कालापानी के राजनीतिक कैदी

कालापानी के राजनीतिक कैदी

पुरानी देशी जेलों में सजा देने के लिए इतना ही पर्याप्त था कि कैदी को वहाँ बंद करके उसकी स्वतंत्रता छीन ली जाए; किंतु ब्रिटिश सरकार की जेलों में यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक कैदी कुछ-न-कुछ काम भी करे। जेल का सुपरिंटेंडेंट, जो कि चिकित्सा के क्षेत्र का आदमी होता है, प्रत्येक कैदी के शरीर और अपराध को देखकर उसके लिए काम निश्चित करता है।

जेल में कैदी के लिए अपना दुःख व्यक्त करने अथवा विरोध प्रकट करने के दो मुख्य उपाय हैं—एक तो काम करने से मना कर देना और दूसरा, खाना छोड़ देना। काम से मना करना जेल में सबसे बड़ा अपराध समझा जाता है और जब बहुत से कैदी मिलकर काम करने से मना कर दें तो इसे हड़ताल के रूप में देखा जाता है।

हम लोगों के जेल में पहुँचने से कई वर्ष पहले से ही वहाँ राजनीतिक बंदी विद्यमान थे। बंगाल के माणिक टोला षड्यंत्र के कैदी, महाराष्ट्र के सावरकर भाई और पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के ‘स्वराज्य’ नामक समाचार-पत्र के वे संपादक, जो कि एक की सजा के बाद दूसरा वहाँ जाता रहा और वहाँ रह चुके थे। हमारे पहुँचने से पहले ही वे भारतवर्ष की अन्य जेलों में वापस भेज दिए गए थे। किसी समय इनकी संख्या यहाँ तीस-चालीस के लगभग हो चुकी थी; परंतु इस समय पुराने कैदी लगभग दस ही रह गए थे। कैदियों ने हमें उनके किस्से बता दिए कि किस-किस प्रकार नंद गोपाल, लद्धा राम, रामहरि आदि कैदी अपने और अन्य कैदियों के अधिकारों के लिए जेलर और सुपरिंटेंडेंट से लड़ते रहे; किस तरह उन्होंने जेल के सब प्रकार के दंड और कष्ट सहन किए तथा अन्य कैदियों पर किए जानेवाले अत्याचार और सख्ती को रोकने का प्रयत्न किया। किस तरह सावरकर और अन्य राजनीतिक कैदियों को कोल्हू पेरने में लगा दिया गया तथा वे काम करते रहे।

उन्होंने हमें यह भी बताया कि महात्मा नंद गोपाल पहला व्यक्ति था, जिसने काम न करने का उपाय निकाला, और किस तरह एक बंगाली लड़के मनी गोपाल ने तीन मास तक भूख-हड़ताल की थी। उसने न खाना खाया, न कपड़ा पहना और हर समय कोठरी में जमीन पर नग्न पड़ा रहता था। उसके दुर्बल शरीर में केवल हड्डियाँ ही रह गई थीं। ये सब बातें वहाँ के कैदियों को जेल के इतिहास अथवा दंत कथा के रूप में स्मरण थीं। बोलने की मनाही होने पर भी एक-दो दिन में ही उनसे हमें इतना विवरण मिल गया। जेल में आदेशों की इतनी भरमार रहती है कि प्रतिदिन पिछले अनेक आदेश निरस्त करके नए लागू कर दिए जाते हैं। लेकिन कैदी लोग केवल वही आदेश मानते हैं, जो बलपूर्वक उनसे मनवाया जाए।

हमारे आने पर जेलर ने पेटी अफसर तथा टंडीलों को आदेश दिया कि वे हमपर विशेष निगरानी रखें, हमें परस्पर बात न करने दें। भोजन के समय भी हमें एक-दूसरे से बहुत दूर बिठाएँ, हमारी कोठरियाँ एक-दूसरे से दूरी पर हों। हमारे पीछे जासूस के रूप में विशेषज्ञ आदमी नियुक्त किए, जो हमारी बातें जानने का प्रयास करें और उसकी सूचना अधिकारियों को दी जाती रहे।

