आजादी के अपने-अपने अर्थ

आजादी के अपने-अपने अर्थ

 
स्मृति में आज तक अंकित है। दशकों पूर्व हम ऊपरवाले द्वारा सृजित धरती पर प्रकृति के स्वर्ग कशमीर गए थे। जिस होटल में ठहरे थे, वह भी आरामदेह था, देवदार के कुदरती पंखों के वृक्षों से सज्जित लॉन अपने आप आकृष्ट करता था, बाहर निकलकर घूमने के लिए। हल्की बर्फ के दौरान गुलमर्ग की यात्रा कौन भूल सकता है? वहाँ से लौटने के दौरान एक स्थान पर हमारी गाड़ी रोक दी गई। पास में ही कहीं आतंकवादी वारदात हुई थी। पुलिस और फौज मिलकर दो-तीन आतंकवादियों की खोज में लगे थे। गोली और पत्थर चल रहे थे, गोली वर्दीधारी वीरों की आतंकवादियों की दिशा में और पत्थरजमा हुई भीड़ द्वारा सैन्य बलों पर। इस धाँय-धाँय के बीच कुछ नारे भी गूँज रहे थे, ‘आजादी, आजादी, छीन के लेंगे आजादी, लड़कर लेंगे आजादी।’ अपने कतई पल्ले नहीं पड़ा कि यह आजादी के इच्छुक किस बात की आजादी चाह रहे हैं? वर्दी पर पत्थर फेंकने की या फिर खूंखार आतंकियों की सुरक्षा की? वही आतंकवादी, जिन्होंने इनके ही कश्मीरी भाई-बहनों पर हमला बोला था, जान-माल को लूटा था? कोई भी अजनबी इनकी आजादी की माँग से चकरा जाता। वह तो बाद में पता लगा कि यह सारा आजादी का नाटक पड़ोसी देश द्वारा अपने चंद हमदर्दों के समर्थन से प्रायोजित और फंडित तमाशा है।

इसका निहित स्वार्थ केवल अंतरराष्ट्रीय मंच पर पड़ोसी देश द्वारा भारत विरोधी प्रचार था। भारतीय नियंत्रण से कश्मीरवासी कितने त्रस्त है? गोली-बंदूक के सम्मुख, वह अपनी विवशता पत्थर फेंककर व्यक्त करते हैं। पाकिस्तान से पधारा आतंकी उनका भाई है, बिरादर है, वहीं भारतीय वर्दीधारी पुलिस-फौज से उन्हें नफरत है। जोर-जबरदस्ती से कब तक भारत-कश्मीर पर अपना आधिपत्य कायम रखेगा? यह तो बाद की घटनाओं से आजादी की इस साजिश का पर्दाफाश हुआ। गनीमत है कि अब दुनिया के दूसरे देश भी पड़ोसी मुल्क के इस षड्यंत्र से भली-भाँति परिचित हो चुके हैं और शायद काश्मीरवासी भी। कहते हैं कि आज विकास वहाँ की प्राथमिकता है और ईंट-पत्थर फेंकने की आजादी के नारे के स्थान पर असली और वास्तविक स्वतंत्रता होना। समय के साथ कलई को उतरना ही उतरना और सच्चाई को सामने आना-ही-आना है। ऐसी ऐतिहासिक पोलों का खुलना भी उतना ही लाज‌िमी है, जितना अँधियारी रात की भोर होना। अब रोशनी है और ‘आजादी’ की माँग की साजिश की परतें धीरे-धीरे दिनोदिन खुलती जा रही हैं। कोई सोचे तो इस निर्णय पर पहुँचे कि कूटनीति के खेल में तथाकथित अपनों के दाँव-पेंच कितना भ्रमित कर सकते हैं। वह तो गनीमत है कि समय सबका स्वामी है और उसके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों से सच्चाई सामने आ ही जाती है।

