कैरियरिस्ट

कैरियरिस्ट

रूपसिंह चंदेल: सुपरिचित लेखक। १५ उपन्यास, १५ कहानी-संग्रह, ४ संस्मरण, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी-संग्रह, ५ आलोचनाएँ, यात्रा-संस्मरण, लघुकथा-संग्रह, साक्षात्कार, सहित अब तक ७० पुस्तकें प्रकाशित। हिंदी अकादमी दिल्ली से १९९० और २००० में सम्मानित।

सुबह साढ़े ग्यारह बजे का समय। ठंड के कारण उँगलियाँ कंप्यूटर पर ठीक प्रकार से चल नहीं रही थीं। बाहर कोहरा अभी भी इतना घना था कि स्टडी रूम के बालकनी के शीशे के दरवाजे और खिड़की के पार कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। वह सुबह आठ बजे ही कंप्यूटर पर बैठ गए थे। दो दिनों से एक कहानी मस्तिष्क में घूम रही थी। घूम तो वह लगभग एक वर्ष से रही थी, लेकिन दो दिनों से उसने उन्हें परेशान किया हुआ था। रात देर तक वह उस विषय पर सोचते रहे और तय किया कि सुबह उस पर काम करेंगे ही। कहानी हो या उपन्यास, उसे प्रारंभ करना सदैव उनके लिए चुनौतीपूर्ण रहता रहा। लेकिन सुबह जब वह कंप्यूटर पर उस पर काम करने के लिए बैठे सब सहज लगा और कहानी तेजी से आकार लेने लगी। उस समय वह उसे अंतिम रूप दे रहे थे। विचार और भाव तेजी से मस्तिष्क में दौड़ रहे थे और उँगलियाँ कंप्यूटर पर। तभी मोबाइल की घंटी उन्हें सुनाई दी। मोबाइल लिविंग-रूम में रखा था। काम करते समय प्रायः वह उसे पास नहीं रखते। प्रायः उसकी आवाज धीमी कर देते हैं। लेखन के समय व्यवधान उन्हें स्वीकार नहीं। लेकिन उस दिन वह उसकी आवाज धीमी करना भूल गए थे। वह अचंभित थे। फोन करनेवाले ने पाँच मिनट के अंदर सात बार फोन किया।

‘बेटे का तो नहीं!’ उन्होंने कहानी पर काम रोककर सोचा। वह अमेरिका में है। ‘लेकिन वह इस समय फोन नहीं करता। जब भी करता है, सुबह नौ-दस बजे तक कर लेता है। इस समय तो वहाँ रात के साढ़े ग्यारह-बारह बज रहे होंगे। सुबह आठ बजे उसे ऑफिस के लिए निकलना होता है जो उसके निवास से डेढ़ घंटे के ड्राइव पर है।’ कंप्यूटर पर उँगलियाँ चलना बंद हो गईं। ‘फिर किसका था?’ वह फिर सोचने लगे। तभी उन्हें याद आया कि इस प्रकार उतावलेपन के साथ एक-दो बार विपाशा ने उन्हें फोन किया था। ‘हो सकता है उसी का हो। फिर भी देख लेना चाहिए।’ सोचकर वह उठे और मोबाइल चेक किया। विपाशा का ही था। उन्होंने फोन की आवाज धीमी की, जिससे यदि वह फिर करे तो उन्हें फोन की आवाज सुनाई न दे। विपाशा का जब अपना कोई काम होता है तब वह इसी प्रकार फोन करती है वरना महीनों बीत जाते हैं व्हाट्स ऐप पर मेसेज तक नहीं करती और यदि वह करते हैं, तब उनके मेसेज को देखती भी नहीं, उत्तर देना तो दूर।

‘कहानी समाप्त करके उसे फोन करूँगा।’ उन्होंने सोचा, ‘लेकिन तब तक निश्चित ही वह दो-चार बार और करेगी।’ मोबाइल को साइलेंट करना ठीक था।’

