह सच न भी हो तो ‘धोती फटी सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह की नहीं सामा’ वाला कथन तो हू-ब-हू उतरता है। मगर इसका अर्थ यह नहीं कि कचहरीसिंह ‘सुदामा’ हैं। नहीं, अगर किसी पौराणिक पात्र से उनकी तुलना हो सकती है तो वह पात्र हैं ‘नारद’, मगर यहाँ भी कमी रह जाती है। नारदजी के बारे में यह कहीं चर्चा नहीं आती है कि वे विष्णु भगवान् की कचहरियों में रुपया बिखेरते रहे। इधर हमारे कचहरीसिंह हाकिमों, वकीलों और बाबुओं के टेबुल पर पैसा खिसकाया करते हैं। इन्होंने भूख-प्यास को जीत लिया है। दिनभर बिना दाना-पानी के जूझते रहेंगे। इन्होंने शीत-ताप को जीत लिया है। कठिन-से-कठिन जाड़े में एक चादर पर रात काट देते हैं। दाढ़ी बढ़ी है, शरीर उकठ गया है। सजीव इनसान नहीं, वे हमें एक धूहा की तरह लगते हैं, कहा जाता है कि ऐसे ही जनम भर से लड़ते-भिड़ते ही ‘जिमदार’ की जिंदगी बीत गई। मुँह तो खूब बड़ा बनाया, पर कुछ हाथ लगा नहीं...तो आज ये खाली कड़ाही देखकर भड़क उठे।

कसूर किसका है? कड़ाही कहाँ जाए? वास्तव में नाचीज कड़ाही को जो वह गरीब माँजनेवाली है, वही झिझक तथा खीज के मूल में है। उसकी सुंदरता इन बरतनों से मेल नहीं खाती है। लोगों की आँखें एक बार उसकी ओर उठती हैं और फिर इन कुरूप बरतनों पर आकर भिनभिना उठती हैं। जैसी वह कमल के समान खुद है वैसी ही सामग्रियों से उसे घिरी हुई होना चाहिए।

लेकिन हमें मालूम है कि सुबह से शाम तक कटिया-बिनिया करने के बाद भी उसे केवल किसी प्रकार सूख-पाख भोजन भर मिल जाता है। बनिहारिन बिटिया की सुंदरता माटी की सुंदरता है। वह चारों ओर माटी से घिरी है। ऐसी माटी की ढेली, जिसका रवा-रवा गरीबी के घाम में बिखरकर छितरा गया है। हम जो देख रहे हैं, सो अपने देखने के संस्कार को देख रहे हैं। अन्यथा वहाँ देखने लायक कुछ है नहीं। सब उपेक्षित हैं और दुत्कारों से घायल हैं। वह घूर है। गरीबी का घूर है। भारी घूर है। इस पूरे समाज का घूर। अगर घूर पर एक धतूरे का उजला, टटका और मनोहर फूल खिल गया तो वह घूर कमल-बन नहीं हो गया। घूर घूर ही है। उस दिन इस घूर पर एक खाँची ‘बातों का बुहारन’ एक स्वामीजी ने फेंक दिया और घूर को क्या कहना है? चुपचाप सह लिया।

बात यह हुई कि स्वामीजी, जो भगवान् की भक्ति करते हैं, सो उनके विधान में है कि सुबह-ही-सुबह स्नान हो जाना चाहिए। स्नान के बाद तिलक-त्रिपुंड और उसके बाद आसन-ध्यान। यही उनकी आजीविका है। वास्तव में वे एक मकड़े के समान हैं और रोज जाला तानकर बैठते हैं। पूड़ी, मिठाई, दूध, चीनी, फल, कपड़ा, रुपया और मान-सम्मान के कीट-पतिंग भगवान् उनके लिए भेजा करते हैं।

कहते हैं, किसी गाँव में ही ये स्वामीजी पैदा हुए। इनके पिता एक जमींदार थे। लालन-पालन बहुत प्यार-दुलार से हुआ। जमींदारी टूट जाने पर नमक-तेल की बीहड़-परती तोड़ना पड़ी तो उधर पिता चल बसे और इधर ये ‘स्वामीजी’ हो गए। अभी ईश्वर-भक्ति की जमींदारी को तोड़ने वाला कोई गोविंदवल्लभ पंत पैदा नहीं हुआ। अब आइए, देखिए इस क्षेत्र के इस एक छोटे ‘जमींदार’ के नखरे—

स्वामीजी स्नान करने पहुँचे तो वह औरत अपने उन्हीं बासनों पर हाथ चला रही। स्वामीजी गरज उठे—

‘‘जो है सो क्या यही वक्त है बरतन माँजने का? तमाम जल को नास दिया। कटकटाए हुए और जले हुए भात की किकोरी यह पानी में तैर रही है। राम! राम!! न किस जाने अन्न का भात है। अरे, यह तो बाजरा मालूम होता है। जो है सो, क्यों इतना कसके काहे को रीन्ह दिया? तेरे को शऊर नहीं है? फिर उधर देखो, तमाम करिखा-करिखा पानी में उतराया है। साक्षात् कलियुग घाट पर छा गया है। हे प्रभु! अब मैं कहाँ नहाऊँ? रोज-रोज इसका यही धंधा है। रोज सोचता हूँ कि पहले आकर नहा लूँ, परंतु आते-आते ई यहाँ हाजिर! अरे देख, फजिर के बेला में आदमी के नहाने-धोने का वक्त है। देखकर आया कर। शिव-शिव-शिव! रोज तुमसे कहता हूँ—यह पानी गंदा मत कर। भगवान् पर चढ़ता है। कल से उधर हटकर बैठना। साधु-संत और देवता-पितर से डरो। जो है सो, क्या कह रहा हूँ...”