जेलर ने हमें बताया कि जब इस जेल में किसी की शिकायत होती है तो नियम यह है कि उसे निश्चित रूप से अपराधी समझा जाता है, जब तक कि वह स्वयं को निरपराध सिद्ध न करे। ऐसी दशा में हमारी शिकायतें पहुँचना आश्चर्य की बात न थी। पहले दिन हमने काम किया। एक प्रकार से यह पहला दिन था जब मैंने घर से बाहर, अर्थात् जेल के अंदर अपने हाथ से इतना कठिन परिश्रम किया था। वह काम हमसे पूरा कहाँ हो सकता था? हममें से बहुत से थोड़ा ही काम कर पाए। तीन-चार तो एक-तिहाई से भी कम काम कर सके थे। अतः हम सबको जेलर के सामने ले जाकर खड़ा किया गया। जेल के नियमानुसार तो नए कैदियों की पहले पंद्रह दिन तक कोई शिकायत न की जाती थी, परंतु हमारे लिए तो विशेष आदेश था। अतः टंडील के लिए हमारी पेशी करना आवश्यक था। बारी साहब ने धमकी देनी शुरू की, ‘बाबा, यह जेल है। यह काला पानी की जेल है; यहाँ काम पूरा करना होगा।’ हमारे बीच में मेरे ही नाम का एक और युवक भी था, जो बेपरवाह ढीला खड़ा हुआ सबकुछ सुन रहा था। बारी साहब ने उससे कहा, ‘सीधे खड़े होओ।’ जमादार तुरंत समीप आ गया और उसे हाथ से पकड़कर खड़ा होना सिखाने लगा। जेलर ने कहा, ‘अच्छा, आज ले जाओ, पहला दिन है।’ और इस प्रकार हम अपनी कोठरी में वापस आ गए।

जेल के परमेश्वर की पिटाई

दूसरे दिन रविवार था। रविवार को सवेरे उठकर कैदियों को कपड़े धोकर सुखाने होते हैं। इधर कपड़े सूखते हैं और उधर कैदी लोग अहाते में उगी घास आदि उखाड़कर सफाई करते हैं। रविवार को पीने के लिए गंजी नहीं मिलती। दस बजे खाना खिलाकर फिर सबको कोठरियों में बंद कर दिया जाता है। सायंकाल को हमें कोठरियों से निकालकर खाना दिया गया और फिर उसी प्रकार परेड में गिनती करके बंद कर दिया गया। अगले दिन हम उठे तो परमानंद ने काम करने से मना कर दिया। टंडील उसे पकड़कर जेलर के सामने ले गया। जेलर क्रोध में बड़बड़ाने लगा। परमानंद ने भी वैसा ही उत्तर दिया। जेलर कुरसी से दो-चार हाथ दिखाने के लिए उठने लगा तो परमानंद ने लपककर उसे धक्का दे दिया। वह कुरसी पर गिरा, कुरसी फिसल गई और वह नीचे जा पड़ा। टंडील और जमादारों ने परमानंद की पिटाई कर दी। उसका सिर फट गया। तत्काल सुपरिंटेंडेंट को फोन किया गया। बारी साहब सुपरिंटेंडेंट से बहुत डरता था। उसने आदेश दिया कि परमानंद का खून तुरंत धो डालो, कोई निशान बाकी न रहे और साथ ही इसे एक कोठरी में बंद कर दो। इसका अर्थ यह था कि इसे काम आदि के लिए कभी बाहर न निकालो। सुपरिंटेंडेंट मेजर सज्जन और समदर्शी था। अपने काम और कर्तव्य को पूरा करने में वह बहुत ही कठोर और नियमबद्ध था। हमने अपनी कोठरियों में सुना कि उसने बारी साहब को डाँटा कि उसने आते ही हम लोगों से छेड़छाड़ क्यों शुरू कर दी? सुपरिंटेंडेंट और जेलर दोनों परमानंद के पास गए। वह क्रोध में था। सुपरिंटेंडेंट ने उसे धमकी सी दी। बदले में परमानंद ने भी सुपरिंटेंडेंट को क्रोध में भला-बुरा कह दिया।