वह कंप्यूटर पर आ बैठे। साढ़े बारह बजे कहानी की अंतिम पंक्ति लिखकर उन्होंने कंप्यूटर बंद किया। खड़े होकर कमर सीधी की। लगातार साढ़े चार घंटे कंप्यूटर पर बैठे रहने से कमर और पीठ दुखने लगे थे। उनके साथ प्रायः ऐसा ही होता है। जब किसी काम का भूत सिर पर सवार होता है तब जब तक उसे समाप्त नहीं कर लेते बीच में दस-पंद्रह मिनट का विराम देकर वह घंटों, कभी-कभी सात-आठ घंटे तक काम करते रहते हैं। जब उपन्यास पर काम करते हैं चैप्टर समाप्त कर ही कंप्यूटर से उठते हैं।

उन्होंने शीशे के दरवाजे और खिड़की से बाहर सड़क की ओर देखा। कोहरा काफी हद तक छँट चुका था और बीमार सी धूप सड़क पर दिख रही थी। एक घंटा पहले तक सोसाइटी के बाहर हाई-वे पर न दिखनेवाले वाहन दौड़ते दिख रहे थे। ठंड अभी भी उतनी ही थी। बाहर का जायजा लेने के लिए दरवाजा खोलकर वह बालकनी में गए। दरवाजा खुलते ही ठंडी हवा के झोंके ने उनका स्वागत किया। कमरे में बैठे अनुमान नहीं लगा पाए थे कि बाहर शीत लहर चल रही थी। दरवाजा बंद कर वह विपाशा को फोन करने के लिए लिविंग रूम में आ गए। उन्हें एक माह पहले उससे हुई व्वाट्स एप चैट याद हो आई।

वह २ जनवरी की रात पौने दस बजे की बात थी। उस दिन भी ठंड अधिक थी। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में विगत तीन दिनों से बहुत बर्फ गिर रही थी। मौसम विभाग की घोषणा के अनुसार अगले एक सप्ताह तक शीतलहर चलने की घोषणा थी उसी प्रकार जैसा कि उस दिन से पहले मौसम विभाग ने घोषणा की थी और फरवरी का पहला सप्ताह होने के बावजूद उतनी ही ठंड थी जितनी २ जनवरी को थी।

२ जनवरी को वह सोने की तैयारी कर ही रहे थे और सुबह जगने के लिए अलार्म लगाने के लिए मोबाइल उठाया ही था कि विपाशा का व्हाट्सअप मेसेज उन्हें मिला। अमूमन वह पौने दस बजे न किसी का फोन सुनते हैं और न ही किसी के मेसेज के उत्तर देते हैं, लेकिन उत्सुकतावश उन्होंने उसका मेसेज देखा और उत्तर भी दिया। उसके बाद विपाशा लगातार उनसे प्रश्न-दर-प्रश्न करती रही और वह उत्तर देते रहे थे।

उस दिन उसने अपने सद्यःप्रकाशित कविता-संग्रह को लेकर चैट किया था। उसका वह कविता-संग्रह उनके परिचित प्रकाशक के यहाँ से प्रकाशित हुआ था। उसके किसी मित्र ने अमेजॉन पर पुस्तक के लिए आदेश बुक किया था लेकिन अमेजॉन से उसके मित्र को लगातार पुस्तक के अनुपलब्ध होने का संदेश आ रहा है। उसने अपने मित्र के अमेजॉन से मिले संदेशों के स्क्रीन शॉट्स भी उन्हें भेजे थे। उन्होंने उसे प्रकाशक से बात करने के लिए कहा लेकिन वह चाहती थी कि वह प्रकाशक से बात करें क्योंकि प्रकाशक उनका मित्र भी है। अंततः उसके चैट से ऊबकर उन्होंने उसे संदेश दिया कि वह सुबह उन्हें फोन करे। उसने उनका वह संदेश नहीं देखा और न ही उसने उन्हें फोन किया। अगले दिन सुबह उन्होंने उसे उसके दूसरे व्वाट्स ऐप नंबर पर संदेश देकर जानना चाहा कि प्रकाशक से उसकी बात हुई या नहीं और तभी उन्होंने डॉ. प्रतीक तिवारी के आलेख के विषय में पूछा और लिखा कि यदि डॉ. तिवारी ने आलेख नहीं भेजा तो वह उनसे बात करके या उन्हें व्हाट्स ऐप संदेश देकर उनके उत्तर से उन्हें अवगत करवाएगी। उस संदेश को देखने के बाद भी उसने महीने भर तक चुप्पी साध रखी थी। और आज फोन-दर-फोन।