स्वामीजी बड़बड़ाते हुए बाँध के रास्ते उस पार नहाने के लिए चले। नदी मुश्किल से पंद्रह-बीस गज चौड़ी है। इस पार से उस पार जाने के लिए एक बाँध बना है। बाँस के खंभों पर बाँस बिछाकर यह बाँध बना है। बाँस बहुत बेतरतीब और खुले हैं। आने-जाने वालों को भरपूर सरकस करना पड़ता है। यह बाँध बाँध नहीं, गाँव के टूटेपन का प्रतीक है। यह तसवीर गाँव की है। यहाँ सुख-दुःख के दोनों किनारों के बीच जो जोड़-बटोरकर एक काम-चलाऊ जीवन बाँधा गया है, वह इतना अस्थिर, इतना डगमग, इतना उखड़ा, इतना डरावना, इतना लुजलुज है कि हर चलने वाला त्रस्त है। कोई भरोसा नहीं। पाँव डगमगाते हैं। फिसलन-पर-फिसलन है। अब गिरे, तब गिरे। ऐसा यह गाँव की टूटी जिनगी वाले टूटे लोगों का बाँध।

स्वामीजी ने अपनी चटाकी निकालकर हाथ में ले ली और शिव-शिव करते जब वे उस पार चले गए तो उधर से बसंत बाबू बाँध पर सवार हुए।

बसंत बाबू का किस्सा यह है कि ये गाँव के उस सबसे बड़े किसान के सुपुत्र हैं, जिनका हल उस बरतन माँजने वाली का पति जोतता है। ये आज पाँच वर्ष से इंटरमीडिएट में फेल हो रहे हैं। यह छठवाँ साल है। कॉलेज में ‘प्रिपरेशन लीव’ हो गई है। गंभीर अध्ययन के लिए गाँव में आए हैं। गाँव में शहर की भाँति टहलने-घूमने वाले स्मरणीय स्थान कहाँ हैं? बसंत बाबू का कथन है कि हमारे गाँव में एकमात्र ब्यूटीफुल प्लेस यदि कोई है तो वह बाँधवाला स्थान ही है। यहाँ नदी के दोनों किनारों पर झाडि़याँ हैं, जो नदी के पानी में झुकी हैं। ऐसे स्थलों को सिनेमा वाले खोजा करते हैं। यदि सूचना दे दी जाए शूटिंग करने के लिए तो वे बंबई से यहाँ आ जाएँ। सुबह इसकी खूबसूरती बहुत बढ़ जाती है। पानी शांत रहता है। बाँध पर जाते लोगों की शोभा, उनके डगमगाते पाँवों की शोभा, सूरज की किरणों के किनारों पर भिड़ी हरियाली पर खेलने की शोभा, बतखों के तैरते रहने की शोभा और ऊँचे किनारों के बीच नदी के सपाट-सीधे बहार की शोभा! बस इस बीच यदि कोई भद्दगी है तो गोरी का बरतन माँजते रहना। सुबह-सुबह यह गंदे बरतनों को लेकर बैठ जाती है। इस औरत को चाहिए कि बरतनों को तो यह घर पर ही साफ कर ले और यहाँ आकर खड़े-खड़े कुछ निहारा करे या अपनी एडि़याँ पत्थर पर रगड़े या अपना ब्लाउज उतारती रहे या पानी में तैरती रहे। तब इस स्थान की सुंदरता और बढ़ सकती है।

बाँध पर सवार होकर बसंत बाबू ने रोज की तरह उस औरत, उसके गंदे बरतनों की ओर निहार-निहारकर अनेक नखरे किए और कैसे हवा खाते, टहलते आए थे, उसी प्रकार चले गए।

अब यहाँ आज का प्रसंग बता दूँ, जिसके सिलसिले में मैंने सोचा कि यह गोरी मुझे भारतमाता की तरह लगी, जिसे आरंभ में ही मैंने लिखा है।

आज ऐसा हुआ कि गोरी बाँध के पास आई और नदी के किनारे बैठ गई। वह केवल हाथ धो रही थी। उसके साथ आज एक भी बरतन नहीं था। कचहरीसिंह आए। उसे देखते ही मुसकराते चले गए। स्वामीजी आए। उधर देखकर मन-ही-मन बहुत खुश हुए। बसंत बाबू आए और एकदम अपमा कैमरा ठीक करने लगे, फोटो लेने के लिए। मगर किसी ने यह नहीं सोचा कि आखिर रोज-रोज धोने के लिए आनेवाले उसके जूठे बरतन आज क्यों नहीं आए?

विवेकी राय

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