महानता के मुगालते का नया मानसिक मर्ज

महानता के मुगालते का नया मानसिक मर्ज

जैसे-तैसे मेडिकल साइंस तरक्की कर रही है, रोज नई चुनौतियाँ भी प्रगति पर हैं। भला किसने सोचा होगा कि बैठे-ठाले कोरोना की महामारी दुनिया को घेर लेगी? कुछ विशेषज्ञों का मत था कि इसकी उत्पत्ति में चमगादड़ का योगदान है। हमारे मोहल्ले ने इस मत को गंभीरता से ले लिया। नतीजतन, चमगादड़ उन्मूलन अभियान शुरू हो गया। इसका रोचक पहलू है कि कोरोना-बचाव के कदमों से अधिक जोर चमगादड़-उन्मूलन पर दिया गया। मोहल्ले वासियों को लगा कि रोग के विस्तार को रोकने से अधिक महत्त्वपूर्ण है, उसका जड़ से विनाश करना। इस सोच के चलते मास्क और समुचित दूरी के स्थान पर लोग सामान्य रूप से सिद्ध करने लगे कि भारत में जनसंख्या के नियंत्रण की दरकार है। शहर के बाजार में भीड़ का उमड़ना, एक-दूसरे को जबरन स्पर्श सुख देने की घटनाओं में दिनोदिन वृद्धि नजर आने लगी। ‘कोरोना-प्रोटोकॉल’ के बढ़ते उलंघन से रोग-ग्रस्त लोगों की संख्या भी बढ़ने लगी। बीमारों की तादाद के चलते, अस्पतालों की सुविधाएँ कम पड़ने लगीं। कुछ उपचार के अभाव में चल बसे तो कुछ भर्ती हुए, मगर ऑक्सीजन के उपलब्ध न होने से।

इस दौरान कुछ लोगों ने मास्क न लगाकर नकाबपोश बनने से इनकार के एक नए कारण का आविष्कार भी किया। वह अपनी ‘नियति-निर्भरता’ सिद्ध करते, कहते पाए गए कि “जीवन-मृत्यु सब ऊपर वाले की इच्छा पर निर्भर है। कुछ मास्कधारी और घर-घुस्सू भी इस मर्ज के शिकार बने हैं, यहाँ तक कि कुछ वैक्सीन लगवाने के बावजूद भी। लिहाजा हमने तो खुद को उसी की कृपा पर छोड़ दिया है।”

ऊपर वाले की कृपा तक तो गनीमत है, कुछ सियासी विरोधियों ने देश में निर्मित वैक्सीन को शासकीय दल की नीतियों से ‘प्रदूषित’ बताकर उसका राजनैतिक विरोध किया और घोषणा की कि वह फलाने दल की वैक्सीन नहीं लगवाएँगे। यह उद्घोष जनता के सन्मुख, विशेषकर अपने समर्थकों के लिए था। बाद में उन्होंने नेता के खास चारित्रिक गुण यानी ‘कथनी’ और ‘करनी’ को उजागर करते सबसे छिपकर चुपचाप वैक्सीन लगवा ली। इससे यह भी साबित होता है कि सियासी विरोध में नेता विरोध का या शासक दल का, कुछ भी अंट-शंट बकने को स्वतंत्र है। उसे ब्रह्म-वाक्य न समझने में ही समझदारी है। कुछ ज्ञानी इसे जीवन-मूल्यों के बढ़ते अवमूल्यन से भी जोड़ते हैं। जब सारे जीवन-मूल्यों में गिरावट नजर आ रही है तो नेतृत्व के स्तर में क्यों न आए? उसमें भी पतन के लक्षण दिखना लाजमी है।