‘निश्चित ही इसकी अपनी कोई खास समस्या है।’ सोचते हुए वह सोफे पर बैठे ही थे कि मोबाइल फिर बज उठा। उठाया तो विपाशा का शहद मिश्रित स्वर सुनाई पड़ा, “सर, मेरे पास वर्माजी का फोन आया था। वह मेरे कहानी-संग्रह का शीर्षक बदलने के लिए कह रहे हैं।”

वर्मा उसके दूसरे प्रकाशक हैं। वह उसका पहला कहानी-संग्रह प्रकाशित कर रहे हैं। वर्मा से भी उन्होंने ही उसका परिचय करवाया था। दरअसल विपाशा ने जब अपना कविता-संग्रह ‘भारत पुस्तक सदन’ को दिया था तब कहा था कि उसके पास बारह कहानियाँ हो चुकी हैं। वह चाहती है कि उसका कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हो जाए। अधिक-से-अधिक पुस्तकों के प्रकाशन से उसे उस विश्वविद्यालय के किसी महाविद्यालय में नियुक्ति पाने में सुविधा रहेगी, जहाँ की वह छात्रा रही है। कुछ दिनों तक उस विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय में तदर्थ पढ़ाने के बाद उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा आयोग की ओर से उसका स्थायी चयन बनारस के एक महाविद्यालय में हो गया था। लेकिन वह वापस उस विश्वविद्यालय में लौटना चाहती है। उन्होंने वर्मा को उसका संग्रह प्रकाशित करने की सिफारिश की और उनकी बात को सम्मान देते हुए वर्मा उसका पहला कहानी-संग्रह प्रकाशित कर रहा था।

विपाशा के कहानी-संग्रह के शीर्षक को बदलने के वर्मा के निर्णय के विषय में चर्चा करने से पहले विपाशा के उनसे परिचित होने के विषय में संक्षेप में बताना आवश्यक है। प्रखर आलोचक डॉ. जयप्रकाश उनके मित्र थे। डॉ. जयप्रकाश उस विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। विपाशा उनकी छात्रा थी। उनकी सलाह पर उसने एक अन्य प्रोफेसर के निर्देशन में उनके उपन्यास पर एम.फिल. किया था। निश्चित ही विपाशा एक प्रतिभाशाली छात्रा थी और डॉ. जयप्रकाश सदैव अपने प्रतिभाशाली छात्रों को आगे बढ़ाने के लिए उनका उत्साहवर्धन करते और आवश्यकता पड़ने पर यथा-संभव सहायता करते। विपाशा ने उसी विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की थी और डॉ. जयप्रकाश के प्रयास से वह एक महाविद्यालय में तदर्थ नियुक्ति पाने में सफल रही थी।

उनके उपन्यास पर एम.फिल. करने के बाद वह उनके भी संपर्क में रहने लगी थी। विपाशा के तदर्थ नियुक्ति पाने के अगले वर्ष डॉ. जयप्रकाश विश्वविद्यालय से सेवामुक्त हो गए और कुछ माह पश्चात ही हृदयाघात से उनका देहांत हो गया। उनकी मृत्यु की सूचना उन्होंने विपाशा को फोन पर रात में दी और बताया कि अगले दिन सुबह नौ बजे सत्यबोध घाट में उनका अंतिम संस्कार होगा।