परमानंद को तीस बेंत की सजा

पूरे जेल में शोर मच गया कि बारी साहब को पीटा गया है। टंडील और पेटी अफसर चाहे देखने में बारी साहब से डरते थे और हर समय उसकी चापलूसी करते रहते थे, परंतु उसके पीटे जाने पर सब प्रसन्न थे। वह ऐसा निर्दयी और अत्याचारी था कि इस समाचार को सुनकर सभी को सुख मिला। चार-पाँच दिन के पश्चात् सुपरिंटेंडेंट ने मुकदमा सुना और जेल के सब फाटक इत्यादि बंद करा दिए, ताकि परमानंद को बेंत लगाने की सजा दी जाए। उसे कुल तीस बेंत लगाए गए, लेकिन तब भी उसने उफ तक न की। परंतु यह समाचार सुनते ही हम सबने हड़ताल कर दी। हड़ताल से जेल के अधिकारी घबरा जाते हैं, क्योंकि इस बात का डर रहता है कि दूसरे कैदियों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा और जेल का प्रबंध चौपट हो जाएगा। अतः बारी साहब ने घूमना शुरू कर दिया। सबके पास जा-जाकर बड़ी नरमी से खुशामद की बातें शुरू कीं—‘यह उसका अपराध था कि उसने ऐसा अनुचित काम किया। मैंने उससे कुछ भी तो नहीं कहा था।’ इस बार तो सब कैदी काम करने के लिए पुनः तैयार हो गए, परंतु इस शर्त पर कि भविष्य में जेल की ओर से ऐसी कोई सख्ती न की जाए। भला यह कैसे संभव था? बारी साहब ऊपर से देखने में तो मधुर और नरम था, परंतु उसके हृदय में विष भरा था और वह प्रतिशोध की अग्नि में जल रहा था।

उसने हमारे पुराने कैदियों में से एक-दो को गुप्त रूप से अपने साथ मिला लिया और शतरंज की चालें शुरू कर दीं। जेलखाने में भी दलबंदी। उसका वर्षों का ब्योरा बड़ी लंबी कहानी है, उसका वर्णन तो पाठकों का समय नष्ट करना होगा। इतना ही कह देना पर्याप्त है कि जेल में भिन्न-भिन्न विचारवालों के अनेक दल बन गए थे। उनके स्वार्थ भी अलग-अलग होने के कारण जेल में एक निराला संग्राम होता रहा। इन सभी चालों की चाबी बारी साहब के हाथ में थी। उसका केवल एक ही प्रयोजन था कि जिन नए राजनीतिक कैदियों ने उद्दंडतापूर्वक उसका अपमान किया और जिन्होंने उसकी पिटाई तक कर डाली, उनपर जहाँ तक संभव हो सके, कठोरता करके अपने हृदय की आग को शांत करे। इसके लिए वह एक तो पठान और मुसलमान वार्डरों तथा पेटी अफसरों को लगातार उनके विरुद्ध भड़काता रहता था, साथ ही हिंदू वार्डरों और पेटी अफसरों को, जिनकी संख्या बहुत थोड़ी थी, यों ही धमकाता रहता था कि तुम इन लोगों को छूट देते हो और इन्हें उचित नियंत्रण में नहीं रखते। इसलिए हिंदू वार्डर भी डरकर मुसलमानों से भी अधिक सख्ती करते थे, जिससे किसी तरह साहब को प्रसन्न कर सकें। बारी साहब स्वयं सख्ती न कर सकता था, क्योंकि जेल का पूर्ण अधिकार सुपरिंटेंडेंट के हाथ में होता है और सुपरिंटेंडेंट ऐसा था जो छोटी-से-छोटी बात अपनी आज्ञा से करवाता था। सुपरिंटेंडेंट स्वभाव से सज्जन था और वह यह भी जानता था कि जेलर शरारत और लड़ाई-झगड़ा होने पर प्रसन्न रहता है। इसलिए बारी साहब चाहता था कि किसी तरह सुपरिंटेंडेंट के विचार भी कैदियों के प्रति उसी के समान हो जाएँ। इसका केवल एक ही उपाय था कि हममें से कोई कैदी उसी प्रकार का या उससे भी संगीन आक्रमण सुपरिंटेंडेंट पर कर दे, जिससे हम लोगों द्वारा की जानेवाली शरारत का उसे स्वयं अनुभव हो जाए।