इस प्रचलित महामारी का व्यापक शारीरिक प्रभाव ही नहीं है, इसका मानसिक असर भी है। अवसाद या डिप्रेशन एक नए मनोरोग के रूप में उभरा है। कुछ की मान्यता है कि कोरोना भी लाइलाज है और अवसाद भी। ऐसे मानसिक मरीजों के विशेषज्ञ डॉक्टर इस आकलन से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, समय भले लगे, पर मानसिक मर्जी का कारगर इलाज संभव है। चूँकि हम इसके भुक्तभोगी नहीं हैं, इसलिए अधिकृत तौर पर कुछ भी कहने में असमर्थ हैं। फिर भी हमें लगता है जीवन की अवधि यों ही काफी कम है, इसमें भी कुछ वर्ष अवसाद-ग्रस्त होकर व्यर्थ गँवाना श्रेयष्कर नहीं है। कुछ डॉक्टरों की जीविका मानसिक रोगों के अस्तित्व पर ही निर्भर है। जाहिर है कि वे ऐसे निष्कर्षों से मत-भिन्नता रखते हों। स्वाभाविक भी है। पर मानसिक मर्जों के प्रभाव को कम आँकना भी कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि मनोरोगों से इनसान के जीवन की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। डॉक्टर कोई भी राग अालापें, इस तथ्य से इनकार करना कठिन है कि मानसिक मर्ज के इलाज की दिशा में अभी काफी प्रगति बाकी है। कौन कहे, इसका समुचित इलाज कब मुमकिन हो? ऐसे अवसाद के शिकार आधे-अधूरे इनसान मनोचिकित्सकों की देन हैं। अवसाद इन्हें गुणवत्ता की जिंदगी जीने नहीं देते और डॉक्टर इन्हें मरने नहीं देते। वह जानते हैं कि इनको पूर्णरूपेण सामान्य होने की संभावना सीमित है पर दुधारू गाय भला किसे बुरी लगती है? उसे पालना सबको स्वीकार है, पर सूखी गाय और साँड़ कोई शायद पागल ही पालता हो?

इधर देखने में आया है कि एक नया मानसिक मर्ज ‘महानता का मुगालता’, संक्रामक रूप से दो पायों पर आक्रामक है। गौरतलब है कि यह जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त है। अफसर, बाबू, कवि, लेखक, साहित्यकार, कलाकार, डॉक्टर, बीमार जैसा कोई भी वर्ग इस संक्रमण की चोट से अछूता नहीं है। हो न हो, समाज का हर वर्ग इस मानसिक रोग से ग्रस्त है। छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा। इसका श्वेत पक्ष यह है कि यदि किसी को यह मानसिक मर्ज हो तो अगर वह नाटा है तो स्वयं को नेपोलियन समझता है। दीगर है कि उसके जीवन में कभी कोई ‘वाटरलू’ नहीं होता है। यदि हो भी जाए तो उस पर कोई असर नहीं पड़ता है। वह अपने मुगालते की दुनिया में पहले की तरह महत्त्वपूर्ण बना रहता है।

हमारे दर के पास एक डॉक्टर साहब की क्लीनिक है। उनकी मरीज देखने की फीस शहर में सबसे सस्ती है। वह मात्र एम.बी.बी.एस. हैं। यानी उनकी विशेषज्ञता रोगों की किसी विधा में नहीं है। भारत में न रोगियों की संख्या कम है, न सस्ता इलाज करवाने वालों की। कुछ बिना डिग्री के स्वयं-भू स्थापित झोला डॉक्टर तक हैं। गनीमत है कि यह डिग्रीधारी हैं। लिहाजा उनके क्लीनिक में हर समय भीड़ जुटी रहती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि हमारे देश में हर किस्म के रोगियों की भरमार भी है और विविध रोगों की भी। डॉक्टर पधारे नहीं कि अपना इलाज का धंधा शुरू कर देते हैं, अर्थात् प्रवेश शुल्क जमा करवाने वालों की क्रमानुसार जाँच।

मरीज के दाखिल होते ही वह स्वयं पूरी संवेदनशीलता और अपनेपन के नाटक से उसका हालचाल दर्याफ्त करते हैं। इसके बाद एक्सरे से लेकर खून की जाँच आदि का नंबर आता है। उन्होंने अपने पेशे की जाँच का गुर बहुत ही लगन और तन्मयता से सीखा है। हर प्रमुख ‘लैब’ में उनके परिचित हैं। रोगियों को बहुधा वह हर जाँच के लिए उन्हीं लैब का नाम बताते हैं।

यों डॉक्टरों का हर ‘लैब’ से कमीशन का रिश्ता है। हर जाँच पर उनका पंद्रह-बीस प्रतिशत का कमीशन कहीं नहीं गया है। वह उनके खाते में बिना शोर और आहट के आ ही जाता है। आयकर के डर के मारे कुछ चैक के बजाय इसका नगद भुगतान ही लेते हैं। वह आयकर विभाग ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ का रोचक खेल खेलने के अभ्यासी हैं। इस विभाग के अधिकारियों-कमचारियों के लिए उनकी फीस भी रियायती क्या सिर्फ सांकेतिक है। महज एक रुपया। यह भी इसलिए कि जिससे विभाग के लिए उनके हार्दिक स्नेह को कोई भुलाए न भूले। पैसे से ऐसा लगाव है कि एक रुपया भी जेब से जाए तो याद रहता है।