‘मैं पहुँचूँगी सर।’ विपाशा ने कहा था।

अगले दिन डॉ. जयप्रकाश की अंत्येष्टि के समय अंतिम क्षण तक वह विपाशा को वहाँ एकत्र भीड़ में खोजते रहे, लेकिन वह नहीं दिखी। रात उसका मोबाइल पर एस.एम.एस. मिला कि रात बारह बजे उसके एक रिश्तेदार गाँव से लोहिया अस्पताल में चेकअप के लिए आ गए थे और सुबह उसे उनके साथ अस्पताल जाना पड़ा था। उसका एस.एम.एस. संदेश पढ़कर वह सोचते रहे थे कि जो व्यक्ति गाँव से दिल्ली उसके निवास तक पहुँच सकता है, वह लोहिया अस्पताल भी पहुँच सकता था और विपाशा अपने उस गुरु के अंतिम दर्शन के बाद अस्पताल जा सकती थी, जिसने उसे कॅरियर में आगे बढ़ाने के लिए न केवल प्रोत्साहित किया बल्कि उसके लिए एक महाविद्यालय में तदर्थ नियुक्ति दिलवाने में अहम भूमिका निभाई थी। उस दिन वह घंटों विपाशा के बारे में सोचते रहे थे। लेकिन तब उन्होंने यह भी सोचा था कि संभव है कि उसके रिश्तेदार के स्वास्थ्य की स्थिति चिंताजनक रही हो और उसे उसके साथ जाना पड़ा हो।

डॉ. जयप्रकाश की मृत्यु के पश्चात् विपाशा ने लंबे समय के लिए चुप्पी साध ली थी। लेकिन अचानक एक दिन उसका फोन आया कि वह मुझसे मिलना चाहती है। मिल तो नहीं सके, वह लेकिन किसलिए मिलना चाहती है पूछने पर उसने कहा कि वह अपना शोध-प्रबंध प्रकाशित करवाना चाहती है। उसे पता था कि उनके अनेक प्रकाशकों के साथ मधुर संबंध हैं और उनकी बात को उनके प्रकाशक कभी इनकार नहीं करेंगे। यह बात उसके बनारस के एक महाविद्यालय में चयनित होने से एक वर्ष पहले की थी। प्रकाशक ने उसके शोध-प्रबंध को एक स्वतंत्र आलोचना पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया और स्वयं विपाशा का कहना था कि ‘उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा आयोग’ में उसके चयन में उस पुस्तक की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। बनारस में नियुक्ति पाने के बाद से ही वह उस महाविद्यालय में लौटने के सपने देखने लगी थी।

बनारस पहुँचने के पश्चात् उसने एक दिन उन्हें फोन करके उनके उपन्यासों पर एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखने की चर्चा करते हुए कहा कि वह उस काम को जल्दी समाप्त करना चाहती है।

“सर, मेरा सपना अपने उस विश्वविद्यालय में पढ़ाने का है, जहाँ की मैं छात्रा रही हूँ। इसके लिए आवश्यक है कि मेरी अधिक-से-अधिक प्रकाशित पुस्तकें हों—विशेषकर आलोचना पुस्तकें।” उसका वही पुराना तर्क।

“विचार सही है।” कुछ सोचते हुए उन्होंने कहा, “मेरा एक सुझाव है।”

“सर, कहें।” विपाशा एेसे ही बोलती है।

“विपाशा, मेरी सलाह है कि तुम डॉ. जयप्रकाश के आलोचना-कर्म पर एक पुस्तक लिखो। एक सशक्त आलोचक होने के बावजूद उनको वह चर्चा नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे। वह साहित्यिक दुनियादारी से दूर एक सीधे व्यक्ति थे। केवल काम में विश्वास रखते थे।” एक क्षण रुककर उन्होंने आगे कहा, “तुम उनकी प्रिय शिष्या रही हो, तुम्हारे लिए उनसे जो बन पड़ा, उन्होंने किया।”

“जी सर, वह मुझे बहुत प्रोत्साहित करते थे।”

“केवल इतना ही?”