ऐसा आक्रमण करवाने के लिए यह आवश्यक था कि हममें से कुछ आदमी उसके साथ हों, जो सोच-विचारकर किसी-न-किसी को इस उद्देश्य के लिए उकसाकर तैयार करें। जेल में सुख की इच्छा और खाने का लालच—दो ऐसे अचूक प्रलोभन हैं, जिनसे सब प्रकार की कार्य-सिद्धि हो सकती है। जहाँ दोनों समय बिना घी की उबली हुई अरहर की दाल, दो सूखी रोटियाँ, थोड़े से अधपके चावल और घास, पत्तों व टहनियों की सब्जी ही खाने के लिए मिले और वर्षों तक इसमें कुछ परिवर्तन न हो, वहाँ मनुष्य का मन किन-किन चीजों को खाने के लिए तरसता रहता है। यदि ऐसे में उसे अंडे और मछली खाने को मिल जाएँ तो उसे इससे बढ़कर आनंद संसार में दूसरा दिखाई नहीं देता। इन्हें प्राप्त करने के लिए आदमी कुछ भी करने को तैयार हो जाता है।

बारी साहब को इन लालचों के बल पर कुछ लोग मिल गए, जो उसकी इच्छानुसार सबकुछ करने को तैयार थे। उन्हें यह भी लालच दिया गया कि इस प्रकार की सेवा करने से उनकी रिहाई का भी कोई-न-कोई रास्ता निकल आएगा। ये लोग अपने अधिकारों और खाने की वस्तुओं का लालच देकर अपनी बात मनवा सके। कइयों ने उनकी वस्तुओं को छूना तक पाप समझा; लेकिन सर्वसाधारण के अंदर उनका रसूख बना रहा और वे उनको ऐसे काम करने के लिए उकसाते व तैयार करते रहे, जो देखने में तो ठीक मालूम होते थे, किंतु उनकी वास्तविकता कुछ और थी। जेल में कुछ आदमियों की एक पार्टी सी बन गई थी, जो अपने आपको वास्तव में पीडि़त समझते थे। उनके विचार में राजनीतिक कैदी होने के कारण उनके विशेष अधिकार होने चाहिए, अच्छा खाना और कपड़ा मिलना चाहिए तथा अन्य कैदियों की अपेक्षा उनके प्रति विशेष व्यवहार होना चाहिए। परंतु होता सबकुछ उनकी इच्छा के विरुद्ध था। खाना उन्हें दूसरे कैदियों जैसा मिलता था। काम भी उन्हें वैसा ही करना पड़ता था। अन्य कैदी तो इस तरह के खाने और काम करने के अपने घर से ही अभ्यस्त होते थे, अतः उनके लिए यह ऐसा दंड न था जैसा इन राजनीतिक कैदियों के लिए; जिनकी लौकिक स्थिति उनसे कहीं बेहतर थी। साधारण कैदियों का संबंध तो बाहर भी इसी प्रकार के आदमियों से होता था। इन सब बातों के होते हुए भी खूनी और हत्यारे कैदी वार्डर और पेटी अफसर बनकर राजनीतिक कैदियों पर शासन करते और उन्हें नियंत्रण में रखते थे; किंतु इस पार्टी के आदमी जेल में भी वैसा ही आंदोलन करके अपने अधिकार प्राप्त करना चाहते थे जैसा वे देश में किया करते थे। उनके विचार और उत्साह जेल में आकर भी वैसे ही बने हुए थे, इसलिए ये हड़ताल आदि करवाने के पक्ष में थे। इनमें कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने जेल का खाना खाने से मना कर दिया और भूख हड़ताल करके अपने प्राण त्याग दिए। ऐसा ही एक आदमी होशियारपुर जिले के एक गाँव का रामरखा बाली था, जो शंघाई में पकड़ा गया था। एक पृथ्वी सिंह भी पाँच महीने तक भूख हड़ताल पर रहा, जिससे उसका वजन एक सौ पचास पौंड से गिरकर नब्बे पौंड तक आ गया। सबने जब उसपर खाना खाने के लिए दबाव डाला तो उसने स्वीकार कर लिया। इन्हीं में से कुछ सिक्ख सज्जनों को एक विशेष शिकायत थी कि उन्हें केश धोने के लिए साबुन आदि कुछ न मिलता था। वास्तव में धार्मिक विचारोंवाले सिक्खों पर यह अत्याचार ही था।

