विकासशील से विकसित की यात्रा में

शायद आपकी भी नजरों से गुजरा हो! सोशल मीडिया पर एक संदेश अकसर पढ़ने को मिल जाता है, जिसमें बताया जाता है कि यदि आप कार खरीदना चाहते हैं तो लंबी कतार मिलेगी, मॉल और बाजारों में कितनी भीड़ है, सिनेमाघर होटल, रेस्त्राओं में कितनी भीड़ है! इस संदेश में यह बताने का प्रयास किया जाता है कि जैसे गरीबी या बेकारी है ही नहीं, हर तरफ अमीरी-ही-अमीरी नजर आ रही है! जिन्होंने भी यह संदेश बनाया है, फैलाया है और जो लोग इसे फॉरवर्ड करते हैं, जिनमें पढ़े-लिखे विद्वान् भी शामिल हो जाते हैं, शायद भारत जैसे विराट् देश से अपरिचित हैं! वे सिर्फ ‘इंडिया’ से परिचित हैं, वह इंडिया, जो भारत के कुछ फीसदी लोगों से बनता है! इस इंडिया में बच्चों के लिए महँगे-महँगे पब्लिक या कॉन्वेंट स्कूल हैं, शानदार कोठियाँ हैं, एक ही कोठी में अलग-अलग शानदार कारें हैं, फाइव स्टार होटल हैं, विदेश यात्राएँ हैं, हर तरह की सुख-सुविधाएँ हैं। दूसरी ओर वह ‘भारत’ है, जहाँ करोड़ों लोग ‌आज भी जीवन की बुनियादी सुविधाओं से संचित हैं, जहाँ पीने का पानी भी सहजता से उपलब्ध नहीं है, आज भी करोड़ों लोग गाँवों में बसते हैं, शहरों में झुग्गी-बस्तियों में रहते हैं, जिनके बच्चे अनेक असुविधाओं के बीच शिक्षा ग्रहण करते हैं, जिनमें बहुत बड़ी संख्या में पढ़ाई छोड़कर बाल मजदूरी को विवश हो जाते हैं। अमीरी वाला संदेश बनानेवाले यह भूल जाते हैं कि १४० करोड़ जनसंख्या वाले भारत में यदि १० प्रतिशत लोग भी अमीर हैं तो यह संख्या १४ करोड़ बन जाती है। कुछ छोटे अमीर देशों, जैसे सिंगापुर, सऊदी अरब, डेनमार्क, नॉर्वे, फिनलैंड, बहरीन आदि की पूरी जनसंख्या भी जोड़ लें तो उससे अधिक भारत में अमीरों की संख्या निकल आएगी। अमीरी का संदेश बनानेवाले विद्वान् क्या सचमुच विराट् भारत को नहीं जानते या जान-बूझकर लोगों को भ्रमित करते हैं। स्वाधीनता के २५वें वर्ष के लिए संकल्प लिये गए, लेकिन बहुत से अधूरे रहे। फिर स्वर्ण जयंती के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित किए गए, वे भी पूरे नहीं हुए। यह क्रम चलता रहा और ७५वें वर्ष के लिए भी अनेक लक्ष्य निर्धारित किए गए, जैसे भारत के हर गरीब का अपना मकान आदि। लेकिन लक्ष्य अधूरे रह गए। अब स्वाधीनता का १००वाँ वर्ष चिंतन के केंद्र में है। यह तो तय है कि मात्र आह्व‍ान या सरकारी प्रयासों से बात नहीं बनेगी, वरन् एक ऐसा व्यापक जन-आंदोलन तथा अनेक जन-अभियान चलाने पड़ेंगे। बिल्कुल नए सिरे से विचार करना पड़ेगा, लक्ष्य निर्धारित करने होंगे, जो समयसीमा से बँधे हों तथा उनका जमीनी क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाए। चाहे राजनीतिक क्षेत्र हो या सामाजिक या आर्थिक या सांस्कृतिक या अन्य, हर क्षेत्र में बुनियादी बदलाव करने होंगे। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव में घर-घर तिरंगा अभियान हो या तिरंगा यात्राएँ हों, सैकड़ों समारोह, सांस्कृतिक आयोजन हों, भारतीयों ने भरपूर उत्साह दिखाया। बच्चों तथा युवाओं ने भी खूब जोश दिखाया। पूरे विश्व में भारतवंशियों तथा प्रवासी भारतीयों ने भी सैकड़ों भव्य आयोजन करके भारतीय पहचान तथा तिरंगे को प्रतिष्ठा दी। विदेशी सरकारों ने भी अमृत महोत्सव को अपने योगदान से गौरवान्वित किया। अमृत महोत्सव के सफल आयोजनों से यही संदेश उभरता है कि हर भारतवासी अपने भारत को एक विकसित, समृद्ध तथा शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में देखना चाहता है, जो विश्व का सिरमौर बने।