“केवल इतना ही नहीं सर।” विपाशा की आवाज लड़खड़ा गई।

“मेरा सुझाव तो यही है कि उनके आलोचना कर्म पर कार्य करो। मेरे उपन्यासों पर तो बहुत से छात्र पी-एच.डी. और एम.फिल. कर चुके हैं और कर रहे हैं, लेकिन उनकी घोर उपेक्षा हुई है। और ऐसा तब हुआ जबकि वह एक प्रोफेसर थे और उनके अधीन कितने ही छात्रों ने शोध किया था।”

“जी सर।” इस बार विपाशा की आवाज में पहले की अपेक्षा कहीं अधिक शिथिलता उन्होंने अनुभव की।

“कोई परेशानी?” उन्हें लगा कि उनकी बात से विपाशा परेशान थी।

“सर, आपके तीन उपन्यास मैंने पढ़ रखे हैं और मैं तीन और पढ़कर काम करना चाहती थी। वह मेरे लिए आसान होता, लेकिन आलोचना!”

“हुम,” देर तक वह सोचते रहे, फिर बोले, “मेरा एक सुझाव है।”

“कहें सर।”

“तुम डॉ. जयप्रकाश के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पुस्तक संपादित करो। कुछ लोगों से उनके व्यक्तित्व पर लिखने के लिए आग्रह करो और कुछ से कृतित्व पर। मैं भी लोगों को कहूँगा। मैं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर सम्मिलित आलेख लिखूँगा।”

“सर, यह सही रहेगा।” क्षणभर रुककर उत्साहपूर्ण स्वर में वह बोली, “सर, जिनसे लिखवाना है, उनकी सूची उनके फोन नंबर के साथ मुझे भेज दें, मैं सभी से संपर्क कर लूँगी।” कुछ देर तक चुप रहने के बाद वह बोली, “और सर, प्रकाशक भी आप ही दिलवा दीजिएगा।”

“ठीक।”

और उन्होंने डॉ. जयप्रकाश के परिचित पंद्रह लोगों के नाम उनके फोन नंबर सहित विपाशा को दे दिए। एक-दो वरिष्ठ आलोचकों ने निर्धारित समय सीमा के बाद आलेख देने और एक-दो बार उन्हें स्मरण करवाने की बात उसे कही। डॉ. तिवारी को छोड़कर सभी ने अपने आलेख भेज दिए थे। भेजनेवालों में अधिकांश ने उन्हें फोन पर उसे आलेख भेजने की सूचना दी थी। डॉ. तिवारी ने उसे और उन्हें भी फोन पर सूचित किया कि वह लिखने में कुछ और समय लेंगे, लेकिन जैसे भी होगा नवंबर अंत तक आलेख अवश्य भेज देंगे। लेकिन उस दिन के बाद विपाशा ने चुप्पी साध ली थी। न ही फोन किया और न ही उनके मेसेज का उत्तर दिया।

वह कारण तलाशने का प्रयास करने लगे और तभी उन्हें याद आई थी अक्तूबर के आखिरी सप्ताह उससे हुई बात। फोन विपाशा ने किया था लेकिन जहाँ वह हर बार लेखकों के मिले आलेखों पर चर्चा करती उस दिन उसने उस विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष के लिए फोन किया था, जहाँ की वह छात्रा रही थी और जहाँ के किसी महाविद्यालय में वह नियुक्ति चाहती थी।

“सर, वीरसिंहजी आपके घनिष्ठ मित्र हैं न!”

“हाँ, क्यों?”

