सत्यानाशी

सत्यानाशी

‘सत्यानाशी’ यह भी कोई नाम हुआ? बड़ा ही अजीब नाम है, इसका। फिर जिसका नाम ही ‘सत्यानाशी’ हो, उससे कोई क्या उम्मीद रखेगा?

पर ऐसी बात नहीं है कि इस कलयुग में नाम के अनुकूल ही हर किसी का व्यवहार और व्यक्तित्व भी हो। तब तो यह हमारी ‘जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् ‘जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् है’ इसकी सार्थकता कब की सिद्ध हो चुकी होती! पर हमारी वसुंधरा को कम-से-कम इस युग में तो ऐसे सौभाग्य की संभावना नहीं ही दिखती है और आगे की बात कुछ कही नहीं जा सकती है।

वसंत के सुखद आगमन के साथ ही खेत-खलिहानों से लेकर सड़क के किनारे, मैदानों में, परित्यक्त स्थानों में अर्थात् सर्वत्र खर-पतवार के रूप में यह छोटा सा हरीतिमायुक्त कंटक कुल ‘सत्यानाशी’ पौधा दिख ही जाता है। कैसी विचित्र बात है कि यह अपने सर्व अंग पर कंटक को धारण किए हुए भी शिशु सदृश दुनियादारी से विमुख रहते हुए सर्वदा प्रसन्नचित्त लहलहाता ही दिखता है। नीचे से ऊपर तक हरीतिमा युक्त चौड़े, परंतु खंडित पत्तों को और अपने शीर्ष पर वासंती पीले रंग के पुष्पों की पगड़ी धारण किए हुए यह अत्यंत ही आकर्षक लगता है। पर अपने काँटेदार स्वरूप के कारण यह सर्व त्याज्य है। संभवतः इसीलिए इसे ‘सत्यानाशी’ जैसी तिरस्कृत संज्ञा प्राप्त हुई है।

भले ही इसके तन पर चतुर्दिक् काँटों का अधिवास हो, पर इसका अंतः अत्यंत कोमल-मृदुल होता है। इसके किसी भी भाग को तोड़ने से स्वर्णधार स्वरूप पीताभ रस निकलता है। कितनी कठिन तपस्या है, अपने आप पर चतुर्दिक् काँटों को धारण करके भी निरंतर मुसकराते रहना और दूसरों को भी मुसकराने की प्रेरणा देते रहना। यह कुछ महीने की अपनी सीमित जीवन-लीला को क्रोध-नफरत में नहीं, बल्कि सौंदर्ययुक्त मधुर मुसकान में ही बिताना श्रेयकर मानता है। वसंत ऋतु के सुखद दिनों के आगमन के साथ ही यह धरती पर अवतरित हो जाता है, पुष्पित होता है और शुष्क फगुनाहट के पश्चात् तो अपने हरित हाथों में चौकोर फलों को धारण कर लेता है। फिर चढ़ते वैशाख माह में ही अपने सीमित जीवन-चक्र को पूर्ण कर सूखकर काँटेदार कंकाल बन जाता है। यह अपने फलों में राई सदृश छोटे-छोटे काले-काले रंग के अनगिनत बीज को संजोए रहता है। फिर भी व्यक्तित्व और व्यवहार के विपरीत इसका नाम तो अजीब ही है न, ‘सत्यानाशी’।