भारत का अंग्रेजों से अहिंसक संघर्ष इस बात का साक्षी है कि ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’। गांधी, नेहरू, पटेल की स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्ष की भूमिका से कौन परिचित नहीं है। इस अभूतपूर्व अहिंसक संग्राम ने जहाँ बापू को अमरत्व प्रदान किया है, वही भगतसिंह जैसे सशस्त्र संघर्ष की भूमिका को कौन भुला सकता है? कृतज्ञ राष्ट्र अपने इन वीरों को इतिहास के विस्मृति के कूड़ेदान में कैसे डाल दे? देश ने भौतिक स्वतंत्रता तो हासिल कर ली, पर अब भी मुल्क आर्थिक आजादी की लड़ाई लड़ रहा है। आज का संघर्ष, भ्रष्टाचार, कामचोरी, आकाश-अग्रसर कीमतों और अकर्मण्यता से है। इसमें सफलता की देश का भविष्य निर्धारित करेगी।

यों देश के विभिन्न वर्गों के मन में अपनी अलग-अलग आजादी की हसरत है। वर्ण व्यवस्था से आजादी का स्वप्न संविधान के रचयिता डॉ. अंबेडकर का स्वप्न है, उसमें बढ़ते आरक्षण की व्यवस्था महत्त्वाकांक्षी नेताओं का। यह ऐसे आदर्श समाज-सरकार का सपना देखते हैं, जिसमें हर आरक्षित समूह, योग्यता और कार्यकुशलता को सिंगट्टा दिखाकर केवल आरक्षण का छाता लगाए खड़ा हो। हर नेता का अपना वोट-बैंक उसे चुनाव जिता दे। वह देश का भाग्य-विधाता बने। वह अभी से कार्यरत है, अल्पसंख्यकों को पटाने में। कभी इफ्तार की दावत आयोजित करता है, कभी दुपल्ली कश्तीनुमा टोपी धारण करता है।

कुछ नकलची बिना मूँछ के लहराती दाढ़ी भी उगा लेते हैं। उनका इकलौता लक्ष्य न देश सेवा है, न अल्पसंख्यक कल्याण। यह अपने-अपने परिवार की सात पुश्तों के ऐश का इंतजाम कर चुके हैं, जनता से दान-चंदा लेकर। जब से वह सांसद हुए हैं, उनके हर काम की नियत फीस है। सिफारिशी पत्र लिखाने को पाँच सौ कैश हैं, वहीं संसद् में लिखित प्रश्न पूछने के एक हजार। हर क्षेत्र के बारे में इतने अंतरंग ज्ञान से इनके सहयोगी भी चकित हैं। कितने विभिन्न क्षेत्रों के बारे में इसे ज्ञान है, कभी मेडिकल की अंधेरगर्दी के सवाल उठाता है, कभी आई.आई.टी. में गलत प्रमोशन के। उन्हें क्या पता कि ‘सब चंदे का कमाल है।’

जो जानते हैं, वह सोचते हैं कि क्या इसे शक है कि मृत्यु के उपरांत भी स्वर्ग-नर्क में कोई बैंक है? वहाँ भी पैसे जमा करके, भारतीय जेल के समान, इस राश‌ि से हर सुविधा खरीदी जा सकती है, सैल-फोन से लेकर मनचाहे भोजन तक। कभी जेल-यात्री बिना बीमारी के अस्पताल में भरती हो सकता है, कभी मनचाही व्हिस्की का सेवन कर सकता है। बस जिसकी दरकार है, वह ‘कैश’ है। उसे नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिए नोट का इशारा भर काफी है, गँधाता टाॅयलेट चकाचक हो जाता है। उसकी दारू के लिए ठंडा पानी उपलब्ध है, उसकी चिल्ड वीयर के लिए फ्रिज। पैसे का ऐसा करिश्मा है कि उसे न व्यापै ‘दैहिक तापा’, न अभाव की शिकायत। नोट का जादुई प्रवेश-पत्र जीवन की हर सुविधा को उपलब्ध कराता है। यहाँ तक कि वह जेल में बैठा-बैठा, शहर क्या सूबे के, हर अपराध का नियंत्रक है। उसकी गैंग के सदस्य फोन के द्वारा बंद सरगना से सलाह और निर्देश पाप्त करते हैं। पुलिस चिल्लाती रह जाती है, साजिश के मुख्य आरोपी की तलाश में। पर उसके मुँह पर भी सोने का अदृश्य ताला जड़ा है, जिसकी चाभी इस आपराधिक सरगना की जेब में है। जेल में एक फायदा है। उसकी सुरक्षा बढ़ गई है। यों जब भी वह चाहे बाहर आने-जाने की स्वतंत्रता है।