स्वाभाविक है कि हमें एक बार फिर उन शहीदों के सपनों की ओर लौटना होगा। शहीदों ने यही स्वप्न देखा था कि आजाद भारत—गरीबी, भुखमरी, बेकारी, बीमारी, शोषण, दमन, अन्याय, अत्याचार, ऊँच-नीच, भेदभाव, असमानता, सांप्रदायिकता, जातिवाद, घृणा आदि से मुक्त होगा। हर भारतीय को सम्मान से जीने के अवसर मिलेंगे। हमारी सरकारों को, राजनीतिक दलों को इन्हीं कसौटियों पर स्वयं को परखना होगा। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और विश्व के अनेक देशों के लिए आदर्श भी है व प्रेरणास्रोत भी। इसलिए भारत को दिखाना होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्‍था में अन्य व्यवस्‍थाओं के मुकाबले सभी को शीघ्र न्याय या जीवन के लिए आवश्यक सुविधाएँ तथा सम्मानपूर्ण जीवन तथा सफलता प्राप्त करने के अवसर उपलब्‍ध कराए जा सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में भारत में सबसे पहले राजनीतिक क्षेत्र को ही स्वच्छ करना होगा। येन-केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने की बजाय जनकल्याण तथा राष्ट्र-कल्याण राजनीतिक दलों का प्राथमिक उद्देश्य होना चाहिए। जब सभी का लक्ष्य देश तथा जनता की भलाई है तो फिर इतना वैमनस्य या कटुता क्यों हो! चुनावों में हिंसा क्यों हो, तरह-तरह के अनुचित आचरण क्यों हों! वर्षों से अनेक चुनाव सुधार-संबंधी सुझाव फाइलों में धूल खा रहे हैं, जो विभिन्न आयोगों या समितियों ने सुझाए हैं। राजनीति एक आकर्षक कारोबार नहीं होना चाहिए कि कुछ ही वर्षों में एक व्यक्ति बेशुमार धन-संपत्ति अर्जित कर लेता है? आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को भी कड़े कानूनों के जरिए दूर करना होगा।

शिक्षा किसी भी देश के लिए अत्यंत बुनियादी माध्यम है, जो देश में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। काश भारत में कोई ऐसी सरकार आए, जो करोड़ों निरक्षर लोगों को साक्षर बनाने का संकल्प ले। साक्षरता योजनाएँ चल रही हैं, किंतु करोड़ों लोगों, विशेषकर महिलाओं का निरक्षर होना बेहद चिंताजनक है। भारत में न्याय व्यवस्‍था पर भी विमर्श होते हुए ७५ वर्ष बीत गए, किंतु कुछ सार्थक परिणाम नहीं निकले। कुछ दिनों पहले ही भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा प्रधानमंत्री, दोनों ने ही न्याय में विलंब, न्याय प्रक्रिया की जटिलता, न्याय व्यवस्‍था के महँगे होने पर चिंता व्यक्त की तथा आम आदमी को शीघ्र सुलभ न्याय मिलने पर जोर दिया है।

आर्थिक क्षेत्र में भी काश कोई सरकार ऐसा संकल्प लेकर आए कि हम पाँच वर्षों में जो करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, उन्हें गरीबी रेखा तक ले आएँगे। गरीबी उन्मूलन तो बहुत बड़ा लक्ष्य है और अनेक योजनाएँ आजादी के समय से ही चल रही हैं, उनके परिणाम क्या हुए, यह अवश्य विचारणीय है। भारत में विषमता बहुत विकराल रूप धारण किए हुए है तथा अनेक प्रकार की सामाजिक विकृतियों तथा अपराधों को जन्म दे रही है। भारत की पुलिस व्यवस्‍था भी स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय से ही विवाद के केंद्र में है। न जाने कितने आयोग बने, समित‌ियाँ बनीं, सुझावों के ढेर लगे, करोड़ों रुपए खर्च हुए, किंतु कोई भी सार्थक परिणाम नहीं निकला। आज भी एक आम आदमी पुलिस थाने में जाने से डरता है। पुलिसवालों का व्यवहार, उनकी क्रूरता, असंवेदनशीलता अकसर समाचारों में गूँजती रहती है। पुलिस में कर्मठ, ईमानदार, समर्पित तथा प्राणों की बाजी लगानेवाले पुलिसकर्मी भी हैं, किंतु पुलिस व्यवस्‍था में आमूल-चूल बदलाव तथा उसकी सकारात्मक छवि बनना अभी अपेक्षित है।