सस्ते इलाज की लोकप्रियता और विनम्रता के मुखौटे से आमदनी के लिहाज से वह शहर में टाॅप पर हैं। कई बार उनके कई मरीज लगातार होती जाँचों के दौरान ही टें बोल जाते हैं, पर इसमें दोष डॉक्टर को कोई नहीं देता है। उसका इलाज तो शुरू भी नहीं हो सका कि मरीज की आत्मा शरीर का पिंजड़ा तोड़कर फुर्र हो ली। रोगी का परिवार आश्वस्त है कि उसने मरीज की प्राणरक्षा के लिए हरसंभव प्रयास किया, रुपया खर्च किया, हर लिखी जाँच करवाई, पर यह प्रक्रिया ही पूरी होते-होते यमदूत पधार गया। इसमें बेचारा डॉक्टर क्या करता?

डॉक्टर भी विवश है। निजी हित में मरीजों-तीमारदारों को क्या पता? अधिक-से-अधिक जाँचें करवाने में मरीज का भला भले न हो, पर डॉक्टर का खुद का निहित स्वार्थ है। उसकी क्लीनिक की फीस भले कम हो, पर जाँचों के कमीशन की राशि उसकी भलीभाँति भरपाई कर देती है। उसका महानता का मुगालता मरीजों की जेब पर जाँचों के आधिक्य से भारी तो पड़ता, पर वह प्रवेश-शुल्क के सस्ते आकर्षण में सब खिंचे चले आते। वह भी मित्रों से शान बघारता—“कहने को हम सिर्फ एम.बी.बी.एस. हैं, पर आमदनी और अनुभव में कोई विशेषज्ञ हमसे मुकाबला करके तो देखे। जब तक क्लीनिक खुली रहती है, दम मारने की फुसरत नहीं होती है।”

महानता के मुगालते के उसके मनोरोग का भार मरीजों पर ही भारी पड़ता या दूसरे डॉक्टरों पर। उसका खुद का अपना जीवन सुखमय और संतोषदायक रहता। दीगर है कि वहीं लेखक और कवियों को यह मनोरोग रचनात्मक रूप से पंगु बना देता है। हमारे शहर में कुछ ही कवि हैं, अधिकतर तुक्कड़। हालात इतने संकटप्रद हैं कि कोई कहीं से भी पत्थर उछाले तो कवि या तुक्कड़ ही इसका शिकार हो। किसी ने दस कविताएँ लिखी हैं या दस तुक्कड़ियाँ, वह अपने को अतीत का कालिदास या आधुनिक युग का निराला समझने से बाज नहीं आता है। दूसरों को बताने या अज्ञानियों पर शान बघारने में जाता ही क्या है? शहर का दूसरा कवि सुने तो उसका भड़क उठता है—“कंबख्त खुद को कालिदास कहता है, पर है केवल गुमनामी का दास। स्थानीय पोखर का मेढक है। वहाँ भले कितनी भी टर्र-टर्र कर ले, बाहर तो कोई उसे जानता तक नहीं है।”

बाहर के अधिकतर पोखरों की यही दुर्दशा है कि बरसात के बाद वह ज्यादातर सूखे ही पाए जाते हैं। कइयों को तो पाटकर बिल्डर उन पर बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर चुके हैं। उनके नक्शे तक संबद्ध सरकारी विभाग द्वारा स्वीकृत है। शासन की कल्याणकारी है कि गरीब-से-गरीब बेदर न रहे। इस अल्पकालीन पोखर में टर्र-टर्र करना कवि या तुक्कड़ का जन्मसिद्ध अधिकार है। दिक्कत यह है कि अपने शहर तक में अधिकतर लोग उनकी काव्य-उपलब्धि से परिचित नहीं हैं। वह भले हर हफ्ते छपें, कविता देखते ही अधिकतर पन्ना पलट देते हैं। पाठक अपने मतलब की खबर पढ़ते हैं, साहित्य के पन्ने नामक जटिल और ‘बोर’ विषय से उनका ताल्लुक ही क्या है? इतना अवश्य है कि वह पन्ने को सँजोकर रखते हैं, रद्दी की रकम का सवाल जो ठहरा। उनका साहित्य के पन्ने का आकर्षण सिर्फ यही रकम है। पर उसे पढ़ने की उन्हें फुरसत क्यों हो? भला क्यों वह अपना कीमती वक्त उसमें जाया करें? समय के इतने उपयोग हैं। दोस्तों के साथ गप्पें लड़ानी हैं, मुफ्त की चाय का जुगाड़ करना है। यदि उसके साथ कुछ समोसे-पकौड़े भी मिल जाएँ तो क्या बुरा है?

