सबकी हिंदी

नोबेल सम्मान मिलने के बाद कविवर रवींद्रनाथ टैगोर को देश-विदेश के अनेक संस्थानों द्वारा व्याख्यान देने हेतु आमंत्रित किया गया। इसी क्रम में उन्हें अहमदाबाद की एक संस्था ने व्याख्यान हेतु आमंत्रित किया। टैगोरजी इस बात को लेकर दुविधा में पड़ गए कि व्याख्यान हेतु किस भाषा का प्रयोग किया जाए। उनकी मातृभाषा बांग्ला कोई समझेगा नहीं। गुजराती उन्हें न आती थी, न सीखने का समय था। अंग्रेजी जानने वाले भी थोड़े से लोग होंगे। हिंदी का विकल्प उनके मन में था, किंतु इस बात का संकोच था कि वे पुल्लिंग-स्त्रीलिंग में गड़बड़ कर जाते हैं। उन्होंने महात्मा गांधी को पत्र लिखकर अपनी परेशानी बताई तथा सलाह माँगी कि क्या करें? महात्मा गांधी ने उन्हें सुझाया कि हिंदी में व्याख्यान देना ही सर्वाधिक उपयुक्त रहेगा और वे पुल्लिंग-स्त्रीलिंग वाले संकोच में न पड़ें।

टैगोर ने अहमदाबाद में हिंदी में ही व्याख्यान दिया और वह बहुत सराहा गया। उसके बाद उन्हें जहाँ भी अवसर मिला, हिंदी में ही व्याख्यान दिया। यह सौ साल पहले की बात है, जब न रेडियो था, न दूरदर्शन, न हिंदी सिनेमा।

इसी प्रकार महर्षि दयानंद, जिनकी मातृभाषा गुजराती थी, आर्य समाज के प्रचार-प्रसार के लिए संस्कृत में प्रवचन किया करते थे। उन्हें सुझाव दिए गए कि यदि आर्य समाज को गाँव-गाँव में पहुँचाना है तो उन्हें हिंदी का प्रयोग करना चाहिए। सुझाव देने वालों में एक अंग्रेज विद्वान् भी थे, जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के समर्थक थे। महर्षि दयानंद ने इस सुझाव को माना और हिंदी में प्रवचन करने लगे। यह सच्चाई है कि हिंदी के कारण आर्य समाज गाँव-गाँव में पहुँचा और आर्य समाज को मानने वालों की संख्या में कई गुना वृद्धि हो गई। तब भी न रेडियो था, न दूरदर्शन।

थोड़ा और पीछे की ओर जाएँ तो जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अपने पाँव जमाना शुरू कर रही थी, तब ब्रिटिश सरकार ने एडवर्ड टेरी नाम के एक विद्वान् को विशेष दायित्व देकर भारत भेजा था कि टेरी पूरे भारत का भ्रमण करें और यह पता लगाएँ कि भारत में ऐसी कौन सी भाषा है, जिसे पूरे देश में प्रयोग किया जा सकता है और जो पूरे भारत में समझी जाती है। एडवर्ड टेरी पूरा भारत घूमे थे और अपने गहन अध्ययन के बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार को अपनी रिपोर्ट में बताया कि हिंदी ही ऐसी भाषा है, जिसे पूरे भारत के लोग समझ पाते हैं और जो सही मायने में पूरे देश की संपर्क भाषा हो सकती है। एडवर्ड टेरी की इस रिपोर्ट के बाद ब्रिटिश सरकार ईस्ट इंडिया कंपनी में जो भी अधिकारी भारत भेजती थी, उन्हें हिंदी सिखाकर भेजा जाता था। यह सत्रहवीं शताब्दी की बात है।

यह भी उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश सरकार ने आई.सी.एस. (इंडियन सिविल सर्विस) में हिंदी को अनिवार्य कर दिया था; परंतु स्वतंत्रता-प्राप्ति के ७५ वर्ष बाद भी भारतीय प्रशासनिक सेवा हेतु अंग्रेजी का वर्चस्व बरकरार है।