महिलाओं की सुरक्षा तथा उनके प्रति होनेवाले अपराध पूरे विश्व में भारत की बहुत खराब छवि प्रस्तुत करते हैं। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्‍ते’ के देश में यदि एक बच्ची तक सुरक्षित नहीं है तो इससे अधिक लज्जाजनक कुछ नहीं हो सकता। संतोष की बात है कि प्रधानमंत्री ने लाल किले से महिलाओं के प्रति सम्मान को रेखांकित किया। साथ-ही-सा‌थ व्यवस्‍थागत परिवर्तन भी करने होंगे। लगभग डेढ़ लाख लोगों की सड़क दुर्घटना में मौत, एक लाख से अधिक की आत्महत्या, तीन लाख के लगभग लोगों का विभिन्न दुर्घटनाओं तथा अपराधों का शिकार हो जाना बेहद चिंताजनक है। यदि सार्थक उपाय किए जाएँ तो हम इन मौतों को रोक सकते हैं या न्यूनतम कर सकते हैं। दर्जनों ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ तरह-तरह के सुधार अपेक्षित हैं। इसके लिए भारत के मीडिया में भी बदलाव की बहुत आवश्यकता है। उसका सारा जोर सनसनी फैलाने तथा अनावश्यक विषयों पर फालतू की बहस पर रहता है, जहाँ सिवाय चीख-पुकार के कुछ हासिल नहीं होता। उसे गंभीर होकर जनोपयोगी विषयों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। यदि सचमुच भारत को विकासशील से विकसित देश बनाना है तो बुनियादी बदलाव करने ही होंगे अन्यथा जैसे अभी स्वतंत्रता के १००वें वर्ष पर हम उम्मीद लगाएँ हैं, किंतु सबकुछ इसी तरह चलता रहा, जैसा चलता आया है तो फिर शायद १२५वें वर्ष पर आस लगानी होगी!

हिंदी माह गया

सितंबर महीना अर्थात् हिंदी का महीना। सरकारी कार्यालयों में राजभाषा सप्ताह, पखवाड़ा या हिंदी माह। तरह-तरह की प्रतियोगिताएँ, जिनमें राजभाषा अधिकारी खींच-खींचकर लोगों को लाता है तथा कुछ गिने-चुने लोग चार-पाँच प्रतियोगिताओं में पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं, किसी में प्रथम तो किसी में द्वितीय, तृतीय आदि। जिन कार्यालयों में जरा सा भी कार्य हिंदी में न होता हो, वे भी कार्यालय के बाहर एक बैनर टाँगकर निश्चिंत हो जाते हैं। राजभाषा संबंधी कार्य चलते रहें, किंतु हमारी चिंता ‘घर-घर तिरंगा’ की तर्ज पर ‘घर-घर हिंदी’ की होनी चाहिए। लगभग ८० करोड़ हिंदी समझनेवाले हिंदी को शक्ति दे दें तो पूरा परिदृश्य बदल जाए। आप स्वयं कुछ प्रश्‍नों के उत्तर खोजें और अपने दायित्व के निर्वाह करने का प्रण करें—

  1. भारत जैसे संप्रभुतासंपन्न राष्ट्र की कोई राष्ट्रभाषा होनी चाहिए या नहीं और हिंदी इसके योग्य है या नहीं?
  2. हमारे महान् स्वाधीनता सेनानियों, राष्ट्र निर्माताओं की मातृभाषा हिंदी नहीं थी, फिर भी वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे कि नहीं? लोकमान्य तिलक (मराठी), महात्मा गांधी (गुजराती), सुभाषचंद्र बोस (बांग्ला), सुब्रहमण्य भारती (तमिल), जवाहरलाल नेहरू (कश्मीरी), स्वामी दयानंद (गुजराती), रवींद्रनाथ टैगोर (बांग्ला), शहीद भगत सिंह (पंजाबी) आदि।
  3. क्या भारत के अलावा किसी देश में विधार्थी इसलिए आत्महत्या करते हैं कि उन्हें किसी अन्य देश की भाषा नहीं आती, जैसे भारत में दर्जनों विधार्थी अंग्रेजी के कारण आत्महत्या कर चुके हैं या उनका भविष्य नष्ट हो गया।
  4. क्या मांगलिक कार्यों, जैसे विवाह आदि के निमंत्रण-पत्र अंग्रेजी में छपाना मानसिक गुलामी नहीं है?
  5. हिंदी में रोजी-रोजी कमाने वालों का अंग्रेजी में विजिटिंग कार्ड छपाना उचित है?
  6. हिंदी‌ फिल्मों से करोड़ों कमाने वाले अभिनेता-अभिनेत्रियों का हिंदी की जगह अंग्रेजी बोलना उचित है?
  7. क्या आपके घर के बाहर नामपट्टिका अंग्रेजी में है? है तो क्यों?
  8. क्या आपके घर में हिंदी का अखबार, पत्रिकाएँ, किताबें आदि आती हैं?
  9. क्या आपको हिंदी के प्रति गर्व की बजाय हीनभावना है? है तो क्यों?
  10. आप विश्व के ऐसे महान् वैज्ञानिक को जानते हैं, जिसने प्राथमिक शिक्षा अपनी भाषा में न ग्रहण की हो? तो फिर अंग्रेजी माध्यम से प्राथमिक शिक्षा पानेवाले बच्चे भविष्य में कैसे महान् वैज्ञानिक या लेखक आदि बन पाएँगे? स्वयं विचार करें!


(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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