यों चुनाव के दिनों में रैली की भीड़ बनना भी एक कमाऊ और लाभप्रद धंधा है। नेता की शान में कुछ नारे ही तो लगाने हैं। जब तक ले जाने को वाहन, खाने को आलू-पूड़ी और मिलने को दिहाड़ी का प्रबंध है, उन्हें किसी भी दल की रैली का कच्चा माल बनने से क्यों परहेज हो? इस कमाऊ पर्यटन की तुलना करें तो साहित्य में क्या धरा है? रोने-धोने की कहानी, तुक मिलाने की कविता तक पढ़ने को कौन फ्री है? अखबार या पत्रिका पड़ाेसी की नजर बचाकर उठाइए, नहीं तो उसे जेब की रकम खर्च कर खरीदिए। आत्मा का सुख या मानसिक-बौद्धिक उत्कर्ष वगैरह सिर्फ कहने की बातें हैं। सब के सब जेब का पैसा वसूलने के बहाने हैं।

छोटे शहरों में या देश की राजधानियों तक में, महानता के मुगालते के, ऐसे मरीज अकसर पाए जाते हैं। डॉक्टर इनका इलाज क्या करें? पैसा-कौड़ी खर्च करने में ऐसे रोगी असमर्थ हैं। उलटे उन्हें अपेक्षा है कि डॉक्टर उन्हें इलाज करवाने के पैसे दे। वह भी तो धन्य हो गया कि ऐसी महान् साहित्यिक विभूति उसके पास इलाज के लिए पधारी! डॉक्टर स्वयं महानता के मुगालते से ग्रस्त है। उसे तो हर पल पैसा कमाना है। उसके पास इतनी फुरसत ही कहाँ है कि वह कवि या तुक्कड़ की अपनी रची मुफ्त की कविताएँ पढ़ने या सुनने में कमाऊ समय नष्ट करे? जब दो ऐसे महानता के मुगालते टकराते हैं तो नतीजा बहुधा सिफर होता है। डॉक्टर और मरीज दोनों अपने-अपने मुगालते में मगन हैं।

सेवानिवृत्त अफसर, छुटभइए नेता, तथाकथित समाज-सेवक सब अपनी-अपनी महानता के मुगालते की कारा में कैद हैं। चूँकि यह नया और अनूठा मानसिक मर्ज है और डॉक्टर भी स्वयं इससे पीड़ित हैं, निकट भविष्य में इसका निदान नजर नहीं आता है; उलटे, कुछ नेता और साहित्यकार अपने इस मानसिक अवसाद के मुगालते से ऐसे पीड़ित हैं कि सार्वजनिक रूप से इसे प्रकट करने से भी नहीं हिचकते हैं। कुछ जीते जी अपनी मूर्तियाँ लगवाते हैं। पता नहीं भविष्य में कोई उन्हें इस योग्य समझे कि नहीं? दूसरा जीते जी अपने नाम के पुरस्कार स्थापित कर उनका वितरण करता है। पुरस्कार की राशि वह क्यों दे? उसने अपना अनमोल नाम जो दे दिया, यही क्या कम है? लिहाजा पुरस्कार की राशि चंदे से आती है। जन-कल्याण के काम सरकार भी जनता के पैसे से ही करती है, ढोल अपना पीटती है। जैसे उसी का निजी पैसा हो। इसी प्रकार साहित्यकार भी अपने नाम के पुरस्कार की राशि साहित्यिक छुटभइयों के चंदे से वसूल करके, स्वयं की अमरता का मुगालता प्रदर्शित करते हैं।

इसीलिए कुछ विद्वानों का विचार है कि जीवन का है, मुगालतों का कोई अंत नहीं है। सब अपनी महानता के मुगालते में ऐसे मगन हैं कि जैसे उन्होंने सिर्फ अपनी उपस्थिति की उपलब्धि से धरती को धन्य कर रखा है। कौन कहे, इस जटिल मर्ज का अंत कभी हो कि नहीं? या यह मानोचिकित्सकों का पैसे कमाने का स्थायी साधन ही बना रहे?


गोपाल चतुर्वेदी
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