एक बार स्वाधीनता संग्राम के महानायकों की ओर भी देखना उचित होगा कि वे स्वाधीन भारत की राष्ट्रभाषा किसे बनाना चाहते थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, जिनकी अपनी मातृभाषा मराठी थी, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे। लाला लाजपत राय की मातृभाषा पंजाबी थी, बिपिन चंद्र पाल की बांग्ला थी, किंतु वे भी हिंदी को ही राष्ट्रभाषा बनाने के समर्थक थे। ‘लाल-बाल-पाल’ से आगे बढ़ें तो महात्मा गांधी की मातृभाषा गुजराती थी, किंतु उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रयास किए। हिंदी के प्रचार-प्रसार को उन्होंने अपने स्वाधीनता संग्राम का ही एक अंग बनाया तथा दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचार सभा जैसी संस्थाएँ खड़ी कीं। एक और महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मातृभाषा बांग्ला थी, किंतु वे भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न देखते थे। आजाद हिंद फौज तथा आजाद हिंद सरकार की आधिकारिक भाषा हिंदी ही थी। राजा महेंद्र प्रताप ने काबुल में अस्थायी भारत सरकार बनाई तो उसकी आधिकारिक भाषा हिंदी ही थी। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सुब्रमण्यम भारती की मातृभाषा तमिल थी, किंतु वे राष्ट्रभाषा हिंदी के समर्थक थे। शहीद भगत सिंह हों, जिनकी मातृभाषा पंजाबी थी या जवाहर लाल नेहरू, जिनकी मातृभाषा कश्मीरी थी या महर्षि दयानंद या लाला हरदयाल या अन्य महान् स्वाधीनता सेनानी, सब एकमत से हिंदी को ही राष्ट्रभाषा बनाने के पक्षधर थे।

यह कितना विडंबनापूर्ण है कि स्वाधीनता के पश्चात् क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के कारण हिंदी का विरोध अस्तित्व में आया तथा स्वाधीनता संग्राम के महानायकों की अभिलाषा तथा हिंदी की व्यापकता एवं सर्वग्राह्यता को भुला दिया गया। इसी का एक उदाहरण पिछले दिनों देखने को मिला। राजभाषा विभाग की एक बैठक में देश के गृहमंत्री अमित शाह ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के वर्ष में यदि यह आह्वान किया कि भारत के राज्यों को अंग्रेजी पर निर्भरता कम करनी चाहिए तथा हिंदी को विकल्प के रूप में अपनाने पर जोर देना चाहिए तो इसमें क्या अनुचित है! स्वाधीनता के ७५ वर्ष बाद भी यदि अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है और हिंदी अपना सम्मानजनक स्थान नहीं पा सकी है तो यह दुखद भी है और लज्जाजनक भी। यह भी स्पष्ट है कि दुनिया के जितने भी विकसित एवं समृद्ध देश हैं, उन्होंने अपनी भाषा में ही सफलता एवं उपलब्धियों के कीर्तिमान गढ़े हैं। इजराइल जैसे छोटे से देश का उदाहरण हमारे सामने है। गृहमंत्री के आह्वान के बाद दक्षिण भारत के एक-दो प्रांतों के नेताओं ने जिस प्रकार आपत्ति जताई तथा नकारात्मक प्रतिक्रिया दी, वह निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण है। भारतीय भाषाओं के समर्थन तथा विकास से जुड़ा कोई प्रश्न हो तो बात समझ में आती है, किंतु अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व की पैरोकारी का औचित्य समझ से परे है। लोगों की भावनाएँ भड़काकर अपनी राजनीति चमकाने के लिए ‘हिंदी विरोध’ कितना आसान उपाय बन जाता है; यह निंदनीय है।