जेल में षड्यंत्र

इसके अतिरिक्त एक दूसरा दल था, जो कहना मानने पर तैयार हो जाते थे। पेटी अफसरों, जेलर व असिस्टेंट जेलर से इनका प्रायः झगड़ा हो जाता था। हिंदू तथा बर्मी बच्चों पर की जानेवाली अनुचित कठोरता, उनपर दबाव डालकर तंग किया जाना अथवा उनके धर्म को भ्रष्ट किया जाता देखकर वे इसे सहन न कर पाते थे और इसे रोकने के लिए हस्तक्षेप करते थे। इसपर लंबा झगड़ा हो जाता था। ये लोग समझते थे कि वे देश के काम के लिए जेल में आए हैं और यहाँ आकर दूसरे कैदियों के लिए काम करना उनका ऐसा ही कर्तव्य है, जैसा देश में रहकर देश के लिए काम करना। उन्हें बारी साहब और उसके कर्मचारियों से बहुत घृणा थी। उसे देखकर न तो वे उठकर खड़े होते थे और न उससे आदरपूर्वक बात ही करना चाहते थे, जिस कारण वह सदैव इनसे जलता रहता था। दूसरी रसूखवाली, पार्टी का भी ऐसा ही विचार था कि जेल के अफसरों को तंग करके ही हम अपना मतलब सिद्ध कर सकते हैं। कुछ महीने बीते, पुनः हड़ताल शुरू हो गई। इन लोगों ने गुप्त रूप से यह प्रस्ताव चलाया कि जेल में एक छुरी बनवाई जाए और उससे सुपरिंटेंडेंट पर आक्रमण किया जाए। यह योजना पक्की होती रही। मैं इन पार्टियों में से किसी में भी सम्मिलित न था। उनमें से कोई समझदारी की बात सुनना न चाहता था। मैंने इन क्रांतिकारी लोगों की प्रकृति को समझकर यही परिणाम निकाला कि इनमें से प्रत्येक मनुष्य अपने आपको अन्य सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझता था। उन्हें किसी ऐसी बात पर सहमत करवाना, जो उनकी प्रकृति के विरुद्ध हो, असंभव सा था। एक आदमी अकारण ही किसी से लड़ पड़ता है और बाकी सब उसकी सहानुभूति में हड़ताल करना अपना कर्तव्य समझते थे। मैं इसका अर्थ यह निकालता था कि हममें से जो सबसे अधिक क्रोधी एवं झगड़ालू हो, उसी के पीछे सबको चलना चाहिए। चाहे वह हम सबको किसी गड्ढे में ही क्यों न गिरा दे।

