ताकि देश की नींव सुदृढ़ हो

बच्चे भगवान् का रूप हैं...कन्याएँ देवी का रूप हैं...जैसे वाक्य खूब बोले-सुने जाते हैं। श्रीकृष्ण की बाल-लीलाएँ भी हर भारतवासी को आनंदित करती हैं। सूरदास तथा अन्य कवियों ने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं पर उत्कृष्ट काव्य सृजन किया है। बच्चे घर-घर के लिए कैसे आनंद का वातावरण बनाते हैं तथा बच्चों के बिना घर कितना नीरस होता है, इससे भी सब परिचित हैं। देर-सबेर सरकारों का ध्यान भी बाल-कल्याण की दिशा में गया।

राष्ट्रीय बाल नीति बनाई गई। केंद्रीय सरकार में पहले बाल कल्याण विभाग, फिर बाल कल्याण मंत्रालय का गठन हुआ। प्रतिवर्ष ‘बाल दिवस’ मनाया जाता है तो विश्व स्तर पर २० नवंबर को ‘बाल अधिकार दिवस’ भी मनाया जाता है। बाल अधिकार आयोग का भी गठन हुआ। बच्चों के लिए विविध योजनाएँ बनीं। गणतंत्र दिवस पर वीर बालक-बालिकाओं को परेड में शामिल करना भी एक महत्त्वपूर्ण कदम था। ये बच्चे पहले हाथी पर सवार होकर गणतंत्र दिवस परेड का विशेष आकर्षण बनते थे, अब खुली जीप में भी उतने ही आकर्षण का केंद्र बनते हैं। प्रतिभावान बच्चों को  अनेक सम्मानित-पुरस्कृत करने की भी योजनाएँ हैं।

इन सबके बावजूद स्वाधीनता के ७५ वर्ष बीत जाने के पश्चात् भी बच्चों की स्थिति बहुत कुछ बदलाव की माँग करती है।

यूनीसेफ जैसी संस्थाओं के साथ मिलकर चलाई गई अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन के कारण जन्म लेते ही मरनेवाले बच्चों की संख्या में कमी आई है। घातक बीमारियों से बचने के लिए टीकाकरण के भी संतोषजनक परिणाम आए हैं, फिर भी भारत की गरीबी, अशिक्षा एवं सामाजिक परिदृश्य के कारण हम कई देशों से अभी भी पीछे हैं। सबसे बड़ा सवाल देश के प्रत्येक बच्चे को अच्छी शिक्षा मिलने का है। एक ओर पाँच सितारा होटल जैसी सुविधाएँ देने का दावा करनेवाले पब्लिक स्कूल, कॉन्वेंट स्कूल हैं तो दूसरी ओर अनेकानेक अभावों, असुविधाओं का सामना करते सरकारी विद्यालय हैं। पढ़ने की ललक में कितने ही प्रांतों में मासूम बच्चे रस्सी के सहारे जान जोखिम में डालकर नदी पार कर विद्यालय पहुँचते हैं; कहीं मीलों पैदल चलकर या पहाड़ी या जंगली रास्ते को पार कर विद्यालय पहुँचते हैं। यदि कहीं दूर-दराज गाँव में कामचलाऊ सुविधाएँ हैं भी तो शिक्षकों का अभाव रहता है। अकसर ऐसे सर्वेक्षण या दृश्य सामने आते हैं कि बच्चों को बहुत प्राथमिक स्तर का भी भाषा-ज्ञान या अन्य विषयों का ज्ञान नहीं हो पाता, भले ही वे पाँचवीं से लेकर आठवीं कक्षा के छात्र क्यों न हों! ऐसे में शिक्षा की यह कमजोर नींव देश अथवा समाज के ढाँचे को कितना सुदृढ़ कर पाएगी! हैरानी की बात यह भी है कि अकसर कुछ प्रांतों के छोटे शहरों, कस्बों अथवा गाँवों में हुए अचानक निरीक्षण अथवा सर्वेक्षणों में शिक्षकों का अल्प ज्ञान या दूषित ज्ञान हमें आश्चर्य से भर देता है कि ऐसे शिक्षकों से बच्चे क्या और कितना सीख पाएँगे!

जहाँ तक लाखों की फीस लेनेवाले अनेकानेक सुविधाओं से युक्त स्कूलों के छात्र-छात्राओं का सवाल है तो हमें भूलना नहीं चाहिए कि ऐसे स्कूलों से हमें आए दिन कैसी-कैसी अप्र‌िय खबरें पढ़ने-सुनने को मिलती हैं। ये सुविधाभोगी बच्चे किस प्रकार की मानसिकता विकसित कर लेते हैं। समाज के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण बनता है, विशेषकर भारत जैसे देश में, उनमें कितनी संवेदनशीलता, करुणा, दया, त्याग जैसे मानवीय मूल्यों का विकास हो पाता है!