यह याद करना भी प्रासंगिक होगा कि कुछ वर्ष पहले गृह मंत्रालय ने एक प्रपत्र जारी करके प्रांतीय सरकारों को हिंदी के प्रयोग के संबंध में सलाह दी थी तो चीखने-चिल्लाने वाले एक टी.वी. एंकर ने तूफान खड़ा कर दिया था और तब भी दक्षिण भारत के एक-दो प्रांतों ने इसी तरह विरोध किया था। प्रपत्र में कोई आदेश नहीं था, मात्र सलाह थी, किंतु गृह मंत्रालय ने वह प्रपत्र वापस ले लिया था, ताकि अनावश्यक विवाद से बचा जा सके। दक्षिण भारत में हिंदी विरोध को हथियार बनानेवालों को अपने दुराग्रह छोड़कर यह विचार करना चाहिए कि औद्योगीकरण के पश्चात् जिस तरह की मिली-जुली संस्कृति का प्रसार हुआ है और इंटरनेट क्रांति के बाद हिंदी की स्वीकार्यता और भी बढ़ी है, हिंदी विरोध बेमानी तथा निरर्थक है। दक्षिण भारत की फिल्मों ने जिस प्रकार अपनी सफलता के कीर्तिमान गढ़े हैं, वही एक उदाहरण बनना चाहिए कि भाषाई मेलजोल कितना सुखद तथा लाभकारी है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक १९७१ के बाद हिंदी समझने तथा प्रयोग करनेवालों की संख्या में १६१ प्रतिशत की अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। आज दुनिया भर के देशों में फैले प्रवासी भारतीयों तथा भारतवंशियों ने हिंदी प्रसार को नई ऊचाइयाँ दी हैं। यहाँ हिंदी के रचनाकारों, विद्वानों, हिंदी-सेवियों तथा हिंदीभाषी प्रांतों की सरकारों पर यह जिम्मेदारी आती है कि वे न केवल हिंदी को सशक्त तथा समृद्ध करें, अनुवाद एवं भाषाओं के आपसी मेलजोल को बढ़ावा दें, वरन् हिंदी में रोजगार एवं सुखद भविष्य निर्माण के अवसर उत्पन्न करें, ताकि राजनीतिक स्वार्थ के लिए हिंदी विरोध के अनावश्यक स्वर स्वयं ही अप्रासंगिक हो जाएँ।

बच्चों से शुरुआत हो...
लगभग १० वर्ष पहले की बात है। विश्व पुस्तक मेले में नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से एक संस्था के साथ मिलकर आयोजन किया गया था, जिसमें दिल्ली के ६-७ विद्यालयों के बच्चों को भाग लेना था। ट्रैफिक जाम के कारण एक विद्यालय की स्कूल बस नहीं आ पाई थी। शेष विद्यालयों के बच्चे बहुत पहले आ गए थे तथा कुछ परेशान हो रहे थे। तय किया गया कि औपचारिक कार्यक्रम शुरू होने से पहले बच्चों का मन लगाने के लिए उनसे कुछ बातचीत की जाए। बच्चों से पूछा गया कि कितने बच्चों के घर में कोई बाल पत्रिका आती है? लगभग दो सौ बच्चों में से बमुश्किल ८-१० हाथ ही उठे। जब उनसे कोर्स के अलावा बाल-साहित्य की किताब पढ़ने का सवाल किया गया, तब भी ऐसी ही निराशा हाथ लगी। उस आयोजन का विषय था, ‘मेरी पसंद की किताब’। और जब औपचारिक आयोजन हुआ, बच्चों ने एक से बढ़कर एक प्रस्तुतियाँ दीं तथा कितनी ही पुस्तकों का नाम लेकर उनकी महत्ता बताई गई। स्वाभाविक था कि बच्चों को माता-पिता या शिक्षकों को जो कुछ लिखकर दिया, बच्चों ने प्रस्तुत कर दिया। जब प्रस्तुतियों में से चुनकर बच्चों को पुरस्कार दिए गए तो मुख्य अतिथि ने कहा कि बच्चो, आपने जिन पुस्तकों के विषय में इतना अच्छा बोला है, उन्हें पढ़ भी लीजिएगा।

निश्चय ही इतने वर्षों बाद स्थिति में कोई बदलाव आ गया होगा, ऐसा प्रतीत नहीं होता। मोबाइल के आने के बाद से स्थितियाँ बिगड़ी ही हैं। सबसे बड़ा संकट तो यही है कि कोई ऐसी बाल पत्र‌िका नहीं है, जो घर-घर पहुँचे। बाल-पत्रिकाओं से ही बच्चों के मन में साहित्य के प्रति अनुराग पनपता था, जिज्ञासाओं का समाधान होता था तथा अच्छे संस्कार बनते थे। अब चैनलों से, सोशल मीडिया से जिस प्रकार अपसंस्कृति और फूहड़ता और अश्लीलता की बारिश हो रही है, उसके दुष्प्रभाव बाल एवं किशोर अपराधों में भयावह वृद्धि के रूप में महसूस किए जा सकते हैं। हिंदी के प्रकाशकों, रचनाकारों, सामाजिक संस्थाओं को इस गंभीर प्रश्न पर अवश्य विचार करना चाहिए कि बच्चों को साहित्य की ओर कैसे मोड़ा जाए।


(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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