सच पूछिए तो आखिर नाम में ऐसा रखा ही क्या है? नाम तो सामाजिक परिचय का एक आधार मात्र ही है, और कुछ नहीं। ‘रामभज’ और ‘कृष्णदास’ नामधारी भी नास्तिक देखे जा सकते हैं। धर्म, पूजा-पाठ आदि से उनका दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं भी हो सकता है। जबकि गरीबदास धनाढ्य सेठ हो सकता है और लखपतिया दाने-दाने के लिए मोहताज हो सकता है। अब मेरे ही एक ग्रामीण का नाम ‘गनऊरी’ है। ‘गनऊरी’ का शाब्दिक अर्थ को पुस्तकों में ढूँढने का बहुत प्रयास किया, पर न मिला। ग्रामीणों से ही पता चला कि ‘गनऊरी’ शब्द में ‘गनऊरा’ मूल शब्द है और ‘ई’ प्रत्यय युक्त हुआ है। ‘गनऊरा’ घर-आँगन के बुहारन से प्राप्त वर्ज्य पदार्थों को कहा जाता है, जिसे ग्रामीण अंचल में घर के बाहर कोई निश्चित स्थान पर एकत्र कर रखा जाता है, जिसे बाद में खेतों में खाद के रूप में फैला दिया जाता है। फिर भी किसी भले आदमी का नाम ‘गनऊरा’ या ‘गनऊरी’ कहाँ तक सार्थक है? भला कोई ‘गनऊरा’ से या उसपर से कैसे पैदा हो सकता है? ग्रामीणों के द्वारा ही पता चला कि उनके जन्म के पूर्व उनके दो सहोदर, जन्म के पश्चात् ही मर गए थे। तब ग्रामीण टोटके के अनुरूप जन्म के साथ ही नवजात को ‘गनऊरा’ पर फेंक देने, फिर वहाँ से उसे अपना लेने की सलाह दी गई। अब कोई भला अपने नवजात शिशु को ‘गनऊरा’ पर क्योंकर फेंकेगा? हाँ, उन्हें ‘गनऊरा’ पर कुछ पल के लिए अवश्य सुरक्षित रख दिया गया होगा, जहाँ से उसके पिता उसे उठाकर अपने कलेजे से लगा लिए होंगे। लेकिन माना यही गया कि उन्हें ‘गनऊरा’ से प्राप्त किया गया है। अतः प्राप्ति स्थान के अनुकूल ही ‘गनऊरी’ शब्द ही उनके नाम का पर्याय बन गया है और यही ‘गनऊरी’ नाम पर समाज ने भी अपनी मुहर लगा दी है। अब तो उस पर सरकारी प्रशासनिक मुहर भी लग चुकी है। पर नाम के विपरीत ग्रामीण संस्कृति के अनुकूल ही वे दिल के बहुत ही भले इनसान हैं।

आज ही मेरे कुछ मित्रों में इस लघु काँटेदार पौधे को देखकर इसके नाम को लेकर कुछ खिच-खिच हो गई। मेरे कुछ बनारसी मित्र हैं, वे तो इसके ‘भड़भांड’ और ‘भटभटवा’ के नाम पर ही अड़ गए। जबकि एक बंगाली मित्र ‘शियालकाँटा’ और ‘बड़ो सियालकाँटा’ नाम पर अड़ा रहा। इसी तरह से गंगा दियरा क्षेत्र के एक मित्र ने इसे ‘धमोई’ नाम से पहचाना। फिर मन में आया कि क्या इसके नाम को केवल अपने अभी मौजूद मित्रों द्वारा स्वीकृत नामों तक ही सीमित रखें? कदापि नहीं। बल्कि यह पौधा तो पूरी भारत भूमि का है। विदेशों में भी इसकी उपस्थिति है। ऐसे में जिन प्रांतों के लोग मेरे इर्द-गिर्द मौजूद नहीं हैं, उनकी बातों को भी तो सम्मान रखना सामाजिकता ही है। अतः उनके समाज द्वारा इसके अंतः और बाह्य‍ स्वरूप के अनुकूल स्वीकृत नाम यथा, स्वर्णक्षीरी, कटुपर्णी, काँटेधोत्रा, दारुड़ी, सियालकाँटा, इट्टूरी, कुडियोट्टी, दात्तुरी आदि नामों को क्योंकर नजरअंदाज कर देवें? नाम में व्यक्ति या वस्तु की क्षेत्रीयता की मिठास होती है। अपनत्व का आविर्भाव होता है। अपने विचारों के आरोपण में कम से कम वक्ता को अंतः संतुष्टि तो अवश्य ही प्राप्त होती है।