जेल के चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें हैं, जिनके ऊपरी हिस्से में लोहे की नुकीली कीले हैं। हिम्मत हो या बला की मूर्खता कि इन्हें लाँघकर कोई जेल में अनधिकृत प्रवेश का सोचे भी। ऐसे शिकारी कुत्तों जैसे संतरी भी तैनात हैं, जो सदैव हर हाल में ट्रिगर दबाने को प्रस्तुत हैं। जेल का प्रवेश द्वार लोहे का है, उसे खोलने-बंद करने को सशस्त्र गार्ड हैं। आने-जाने को उनकी अनुमति प्रवेश-पत्र पर निर्भर है। बिना उसके न कोई अंदर जा सकता है, न बाहर आ सकता है। अपराधी सरगना को लगता है कि जैसे यह सब प्रबंध उसकी निजी सुरक्षा के लिए है।

गुनाहों की दुनिया और शरीफों की बस्ती में समानता है। जब गांधी के गोडसे हो सकते हैं तो ऐसा कौन है, जिसके दुश्मन न हों? हमारे अपराधी सरगना के भी हैं। सरकार करोड़ों खर्च कर रही है उसकी व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए। वह मन-ही-मन सरकार के प्रति आभार महसूस करता है। जेल के अंदर उसका कारोबार अबाध गति से चल रहा है और बाहर के छुटभइए, जो उसकी जान के प्यासे हैं, अंदर प्रवेश का सोच भी नहीं सकते हैं। वह अपने वकीलों की टीम को हजारों-लाखों की फीस भी देता है और वक्त-बेवक्त इनाम का बोनस भी। उसके खिलाफ केस जैसा है, वैसा ही लटका रहे। बस उसकी पेशी भी वीडियो द्वारा चलती रहे और कोर्ट की सुनवाई भी।

जबसे एक बार सुनवाई के दौरान उस पर गोली चली है और दो पुलिसकर्मी घायल हुए हैं, उसकी शारीरिक न होकर ‘वर्चुअल’ पेशी होती है। वह उन शरीफपोशों में नहीं है, जो स्वयं कोर्ट जाने को उत्सुक हैं, जेल के बाहर खुली हवा में साँस लेने को और अपनों से देखने-मिलने को। हमारा गुनाहों का नायक खुश है। उसे जेल की कैद में आजादी का आनंद आ रहा है।

हमारे शहर में एक दबंग-चोर भाई हैं। अपने क्षेत्रीय थाने में वह नियम से दस्तूरी चुकाते हैं। फिर भी उन्हें शिकायत है। नियम से दस्तूरी के वाबजूद कानून-व्यवस्था की सख्त चौकसी में उनका रोजगार छीन लिया है। वह आजकल काले कोटवाले अपने शुभचिंतक से विचार-विमर्श में व्यस्त हैं। क्या वह कोर्ट में केस कर सकते हैं, अपने रोजगार के संवैधानिक अधिकार की रक्षा के लिए? जब सरकार सबको न रोजगार देने में समर्थ है, न बेरोजगारी भत्ता, तो उसकी इस चूक के शिकार क्या करें? सारे के सारे डिग्रीधारी हैं, कई हिंदी के पी-एच.डी. भी हैं। हमारा चोर हीरो भी। उसने ढाई-तीन हजार खर्च कर हिंदी के एम.ए. की डिग्री खरीदी है। जब किसी भी स्कूल में नौकरी नहीं मिली, न प्राइमरी, न सेकेंडरी में, तो उसे जीवन-यापन के लिए धंधे का प्रबंध करना पड़ा। उसने विवशता में चोरी का धंधा चुना। वह एक शरीफ मध्यमवर्गीय बस्ती में किराए का घर लेकर रहता है। उसने सबको बता रखा था कि वह पुलिस कार्यालय में बाबू है। जिस दिन वारदात करता तो रात की खोई नींद दिन में आराम से पूरी करता।