यहाँ एक बात को याद करना अत्यंत प्रासंगिक होगा। पुराने जमाने में राजा अपने बेटों को गुरुकुल में क्यों भेजते थे? किसी भी राजा को राजहमल में ही सौ शिक्षकों को बुलाकर बेटों को शिक्षा दिलाना कठिन नहीं था। राजा अपने बेटों को इसल‌िए गुरुकुल भेजते थे, ताकि वे अन्य सामान्य प्रजाजनों के साथ िमलकर पढें़, उनके जीवन तथा संघर्षों से परिचित हों, स्वयं भी संघर्ष एवं अनुशासन का पाठ सीख सकें; महल की सुख-सुविधाओं से वंचित रहें! संघर्ष भी जीवन का महत्त्वपूर्ण पाठ है! महँगे स्कूलों की सुविधाओं की चमक-दमक में पले-बढ़े बच्चे सामाजिक सच्चाइयों और आवश्यक संघर्षों से वंचित रह जाते हैं, जिसके दुष्परिणाम हम तनिक सी चोट लगने पर आत्महत्या कर बैठने या गुस्से में कुछ अपराध कर देने या नशे जैसी बुराइयों का शिकार बन जाने में देखते हैं। शिक्षा में भयावह गैर-बराबरी समाज में एक बहुत बड़ी खाई पैदा कर देती है, जिसे हम अनेक विकृतियों, विडंबनाओं में परिलिक्ष‌ित होते देखते हैं। सच कहें तो यह शैक्षिक गैर-बराबरी देश के लिए गहरे असंतोष, अलगाव, आक्रोश आदि का बीजारोपण कर देती है। विडंबना यह भी है कि सुविधायुक्त विद्यालय तो नगरों, महानगरों में थोड़े से ही हैं, जहाँ बच्चों को प्रवेश दिलाने की मारामारी होती है, बहुसंख्या में वही विद्यालय हैं, जिनमें शिक्षा के स्तर पर प्रश्नचिह्न खड़े होते हैं। क्या ऐसी शिक्षा का ही यह फलित नहीं है कि वैश्विक सर्वेक्षणों में २०० या ३०० श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के आकलन में भारत के एक-दो संस्थान ही स्थान ले पाते हैं। नालंदा या तक्षशिला या विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों की गौरवगाथा सँजोए देश के लिए यह स्थिति कितनी अप्रिय प्रतीत होती है! सही शिक्षा अथवा गुणवत्तायुक्त शिक्षा न मिल पाने का प्रश्न (वह भी अधिकांश बच्चों को) जितना महत्त्वपूर्ण है, उससे हजार गुना बड़ा प्रश्न करोड़ों बच्चों का शिक्षा से पूरी तरह वंचित रह जाने का है। आज भी करोड़ों बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं या विद्यालयों में नहीं जा पा रहे हैं! अनेक कानूनी प्रावधानों के बावजूद बालश्रम थम नहीं पा रहा। शहरों-कस्बों में, होटलों-ढाबों में कितने ही मासूम ‘छोटू’ चाय देते मिल जाएँगे। प्रतिबंध के बावजूद जोखिम वाले कारखानों-उद्योगों में काम करते मिल जाएँगे। सरकारी पुनर्वास योजनाओं से बाल-मजदूरी से मुक्ति पाने में तो जाने कितने वर्ष लग जाएँगे, आवश्यकता है कि कोई व्यापक विराट् अभियान चलाकर बाल-मजदूरी को जड़ से मिटा दिया जाए और हर बच्चे को शिक्षा से मुनाफा कमाने का धंधा न बनने दिया जाए! जैसा कि हम नगरों में अनेक व‌िद्यालयों के आचरण में देखते हैं। कितने ही स्कूल, कड़वे शब्दों में कहें तो शिक्षा के नाम पर ‘सफेदपोश लूट’ का माध्यम बन गए हैं। अदालतों में दायर की गई जनहित याचिकाएँ इसका प्रमाण हैं।

बाल-अपराधों और बाल-अपराधियों की बढ़ती हुई संख्या किसी भी सभ्य समाज को डराने के लिए पर्याप्त है। बाल-अपराधियों के ऐसे क्रूरतापूर्ण भयानक अपराध सामने आए हैं कि उनको उद्धृत करना भी कुरुचिपूर्ण लगता है, क‌िंतु वे घटित हुए हैं। सरकारों, स्वयंसेवी संस्थाओं, समाज-चिंतकों को इस प्रश्न पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। अकसर बाल-अपराधियों को भी अपराध के आधार पर सजा देने या वयस्क मानने की उम्र घटा देने जैसी माँगें तो उठती हैं, क‌िंतु कोई व्यापक एवं गंभीर विमर्श नहीं हुआ है। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि भारत का मीडिया कभी भी गंभीर प्रश्नों पर विमर्श नहीं करता वरन् बेकार की बहसों पर समय बरबाद करके देश की चेतना पर आघात करता है।