जेल में प्रतिदिन लड़ाई करने के सैकड़ों अवसर निकल आते थे। मैंने अपने साथियों को साफ बता दिया कि मैं उनके साथ उसी अवस्था में रह सकता था, यदि वे मेरी सम्मति की कुछ कदर करें। यदि उनमें से प्रत्येक के पीछे चलना आवश्यक है तो मैं उनके साथ नहीं चल सकूँगा। परिणाम यह हुआ कि मैं उनसे सर्वथा अलग रहते हुए एक दर्शक बनकर यह देखता था कि वे क्या करते हैं। जब कभी कोई मेरी राय माँगता था तो राय देता था। जेल में अपने पास कागज का टुकड़ा या पेंसिल रखना उसी प्रकार अपराध माना जाता था जैसे पैसे रखकर जुआ खेलना; परंतु जेल के कैदी तो नियमों को तोड़ना ही अपना कर्तव्य समझते थे। इसलिए जैसे साधारण कैदी गले में पैसे छिपाकर जुआ खेला करते थे वैसे ही राजनीतिक कैदियों में चिट्ठी भेजने का बहुत प्रचलन था। वार्डर लोग ही एक अहाते से दूसरे अहाते में ये चिट्ठियाँ ले जाते थे। कई सिख वार्डर चिट्ठियाँ ले जाते हुए पकड़े भी गए और पद से हटकर दुबारा मशक्कती बना दिए गए। एक दिन एक वार्डर किन्हीं भाईजी को देने के लिए एक परचा लाया और एक कैदी से बोला, ‘यह परचा भाईजी को दे दो।’ वह कैदी मुझे जानता था, अतः उसने वह परचा झट से मुझे दे दिया। उसमें किसी चीज को बाहर से मँगवाने या जेल में बनवाने के विषय में लिखा था। मैं चकित रह गया। मैंने उस वार्डर को बुलवाकर पूछा। उसने मुझे बताया कि किस तरह हमारे आदमियों में छुरी बनवाकर आक्रमण करने की योजना बन रही थी और किस तरह यह सब बात न केवल बारी साहब को ज्ञात थी, बल्कि वही यह सबकुछ करवा रहा था। मैंने अपने सब आदमियों को बताया, धोखे के इस जाल से सचेत किया, जिसमें वे हैं कि फँस सकते थे। यह सुनकर उनमें से एक-दो ने तो उन्हें उकसाने वाले को गालियाँ दीं और पहले उसे ही मार डालने की धमकी दी। दूसरे दिन हम सब लोगों के अहातों की बदली कर दी गई। वैसे भी, यह बदली हर तीसरे-चौथे महीने हुआ ही करती थी। बदली तो हो गई, परंतु जो जोश फैलाया गया था, वह कम न हुआ।