कभी-कभी, दिन-दहाड़े भी वह धंधे की मजबूरी से बाज नहीं आता है। जैसे पुलिस के होते हैं, उसके भी खुफिया हैं। उसे वह सूचना देते हैं कि किस रईस बस्ती के किस घर के युवा निवासी सैर-सपाटे को गए हैं। घर में या घर के आउट-हाउस में बस उनके वृद्ध माँ-बाप हैं। या फिर घर में और कौन-कौन हैं? यह उसके अनुभव का ज्ञान है कि आजकल युवाओं के मन में वृद्ध माँ-बाप के प्रति कोई लगाव-सम्मान नहीं है। बेटे माँ-बाप को बोझ के समान ढोते हैं। यदि बीमार हैं तो फिर व्यर्थ के लिए जेब पर भार हैं। सबसे सस्ते सरकारी अस्पताल हैं। वहाँ के डॉक्टर भी रोग-मुक्त करने में सक्षम हैं। कम-से-कम दवा का परचा तो लिख ही देते हैं। देखभाल के लिए नर्स का खर्च भी झेलना है, विवशता में। कम-से-कम इलाज को डाॅक्टर और देखभाल को नर्स का ढ‌िंढोरा तो समाज में पीटा ही जा सकता है। जो सुने ‘वाह-वाह’ करे। इक्कीसवीं सदी में माँ-बाप के भक्त श्रवण कुमार जैसी इकलौती संतान किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होती है? हमारे चोर नायक उस धनी बस्ती में ‘प्रसाद’ का डिब्बा लेकर अवतरित होते हैं। बूढ़े-बुढ़‌िया को भगवान् का प्रसाद अर्पित करते हैं। उनके परिवार के गुण गाते हैं। प्रसाद में मिले नशीले पदार्थ से दोनों को बेसुध कर, कैश-ज्वैलरी हथियाकर तड़ी हो लेते हैं।

इस साक्षर चोर ने डॉक्टर लोहिया का नाम ही नहीं सुना, वह उनके आदर्शों भी से परिचित समाजवादी चोर है। उसका यकीन धन के समान और न्यायपूर्ण बँटवारे में है। इस धन का सही व सार्थक उपयोग गरीबों का पेट भरने में हो। इस श्रेष्ठ जीवन-दर्शन से प्रेरित होकर वह धनी और समृद्ध वर्ग के घर लूटता है। फिलहाल उसके पास धन के वितरण का कोई साधन न होने से वह लाचार है। लिहाजा मजबूरी में धन गाँव भेजकर, वहाँ अपनी कोठी और बगीचों की श्रीवृद्ध‌ि में लगा है। उसने देशी-विदेशी फूलों की ऐसी फसल उगाई है कि शहर के पाँच सितारा होटलों में उसका ठेका है, फूलों की आपूर्ति का। समय के साथ इस वैचारिक समाजवादी चोर ने ऐसी तरक्की कर ली है कि चोरी अब उसका धंधा न होकर, ‘हॉबी’ बन गया है। अब वह शौकिया चोरी करता है। कहीं अभ्यास न छूट जाए? वर्दीधारी मेहमानों की खातिरदारी अब पाँच तारा होटलों में होती है। वह भी क्या याद करेंगे कि किस चोर हीरो से वास्ता पड़ा है! उन दिनों लॉटरी लोकप्रिय थी। उसने वर्दीधारी अतिथियों को सूचित किया है कि एक दिन उसकी बैठे-ठाले लॉटरी लग गई है। यों वह गलत भी न था। उसके फूलों की होटलों में सप्लाई का ठेका किस लाटरी से कम है!