सामान्य बच्चों का मासूम निश्छल संसार भी आमूलचूल बदल चुका है। बच्चे शहर के हों अथवा कस्बों या गाँवाें के, उनकी दुनिया अब फूलों, तितलियों, परियों, सुंदर कल्पनाओं, संयुक्त परिवार की खिलखिलाहटों या खेलकूद और मनोरंजन वाली दुनिया नहीं रही।

शहरों की सुविधाओं में पल रहे बच्चों की दुनिया तो और भी कष्टप्रद हो गई है। एकल परिवार और उस पर भी माता-पिता, दोनों नौकरी में—उन्हें संस्कार देने का दायित्व या तो घर की ‘मेड’ पर है अथवा टीवी चैनलों पर, जो अपसंस्कृति-विकृतियों का अपार भंडार हैं। ‘होमवर्क’ का बोझ उनको बाहर जाकर खेलने से रोकता है, तनावग्रस्त करता है तो अब मोबाइल एक नई ‘महामारी’ बन गया है। उनकी कच्ची मासूम उम्र उन अनेक अपराध विषयक कार्यक्रमों या अश्लील वयस्क वीडियो के अनुकूल नहीं है, जो वे जाने-अनजाने में देख रहे हैं और विकृतियों के शिकार हो रहे हैं, उनकी संवेदनाएँ भोथरी हो रही हैं।

अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने के कारण वे पहले से ही अपनी संस्कृति- संस्कारों से दूर हो रहे हैं, दादा-दादी की शिक्षाएँ-कहानियाँ बचीं नहीं—फिर मोबाइल से इतनी भयानक अश्लीलता, फूहड़ता, विकृति का निरंतर प्रहार! गाँवों के बच्चों की अपनी समस्याएँ हैं, झुग्गी-बस्तियों में पल रहे बच्चों की अपनी समस्याएँ हैं, अनाथ बच्चों की अपनी समस्याएँ हैं, दृष्टिबाधित या अन्य दिव्यांग बच्चों की अपनी समस्याएँ हैं।

कटु सत्य यही है कि बच्चों के लिए जो कुछ हो रहा है, उससे सौ या हजार गुना प्रयास करने की आवश्यकता है। बचपन को स्वस्थ, सुखद, सुयोग्य, सुसंस्कारित बनाए जाने की आवश्यकता है। करोड़ों बच्चों की समस्याओं का समाधान कोई साधारण कार्य नहीं है। भारत में चूँकि बच्चों का ‘वोट’ नहीं है तो उनके लिए संघर्ष करनेवाले, सोच-विचार करनेवाले भी बहुत कम हैं! बच्चों को प्यार करना एक बात है और उनके कल्याण के लिए सोच-विचार करना दूसरी बात।

बाल साहित्य समृद्ध हो

जिस देश में लगभग पच्चीस करोड़ से अधिक हिंदी पढ़ने-लिखने वाले बच्चे हों, उस देश में एक भी ऐसी बाल-पत्रिका न हो, जो लाखों बच्चों तक पहुँचे या घर-घर पहुँचे तो यह दुःख की, चिंता की बात है। यदि देश में सौ से अधिक स्तरीय बाल-पत्रिकाएँ होतीं तो भी पच्चीस करोड़ बच्चों के लिए कम ही होतीं! कभी नंदन, पराग, चंदामामा जैसी पत्रिकाएँ बच्चों का ज्ञानवर्धन करती थीं, हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति उनकी रुचि जगाती थीं, भविष्य के लिए ‘पाठक’ तैयार करती थीं! हिंदी में यह शून्य कैसे भरे, इस पर ह‌िंदी के प्रकाशकों को विचार करना चाहिए।

बाल-साहित्य की गुणवत्ता और प्रसार पर भी विचार करने की आवश्यकता है। हिंदी प्रांतों की संस्थाओं ने अब बाल-साहित्य को सम्मानजनक स्थान देने का प्रयास किया है; पुरस्कार राशि, जो पहले अत्यंत दयनीय थी, उसे सुधारा है, किंतु कुछ और गंभीर एवं ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है।

अब साहित्य-उत्सव तो अनेक नगरों में आयोजित हो रहे हैं, किंतु उनमें भी बाल-साहित्य की ओर कम ही ध्यान गया है। वैली ऑफ वर्ड्स साहित्य उत्सव ने बाल एवं किशोर लेखन पर एक लाख रुपए का पुरस्कार देने की अच्छी पहल की है, अन्य स‌ाहित्य उत्सवों को भी इस दिशा में सोचना चाहिए। प्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकारों को भी बच्चों से जुड़ी समस्याओं पर लेखन को प्राथमिकता देनी चाहिए। ‘आपका बंटी’ जैसी कृति को कई दशक बीत गए। बाल-साहित्य का परिदृश्य समृद्ध बनेगा तो देश एवं समाज के लिए भी हितकर होगा!


(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

हमारे संकलन