हो सकता है कि यह काँटे व झाड़ीदार ‘सत्यानाशी’ अपने काँटेयुक्त सर्ववाह्य‍ अंगों से दूसरों को केवल नुकसान ही पहुँचाता रहा हो। पर यह दूसरों को नुकसान पहुँचाने दौड़ा थोड़े ही जाता है। अब अगर स्वयं ही कोई आकर इससे जबरन रगड़ा करने लगे, तो फिर यह बेचारा क्या करे? आखिर एक चींटी को भी अपनी जान प्यारी होती है। वह भी आत्मरक्षा के लिए दूसरों को काटती है। फिर तो दुर्भाग्य का मारा यह बेचारा ‘सत्यानाशी’ आदमी ही क्या, बल्कि पशु-पक्षी आदि से भी पूर्णतः उपेक्षित और अस्पर्शीय ही रहा है। लेकिन इसके उन्नत शिखर पर वसंती पाग की तरह इसके पीताभ पुष्प अत्यंत ही सुंदर होते हैं। दूर से ही सहृदय के मन को अपनी ओर आकृष्ट कर पाने में पूर्ण सक्षम होता है। तन न सही, पर सुंदर पुष्पों के आधार पर तो इसे कोई सुंदर व्यंजक नाम दिया जा सकता था। पर यह काँटों से युक्त पीताभ सुंदर पुष्प वाला झाड़ीदार पौधा वनस्पति जगत् में भी अत्यंत ही तुच्छ और उपेक्षित ही माना जाता है। फिर भी इसका सामाजिक तिरस्कार कहाँ तक उचित है? कम-से-कम वर्तमान सामाजिकता के परिप्रेक्ष्य में, जहाँ किसी को भी जातिगत सूचक संज्ञा से इंगित नहीं कर सकते हैं, वह अपराध की श्रेणी में आ जाता है।  

मध्यकालीन संत शिरोमणि महात्मा कबीरदास भी इसी ‘सत्यानाशी’ के समान ही तत्कालीन शासक वर्ग, धर्माचार्यों और महजबियों के लिए त्याज्य तथा उपेक्षित। वाह्य‍ दृष्टि से वे भी अपने कठोर वचनों सदृश्य काँटों से सुसज्जित ही तो थे, जिन्हें चाह कर भी तत्कालीन क्रूर शासक सिकंदर लोदी तक स्पर्श तक न कर सका। धर्म के ठेकेदार बने घूमते-फिरते पंडितों और मुल्लाओं को भी उनके काँटे निरंतर चुभते ही रहें। पर ऊपर से काँटे की तरह कठोर और तीखा दीखने वाले कबीर के अंतः में भी अनगिनत कोमल पीले-पीले सुंदर पुष्प खिले हुए थे, जो साधारण जन-मानस के संतप्त हृदय को शीतल तृप्त किया करते थे। इसी ‘सत्यानाशी’ की भांति ही उनके अंतः में भी स्वर्णिम पीताभ-रस प्रवाहित होते ही रहते थे, तभी तो वह बाह्य‍ रूप से इतने कठोर और तीखे थे।    

काँटेदार तो गुलाब भी होते हैं, पर उसे तो कोई तिरस्कृत नाम से नहीं पुकारता। उसके पुष्पों के आधार पर उसे सुंदर और सर्वग्राह्य‍ ‘गुलाब’ नाम प्राप्त है। उसे घर-आँगन, बाग-बगीचों तथा जन संकुलता के बीच श्रेष्ठतम स्थान प्राप्त है। लोग उसे अपने कोट या फिर उपरी जेब में लगाते हैं। तो फिर इस काँटेदार पौधे को क्यों नहीं प्रेम प्राप्त है? खैर, यह तुच्छ और उपेक्षित पौधा मनुष्य जाति के समान ही चिंतनशील या विवेकशील नहीं है, वरना यह भी अपने प्रति उपेक्षा के विरोध में जब-तब सड़कों पर, रेल की पटरियों पर और संसद् भवन के सामने अपने दल-समूह के साथ भूख हड़ताल पर ही बैठ जाता। क्या किया जाए, मानवीय मानसिकता ही ऐसी है!