उसके अंतर में एक ग्राम-विकास योजना का भी खाका है। इसके अंतर्गत उसने पहले गाँव में स्कूल खोला है। उसे धीरे-धीरे कॉलेज बनाया। अब वह तहसील में कंप्यूटर-केंद्र स्थापित करने जा रहा है। इमारत बन चुकी है, प्राध्यापक चुन लिये गए हैं, कंप्यूटर खरीदे जा चुके हैं। उसके उद्घाटन के लिए मुख्यमंत्री पधारनेवाले हैं। समाजवादी चोर के साथियों ने उसे सुझाया है कि जनता की इस मौन निस्स्वार्थ सेवा का एक और माध्यम सक्रिय राजनीति में घुसकर विधायक बनना है। इससे उसका सेवा का क्षेत्र और विस्तृत होगा। कौन कहे, मुख्यमंत्री इस अभूतपूर्व समाजवादी चोर को शिक्षा या समाज कल्याण मंत्री बना दें? कंप्यूटर केंद्र उसके नए सफर का प्रतीक है। उसे पूरी आशा है कि शीघ्र ही सियासत में उसके प्रवेश का शुभ मुहूर्त आने को है।

चोर ही क्यों, आतंकवादी, नक्सली, अपहरणकर्ता वगैरह सबके लिए आजादी के अपने-अपने सपने हैं। नक्सलवादियों की मान्यता है कि हर सरकार भोले-भाले गाँवों में बसे आदिवासियों और गरीबों का शोषण करती है। वह इसके विरुद्ध हर विकास को अवरुद्ध कर उनके कल्याण के लिए सरकार के कर्मचारी और उसकी सड़क, संपत्ति को नष्ट करने का अपना सार्थक कर्तव्य निभाते हैं। कौन होते हैं इन पर विकास की यह अपनी अवधारणा थोपनेवाले? ऐसी सरकार को बम से उड़ाना ही उनके लिए आजादी है।

वहीं आतंकी, कल्पित नाइनसाफी के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छे़डे हुए हैं। दीगर है कि इनका पोशक और प्रेरक एक पड़ोसी देश है। यह अपने देश के निर्धन और भविष्यहीन, अनपढ़ व्यक्तियों को चुन-चुनकर उनमें धार्मिक उन्माद भरता है और दूसरों के विनाश का प्रशिक्षण देता है। उनके पास जन्नत की प्रेरणा है और हूरों का आकर्षण। ये बेचारे आतंक की मुहिम में प्राण न्योछावर करने को प्रस्तुत हैं।

इसके अलावा अन्य वर्ग भी हैं। अपहरणकर्ताओं को विश्वास है कि जब जी चाहे किसी का भी अपहरण करना ही आजादी है। यही उनकी रोजी-रोटी का साधन है। पुलिस कौन है, इस नेक कर्म में अड़ंगा लगानेवाली? कुछ शारीरिक श्रम से विरत हैं। यह बुद्ध‌िजीवी किस्म के लोग सहज भरोसा करनेवालों को कभी नौकरी, कभी जाति प्रमाण-पत्र, कभी जमीन, कभी सस्ते मकान दिलवाने का वादा कर उन्हें कामयाबी से ठगते हैं। ऐसे ठगों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ रही है, जिसमें शिक्षित बेरोजगारों की तादाद।

कुछ इसके लिए सरकार को दोष देते हैं। हमें शक है कि जैसे-जैसे तकनीकी प्रगति बढ़ेगी, सरकारी कर्मचारियों की संख्या भी घटेगी। इस सामंती मानसिकता के देश को कोई कैसे समझाए कि रोजगार का पर्याय सरकारी नौकरी नहीं है? विकसित देशों में सरकारी कर्मचारी अपना कर्तव्य निभाने को हैं, अधिकार जताने को नहीं। अपने देश में इसका उलट है। सरकार के सेवक कर्तव्य निभाने के नहीं, ‘भ्रष्ट भीख’ के इच्छुक हैं। कुछ इसे घूस भी कहते हैं। वहीं, वे अधिकार व सत्ता का रोब झाड़ने में सबसे अग्रणी हैं। विकसित मुल्कों में सब अपने रोजगार, पेट भरने और कमाने में व्यस्त हैं। जाहिर है कि उस माहौल में सरकारी कर्मचारी महत्त्वहीन हों। हमें यकीन है। यही विकासशील भारत का भी भविष्य हैं?

 

९/५, राणा प्रताप मार्ग,
लखनऊ-२२६००१
दूरभाष : ९४१५३४८४३८

हमारे संकलन