“सर, वीरसिंहजी विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष डॉ. श्याम सिंहजी के भी घनिष्ठ मित्र हैं।”

“शायद।”

“सर, आपने ही एक दिन बताया था।”

देर तक सोचने के बाद उन्होंने कहा, “याद नहीं, लेकिन शायद दोनों अच्छे मित्र हैं। डॉ. श्याम सिंह शायद हाल ही में विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष बने हैं। सिफारिशी व्यक्ति हैं।”

“सर, हर विश्वविद्यालय में सिफारिशी लोग ही ऊपर पहुँचते हैं।”

“तुम ठीक कह रही हो। ऊपर की बात ही क्या, आजकल तो बिना सिफारिश के किसी को किसी भी विश्वविद्यालय या कॉलेज में नियुक्ति नहीं मिलती। नेट आदि परीक्षाएँ तो केवल दिखावा मात्र हैं। कितने ही नेट उत्तीर्ण पी-एच.डी., डी.लिट. बेकार घूम रहे हैं और निकम्मे प्रोफेसर बन रहे हैं। विभागाध्यक्ष बन रहे हैं।” वह क्षणभर रुके थे, “और केवल शिक्षण में ही नहीं विश्वविद्यालय और कॉलेजों में हर स्तर पर भ्रष्टाचार है—नियुक्तियों में।”

“जी सर।”

अपने को संयमित करते हुए उन्होंने पूछा, “क्या काम है वीर सिंह से?”

“सर, मेरी एक मित्र ने बताया कि वहाँ के कुछ महाविद्यालयों में जल्दी ही कुछ सहायक प्रोफेसरों के स्थायी पदों के लिए विज्ञापन निकलनेवाले हैं। यदि आप वीर सिंहजी से मेरे लिए कह देंगे और वह डॉ. श्याम सिंहजी से मेरी सिफारिश कर देंगे तो संभव है कि मुझे चांस मिल जाए। डॉ. श्याम सिंहजी के चाहने पर ही वहाँ नियुक्ति संभव हो पाएगी।”

‘हुँह।’ वह सोचने लगे थे।

“सर, आपको एक बार ही कहना है, फिर आप मुझे वीर सिंहजी का नंबर दे दीजिएगा। मैं स्वयं उनसे बात कर लूँगी। आप जानते ही हैं सर कि मेरे पति और बच्चे वहीं हैं। मैं माह-दो माह में वहाँ आती रहती हूँ। वीर सिंहजी से आपके कहने के बाद मैं उनसे और डॉ. श्याम सिंहजी से मिल लूँगी।” धाराप्रवाह बोलने के बाद विपाशा क्षणभर के लिए रुकी फिर स्वर में दयनीयता लाती हुई बोली, क्ष्‍प्लीज सर।”

“विपाशा, मैं वीर सिंह का नंबर अभी तुम्हें व्हाट्सएप कर दूँगा और उन्हें तुम्हारे बारे में कह भी दूँगा, लेकिन तुम्हें एक बात से अवगत करवा दूँ कि डॉ. श्याम सिंह और डॉ. जयप्रकाश के रिश्ते अच्छे नहीं थे। डॉ. श्याम सिंह डॉ. जयप्रकाश की विद्वत्ता और उनके लेखकीय अवदान के समक्ष कहीं नहीं ठहरते, हालाँकि वह भी अपने को लेखक कहते हैं। लेकिन उन्होंने क्या लिखा है, यह दुनिया जानती है। आज जहाँ पहुँचे हैं, वह तुम भी जानती हो और विश्वविद्यालय में दूसरे भी। उनकी चाटुकारी प्रवृत्ति डॉ. जयप्रकाश को नापसंद थी और यही दोनों के बीच दूरी का कारण थी। डॉ. जयप्रकाश की प्रतिभा से डॉ. श्याम सिंह को ईर्ष्या थी और सुनने में तो यह भी आया था कि डॉ. जयप्रकाश विभागाध्यक्ष न बनें, इसके लिए कुछ लोगों के साथ मिलकर डॉ. श्याम सिंह ने उनके विरुद्ध कुछ षड्‍यंत्र भी किए थे।”