हाँ, एक बात समझ में आती है कि अनावश्यक रूप से अवसर-बेअवसर यत्र-तत्र दीखने वालों को समाज में कभी सम्मान प्रदान नहीं किया जाता है। उसे तो मिट्टी का भाव भी नसीब नहीं हो पाता है, बल्कि शानो-शौकत से रहने वालों को, नेता-अभिनेता की तरह दिखावे की जिंदगी वसर करने वालों को और बहुत इंतजार कराने वालों को ही समाज विशेष सम्मान प्रदान करता है। चाहे उनका अंतः कितना ही मैला क्यों न हो। झूठ और अभिनय अति आकर्षक हुआ करते हैं। अतः लोग उनसे ज्यादा धोखा खा जाते हैं। लोगों में सच की सामना करने की क्षमता तो होती नहीं है, क्योंकि सच तो कड़वा, कठोर और तीखा ही हुआ करता है। तथाकथित टोपीधारियों, श्वेत वस्त्रधारियों और तंदुल उदर वालों को गरीब किसान-मजदूर कभी नहीं सुहाते हैं, क्योंकि उनके काँटेदार कंकाल शरीर बदबूदार पसीने से सने होते हैं। पर उस बदबूदार पसीने से ही सने उनके उत्पादनों का व्यापार कर तथाकथित तंदुल लोग, गांधी-टोपियों और श्वेत वस्त्रों को अपमानित करते फिरते रहते हैं। उनके खून-पसीने से ही उनके तंदुल उदर की पूर्ति होती है।

लोग अकसर काँटे को देखकर दूर भागते हैं, अर्थात् सच से भी वे अनायास दूर भाग जाते हैं। जबकि सत्य ठोस होता है, कठोर होता है, पर वह कोमलता का अभिनय और धोखे का व्यापार कदापि नहीं करता है। अतः उससे धोखा खाने जैसी विकृत संभावना बहुत कम ही होती है। अपने घुमक्कड़ जीवन को निचोड़कर ‘अज्ञेयजी’ ने भी काँटे के कठोर और तीखे स्वभाव से आकर्षित होकर उसकी सत्यता को स्वीकार किया है—

काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है।

मैं कब कहता हूँ, वह घट कर प्रांतर का ओछा फूल बनें?

यदि आप भी इस ‘सत्यानाशी’ के वाह्य‍ काँटेदार स्वरूप को देखकर विचलित हो गए हैं, तो संकुचित हृदय वाले आप भी जरूर धोखा खा गए। सच तो यह है कि इस ‘सत्यानाशी’ पौधे के पंचांग (जड़, तना, पत्ते, फूल और फल) विशेष औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते हैं। अतः यह आयुर्वेदिक चिकत्सा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। कितना भी पुराना घाव, जख्म, खुजली या फिर कुष्ठ रोग क्यों न हो, ‘सत्यानाशी’ उसे समूल दमन करने में पूर्ण सक्षम है। इसके अतिरिक्त कफ-पित्त जनित दोष, मांसपेशियों में सूजन, बुखार, अनिद्रा की परेशानी, पेशाब से संबंधित विकार, पेट की गड़बड़ी, आँखों की रतौंधी, चर्म जनित सफेद दाग, साँस संबंधित बीमारी, खाँसी-दमा, पेटदर्द, जलोदर, पीलिया, मूत्र-विकार, विसर्प रोग, रक्तस्राव, नपुंसकता, मलेरिया आदि के लिए भी यह काफी फायदेमंद है। एक साथ इतनी बीमारियों का निदान, वह भी एक साधारण तुच्छ और उपेक्षित पौधे से। कहीं यह ‘रामकथा’ से संबद्ध ‘संजीवनी’ से तो संबंधित नहीं है! फिर भी पता नहीं बुद्धिजीवी लोग अपने आदतन इसे ‘सत्यानाशी’ विशेष्य ही क्यों प्रदान किए हुए हैं?

२४, बन बिहारी बोस रोड,

हावड़ा–७१११०१ (पश्चिम बंगाल)

दूरभाष : ९०६२३६६७८८

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