सुपरिंटेंडेंट पर आक्रमण

सुपरिंटेंडेंट प्रत्येक मास में एक रविवार को प्रातःकाल स्वयं सब कैदियों का वजन किया करता था। वजन करते समय एक बार भाई चतरसिंह ने खाली हाथ उसपर आक्रमण कर दिया और उसकी गरदन पकड़ने की कोशिश की। सुपरिंटेंडेंट कुरसी से गिर गया। भाई चतरसिंह को अफसरों और वार्डरों ने पकड़ लिया और बहुत मारा-पीटा। बाद में सुपरिंटेंडेंट ने उसे लोगों से छुड़वाया। जेलर फाटक में था। जब उसने सुना तो मन-ही-मन प्रसन्न हुआ कि उसकी योजना सफल हो गई। चतरसिंह को तो कोठरी के दरवाजे और खिड़की में बारीक जाली लगवाकर दिन-रात चौबीसों घंटों के लिए अंदर बंद कर दिया गया। उधर सुपरिंटेंडेंट पर बारी साहब की बात अधिक असर करने लगी। यह स्वाभाविक था कि अब सुपरिंटेंडेंट का हृदय भी अधिक कठोर हो जाए। स्वयं पर पड़े दुःख का प्रभाव मनुष्य का व्यवहार बदलने में ज्यादा पड़ता है, साथ ही झगड़े की जड़ सावरकर भाइयों को बना दिया गया। उनपर यह लांछन भी लगाया गया कि वे हमेशा जेल में अशांति फैलाते रहते हैं। बारी साहब का दाँव चल गया। उसके पक्षपाती सुखी हुए और विरोधियों पर विशेष दृष्टि रखी जाने लगी। बम केसवाले अधिक सख्ती के दिन काटने लगे। सख्ती होने पर वे बिगड़ते थे। सुपरिंटेंडेंट के आने पर खड़े न होते थे। उन्हें कोठरी में बाँधकर हथकडि़याँ लगाकर ऊँचा बाँध दिया जाता था, ताकि वे खड़े रहें, बैठ न सकें। पैरों में बेडि़याँ डाल दी जाती थीं। कई बार हड़ताल हुई, खाना छोड़ा गया, पेशियाँ हुईं, सजाएँ मिलीं। पेटी अफसरों, वार्डरों से दंगे-फसाद हुए। काल किसी के लिए नहीं रुकता। इसी तरह चलता गया। वर्ष बीत गए और एक दिन बारी साहब का काल उसे हमेशा के लिए छुट्टी पर ले गया। सुपरिंटेंडेंट छुट्टी लेकर चला गया। बारी साहब की मृत्यु हो गई। जेल से कई कैदी छोड़े गए। जेल में नए अफसर और सुपरिंटेंडेंट आ गए और नई नीति का आरंभ हुआ। सबकुछ सहा जा सकता था, परंतु एक बात जो हम लोगों के लिए असह्य थी, वह प्रतिक्षण अपमान का डर था। इसके सामने खाने की खराबी और पाबंदियाँ तुच्छ थीं। मुझे अपनी स्थिति की दिक्कत जेल में अजीब सी मालूम हुई। एक ओर तो द्रोह था और दूसरी ओर मूर्खता। मैं यह सोचता रहता था कि इन दोनों में से कौन सी वस्तु बुरी है—और अंत तक मुझे इसका उत्तर नहीं मालूम था। जहाँ तक मैं देख सकता हूँ, मुझे दोनों ही एक से बुरे, भयानक दिख पड़ते हैं। एक तो हृदय का दोष है और दूसरा मस्तिष्क का। मस्तिष्क का दोष सोच-समझकर हम क्षमा करने पर तैयार हो जाते हैं और हृदय का दोष अर्थात् स्वार्थवश होकर अपनों को धोखा देना क्षमा के योग्य नहीं दिख पड़ता। ऐसे मूर्ख मनुष्य भी थे, जो मेरी उपेक्षा को कायरता कहकर मुझे बुरा-भला कहते थे। यद्यपि मुझे यह समझ न आता था कि जो मनुष्य कष्ट को सहर्ष स्वीकार करता था, वह अधिक दिलेर था अथवा वे अधिक दिलेर थे जो अच्छा खाने का अधिकार पाने के लिए यों ही अपने आपको दुविधा में डालते थे। जो भी हों, पर मेरा विचार कायरता और दिलेरी के संबंध में इनसे नहीं मिलता था। यदि मेरा स्वभाव और मस्तिष्क इस प्रकार का बना होता और मैं उनकी चेष्टाओं में शुरू से ही सम्मिलित होता तो मैं इतना कह सकता हूँ कि नासमझी के होते हुए भी मेरे लिए यह संभव था कि मैं उनसे प्यार कर सकूँ, चाहे मेरे मन में उनके लिए आदर होना असंभव था। उनके साथ रहकर गुजारा करना बड़ी कठिन सी बात थी। उन कमीने आदमियों के साथ, जिनसे आदमी घृणा करता है, गुजारा हो सकता था, यदि उनका मन अच्छा हो जाता तो।

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