उन्हें लगा कि इतना सब कहते हुए वह थक गए थे। वह चुप हो गए।

“सर, डॉ. जयप्रकाशजी और डॉ. श्याम सिंहजी का वह आपसी मसला था। आप प्लीज मेरे लिए वीर सिंहजी से कह देंगे और मुझे उनका नंबर दे देंगे। आपके कहने के बाद मैं भी उनसे बात कर लूँगी।”

“ठीक।”

और उन्होंने उसे वीर सिंह का नंबर दे दिया था और वीर सिंह को कह भी दिया था।

“सर-सर, आपने मेरी बात शायद सुनी नहीं।” विपाशा का स्वर सुनकर वह चौंके। सच ही वह कहीं गुम सा हो गए थे।

“क्या?”

“सर, वर्माजी मेरे कहानी-संग्रह का शीर्षक बदलना चाहते हैं।”

“अभी क्या शीर्षक है?”

“मेरी प्रिय बारह कहानियाँ।”

“उन्होंने यह श्रृंखला प्रारंभ की है। दस वरिष्ठ लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं।” वह बोले, “वर्माजी क्या कह रहे हैं?”

“उनका कहना है कि यह मेरा पहला कहानी-संग्रह है, इसलिए वह वरिष्ठ लेखकों के साथ ‘मेरी प्रिय बारह कहानियाँ’ श्रृखंला के अंतर्गत इसे नहीं छापेंगे।”

“तो, नाम बदल दो।”

“सर इससे क्या फर्क पड़ता है। मेरे संग्रह में बारह कहानियाँ हैं न!”

“बेशक हैं। लेकिन तुम्हारे पास यही बारह कहानियाँ थीं। जबकि सभी वरिष्ठ लेखकों के कितने ही संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कुछ संग्रह छप जाने के बाद ऐसी श्रृखंला में तुम्हारा संग्रह छपना उचित होगा।”

“सर, यह तो कोई बात न हुई।”

कुछ देर दोनों ओर चुप्पी रही। अंततः वही बोली, “ठीक है सर, मैं शीर्षक बदल दूँगी। अपनी किसी कहानी के नाम पर रख दूँगी। लेकिन अच्छा रहा होता कि उसी शीर्षक से वर्माजी मेरा संग्रह भी प्रकाशित करते। मुझे उसका अलग ही वेटेज मिलता।”

वह उस विश्वविद्यालय में अपनी नियुक्ति को लेकर वेटेज की बात कर रही थी, यह बात समझते उन्हें देर नहीं लगी, वह चुप रहे। तभी उन्हें अपने व्हाट्स ऐप मेसेज की याद आई। पूछा, “मैंने डॉ. प्रतीक तिवारी के बारे में व्वाट्स ऐप मेसेज किया था। तुमने कोई उत्तर नहीं दिया।”

“सर, वह मोबाइल मेरे हसबैंड का है।”

“मेसेज तो देखा गया था।”

“जी सर, पति ने मुझे पढ़कर सुनाया था।”

“फिर तुमने डॉ. तिवारी से संपर्क किया था?”

क्षणभर के लिए विपाशा चुप रही, फिर बोली, “सर मेरा व्वाट्स एप खराब हो गया है।”

“और फोन?”

विपाशा की लंबी चुप्पी और उसके बाद उसने फोन काट दिया। वह उसके फोन की प्रतीक्षा करते रहे और सोचते रहे कि भले ही उन्हें तकनीक की अधिक जानकारी नहीं, लेकिन यह जानकारी तो है ही कि कभी किसी एक का व्वाट्स एप खराब नहीं होता, बल्कि खराब होता ही नहीं। तभी उन्हें उस विभागाध्याक्ष के बारे में कही अपनी बात याद हो आई और उन्होंने सोचा कि डॉ. जयप्रकाश के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पुस्तक संपादित करके विपाशा उस विभागाध्यक्ष को नाराज नहीं करना चाहती होगी। तो क्या कैरियरिस्ट ऐसा ही करते हैं! तब से लगातार वह इस बारे में सोच रहे हैं।

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